एक भाषायी सफ़र और चंद नुस्ख़े / रविकान्त
दो तजुर्बे इस सफ़र के ऐसे हैं, जिन्हें ज़्यादातर पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानियों ने भी किया होगा: लिहाज़ा उन्हें पहले ही झटके में निकाल दूँ: एक तो ये कि हम सब कमोबेश बहुभाषी हैं। हमारी सांस्कृतिक-सामाजिक और भौगोलिक अवस्थिति कुछ ऐसी है कि हमारा काम एक भाषा से चल नहीं सकता, और जो एक से ज़्यादा ज़बानें नहीं भी सीख पाते वे आस-पड़ोस की भाषाओं से मुठभेड़ होने पर भौंचक या विचलित नहीं होते। वे सहज लेन-देन करके अपने गुलशन का कारोबार चलाए रखते हैं। दूसरी, और भी सामान्य बात, भाषाओं से हमारा रिश्ता एक साथ परम वैयक्तिक होता है तो चरम सामाजिक भी। यानी हम सामूहिक और निजी दोनों ही धरातलों पर भाषाओं में, उनके साथ, उनके लिए और कभी-कभार उनके बग़ैर भी जीते हैं। अपनी ख़ास ऐतिहासिक विरासत या लालन-पालन, पढ़-लिख व उठ-बैठ के चलते उनसे हमारा ऐसा अस्मिताई तादात्म्य हो जाता है कि भाषा की सामाजिक हैसियत को लेकर निहायत निजी तौर पर भावुक और अगर कोई विपरीत बात कह दे तो उससे रुष्ट तक हो लेते हैं। इस बात को कहनेवाले भी, जैसे कि यहाँ मैं, इस आम स्थिति के अपवाद नहीं हैं।
कहाँ से शुरू करूँ कि यह सफ़र अभी ख़त्म नहीं हुआ, ये बात और है कि कई पड़ावों से गुज़र चुका है। इसलिए उन मरहलों, उनमें अपनी भूमिकाओं और अपने भाषाई कशमकश की कहानी नया पथ के फ़रमाइशी कार्यक्रम के तहत मुख़्तसर में कहे देता हूँ। मेरी मातृभाषा मगही है, एक ऐसी अभागी भाषा, जिसमें कभी कोई छपा पन्ना या कोई विरल किताब देखकर पल-भर के लिए पुलकित हुए बिना नहीं रह पाता, और अगले ही क्षण उदास भी हो जाता हूँ कि इतना ही क्यों मिलता है। लेकिन देश-दुनिया की दशा पर छाती कूटना मेरी फ़ितरत नहीं, लिहाज़ा आगे बढ़ जाता हूँ, अपने फ़ौरी कामों में, अपने मौजूदा वर्तमान में, यह सोचते हुए कि कभी न कभी तो कोई न कोई मौक़ा ज़रूर मिलेगा जब मैं कुछ कर पाऊँगा, 'अपनी' मादरी ज़बान के लिए! फिर मेरी मौजूदा भाषाई रियाज़तें ही मुझसे पूछने लगती हैं कि ये अपनी ज़बान क्या होती है? मिसाल के तौर पर क्या छत्तीसगढ़ी, मैथिली, मलयालम या कुमाऊँनी मेरी अपनी भाषा नहीं है? क्या संस्कृत या उर्दू या फिर अंग्रेज़ी मेरी भाषा नहीं है? उन भाषाओं को भी तो लोग ही बोलते हैं, जिन्हें मैं नहीं जानता, जिनसे बात करने के लिए मैं कभी हिन्दी तो कभी अंग्रेज़ी, और उनसे काम नहीं चलता तो अटकलों का सहारा लेता हूँ। इतना ठहरकर सोच लेने के बाद अपनी भावुकता हास्यास्पद लगने लगती है। थोड़ा और गहरे उतरने पर बोलियों, मिसाल के तौर पर 'अपनी' मगही, की विशाल मौखिक संपदा आशान्वित करती है कि उनका भविष्य काफ़ी हद तक महफ़ूज़ है, क्योंकि भविष्य में उन्हें जीवित रहने के लिए लिखित होने की ज़रूरत नहीं रह जाएगी।
बहरहाल, मगही तो मैं अपने परिवार व गाँव-जवार के लोगों के साथ, यदा-कदा ही बोल पाता हूँ, पर जब भी अवसर मिलता है अच्छा लगता है, बोलने-बतियाने में मज़ा आता है, सुनने में और भी - चैता, होली, निर्गुण, कजरी, सोहर, शादी, छठ, नौटंकी, आल्हा या फिर मोहर्रम के मौक़ों पर गायी जानेवाली झरनी या नौहे - आपको अपने ही अस्तित्व की अबूझ गहराइयों में ले जाते हैं। जब मेरे गाँव की 'हिन्दू' बहुसंख्यक आबादी साल-दर-साल ताज़िया उठाते हुए अभी-भी यह गाती है कि 'हिन्दुआ के जतिया सैयद बड़ी धोखेबजवा, रैनिया चढ़ाके धोखवा देहै जी' तो सारा किताबी ज्ञान धरा रह जाता है, और जिस भाषा की खूँटी पर मैं ये लंबा वितान खींच रहा हूँ, वह निहायत निरर्थक लगने लगती है। बहरहाल वाक् और अर्थ का ही तो व्यायाम है हमारा जीवन इसलिए एक छोटे-से वाक़ये के बाद मैं मगही की ये दास्तान बंद करके आगे बढ़ूँगा क्योंकि अब मैं बड़ा हो रहा हूँ, और बाक़ायदा हिन्दी माध्यम में पढ़ाई करता हूँ, और छुट्टी-छपाटी में ही मगहियों के बीच जा पाता हूँ। उन्हीं छुट्टियों में से एक में ऐसे ही गली में अनौपचारिक बैठकी लगी हुई थी कि एक बड़े भाई ने बरसात में दीवार भीग जाने के चलते गोयठा(उपला) थापने की जगह की 'किल्लत' का ज़िक्र किया। इस लफ़्ज़ से यह मेरी पहली मुलाक़ात थी, तो मैंने सहज भाव से पूछ लिया कि 'किल्लत माने की होबो है'? जिस पर सारी बैठकी अविश्वास में हँसने लगी कि मेरे-जैसा पढ़ने-लिखने वाला - बल्कि तब तक ही शायद उन सबमें सबसे पढ़ा-लिखा! - आदमी किल्लत नहीं समझता। मेरे बहुत भरोसा दिलाने के बाद मुझे उसका मतलब समझाया गया!
अजीब बात है कि किंवदंतियों को बाद कर दें तो सचेत होने के बाद भाषा के साथ मुठभेड़ की पहली निजी याददाश्त संस्कृत से जुडती है, और वह बड़ी सुखद है। हमारा विद्यालय बेसिक माध्यमिक विद्यालय था, आज के झारखंड के पलामू ज़िले में महुआडाँड़ नामक जगह में स्थित, जहाँ के आदिवासी उच्च विद्यालय में बाबूजी हिन्दी-अंग्रेज़ी पढ़ाते थे, और बहैसियत स्पोर्ट्स टीचर खेलाते भी थे। कभी-कभार मुझे भी अपने साथ ले जाते थे, और देर होने पर जब जन-गण-मन शुरू हो जाता तो उसकी ध्वनि जैसे ही हमारे कानों में जाती हम वहीं रास्ते में ठमककर सावधान हो जाते थे। कहते हैं कि उन्हीं के विद्यालय में उनके सहयोगियों की मदद से मुझे पढ़ना आया: अक्षर नहीं, एकबारगी शब्द और जुमले ही। बहरहाल मुझे याद है कि जब तीसरी में था तो एक नई प्रार्थना मेरे अपने स्कूल में लगायी जानेवाली थी, और हम सबको उसे कंठस्थ करना था: 'नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपं', जिसे मैंने रामचरितमानस से निकलवाकर अपने क्लास में सबसे पहले रट लिया था, इसलिए औरों को रटाने का काम किया करता था - 'पाँच का पढ़ा दा गुरुभइयो, गुरुछात्रो' वाले अंदाज़ में- जी हाँ अपने 'बोरिया' विद्यालय में हम पहाड़ा ऐसे ही पढ़ते थे, शिशिक्षु छात्र अपने गुरुभाइयों से पाँच का पहाड़ा पढ़ाने की गुहार यूँ ही लगाता था, और कोई एक सहपाठी आगे-आगे बोलता जिसे पूरी कक्षा दोहराती। रटने पर मैं इतना बल इसलिए दे रहा हूँ कि उस प्रार्थना को तो आज भी बग़ैर कोश के पूरी तरह नहीं समझ पाऊँगा। पता नहीं उसी क़स्बे में चल रहे मिशनरी स्कूल से स्पर्धा की भावना थी या हमारे शिक्षकों का ही ऐसा कोई संस्कार कि शिव की यह किंचित असाध्य प्रार्थना चुनी गई थी। इतना ज़रूर है कि उसकी संगीतमय धुन बड़ी प्यारी लगती थी, बल्कि अब भी जब-तब गुनगुना लेता हूँ। स्मृतियों के भी कोई संस्कार ज़रूर होते होंगे, नहीं तो वे आपसे ऐसी फ़ेविकोलीय प्रतिबद्धता से भला क्यों चिपके रहते?
बचपन की यादों में हिन्दी से जुड़ी कोई ऐसी ख़ास बात नहीं है, कि हिन्दी आबोहवा की तरह हो गई थी, ऐसा सोचता हूँ। हाँ, अंग्रेज़ी की बात और है, जिससे मेरा पाला पहली बार छठे दर्जे में पड़ा। जाड़े की गुनगुनी धूप में बाहर दरी पर बिठाकर हमें एबीसीडी हरदेव माट्सा ने लिखाया और पढ़ाया। स्नेह उड़ेलने की उनकी अपनी विशिष्ट शैली थी: 'इसके बाप को पढ़ाया, इसके चचा को पढ़ाया, इसके भाई को पढ़ाया, अब इसको पढ़ा रहा हूँ', वे कहते जाते और सट्टी से हल्के-हल्के हाथ पर वार करते जाते। सोचता हूँ, वे बुआओं और बहनों का ज़िक्र क्यों नहीं करते थे, उन्हें भी पढ़ाया तो था ही। और जब वे कोई अंग्रेज़ी पाठ पढ़ाते तो हर शब्द का हिन्दी अनुवाद करते जाते थे, जैसे 'हेलो मेरी, ह्वेयर आर यू कमिंग फ़्रॉम?' को वे कैसी हो मेरी, कहाँ से आ रही हो, कहते। फँसते तब थे जब 'हलो जॉन, हाउ आर यू' आता था! गाँव में तो ख़ैर हिन्दी माध्यम में अंग्रेज़ी पढ़ाई ही जाती थी, कभी-कभी मगही में भी ताकि कहीं कोई भ्रम न रहे।
पाठचर्या में अनुवाद और व्याकरण पर ख़ासा ज़ोर था - मध्य विद्यालय से ही ख़ूब अभ्यास कराया जाता था, और मुझे लगता है कि अभी-भी बिहार से छपने वाले अंग्रेज़ी व हिन्दी के व्याकरण अपना सानी नहीं रखते। पर अनुवाद के ज़रिए अंग्रेज़ी सीखने पर कभी-कभार चुटकुलों वाली स्थिति भी पैदा हो जाती। एक बार अनुवाद मिला था हमें - बाबूजी ने ही दिया था, चूँकि मैं तब हरिजन आवासीय उच्च विद्यालय में उनके साथ पढ़ने लगा था - 'लाल बहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमंत्री थे'। ख़ैर वे तो ऐसे कई वाक्य देकर भूल गए थे, और हम हल करने में मशग़ूल हो गए। बीच में किसी ने उनसे शास्त्री की अंग्रेज़ी जाननी चाही। समझाया गया कि ये नाम है, इसको वैसे ही लिख दो। पूरा रहस्य तब खुला जब पता चला कि उसने 'रेड ब्रेव शास्त्री वाज़ द प्राइम मिनिस्टर ऑफ़ इंडिया' लिखकर दिया था! लब्बोलुवाब यह कि हमारे जैसे विद्यालयों में विद्यार्थियों की अंग्रेज़ी इतना ग्रैमर-ट्रांस्लेशन करने के बावजूद आम तौर पर कमज़ोर होती थी, बल्कि लोग अंग्रेज़ी से ठीक-ठाक ख़ौफ़ में रहते थे। इसलिए मुझे एक तरह से अपने बाबूजी पर पुत्रोचित फ़ख़्र होता था, जब वे कम-से-कम एक बार हर पाठ को अपनी सरल अंग्रेज़ी में अवश्य सुनाते थे, या जब हम उन्हें किसी मात्र-अंग्रेज़ी जाननेवाले से अंग्रेज़ी में बात करते सुनते थे - जो कि मेरे सामने तो दो-एक बार से ज़्यादा नहीं हुआ होगा। हाँ, हिन्दी हमारे घर में धाराप्रवाह बहा करती थी, ख़ास तौर पर तब जब दूसरे विद्यालयों से उनके विद्यार्थी ट्यूशन पढ़ने आते थे, और वे रस ले लेकर प्रसाद-निराला-दिनकर-बच्चन-महादेवी-सूर-तुलसी और प्रेमचंद के भाष्य पेलते होते। उनकी बातें इतनी कर्णप्रिय होतीं कि मैं भी बाज़ दफ़ा ऐसे मौक़ों पर भूल जाता कि मुझे दरअसल फ़लाने लड़के से उसकी सायकिल की चाभी लेकर मैदान में भागना था, क्योंकि साइकिल यानी गति का चस्का तब लगा ही था। कुल मिलाकर इस माहौल का असर कुछ यूँ हुआ कि साहित्य में मज़ा आने लगा, बाबूजी की किताबें ख़त्म हो जाने पर विद्यालय का पुस्तकालय चाटा जाने लगा और परीक्षा की तैयारी मानते हुए मैंने अपना पहला रतजगा - ऑलनाइटर, जिसकी बाद में आदत जैसी बन गई - दसवीं की पाठ्य-पुस्तक साहित्य सरिता को आद्योपांत पढ़कर ही किया। बेहतरीन संकलन भी था वह।
स्कूल से पटना कॉलेज आए, जो तब अपने भव्य भवनों, ऊँची छतों, गंगा के विस्तारों और दीर्घ-दीर्घायित गलियारों में अपनी पुरानी बौद्धिक इज़्ज़त को बचाए रखने की आख़िरी कोशिश कर रहा था। अंग्रेज़ी के प्राध्यापक बेहतरीन थे: एक से बढ़कर एक। मुझे अच्छी तरह याद है कि कोई शंकर दत्त हमें पढ़ाने आए थे, शायद ताज़ा ही गिरे थे जनेवि से, और भाई साहब उन्होंने ऐसी ऐक्सेन्ट मारी कि हमारी अक़्ल ठिकाने लग गई। लगा कि ग़लत जगह पर तो नहीं आ गए। फिर हौसला बाँधा कि चलो बाक़ियों को तो समझ ही लेते हैं। इनको भी देख लेंगे - वही हुआ, हमारे कानों को उनके उच्चारण का अभ्यास हो गया। संस्कृत पढ़ानेवाली प्राध्यापिका विदुषी थीं, तो प्राध्यापक सरस। हमने कुमारसंभव का पंचम सर्ग कंठस्थ कर लिया, और अभिज्ञानशाकुंतलम और स्वप्नवासवदत्तम भी मनोयोग से पढ़ा। हजारी प्रसाद द्विवेदी का उसी दौर में पारायण किया, बाक़ायदा कोश से लैस होकर, लेकिन यह संघर्ष अनुपम और चिरस्मरणीय रहा। इतिहास का अध्यापन मिला-जुला था - कुछ अच्छा कुछ बुरा, लेकिन यह अहसास होने लगा था कि अंग्रेज़ी में बेहतर संदर्भ पुस्तकें हैं, जबकि हिन्दी में सिर्फ़ कामचलाऊ पाठ्यपुस्तकें। और लड़कियों से छठे-छमाहे एकाध बार जब मिलना हो जाए तो अंग्रेज़ी में ही बातें करते थे, भले ही उसके लिए घंटो मौन रियाज़ चलते रहे हों। छात्रावासों की लिंगुआ फ़्रैन्का हिन्दी ही थी, वैसे लोग-बाग भोजपुरी, मैथिली और पटनिया मगही भी अक्सर बोलते पाए जाते थे। हम जान गए थे कि साहित्यकार तो संजीव जैसे लोग ही हैं, जिसको सारिका का युवा कहानी पुरस्कार मिल चुका था, अपन उनकी संगति का लाभ ले लिया करेंगे, रचना अपने बस की नहीं, साहित्य बस हमारे विनोद की वस्तु हो सकता था।
इन सब का मिला-जुला नतीजा ये गुज़रा कि जब हम दिल्ली आए - क्योंकि हमने तय कर लिया था कि अब पटना विश्वविद्यालय के पास हमें देने को कुछ ज़्यादा नहीं है - हाँ राजनीति और लट्ठबाज़ी करते होते तो और बात होती - और आनन-फ़ानन में सत्र शुरू हुआ और जब क्लास करने लगे तो हिन्दी और संस्कृत की कक्षाओं से घोर निराशा हुई, जबकि इतिहास में फ़ौरन लगने लगा कि कोई बात तो है, जो वहाँ छूट रही थी। पढ़ना शुरू कर दिया, मेहनत से ट्यूटोरियल लिखना भी, दिखाने से शिक्षक भी प्रसन्न हुए और हम गदगद, कि अब क्या है देख लेंगे। वैसे हिन्दी में लिखते रहने का विकल्प था, पर टेढ़ा था: सारे व्याख्यान अंग्रेज़ी में, किताबें लगभग सारी की सारी अंग्रेज़ी में। अब अगर तर्जुमा ही करते रहते तो ज़िन्दगी के और ज़रूरी काम कैसे कर पाते! लिहाज़ा पाला बदलकर अंग्रेज़ी माध्यम वाले हो गए। कम-से-कम लिखने के स्तर पर, बोलने में तो बहुत बाद में जाकर, कितनी सखियों(हमारे जैसों में एक चुटकुला था कि लड़कियों से मिलते रहना चाहिए, चाहे 'सीन' बने न बने, इश्क़ हो न हो, हम अंग्रेज़ी बोलना ज़रूर सीख जाएँगे!) और सखाओं(एक और चुटकुला: जब हम अंग्रेज़ी फ़िल्में देखने जाते थे तो अपने 'अंग्रेज़' दोस्तों से कहकर रखते थे कि भई पहला 15 मिनट देख लेना, ज़रा इंटरप्रेटेशन चाहिए होगा, फिर हम लीक पकड़ लेंगे!) की चिरंतन सोहबत के बाद ढीठ हो पाए। पर लिखना भी इतनी आसानी से आता क्या? चूँकि हमने गदगद होकर लिखना छोड़ दिया था, और सिर्फ़ पढ़ने लगे थे, तो पहली परीक्षा के पहले वाली रात को आत्मविश्वास का संकट आ धमका। नींद ही न आए जब तक कि अपने उस सीनियर मित्र के कमरे में न जा लेटे जिसने पहला ट्यूटोरियल देखकर कहा था कि साफ़ लिख लेते हो!
तो इतिहास वग़ैरह तो चलता रहा, हम बीच-बीच में साहित्य पढ़ने और गुनने के लिए भी समय निकाल लेते थे, पर बहुत जल्द हमारी हिन्दी को एक गहरा सदमा पहुँचा। हिन्दू कॉलेज में चुनाव का दौर आया, हमलोग तो अब तक राजनीतिक रंग में रँग चुके थे। एसएफ़आई के हमारे कई साथी लड़े, हम भी लड़े और मैंने तय किया कि हिन्दी में ही प्रचार भी करूँगा। तो दिल्ली विश्वविद्यालय का मेरा पहला भाषण यूँ हुआ कि मैं जोशो-ख़रोश में रसायनविज्ञान विभाग के साथियों के बीच बोल तो गया, तालियाँ भी बजीं; उन्होंने कहा, आप बोल बहुत अच्छा रहे थे, बस हमें समझ में नहीं आया कि क्या बोल गए! (तो वह दिन और आज का दिन – जिस दिन अपनी बात न समझा पाऊँ तो लगता है कि गोलीबाज़ी की है!) इस तरह मैं दिल्ली की ग़ैर-तत्समप्रधान भाषाई ज़मीन पर औंधे मुँह गिरा। लगा हमें अपनी हिन्दी को अनुकूलित करना होगा, अगर हम मिसाल के तौर पर मज़दूरों से बात कर रहे हों, या फिर किसी राजनीतिक-सामाजिक वर्कशॉप में कार्यकर्ताओं के लिए मुक्त अनुवाद कर रहे हों तो हमारी हिन्दी तो चलने से रही। बाद में चलकर इन सबकी ट्रेनिंग एकदम फ़ील्ड में ही जाकर हुई जब हमने कुछ समय तक सीआईटीयू की दो पत्रिकाओं का अनुवाद किया, या सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलन की सभाओं में शिरकत की। लेकिन सरलता का मामला इतना सीधा नहीं है। शायद आप भी इस बात की ताईद करेंगे कि अनुवाद के मामले में लोगों की अपेक्षाएँ अजीबोग़रीब और एक हद तक नाजायज़ क़िस्म की होती हैं। वे अंग्रेज़ी में तो मर्ज़ी मुताबिक़ भारी-भरकम अल्फ़ाज़ और पेचीदा जुमले कसते चले जाते हैं, पर हिन्दी में तर्जुमानी के वक़्त उम्मीद होती है कि बातें सहल-सुबोध और सुपाच्य परोसी जाएँ!
बहरहाल अनुवाद की जिस दैनंदिन मुसीबत से मैं विद्यार्थी जीवन में अंग्रेज़ी की पूँछ पकड़कर जैसे-तैसे तैर निकला था, वह पढ़ाने के समय इतनी आसानी से टलनेवाली नहीं थी। पढ़ते समय तो हमारी हिन्दी-अंग्रेज़ी की मिश्र टोली मिल-जुलकर एक-दूसरे के काम कर दिया करती थी; किसी ने कोई किताब पढ़ ली तो सबको समझा देगा, कोई ट्यूट बना देगा, कोई आवश्यकतानुसार हिन्दी भी कर देगा, और परीक्षा के झोंके में सब-कुछ हँसते-खेलते हो भी जाता था। पर पढ़ाने का मामला टेढ़ा था। पहली बार यह अहसास हुआ कि दिल्ली विश्वविद्यालय में इतने सारे विद्यार्थी हिन्दी माध्यम में इतिहास पढ़ते हैं। और संसाधन के नाम पर तब तक हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय की बहुधा बुरी तरह अनूदित पाठ्यपुस्तकों के अलावा ज़्यादा इज़ाफ़ा नहीं हुआ था।(पिछले आठेक सालों में स्थिति थोड़ी बेहतर ज़रूर हुई है: ग्रंथशिल्पी, राजकमल, वाणी और संवाद जैसे प्रकाशनों ने कई बुनियादी किताबें मुहैया करा दी हैं, लेकिन तुलनात्मक तौर पर भाषायी खाई तो लगातार बढ़ती ही जाती है न, चूँकि स्रोत भाषा का विमर्श भी तो वहीं बैठा नहीं रह जाता जहाँ वह अनुवाद के वक़्त था।) ख़ैर हमारा दौर इतना भी समृद्ध नहीं था, इसलिए हम अंग्रेज़ी की किताबें उठाते, और जैसे-जैसे पढ़ते जाते, उनके चुनिंदा अंशों का उलथा भी करते जाते। जहाँ अटकते वहाँ सही शब्द की तलाश में पूरी कक्षा की भाषायी ताक़त झोंक दी जाती। चीज़ें हम समझ तो लेते थे, पर पारिभाषिक पदावली के लिए फिर भी टापते रह जाते थे।
सरकारी प्रतिष्ठानों द्वारा तैयार किए गए पारिभाषिक कोश, जिन्हें इतनी मगज़मारी करने के बावजूद हम ख़ुद नहीं समझ पाते थे(वैसे भी हमारे लिए नाकाफ़ी या पुराने थे), तो दिल्ली विश्वविद्यालय के शेष शिक्षकों से, जिन्हें अंतत: विद्यार्थियों को मूल्यांकित करना था, क्या उम्मीद की जा सकती थी? हमारे बहुत-सारे विद्यार्थी मेरी ही पृष्ठभूमि से आते थे, फ़र्क़ यह था कि उनमें हिन्दी में लिखते रहने का स्तुत्य साहस बरक़रार था, या फिर वे अंग्रेज़ी में शायद उतने प्रगल्भ नहीं थे। पर उनमें से कुछ की हिन्दी तो लाजवाब कर देनेवाली थी, और मुझे उन्हें कई दफ़ा टोकना पड़ा कि अपुन को तो पढ़ने में मज़ा आ गया दोस्तो, पर तुम्हें एक परीक्षा पास करनी है, लिखते समय अपने लक्षित पाठक का भी थोड़ा-बहुत ख़याल रख लेना। अब सोचता हूँ कि काश तक़रीबन एक सौ कॉलेजों में फैले इन विद्यार्थियों और शिक्षकों की इस रोज़ाना की बौद्धिक मेहनत को कोई दर्ज कर पाए, काश कि यह संघर्षरत समुदाय अपनी ऊर्जा और अपने श्रमफल को ख़ुद एकत्रित कर पाए, काश कि वह एक साझे संसाधन का आगार बना पाए तो बुनियादी पाठ्य-सामग्री का मसला काफ़ी हद तक हल हो जाए। और यह इंटरनेट के ज़रिए संभव भी है, जो दिल्ली विश्वविद्यालय में सहज सुलभ है भी।
बढ़ती उम्र के साथ मेरे भाषायी सफ़र का एक सिरा विश्वविद्यालयी शोध से भी जा जुड़ता है। चूँकि साहित्य से सरोकार टूटा नहीं था, और सांप्रदायिकता को अकादमिक व राजनीतिक दोनों धरातलों पर समझने की दरकार बड़ी शिद्दत से महसूस करता था, तो कुछ जवाब जो इतिहास की किताबें नहीं दे पाती थीं, उन्हें अदब में ढूँढने लगा। विभाजन पर मंटो, कृष्णा सोबती, भीष्म साहनी, अमृत राय, राही मासूम रज़ा व इस्मत चुग़ताई को पढ़ते हुए कुछ हैरतअंगेज़ और दिशामोड़ू सबक भी हासिल हुए। मंटो से ता'रूफ़ की पहली कड़ी तो ख़ैर बहुत पहले मिल गई थी, जब हमने अपने जिन्सी ज़रूरियात के लिए लज़ीज़ व मांसल सामग्री पर हाथ साफ़ करने के चक्कर में उनके अफ़साने पढ़ने शुरू किए थे। पर शोध के दौरान मंटो की गहराई समझ में आने लगी। उसके अलावा नागरी में छपे इंतज़ार हुसैन और फ़ैज़ व इक़बाल सहित उर्दू के कई रचनाकारों को पढ़ने का मौक़ा मिला, और उनकी कृतियों ने जैसे हमारे अतीत का एक और चेहरा पेश किया। विभाजन की हिंसा के अक्स में राष्ट्रवाद का रक्तरंजित छद्म साफ़ उभर आया, और उसके सांस्कृतिक पसेमंज़र में भाषा का अस्मितामूलक विध्वंसक विमर्श भी नज़र आया। इस विध्वंस की निरर्थकता को आज भी समझने की कोशिश कर रहा हूँ - पर अपने ज़ेहन में मैंने हिन्दी-उर्दू या किसी भी तरह की संस्कार-प्रदत्त भाषायी दीवार को ढाह देने में सफलता हासिल की है, ये सोचकर ख़ुश हो लेता हूँ।
तो अंग्रेज़ी और हिन्दी में इतिहास पढ़ते-पढ़ाते और विभाजन की कहानियों का ऐतिहासिक भाष्य करते मैं सराय-सीएसडीएस में दाख़िल होता हूँ, और इसके अंतरानुशासनिक, बहुभाषी माहौल व मंसूबे से ख़ुद को मुतास्सिर पाता हूँ। सराय चूँकि नवसंचार-प्रेरित और एक हद तक कंप्यूटर और इंटरनेट के ज़रिए तथा उन्हीं पर विभिन्न तरह के काम करने की जनपदीय प्रतिबद्धता लेकर आती है, लिहाज़ा हम यहाँ हिन्दी कंप्यूटिंग के औज़ार जुगाड़ने में लग जाते हैं। याद कीजिए इस सदी के शुरुआती सालों को जब युनिकोड नहीं था और मुख़्तलिफ़ फ़ॉन्टों की ढेर-सारी छोटी-बड़ी दुकानदारियाँ थीं। कंप्यूटर को ख़ासोआम में टाइपराइटर मानकर चलने का रिवाज था। देसी भाषाओं में काम करने के लिए ऐसे फ़ॉन्ट थे जो एक दूसरे से बात नहीं करते थे। ऐसे कुंजीपट(कीबोर्ड) नहीं थे जो आपको बग़ैर टायपिंग सीखे काम करने की सहूलियत दें। तो चूँकि हमारे पास मुक्त सॉफ़्टवेयर का विकल्प था, हमने तय किया कि अपने औज़ार हम ख़ुद बनाएँगे, और जिसको जिस तरह की टायपिंग की आदत हो, उसे वैसी सहूलियत देंगे। चूँकि यही दशा कमोबेश अन्य भारतीय भाषाओं की थी और वहाँ भी तकनीक से जूझते लोगों का छोटा-मोटा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय था, तो हम नेट पर ईमेल या चैट के ज़रिए इकट्ठा होकर, अंग्रेज़ी में ही बात करते हुए, एक-दूसरे की मदद करने लगे। यूँ तो सरकार ने भारतीय भाषायी कंप्यूटिंग के नाम पर बड़े बड़े प्रॉजेक्ट चला रखे थे पर उनके काम में उलझनें ज़्यादा थीं, हल कम। भाषा प्रौद्योगिकी को लेकर बड़े-बड़े सैद्धांतिक बहस-मुबाहिसे थे, पर काम के औज़ार नहीं के बराबर। इसी संदर्भ में ख़ुद को इंडलिनक्स ( www.indlinux.org) के नाम से पुकारने वाला हमारा बहुभाषी स्वयंसेवी समुदाय छोटी-मोटी सहयोग राशि पर, या अवैतनिक तौर पर बड़े-बड़े काम करता गया। मिसाल के तौर पर हमने माइक्रोसॉफ़्ट के हिन्दी डेस्कटॉप के आने से पहले ही हिन्दी सहित कई भारतीय भाषाओं में डेस्कटॉप तैयार कर मुक्त जनपद में छोड़ दिए थे। भाषायी दृष्टि से एक और अहम बात यह हुई कि जहाँ सरकारी काम उसी पिटी-पिटाई विशेषज्ञ-केन्द्रित लीक पर चलता रहा, हमने जल्द ही समझ लिया कि कंप्यूटर वस्तुत: जनसंचार का औज़ार है, इसलिए इसके निर्माण में विशेषज्ञों के योगदान से ज़्यादा ज़रूरी है लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करना। जिस तरह सड़क के किनारे का मेकैनिक 'रेंच' जैसे लफ़्ज़ के लिए कुंजी, चाभी, या स्पैनर के लिए 'पाना' जैसे आमफ़हम या विकृत होकर स्वीकृत शब्द इस्तेमाल करता है, हमें भी उन्हीं सिद्धांतों पर अमल करना होगा। इसलिए रविशंकर श्रीवास्तव जैसे अनुवादकों ने लिनक्स पर चलने वाले केडीई या ग्नोम डेस्कटॉप का अनुवाद करते हुए इस बात का ख़याल रखा - और बची-खुची कसर हम समीक्षा के लिए आयोजित वर्कशॉप में पूरी कर लेते थे। इन कार्यशालाओं में हिन्दी बरतनेवाले पत्रकारों, विद्यार्थियों व दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी के उस्ताद-दोस्तों (विभास, संजीव, रामप्रकाश, बलवंत, आदि) ने हमेशा हमारे बुलावे पर आकर, बढ़-चढ़कर हमारी मदद की। लोगों से शब्दों का जुगाड़ करके हमने कुछ दिलचस्प लफ़्ज़ बनाए। अगर इंटरनेट से ही बात शुरू करें तो वर्ल्ड वाइड वेब का सराय के साथियों द्वारा किया गया अनुवाद जगत जोड़ता जाल था, लेकिन विश्व व्यापी वेब मुझे पसंद था, और लगता है कि ये चल भी गया है, इसलिए कि डब्ल्यू की ध्वनि सामान्य है। उसी तरह जब अंकुर के साथ एलएनजेपी नामक बस्ती में हमारा प्रॉजेक्ट शुरू हुआ तो हमने उसे सायबरमोहल्ला कहा, और उनकी प्रयोगशाला को कंप्यूघर यानी कंप्यूटर का घर। आप शायद मानेंगे कि कंप्यूटर को सरकारी अंदाज़ में संगणक कहते रहने की ज़िद बेकार है। कुछ और मिसालें: आपके ईमेल को चलानेवाले औज़ार में इनबॉक्स नामक डब्बा होता है, जिसे हमने आईडाक कहा, जिसका उल्टा आउटबॉक्स अर्थात गईडाक हुआ। इसी तर्ज़ पर सेन्ट मेल = भेजी डाक। बोर्ड गेम्स का तर्जुमा 'बिसाती खेल' तस्लीम हुआ। मॉनीटर अगर दरसपट कहा गया तो टचस्क्रीन के लिए उसी से मिलता-जुलता परसपट सूझ गया। 'पासवर्ड' के लिए हमने किसी उर्दू मंच पर चल रही बहस से 'सिमसिम' शब्द चुराया, जो आप याद करें तो 'अली बाबा चालीस चोर' नामक मशहूर कहानी के 'खुलजा सिमसिम' से आता है। उसी तरह हाल ही में रेड हैट नामक मुक्त सॉफ़्टवेयर कंपनी के बुलावे पर पुणे में कंप्यूटर-पदावली की समीक्षा करते हुए हमने कंप्यूटर के सुरक्षाचक्र यानी 'फ़ायरवॉल' को 'लक्ष्मण रेखा' कहना उचित समझा।
मज़े की बात यह है कि यह सारा काम सुझाव, समीक्षा, और पुनरीक्षण के लिए हमेशा मुक्त जनपद में पड़ा रहता है, और सॉफ़्टवेयर के अगले संस्करण में सुधार की गुंजाइश बनी रहती है। वैसे ही जैसे कि छोटी से छोटी भाषा या बोली चाहे तो पदावली को उठाकर अपने इस्तेमाल के लिए तर्जुमा ख़ुद कर सकती है, उसके पास हिन्दी या अंग्रेज़ी में काम करने की मजबूरी नहीं है, न ही उसे सरकार या बाज़ार का मुँह ताकने की दरकार पड़ेगी।(यानी कि मैं वह दिन देख रहा हूँ जब कंप्यूटर 'मेरी अपनी' मगही में बोलेगा और चलेगा।) एक और ग़ौरतलब बात यह है कि स्थानीयकरण के इस काम में हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत एक हद तक आधुनिक भारतीय भाषाओं के निर्माण का अपना इतिहास भी रहा है, जब भाषा का रूप, इसके व्याकरण, अक्षर-विन्यास, विराम-चिह्न आदि को स्थिर करने के सिलसिले में भाषा के विद्वानों और प्रयोक्ताओं ने पत्र-पत्रिकाओं के ज़रिए आम बहस-मुबाहिसे किए थे, और ये महत्वपूर्ण निर्णय बंद कमरों में महज़ विशेषज्ञों ने नहीं लिए थे। पब्लिक का सरकारी के अर्थ में शब्दश: अनुवाद और तत्जन्य सरकारमुखापेक्षिता तो शुद्ध उत्तर-औपनिवेशिक उपलब्धि है।
भाषा के क्रीड़ांगन में दो-चार हाथ दिखलाना लगभग हर इंसान जानता है, हमने बच्चों को अक्सरहाँ कुछ विलक्षण प्रयोग करते देखा होगा, क्योंकि वे व्याकरण के बंधन व शब्द-प्रयोग की विरासत से एक हद तक आज़ाद होते हैं। ये दीगर बात है कि कुछ लोग इस खेल को इतना साध लेते हैं कि मिसाल के तौर पर मनोहर श्याम जोशी बन जाते हैं। पर हमें अपने साहित्येतर बौद्धिक कार्यव्यापारों में भी इस तरह की बालसुलभ आज़ादी ख़ुद को देनी ही चाहिए, कम-से-कम रचना का मज़ा तो उसी में है। अनुवाद को अमूमन यांत्रिक और मनमारू काम माना जाता है, जबकि ऐसा है नहीं। ये एक जटिल रियाज़त है, रचनात्मक अभ्यास है, और अच्छा अनुवाद वही कहा जाएगा जिसको पढ़कर लगे नहीं कि अनुवाद है। अब साहित्यिक गद्य की तर्जुमानी फिर भी आसान है, पर समाजवैज्ञानिक गद्य इतनी आसानी से नहीं सधता। किसी भी अनुवादक के लिए पारिभाषिक कोश/समांतर कोश आदि अपरिहार्य होते हैं, जो कि हमारे पास बहुत अच्छे कभी नहीं थे। मुझे याद है कि अपने पूरे विद्यार्थी जीवन में हम फ़ादर कामिल बुल्के के अंग्रेज़ी-हिन्दी कोश पर निर्भर थे। पर लोकभाषा में रामकथा को परोसने वाले गोस्वामी तुलसीदास के विद्वान फ़ादर को भी पता नहीं क्या सूझा था कि उन्होंने हिन्दी को निहायत संस्कृतपरक बनाकर रख दिया। ये सही है कि हमें लगता है कि संस्कृत के आधार पर नए शब्द रचना हमारे लिए आसान है, जिनकी ज़रूरत अनुवाद में लामुहाला आती है, पर ऐसा हमारी अपनी ट्रेनिंग के चलते ही होता है, सच तो यह है कि हम उर्दू के उपसर्ग व प्रत्यय भी उतनी ही आसानी से लगाकर नए अल्फ़ाज़ पैदा कर सकते हैं। कुछ हालिया कोशों में एक हद तक ऐसी कोशिश की भी गई है, ख़ास तौर पर मैक्ग्रेगर का हिन्दी-अंग्रेज़ी कोश तो अब मेरे लिए अपरिहार्य बन गया है। इसी सिलसिले में अरविंद कुमार का सहज सामंतर कोश (संदर्भ के लिए एक-दूसरे पर निर्भर दो या तीन खंडों वाले कोश का ख़याल अच्छा नहीं है) और आईआईटी(कानपुर व मुंबई) के सहकारी ऑनलाइन कोश शब्दतंत्र – जो अंग्रेज़ी के प्रॉजेक्ट वर्डनेट के सिद्धांतो पर आधारित है - की हिमायत करना चाहूँगा, चूँकि यहाँ भाषा की कृत्रिम दीवारें खड़ी नहीं की गई हैं, जिसके चलते हमारी शब्द-संपदा दुगुनी हो गई लगती है। इस लिहाज़ से इंटरनेट के अपेक्षाकृत कच्चे और रुढ़िहीन शब्द-संसार में हिन्दी के हज़ारों चिट्ठों के ज़रिए और कविताकोश जैसे विकिस्थलों पर शब्द-व-काव्य मैत्री के नए आश्वस्तिदायक क्षितिज खुलने भी लगे हैं।
इस बीच ज़ाहिर है, भाषा के क्षेत्र में तकनीकी प्रगति भी हुई, जिनमें कुछ में हमारा मुक्त सॉफ़्टवेयर समुदाय सीधे तौर पर जुड़ा रहा है: फ़ायरफ़ॉक्स का वेब ब्राउज़र इस्तेमाल करते हुए न केवल आप विरासत के फ़ॉन्टों को पलक झपकते युनिकोड में तब्दील कर सकते हैं, बल्कि लिखते समय उसमें स्थित हिन्दी कोश का सहारा भी ले सकते हैं, ओपन ऑफ़िस या वर्ड पर काम करने के लिए भी आप डिजिटल कोशों की मदद से हिज्जे दुरूस्त कर सकते हैं। अगर आपको टाइप नहीं भी करना आता तो गूगल के इंडिकट्रान्सलिटरेटर पर सीधे रोमन में टाइप करते हुए हिन्दी का पाठ पैदा कर सकते हैं, और उसके कोश की मदद से आपको पता भी चलता रहेगा कि आप सही वर्तनी लिख रहे हैं या नहीं। लोग रोमन कुंजीपट का इस्तेमाल करके ही धड़ल्ले से काम चला रहे हैं, क्या करें देसी भाषाओं के नाम पर इतनी डींग हाँकने के बावजूद हम आज तक नागरी का एक लोकप्रिय कुंजीपट नहीं चला पाए हैं। मशीन के ज़रिए भरोसेमंद अनुवाद का सपना फ़ौरी भविष्य में पूरा होने से रहा, भले ही राष्ट्रीय अनुवाद मिशन इसी दिशा में अपने क़ीमती पैसे ख़र्च करना उचित समझे। चूँकि भाषायी खेल अंतत: एक इंसानी खेल है, बदलते संदर्भों और मायनों के इस फिसलन-भरे खेल में सैद्धांतिक तौर पर असीमित पर व्यवहारत: सीमित नियम-क़ायदों से बँधा कंप्यूटर एक हद तक ही हमारा साथ दे सकता है। मसलन, सरकारी क़िस्म के रोज़मर्रा के कामकाज में हम मशीनी अनुवाद से काफ़ी दूर तक काम चला ले जाएँगे। लेकिन जहाँ नए शब्द गढ़ने की बात आएगी वहाँ भी वह असफल ही रहेगा, चूँकि वह आख़िर उन्हीं अल्फ़ाज़ पर तो मुनहसर होगा जो हम उसमें डाल पाएँगे यानि नए शब्द तो हमें ही बना-बनाकर उसे खिलाने होंगे न?
एक आख़िरी बात जो वैसे तो इशारों में ऊपर आ चुकी है, पर शायद साफ़गोई से कही जानी चाहिए कि हम भारतीय भाषाओं की वैमर्शिक दरिद्रता को मानते हुए भी आम तौर पर न तो वह मेहनत कर पाते हैं, न ही वैसी उदारता प्रदर्शित कर पाए हैं, जिसकी अपरिहार्यता कम-से-कम मेरे लिए असंदिग्ध है। उदाहरण के तौर पर अगर अनुवाद हमारे लिए ज़रूरी है तो हमें दूर की भाषाओं के क़रीबतर जाना होगा, उन्हें सीखना ही होगा और अपने जड़ संस्कारबंध खोलकर पड़ोस की भाषाओं से उन्मुक्त लेन-देन करना होगा, शब्द-मैत्री की शास्त्रीय मान्यताओं में ढील देनी होगी, तभी हमारी शब्द-संपदा विपुल और अधुनातन बन पाएगी। अपने दरवाज़े बंद रखने का कोई औचित्य नहीं बचता, और अनुवादकों की हौसला-अफ़ज़ाई भी हर मुमकिन तरीक़े से करनी होगी। ज़ाहिर है इस तवील और सामूहिक सफ़र में महज़ अनुवाद से काम नहीं चलने का, ज्ञान की दलाली के अन्य रचनात्मक जुगाड़ भी लगाने होंगे, नए स्वरूप विकसित करने होंगे। पर फ़िलवक़्त, इत्यलम।