एक मामूली सी प्रेम कहानी / सूरज प्रकाश

Gadya Kosh से
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यहां कही जा रही कहानी देश की आजादी के पचासवें बरस के दौरान की एक छोटी सी, मामूली सी प्रेम कहानी है। हो सकता है आपको यह प्रेम कहानी तो क्या, कहानी ही न लगे और आप कहें कि यह सब क्या बकवास है?

जीवन के साथ यही तो तकलीफ है। जब जीवन की बात की जाये तो कहानी लगती है और जब कहानी सुनाई जाये तो लगता है, इसमें कहानी जैसा तो कुछ भी नहीं। हम यही सबकुछ तो रोज देखते - सुनते रहते हैं। फिर भी कहानी कहनी ही है। जीवन या कहानी जो कुछ भी है, यही है। बाकि फैसला आपका। खैर।

तो पिछले कई बरसों की कई कई शामों की तरह, आज की शाम भी हमारा कथानायक मुंबई महानगर, जिसे देश की आर्थिक राजधानी भी कहा जाता है, के मैरीनड्राईव की मुंडेर पर पिछले आधे घण्टे से कथानायिका के इंतजार में बैठा हुआ अरब महासागर की उठती गिरती लहरें देख रहा है। सूर्य अभी अभी डूबा है और जाते जाते जैसे अपने पीछे रंगों की बाल्टी को ठोकर मार गया है। सारे रंग गड्डमड्ड होकर क्षितिज पर बिखर गये हैं।

कथानायक का नाम कुछ भी हो सकता है। उसकी उम्र बीस बाईस बरस से लेकर अट्ठाईस - तीस बरस कुछ भी हो सकती है। वह किसी भी विषय में ग्रेजुएट या पोस्टग्रेजुएट हो सकता है। वह किसी बैंक में क्लर्क या किसी प्राईवेट फर्म में जूनियर असिस्टेन्ट या किसी फैक्टरी में स्टोरकीपर भी हो सकता है। ऐसे पचासों धन्धे हैं इस महानगर में जो कथानायक या कथानायक जैसे दूसरे नौजवान करते मिलेंगे। वैसे भी इस कहानी में इस बात से कोई फर्क नहीं पडता कि वह ठीक ठीक कौनसा काम करता है।

जहां तक उसके रहने का सवाल है, वह मुंबई महानगर के दूर या पास के किसी उपनगर में स्टेशन से काफी दूर एक झोंपडपट्टी में रह सकता है और एंटाप हिल, बान्द्रा सरकारी वसाहत, सहार, पी एण्ड टी कॉलोनी में क्लास फोर क्वाटर्स में से किसी फ्लैट में सबलैटिंग करके एक कमरा भी लेकर रह सकता है और यह भी हो सकता है कि कहीं खाने की सुविधा के साथ पेंईगगेस्ट बन कर रह रहा हो। यह भी हो सकता है कि वह किसी हेडक्लर्कनुमा अपने किसी बॉस के डेढ क़मरे के मकान में रात को बिस्तर बिछाने भर की जगह में रह रहा हो। होने को तो यह भी हो सकता है कि वह किसी लॉज में छ: या आठ बिस्तरों वाले एक बडे से कमरे में रह रहा हो जहां रहने के साथ साथ खाने की सुविधा भी हो, बेशक वहाँ का खाना इतना घटिया हो कि आये दिन उसका पेट खराब हो जाता हो, लेकिन फिर भी वहीं जमा हुआ हो। इतना तय है कि वह कहीं भी रह रहा हो, किराये का कमरा लेकर रहने की उस की हैसियत नहीं है। होती तो कथानायिका से कब से उसकी शादी हो चुकी होती और वह इस समय यहां बैठा उसका इंतजार न कर रहा होता। कथानायिका को अब तक आ जाना चाहिये, उसने सोचा और राह चलते एक आदमी की घडी पर निगाह डाली। उसे यहां बैठे हुए पैंतालीस मिनट होने को आये थे।

कथानायिका से उसकी मुलाकात यहीं, इसी जगह पर हुई थी। लगभग ढाई साल पहले। कथानायिका की जिन्दगी भी कमोबेश कथानायक जैसी ही है। उसका भी कोई भी नाम, नौकरी, डिग्री, जाति धर्म हो सकता है। अलबत्ता रहती वो अपने घर में है और इस तरह कुछ मायनों में कथानायक से बेहतर स्थिति में है। बाकि बातें एक दूसरे से मिलती जुलती हैं। शायद इसी वजह से दोनों के बीच बातचीत शुरु हुई होगी। कथानायक इस शहर में परदेसी है। कथानायिका स्थानीय। उसका अपना घर बार है। बाकि सारे दु:ख एक जैसे। सांझे और बराबर भी। कथानायिका साधारण काठी की औसत सी दिखने वाली लडक़ी है। बेशक उसकी आंखें खूब गहरी और खास तरह की चमक लिये हुए हैं, उसका बाकी चेहरा मोहरा साधारण है। रंग भी थोडा दबा हुआ है जिसकी वजह से वह कई बार हीनता महसूस करती है।

एक मिनट ठहरें! यहां इस बात की जरूरत महसूस हो रही है कि कहानी में बेहतर सम्वाद स्थापित करने के लिये कथानायक और कथानायिका का नामकरण कर दिया जाये ताकि उन दोनों की कहानी पढते हुए हम महसूस करते रहें कि वे भी हमारी तरह हाड मांस के जीते जागते इन्सान हैं और उनकी भी, बेशक मामूली ही हो, अपनी खुदकी जिन्दगी है और उनकी भी एक पहचान है। चूंकि यह कहानी भारत देश, उसकी आजादी की पचासवीं वर्षगांठ और उस दौरान की मामूली सी प्रेम कहानी है, अत: इन दोनों के नाम भारत और भारती रख दिये जायें तो आप शायद एतराज न करें। संयोग से कथानायिका भारती उपनाम से कविताएं भी लिखती है।

हमारे कथानायक और कथानायिका, जिन्हें हम आगे पूरी कहानी में भारत और भारती के नाम से जानेंगे, हालात के मारे दो अदने से इन्सान हैं। बेहद शरीफ और जमाने भर के सताये हुए। उनकी पूरी जिन्दगी को सिर्फ तीन लफ्जों में बयान किया जा सकता है - संघर्ष, संघर्ष और संघर्ष। सफलता एक भी नहीं। वैसे मौका मिलता तो वे भी जिन्दगी की सारी सीढियां आपको एक साथ चढ क़र दिखा देते। बस, उन्हें अपनी जिन्दगी संवारने का मौका ही नहीं मिला। हर तरह से योग्य होने के बावज़ूद। हरसंभव कोशिश कर लेने के बावजूद। वैसे उनकी इस हालत के लिये उन्हें तो कतई दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह बात भी है कि वे हालात का शिकार होने वाले अकेले, पहले या आखिरी भी नहीं हैं।

दरअसल इसके पीछे एक लम्बी कहानी है और उसे बयान करने के लिये हमें अपनी इस प्रेमकहानी को थोडी देर यहीं रोक कर हालात की उस कहानी की तह में जाना होगा। हां इतना जरूर है कि जब हम कथानायक और कथानायिका के बहाने उन सारी स्थितियों की पडताल कर रहे होंगे, तो वे दोनों भी लगातार इस कहानी में हमारे आस पास बने रहेंगे। बल्कि जहां भी मौका मिलेगा, हमें आगे की अपनी कहानी खुद ही सुनाएंगे। तो देश की यह पचासवीं वर्षगांठ थी। यह साल भी पिछले सारे सालों की तरह वैसे ही शुरु होकर यूं ही गुजर जाने वाला था। और उन दोनों के लिये आजादी के इस साल और पिछले उनचास सालों में कोई अन्तर नहीं था। फिर भी इस साल सरकारी तौर पर और सरकारी खर्च पर पूरे देश में उत्सव का माहौल रहने वाला था।इस मद के लिये सरकार ने करोडों रूपये पहले ही अलग रख दिये थे जिन्हें साल भर चलने वाले सरकारी समारोहों, उत्सवों, नाटकों और नौटंकियों में खुले हाथों से खर्च किया जाना था। इन आयोजनों के लिये बहुत ऊंचे दर्जे की बीसियों समितियां बना दी गई थीं और उनके सलाह मशविरे से ये सारे भव्य आयोजन किये जाने थे। जहां तक कथानायक और कथानायिका का इन सब आयोजनों से जुडने का सवाल था, वे पूरी तरह से उदासीन थे। वैसे भी सरकार उन्हें इस सब में शामिल होने के लिये नहीं कहा था। किसी ने न तो उन्हें इन सबके लिये आमंत्रित किया था और न ही किसी भी स्टेज पर उन्हें विश्वास में लिया गया था। वे चाह कर भी इस सब में शामिल नहीं हो सकते थे।

कथानायिका के इंतजार में बैठे कथानायक भारत की सोचने की गंभीर मुद्रा देख कर कल्पना करना मुश्किल नहीं लगता कि वह इस समय किस उधेडबुन से गुजर रहा होगा। हो सकता है वह इस समय दूर किसी गांव में या छोटे शहर में अपनी बीमार मां, रिटायर्ड बाप, बेरोजग़ार छोटे भाई, शादी के इंतजार में बैठी बहन के बारे में सोच रहा हो और इस महीने भी उन्हें अब तक मनीऑर्डर न भेज पाने के बारे में परेशान हो। या उसे आज अपनी इस नौकरी से जवाब मिल गया हो और वह एक बार फिर बेरोजगार होने जा रहा है। हो सकता है कल उसकी प्रेमिका का जन्मदिन हो और वह उसके लिये छोटा मोटा तोहफा लेने के बारे में सोच रहा हो। इस बात की भी संभावना है कि आज शनिवार हो और उसकी जेब में एक भी पैसा न हो, उसे हर हालत में आज अपने ठीये का किराया चुकाना हो नहीं तो। या उसने नायिका से आज बढिया खाना खिलाने का वादा कर रखा हो। या उसकी नौकरी में कोई लफडा या रहने की जगहया या ।

हो सकता है अभी तक जो हमने अनुमान लगाये वह सारे ही गलत हों। वह तो बस यूं ही यहां मौसम और शाम की रंगीनियां देखकर कुछ वक्त बिताने की नीयत से मैरीनड्राईव की मुंडेर पर आ कर बैठ गया हो।

दरअसल जैसा कि मैं ने बताया, देश की आजादी का यह पचासवां साल पिछले उनचास सालों से कोई फर्क नहीं रखता। सब कुछ वैसा ही था। बल्कि कई मायनों में बदतर। अगर इस बीच जनसंख्या बढी थी तो उसके अनुपात में बेरोजगारी कई गुना बढी थी। हालांकि आजादी के इस पचासवें बरस में भी पिछले बरस और उससे भी पिछले कई बरसों की तरह देश के सभी विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, तकनीकी और प्रबन्ध संस्थानों ने लाखों की संख्या में हर तरह से योग्य और कुछ कर गुजरने के उत्साह से लबरेज पोस्ट ग्रेजुएट्स और ग्रेजुएट्स तैयार करके सडक़ों पर उतार दिये थे। उनकी जगह तुरन्त ही और उनसे भी अधिक तादाद में नये लोग उनकी जगह लेने इन संस्थानों आदि में पहुंच गये थे। भीतर सबके समाने लायक जगह नहीं थी, फिर भी लोग थे कि किसी भी तरह एक बार दाखिला पा लेने के लिये आकुल व्याकुल थे। कई लोग तो इसके लिये अपनी हैसियत से ज्यादा पैसे खर्च करके भी भीतर जगह पाने के लिये होड सी लगा रहे थे। इससे कोई फर्क नहीं पडता था कि उनकी रुचि किस विषय में थी और प्रवेश किस विषय में मिल रहा था। उन्हें तो बस एक अदद डिग्री से मतलब था। कैसे भी किसी भी विषय की मिले। वे जानते थे उन्हें जो नौकरी, अगर कभी मिली तो सिर्फ डिग्री के आधार पर मिलेगी। उसमें दर्ज विषय के आधार पर नहीं। उनकी विशेषता के आधार पर कतई नहीं।

उधर बाहर सडक़ों पर अभी भी पिछले कई बरसों के बकाया पोस्ट ग्रेजुएट्स और ग्रेजुएट्स, हर तरह से योग्य, जरूरतमन्द और इच्छुक होने के बावजूद अपने लायक कोई काम नहीं तलाश पाये थे और हर वक्त अपने हाथ में मैली पड चुकी डिग्रियों, आवेदन पत्रों की कॉपियों और अकबारों की कतरनों का बंडल उठाये दफ्तरों, फैक्टरियों, सेवायोजन कार्यालयों के गेट के आस पास और चौराहों, नुक्कडों पर देखे जा सकते थे। वे हर कहीं मौजूद थे। वे सब जगहों पर अरसे से थे।

बेरोजग़ारों की इस भीड में इन नये लोगों के आजाने से हर कहीं भीड बेतहाशा बढ ग़ई थी और लगभग हर जगह एक दूसरे को धकियाने की सी नौबत आ गयी थी। इन सब लोगों का धैर्य हालांकि अब तक चुक जाना चाहिये था और मनोविज्ञान के नियमों के हिसाब से मारा मारी, सिर फुटौवल और इस तरह की दूसरी अराजक स्थितियों की शुरुआत हो जानी चाहिये थी, फिर भी न जाने क्यों आम तौर पर यह स्थिति नहीं आ पाई थी। ये लोग बेहद आस्थावान थे। प्रतीक्षा और आश्वासनों के सहारे यहां तक की कठिन और असंभव यात्रा पूरी करके आ पहुंचे थे। उन्हें अभी भी उम्मीद थी कि कोई जादुई चिराग उनकी जिन्दगी का अंधेरा दूर करने के लिये बस आता ही होगा। बल्कि पिछली पीढी में से भी अधिकतर लोग बिना कोई ढंग का काम पाये अपनी जिन्दगी की आधी सदी पूरी कर चुके थे। न तो उनका इंतजार खत्म हुआ और न ही कोई जादुई चिराग उनकी अंधेरी जिन्दगी में रोशनी का एकाध कतरा ही ला पाया था। ये सारे के सारे लोग जो बेरोजग़ार थे और काम करना चाहते थे, अरसे से खाली पेट और लगभग सुन्न दिमाग लिये अब तक पस्त होने को आये थे। लेकिन जैसा कि मैं ने बताया, उनकी आंखों में चमक अभी भी बाकी थी और वे एकटक सडक़ क उस मुहाने की तरफ देख रहे थे जहां से कभी कभी रोजग़ार के कुछेक मौके मुहैय्या कराने वालों के आने की बारीक सी उम्मीद रहती थी। अमूमन वे लोग कभी इस तरफ आते देखे तो नहीं गये सिर्फ सुने गये थे और अगर कभी वे आये भी थे तो आगे आगे खडे दो चार लोगों को अपने पीछे आने का इशारा कर बहुत तेजी से लौट गये थप। उनके आने और लौटने के बीच का अम्तराल इतना कम होता था कि पीछे खडे लोगों को हवा भी नहीं लग पाती थी और वे लौट चुके हाते थे।

हमारा कथानायक भारत हमेशा ऐसी कतारों में मौजूद था, कभी सबसे आगे तो कभी बेइन्तहां भीड में सबसे पीछे। वह कहीं भी रहा हो, हमेशा छला गया था। उसके हिस्से में कभी भी कोई ढंग की नौकरी आयी ही नहीं।

उसे आज भी याद करके हंसी आती है। उसकी पहली नौकरी नगरपालिका में थी। तब वह बारहवीं पूरी कर चुका था। उसकी उम्र अठारह की थी। यह दसेक साल पहले की बात है। एम्प्लॉयमेन्ट एक्सचेन्ज से बडी मुश्किल से सौ रूपये देकर नाम निकलवाया था उसने। यह तो वहीं जाकर पता चला था कि ये नौकरी गली गली घूमकर मच्छर मारने की दवा छिडक़ने की है। साइकिल अपनी होनी चाहिये। इस नौकरी के लिये मना करने का मतलब होता कि अगले तीन महीनों तक एक्सचेन्ज से दोबारा किसी नौकरी के लिये नाम नहीं आयेगा और स्वीकार करने का मतलब अगले छह महीनों तक नाम नहीं आयेगा। फिर भी उसने यह नौकरी यह सोच कर कर ली कि कुछ तो पैसे मिलेंगे ही। साइकिल का इंतजाम उसे करना पडा था। जिस पडौसी के बच्चों को वह टयूशन पढाता था, उनसे मिली साइकिल उसे। एक और बच्चे को मुफ्त पढाने की शर्त पर। लेकिन यह नौकरी सिर्फ तीन दिन चल पाई। वैसे चलाने वाले इससे बदतर नौकरियां भी चला रहे थे। भारत ने भी आगे पीछे कई वाहियात नौकरियां की ही थीं, लेकिन मच्छर मारने वाली इस नौकरी से वह एक पल के लिये भी कूद को जोड नहीं पाया था। बहुत बेमन से दो ढाई दिन काट कर उससे अलग हो गया था।

ऐसा नहीं था कि बेरोजग़ारी के लम्बे लम्बे दौर से गुजरते कथानायक या उसके साथ के सारे बेरोजग़ार कभी निराश नहीं होते थे या उन्हें गुस्सा नहीं आता था दरअसल इनकी निराशा और इनका गुस्सा सिर्फ इन्हीं की जान लेता था। चरम हताशा की हालत में कुछेक खुदकुशी कर लेते थे, या घर वालों के साथ सामूहिक रूप से जहर खा लेते थे। लेकिन अब तक ऐसी कोई वारदात सुनने में नहीं आई थी कि नौकरी मांगने वालों ने कोई भी काम न मिलने पर मिल मालिकों, बैंकों या सरकारी दफ्तरों का घेराव किया हो, हिंसा का रास्ता अपनाया हो या कहीं ऊंची आवाज में बात की हो। एक भी ऐसी घटना सुनने में नहीं आयी। शायद बेरोजग़ारों की ही जमात ऐसी थी कि जो संगठित नहीं थी। उनका कोई गुट नहीं था न कोई रहनुमा। हां, कभी कभार कुछ स्वार्थी तत्व जरूर इन लोगों को अपने मतलब के लिये अपने पीछे आने वाली भीड में शामिल कर लेते और अपना काम सधते ही इन्हें वापस सडक़ों पर ठेल देते थे।

कथानायक अपने चारों ओर गहरी हताशा और निराशा से देखता था। वह जानता था कि अकेले बलबूते पर पूरे देश में बरसों से फैली भयंकर अव्यवस्था, बेरोजग़ारी और हद दरजे की उदासीनता से कभी नहीं लड पायेगा। कोई नहीं लड सकता था। किसी को किसी की परवाह नहीं थी। कहीं कोई सुनवाई नहीं थी।हालत इतनी खराब थी कि रोजग़ार दफ्तरों के रजिस्टरों में और नाम लिखने की जगह नहीं बची थी। फिर भी हर बेरोजग़ार नौकरी की हल्की सी उम्मीद में रोजग़ार दफ्तरों के आगे लगी कतारों में दिन भर खडा रहता। फिर भी नाम लिखवाने के लिये उसका नम्बर नहीं आ पाता था। देरी की शिकायत करने पर यही बताया जाता कि स्टाफ की कमी है देर तो लगेगी ही!

यही हालत सब जगह थी। छोटे से छोटा काम कराने के लिये भी उसे घंटों लाईनों में लगना पडता। एक लाईन का काम खत्म करके दूसरे काम के लिये दूसरी लाईन में नये सिरे से अपनी बारी लगानी होती। इन्हीं लाईनों के चक्कर में सिर्फ आधे घण्टे के काम के पन्द्रह पन्द्रह दिन लग जाते। सभी जगह स्टाफ की कमी का रोना रोया जाता।

सच तो यह था कि एक तरफ स्टाफ की बेहद कमी थी और दूसरी तरफ काम करने लायक अमूमन हर तीसरा व्यक्ति बेकार था या अपनी योग्यता और हैसियत से कम का काम औने पौने दामों पर करने के लिये मजबूर था। यह भी हो रहा था कि एक लम्बा अरसा बीत जाने के बाद इस तरह के युवक सचमुच ही बेकार हो चुका था। तब उसमें न तो काम करने का माद्दा बचता न इच्छाशक्ति ही। इस तरह से उसे तैयार करने में समाज की ढेर सारी पूंजी तो बेकार जाती ही थी, उसकी खुद की बरसों की मेहनत, पूंजी, लगन और ईमानदार कोशिश भी बेकार चली जाती थी। रोजग़ार हो न हो, पेट सबके पास लगभग एक जैसा ही था, जो आधा अधूरा ही सही अनाज मांगता था। इसी खाली पेट को किसी भी हालत में भरने की मजबूरी कई लोगों को अपराधिक जगत की तरफ मोड देती जहां जाने के तो कई आसान रास्ते थे, लेकिन वापसी का कोई रास्ता नहीं होता था।

कथानायक के पास कुछ भी तो नहीं था कि दे दिला कर ही कहीं खुद को फिट करवा लेता। न सिफारिश न रिश्वत के पैसे। वैसे भी वह रोज ही देखता था कि जो लोग किसी न किसी तरह जुगत भिडा कर, कुछ दे दिला कर या ऊंची सिफारिश लगवा कर इन थोडी सी नौकरियों से चिपक भी गये थे, वे भी इतने विरोधाभास की जिन्दगी जी रहे थे कि आश्चर्य होता था कि अब तक ये लोग पागल क्यों नहीं हो गये। बॉटनी का गोल्डमैडेलिस्ट बैंक के काउंटर पर बैठा दिन भर नोट गिनता था और फिजिक्स का फर्स्ट क्लास कहीं सडे हुए सरकारी दफ्तर में घुन लगी कुर्सी पर बैठा आलतू फालतू की चिट्ठियों को दर्ज कर रहा था। अंग्रेजी साहित्य के एम ए पास युवक होटल में ग्राहकों के डिनर के आर्डर लेते मिलते और हिन्दी का पीएच डी किसी दूर दराज चुंगी पर बैठा जाहिल ट्रक ड्राइवरों से माथा पच्ची कर रहा होता। बायोकैमिस्ट्री की प्रथम श्रेणी की एम एससी पास लडक़ी टेलेफोन ऑपरेटर की टुच्ची सी नौकरी करने पर मजबूर थी। पॉलिएस्टर टैक्नॉलोजी में पीएच डी युवक किसी चाय कम्पनी में मार्केटिंग मैनेजर होता। कहीं कहीं ऐसा भी होता कि घोडा डॉक्टरी की डिग्री लेने के बाद जब किसी युवक को दूर पास कहीं भी छोटी सी भी नौकरी नहीं मिलती थी तो वह मोटर पार्टस की या किताबों की सैल्समैनी वाली घुमंतू नौकरी सिर्फ इसलिये स्वीकार कर लेता था कि घर वालों के आगे हर समय थोबडा लटकाये रहने से तो यही बेहतर था। उसने खुदने भी तो ग्रेजुएट होने के बाद ऐसे काम किये थे जिन्हें कोई आठवीं पास भी आराम से कर सकता या कर रहा होता।

इस वक्त का सबसे बडा सच यह था कि कई डाकखानों के बाहर दसियों की संख्या में बेकार ग्रेजुएट्स बैठे हुए एक एक दो दो रूपये लेकर अनपढ मजदूरों के घर पर भेजे जाने वाले मनीआर्डर फार्म भर कर रोजी रोटी कमा रहे थे। निश्चित ही ये मजदूर इन ग्रेजुएटों की तुलना में बेहतर स्थिति में थे। जो अपने रहने खाने के अलावा अपने घर भेजने लायक पैसे कमा रहे थे।

विचित्र संयोग था कि कथानायक को हमेशा फालतू, अनुत्पादक और अपने स्तर से कम के काम करने पडे थे।वह हमेशा यही सोच कर अपने को तसल्ली दे लेता कि वह अकेला नहीं। उसके साथ के लाखों की तादाद में बेरोजगार लोग एक साथ कई साजिशों का शिकार हैं। सरकार की चिन्ता तो इतनी भर थी कि उसके आंकडों में किसी तरह यह दर्ज हो जाये कि देश की अधिकतर आबादी उनके प्रयासों से साक्षर है, प्रशिक्षित है और हर तरह से योग्य है। सबको नौकरी देने की न तो उसकी नैतिक जिम्मेदारी है, न उसकी औकात ही। और न ही उसने कभी ऐसा वायदा किया था। अगर कहीं कामों की गुंजाइश थी भी, तो सरकार की ऊंची गद्देदार कुर्सियों पर बैठे लोगों के पास इतनी दूरदर्शिता नहीं थी कि तय कर सकते कि किस काम के लिये कौन सा आदमी ठीक रहेगा। सबसे बडी विडम्बना यही थी कि तय करने की ताकत रखने वाले कई अफसर, लीडर खुद ही गलत जगहों और गलत कुर्सियों पर गलत तरीके से बैठे हुए थे। उनसे किसी भी तरह की उम्मीद करना उनके साथ ज्यादती होती।

अधिक तकलीफ की बात थी कि जिन लोगों के भरोसे यह देश चल रहा था, वे ही पिछले बरसों में सबसे ज्यादा नकारा, भ्रष्ट, लापरवाह और अवसरवादी सिध्द हुए थे। 100 करोड क़ी जनसंख्या के मुहाने पर खडे देश के लिये यह बहुत ही शर्म की बात थी कि पूरे देश में आदर्श कहे जा सकने लायक एक भी नेता नहीं था। आजादी की 50 वीं वर्षगांठ मना रहे विश्व की सबसे वैभवशाली परम्पराओं और मान्यताओं और समृध्द लोकतन्त्र वाले देश में इस समय एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था जिस पर देश की जनता मन से भरोसा कर सके। यह देश बौनों का देश बन चुका था।

दुर्भाग्य से जिन हाथों में देश का नेतृत्व सौंपा गया था, उनमें आधे से ज्यादा लुच्चे, आवारा, कातिल, हत्यारे, शातिर अपराधी, बीस - बीस हत्याओं के दोषी सिध्द डकैत और गिरहकट भरे पडे थे। कुल मिला कर राजनीति में यह आलम था कि आप एक नेता और हत्यारे में फर्क नहीं दिखा सकते थे। आये दिन अकबार नेताओं द्वारा करोडों रूपये की रिश्वत लेने, हत्या या बलात्कार करने या अन्य अपराधों में लिप्त पाये जाने की खबरों से भरे होते। अकसर पता चलता फलां नेरा या मुख्यमंत्री के घर से करोडों रूपये की नकदी पायी गयी या फलां प्रधानमंत्री पर करोडों रूपये से भरे सूटकेस अपराधियों से लेने के आरोप लगाये गये हैं या विदेशों के हथियार व्यापारियों से रिश्वत लेने के आरोप लगते और वे इन आरोपों से विचलित न होते न ही इनका खंडन करते। वे पूरी बेशरमी से अदालतों से अग्रिम जमानत ले लेते। बेशरमी का आलम यह होता कि वे दोबारा चुनाव लडने के लिये फिर जनता के प्रतिनिधि बन हाथ जोड वोट मांगने चल पडते। उन पर अपराधिक मुकदमे चलते रहते, वे जेल भी हो आते और इस बीच सत्ता अपने परिवार वालों को सौंप जाते, मानो सत्ता न हो, लाला की दुकान हो कि कोई भी सौदा सुलुफ बेच लेगा।

राजनीति एक खुजैली रंडी का नाम हो गया था। इसके पास सुख तो था लेकिन रोग व खाज भी थे। लोग फिर भी इसके पास जाने के लिये कुछ भी करने को तैयार थे। पहले चोरी छुपे अब खुले आम। इसके पास आने वालों का दीनदुनिया से नैतिक अनैतिक कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता था। देश उनके लिये एक खुला हरा भरा चारागाह था और उनका काम सिर्फ हरी घास जितनी हो सके चर लेना था और कुछ भी नहीं।

राजनीति नाम की इस रंडी के पास बेइन्तहां पैसा था। इतना कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते थे। वहां जाने वाले खिलाडी राजे महाराजाओं की तरह ऐशो आराम से रहते और सरकारी मशीनरी का जम कर दुरुपयोग करते।

मशीनरी के इस दुरुपयोग का ही परिणाम था कि इस राजनीति की कुनबापरस्ती की छत्रछाया में लगभग कथानायक की ही पीढी क़ा एक ऐसा वर्ग भी अंगडाइयां ले रहा था जिसके पास कोई दिशा नहीं थी, कोई लक्ष्य नहीं था, जिसके पास कोई जिम्मेवारी भी नहीं थी और सामाजिक बोध तो दूर दूर तक नहीं था। फास्टलाइफ का हिमायती यह युवावर्ग जिस रफ्तार से बडी बडी ग़ाडियां चलाता उसी रफ्तार से अपने सारे काम पूरे होते देखना चाहता। यह युवावर्ग बेहद जल्दी में था और उसे जरा सा भी इंतज़ार करना गवारा नहीं था। वह अपने पास आधुनिक आग्नेय हथियार पैन या लाइटर की तरह रखता था और उनका इस्तेमाल भी वैसा ही करता। वह आधी रात को क्लब में शराब परोसने में एक पल की भी देर होने पर या बाला द्वारा पैग के साथ चुम्बन देने से इनकार करने पर उसकी कनपटी पर गोली मार कर दो सौ आदमियों की मौजूदगी में सरेआम उसकी हत्या कर सकता था, अपनी मनपसन्द आइसक्रीम न मिलने पर वेटर की हत्या कर सकता था, शराब का नशा बढाने के लिये अपनी ही प्रेमिका को मार कर मक्खन के साथ तंदूर में भून सकता था और सैक्स सम्बन्धी अपनी विकृतियों को पूरा करने के लिये भारी टिकट खरीद कर पुरुषों का नंगा नाच भी देखने जा सकता था। उसे किसी का डर नहीं था, क्योंकि उसे पता था कि इस देश का कानून उसकी मुट्ठी में है, कोई उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता।

इस वर्ग की ताकत इतनी ज्यादा बढ ग़ई थी कि यह अपने सामने किसी को भी कुछ नहीं समझता था और सारी दुनिया को अपने ठेंगे पर रखता था। वह देर रात सडक़ों पर तेज गाडियां चलाता। ऐय्याशी के नित नये चारागाह तलाशता, भौंडे रूप में सैक्स का प्रदर्शन करता, कराता और नशे में धुत्त होकर घर लौटते समय किसी को भी अपनी गाडी क़े नीचे कुचल सकता था। उसे इस हादसे पर कोई अफसोस भी न होता। उसे पता था कि जब गवाहियां दी जायेंगी तो वहां उसकी बी एम डी गाडी क़ा नहीं किसी अनाडी शराबी द्वारा चलाये जा रहे ट्रक का जिक़्र होगा। यह वही वर्ग था जो दिन भर काले धन्धों में अनाप शनाप पैसा कमाता और रात को अपनी औकात बताने को खर्च कर डालता। उसके सामने यही लक्ष्य होता कि वह दूसरों से आगे है - कमाने और खर्च करने में भी।

कई बार कथानायक सोचता कि काश! उसके पास भी कोई बेहतर डिग्री होती या बाहर जाने लायक थोडे बहुत पैसे ही होते। वह भी इनके सहारे जिन्दगी में कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखने वाले तमाम इंजीनियर, डॉक्टर और दूसरे क्षेत्रों के प्रोफेशनलों की तरह किसी भी कीमत पर बाहर के मुल्कों की तरफ निकल जाता। बेशक वहां दोयम दरजे का जीवन था, फिर भी कम से कम इतना तो मिल जाता कि वह खुद का और अपने पीछे परिवार का ख्याल तो रख पाता। वह कितने ही ऐसे लोगों को जानता है जो यहां से बडी ड़िग्रियां लेकर बाहर गये थे और वहां बैरागिरी कर रहे थे। वे किन्हीं शर्तों पर भी वहां जाना चाहते।

एक विकासशील और गरीब देश की पूंजी पर तैयार होने वाले ये हर तरह से श्रेष्ठ दिमाग विकसित देशों के विकास और प्रगति के वाहक बन रहे थे। हमारी सरकार को इस प्रतिभा पलायन की कतई चिन्ता नहीं थी। देश की इस बेरुखी की वजह से ही तो वे अपनी सरजमीं छोड क़र गये थे। बाहर किन्हीं भी शर्तों पर हो रोजग़ार और पैसा तो था। हर साल बाहर जाने वाले दिमागाें की संख्या बढती जाती। उन्हें रोकने के लिये न कोई नियम थे, न ही प्रलोभन।

जहां तक निजी संस्थानों, बडे बडे अौद्योगिक घरानों और विशालकाय देशी विदेशी उद्यमों में नौकरियों का सवाल था तो वहां के लायक पढाई तो कथानायक के पास थी लेकिन किस्मत नहीं थी। उसे कोई मामूली नौकरी देने को तैयार नहीं था, इतनी आला नौकरी कौन देता? वह देखता था कि वहां हमेशा कुछेक आला दरजे क़ी नौकरियां हुआ करतीं थीं और अकसर लायक आदमियों को मिल भी जाती थीं, लेकिन आम तौर पर इन उद्योगवालों की निगाह तकनीकी और प्रबन्ध संस्थानों में हर साल तैयार होने वाली बेहतरीन क्रीम पर ही रहती थी। इन संस्थानों के फाइनल वर्ष के शुरु होते ही औद्याोगिक समूहों के प्रतिनिधि वहां चक्कर काटना शुरु कर देते और वहां तैयार हो रहे बेहतरीन दिमागों को बहुत ऊंची बल्कि उम्मीद और योग्यता के अनुपात में दो तीन गुना ऊंची बोलियां लगा कर एक तरह से खरीद लेते और अपने यहां की टॉप मशीनरी में फिट कर देते।

लेकिन ये सारी बातें बहुत ऊपर के स्तर पर चलतीं थी। सिर्फ उस स्तर पर जहां बेहतरीन दिमाग और बेहतरीन पद लगभग बराबर संख्या में थे। दोनों ही सीमित। लगभग हर कुशल दिमाग के लिये एक पद तो था ही। कई बार एक से ज्यादा, दो चार हजार रूपये कम ज्यादा पर। पर कथानायक की पहुंच से बहुत दूर। उसके जैसों के सामने तो हमेशा संकट था क्योंकि उनके पास सिर्फ सामान्य डिग्रियां थीं। साहित्य की, कला की या समाजशास्त्रीय विषयों की। कई बार विज्ञान की विशिष्ट शाखाओं की भी। ये डिग्रियां उन्हें किसी भी विशिष्ट या तकनीकी, प्रबन्ध या एक्सक्यूटिव या कई बार साधारण दर्जे के पदों तक भी नहीं पहुंचाती थीं। उनके लिये बचती थीं औसत नौकरियां या अध्यापन। पहले आइ ए एस में इन डिग्रीधारियों का नम्बर लग जाया करता था, लेकिन कुछ अरसे से इस लाइन में भी प्रोफेसनल लोगों ने धावा बोलना शुरु कर दिया है।

बाजार की कहानी और भी अजीब थी। जहां मांग सिर्फ विशिष्टता, स्पेशलाईजेशन की थी, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो। इन क्षेत्रों में थोडा कम अंक वाले आदमी को भी किसी न किसी नौकरी की उम्मीद रहती ही थै, लेकिन सामान्य विषय में पीएच डी बाज़ार में कोई खास कीमत नहीं रखते थे। उन्हें भी क्लर्की से लेकर आइ ए एस तक के लिये लगातार आवेदन करते रहना पडता था। बल्कि कम पढे लिखे बेरोजग़ारों के साथ एक सुविधा रहती थी कि वे जरूरत पडने पर खुद को किसी भी छोटे मोटे काम में फिट कर लेते थे। ये कम पढे लिखे बेरोजग़ार वक्त जरूरत बाजार में केले, सेब या प्याज भी बेच सकते थे, रिक्शा चला सकते थे बल्कि चला भी रहे थे। कुछ भी नहीं तो अपना सब कुछ बेच बाच कर मिडल ईस्ट की तरफ मजदूरी करने ही निकल जाते। लेकिन अब तो हालत यह है कि किसी भी छोटे काम पर किसी वर्ग विशेष का अधिकार नहीं रहा। ऊंची डिग्री वाले भी चपरासी, बस कंडक्टर और हमालगिरी की टुच्ची नौकरियों के लिये अपनी असली डिग्री छिपा कर सामने आने लगे थे। कहा जा सकता था कि देश ने पढाई के मामले में अब इतनी तरक्की कर ली थी कि अब यहां रिक्शे वाले, खोमचे वाले, पान बीडी वाले और यहां तक कि बिन्दी सुर्खी बेचने वाले भी एम ए, बी ए पास होने लगे थे। बेरोजग़ारी तो उन्हें एक कप चाय और एप्लाई करने के लिये डाक खर्च तक के लिये रुला डालती थी। भूखे रह कर घुटते रहने से तो बेहतर था कि जो भी जैसे भी मिल रहा हो, ले लो। इसे छोडें तो हथियाने के लिये दस लोग लाइन में खडे मिलेंगे। जिन्दा रहने के लिये कोई भी शर्त बडी नहीं थी।

कथानायक की दूसरी नौकरी भी बहुत थोडे दिन चल पाई थी। काम था एक वकील की डाक संभालना और उसके लिये मैसेन्जर का काम करना। वैसे इस नौकरी में कोई खास तकलीफ नहीं थी, पैसे भी ठीक थे और वकील साहब का व्यवहार भी अच्छा था। लेकिन जो तकलीफ थी, उससे किसी भी तरह से पार नहीं पाया जा सकता था। उसके कॉलेज का समय, टयूशन का समय और वकील साहब के यहाँ हाजरी बजाने का समय एक ही था। वकील साहब पूरा दिन मांगते थे तो कॉलेज की पढाई और आने जाने के लिये भी उसे उतने ही समय की जरूरत होती। उसे हर हालत में रोजाना दो चीजें छोडनी ही पडतीं। टयूशन का समय तो फिर भी बदला जा सकता था लेकिन बाकी दोनों समय उसके बस में नहीं थे। यहां भी नौकरी ही छूटी थी। वकील साहब ने भी यही सलाह दी थी कि पहले पढाई पूरी कर लो, तभी ढंग की कोई नौकरी तलाशो। मेरे यहाँ काम करते रहने से अगर तुम्हारी पढाई का हजर्ा होता है तो यह दोष मैं अपने सर नहीं लेना चाहूंगा। वैसे कभी भी भी फीस वगैरह के लिये रूपये पैसे की जरूरत हो तो।

यह बात दीगर है कि ये नौकरी छूटने के बाद भी पढाई नहीं चल पााई और वह पूरी तरह बेकार हो गया था।

उसे यहां आने की तारीख आज भी याद है। अपने शहर ने तो मुश्किल से रुला रुला कर एक डिग्री दी थी। इसके बीच एक लम्बा सिलसिला टयूशनो, प्राइवेट नौकरियों और बेरोजगारी के दौरों का रहा था। कभी नौकरी के लिये पढाई तो कभी पढाई के लिये नौकरी। कभी दोनों साथ तो कभी दोनों ही नहीं। तरह तरह की दुकानों में सेल्समैनशिप की। लॉटरी के टिकट तक बेचे। सडक़ों पर खडे होकर ब्रेजरी से लेकर बॉल पैन तक बेचे। सिर्फ इस उम्मीद में हर तरह के काम में खुदको खपाये रखा कि अच्छे दिन बस आते ही होंगे। उसने किसी काम को छोटा नहीं समझा था। हालांकि इस वजह से कई बार उसे बहुत शर्मीन्दगी उठानी उडती।

तब वह बी ए में पढ रहा था। छुट्टी के दिन और शाम के वक्त छोटा मोटा काम करके अपना खर्च निकालता था। उस दिन रविवार था। जिस दुकान से बेचने के लिये होजरी का सामान लाता था, उसने उस दिन अलग अलग साइज क़े ब्रेजरी के कई डिब्बे पकडा दिये और आंख मारते हुए बोला, ले जा बेटा, मजे क़र। ग्राहक को ये नायाब तोहफा सस्ते दामों पर बेच। नयन सुख वहां से लेना और डबल कमीशन मैं दूंगा। उसने लाख कहा कि वह यह आइटम इस तरह सरे आम आवाजें लगा कर नहीं बेच सकता, लेकिन दुकानदार ने एक नहीं सुनी थी और उस दिन पहली और आखिरी बार सडक़ पर खडे होकर यह आइटम बेचा था और उसी दिन गडबड हो गयी थी।

वे चारों साथ थीं और एकदम उसके ठीये के सामने आ खडी हुईं थीं। वह और उसकी तीन सहेलियां। उसके सामने आ खडे होने से पहले न तो उन्होंने उसे देखा था न वह ही उन्हें आता देख पाया था। लडक़ियों में से किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि उससे इस तरह, इस हालत में ये सब बेचते हुए सामना हो जायेगा।

सिर उसी का पहले झुका था और वह उन्हें सकते की हालत में अपने ठीये पर छोड क़र बाजू की गली में सरक गया था। वे भी वहां नहीं रुकी थीं और एक तरह से वहां से लपकते हुए आगे निकल गयी थीं। सडक़ पर इस तरह से सामान बेचने का यह उसका आखिरी दिन था। उनसे और खास तौर पर उससे वह कई दिन तक आंखें नहीं मिला पाया था। अपने आप पर गुस्सा भी आया था कि साली यह भी कोई जिन्दगी है? हर वक्त कोई न कोई लडाई लडते ही रहो। इस टुच्ची जिन्दगी से तो बेहतर था अनपढ ही होते। कम से कम इस तरह से अपने परायों के सामने नजरें तो न झुकानी पडतीं। ञलांकि कई दिन बाद जब उनमें सामान्य रूप से बात चीत शुरु हो गयी तो उन्होंने इतना ख्याल जरूर रखा था कि इस बात का जिक़्र ही न चले। लेकिन वह सोच सकता था कि उसे और उसकी सहेलियों को कितना खराब लगा होगा, कि उनका क्लासफैलो, दोस्त जो पढाई में कम से कम उनसे तो अच्छा ही था और वे अक्सर उससे नोट्स वगैरह मांगा करती थीं, सडक़ पर इस तरह से

सुनीता ने बहुत बाद में उससे कहा भी था कि उस दिन वह घर जाकर बहुत देर तक रोती रही। इसलिये नहीं कि वे अचानक उसके सामने उस वक्त पड ग़ईं थीं जब वह फुटपाथ पर इस तरह की कोई चीज बेच रहा था। उससे पहले भी वह उसे कुछ न कुछ बेचते हुए देख चुकी थी और इस बात के लिये उसकी तारीफ ही करती थी कि वह किसी भी काम को छोटा नहीं समझता था और सब काम करने के बावजूद अपनी पढाई के प्रति भी उतना ही सीरियस था। उसे रोना तो इस बात पर आया था कि उसे पढाई पूरी करने के लिये कैसे कैसे दिन देखने पड रहे थे।

वह सुनीता की स्थिति को अच्छी तरह समझता था। अपने प्रति उसकी भावनाओं से वाकिफ था। उनका कई बरसों का परिचय था। उन दोनों ने लगभग पूरा बचपन एक साथ ही बिताया था। वह कुछ कहे बिना भी सब कुछ समझती थी और हमेशा एक मैच्योर दोस्त की तरह उसका साथ देती थी। एक तरह से उसकी छूटी हुई पढाई फिर से शुरु कराने के पीछे सुनीता की ही जिद थी, वरना तो वह बारहवीं में एक साल फेल हो जाने के बाद पढाई को पूरी तरह अलविदा कह चुका था। सुनीता उससे एक साल जूनियर थी। उसके एक साल फेल हो जाने के बाद दोनों बारहवीं में आ गये थे। उस साल भी वह लगातार सुनीता के कोंचने, समझाने और हर तरह से मनोबल बनाये रखने के कारण ही अच्छे नम्बरों से पास हो पाया था। बी ए के लिये उसका फार्म भी सुनीता ही लाई थी। अपनी अनिच्छा के बावजूद सुनीता का मान रखने के लिये ही वह बी ए कर रहा था। बेशक बी ए करने के चक्कर में उसका आर्थिक ग्राफ बिगड ग़या था और उसके हाथ से एक ढंग की नौकरी भी जाती रही थी। वह यह भी जानता था कि बी ए क्या एम ए भी कर ले, ढंग की नौकरी उससे सौ तरह के पापड बिलवायेगी। लेकिन इसके बावजूड़ वह सुनीता का कहा नहीं टाल पाया था। वह उसके लिये इतना कुछ करती थी। उसकी सारी तकलीफों को वह बेशक कम न कर सके, लेकिन उसका मनोबल बनाये रखती।

उसे यह भी पता था कि वह जो भी, जहां भी कोई धंधा कर रहा होता या जिस सडक़ पर वह समान बेच रहा होता या किसी दुकान पर टुच्ची सेल्समेनी कर रहा होता तो वह उस सडक़ से भी गुजरना टालती थी ताकि उसे यानी कथानायक भारत को बेवजह उसकी नजरों के सामने छोटा न होना पडे। यह बात वह समझता था और वे दोनों कभी भी इस बात को अपने आपसी सम्बन्धों के बीच में नहीं लाते थे। खास कर मोजों वाले किस्से के बाद तो सुनीता उसकी खुद्दारी का पूरा सम्मान करती थी।

उन दिनों उसकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब चल रही थी। इसके बावज़ूद उसकी पूरी कोशिश रहती कि उसके कपडे साफ सुथरे रहें। कई जरूरी चीजें टल रही थीं। वह चाह कर भी अपने लिये ढंग के रूमाल और मोजे नहीं खरीद पा रहा था। जो दो एक जोडे थे उनका या तो इलास्टिक ढीला हो गया था या वे पंजों की तरफ बिलकुल फट गये थे। सुनीता से यहीं एक बेवकूफी हो गई। हालांकि उसकी खुद की कमाई नहीं थी, फिर भी वह अपनी तरफ से उसके लिये दो जोडी मोजे और रूमाल ले आई। वैसे इसमें ऐसा कुछ भी नहीं था कि बात का बतंगड बनता। वे दोनों पहले भी एक दूसरे को छोटी मोटी चीजें देते रहते थे। लेकिन इन चीजों को देख कर वह बुरी तरह हर्ट हो गया। एकदम चुप हो गया था। इस घटना के बाद उसने कई दिन तक सुनीता से बात नहीं की थी। उसके हिसाब से यह उसके अहम् पर चोट थी। उसे बेचारगी की हद तक शर्मिन्दा करने की बात। शायद यह उसी घटना का प्रभाव रहा हो उसने उस दिन के बाद से आज तक मोजों वाले जूते ही नहीं पहने हैं। वह या तो सैण्डल पहनता है या बिना तस्में वाले जूते जिनमें मोजों की जरूरत नहीं रहती।

सुनीता से बेहद आत्मीय सम्बन्धों के बावजूद वह इन सम्बन्धों का हश्र जानता था और हुआ भी वही था। उसे अच्छी सैकेण्ड क्लास के बावजूद पढाई को फिर विराम देना पडा था और सुनीता सिर्फ पास भर होने के बावजूद एम ए करने के लिये अपनी बडी बहन के पास दूसरे शहर चली गई थी। उन दोनों के बीच सारे वायदे और उस अनकहे सम्बन्धों के बारीक रेशे अपनी जगह पर थे और जिन्दगी की सच्चाई अपनी जगह पर। सुनीता की शादी वहीं से उसकी बहन ने अपने किसी रिश्तेदार से तय कर दी। लडक़ा डॉक्टर था। सडक़ के किनारे फेरी लगा कर सामान बेच कर पढाई करने वाला कथानायक निश्चित रूप से उस डॉक्टर का विकल्प नहीं हो सकता। यहां भी उसने इसे अपनी एक बहुत बडी हार मान लिया था। वह लडता भी तो किससे और किस आधार पर? लडने लायक आत्मविश्वास बेरोजगारों के पास नहीं होता। उसने सुनीता की शादी के बारे में एक लफ्ज तक नहीं कहा। वह चुप्पी के गहरे कुंए में उतर गया।

हालांकि शादी का न्यौता उसे भी मिला था, बल्कि सुनीता के हाथ से लिखा अकेला कार्ड उसी को भेजा गया था। यह बात सुनीता भी जानती थी और चाहती थी कि वह न ही आये तो बेहतर। जानता वह भी था इसीलिये तो उसकी शादी में जाने के बजाय उसने अपना शहर ही हमेशा के लिये छोड दिया। वह बम्बई आ गया था। बम्बई - जहां ढेर सारे लोग सपने लेकर आते थे और धीरे धीरे सपनों को पूरी तरह भूल कर एक मामूली सी, गुमनाम जिन्दगी गुजारने लगते हैं। ठीक कथानायक की तरह। वह भी खाली हाथ यहां चला आया था। शायद यहीं किस्मत कुछ पलटा खाये।

जिन भसीन साहब के बच्चों को वह टयूशन पढाता था, वे जब स्थानान्तरित होकर बम्बई आये तो उन्हीं ने कोंचा था, चले आओ यहां। यहां कोई भूखा नहीं मरता। एक बार किस्मत आजमाने में कोई हर्ज नहीं। मैं अपने ऑफिस में ही तुम्हारे लिये कोई बढिया जॉब देखूंगा। तब तक तुम हमारे साथ ही रहना।

सचमुच भसीन साहब की मेहरबानी से उसे फुटपाथ पर नहीं सोना पडा था, न भूखे रहना पडा। न ही खाने की एवज में होटलों में बैरागिरी करनी पडी। क़र लेता तो बेहतर था। भसीन साहब ने उसे छत और रोटी जरूर दी थी, लेकिन उसकी हैसियत टयूटर से गिरते गिरते घरेलू नौकर और बेबी सिटर की हो गयी थी। ऐसी जिन्दगी से तो बेहतर था फुटपाथ पर ही सो लेता। वह सोया भी लेकिन बाद में। जहां तक नौकरी का सवाल था तो मिस्टर भसीन कभी भी नहीं चाहते थे कि उसे नौकरी मिले। वे तो यही सोच कर उसे लाये थे कि वह रोटी और छत के एवज में उनके बच्चों को पढाता भी रहेगा, वे दोनों जब नौकरी करने जायेंगे तो दिन भर मुफ्त में बच्चों का ख्याल भी रखेगा।

पांच साल पहले जब कथा नायक यहां आया था तब से आज तक उसने जितने भी अनुभव बटोरे हैं, जितने संर्घष किये हैं, उनपर चाहे तो एक पूरी किताब लिख सकता है, चाहे तो घंटो बिना रुके बात कर सकता है। लेकिन तकलीफ यही ही कि यह सोना इतना तप चुका है, इसने इतनी गरमी, ताप और मार झेली हैं कि अब वह बात ही नहीं करता। अब एकदम चुप ही रहता है। वह कई कइ दिन तक एक शब्द बिना बोले भी रह सकता है। कई बार तो पूरा पूरा दिन यहां तक कि शनिवार की शाम से लेकर सोमवार ऑफिस पहुंचने तक एक शब्द बोले बगैर सारा वक्त काट देता है। कहे भी तो क्या कहे? और किससे? हमारे कितने बच्चे हैं यह बताते समय हम गर्भपातों की संख्या नहीं गिनते। यहां तो कथानायक के पास सफलताओं के नाम पर मिसकैरिज और अबॉर्शन वाले मामले ही हैं। सफलता एक भी नहीं। हां, इस शहर में भी उसकी एक प्रेमिका है। यही इकलौता प्रेम जो पिछले ढाई तीन बरस से किसी तरह घिसट रहा है। दोस्त एक भी नहीं।

इस शहर में कथानायक की पहली पगार नौ सो रूपये थी। जबकि लॉज में रहने खाने के ही साढे सात सौ देने पडते थे। उसे लॉज से निकलने और आजदो हजार की पगार तक पहुंचने में पांच साल लग गये हैं। इस बीच मैरीनड्राइव की इस मुंडेर से अरब सागर की इतनी लहरें नहीं टकरायी होंगी जितने धक्के उसने खाये हैं। लॉज से झौंपडी, चाल, दफ्तर के चपरासी की बाल्कनी, बिस्तर भर जगह के लिये कभी वसई तो कभी चैम्बूर, कभी भायखला तो कभी उल्हासनगर। बम्बई का कोई उपनगर नहीं बचा होगा। कभी बिलकुल सडक़ पर आ जाने वाली हालत। एकाध रात पार्क में भी। नौकरियां भी इसी तरह बदलीं। बेगारी की मार भी खाई और पैसे भी गंवाये। कई बार पूरी पगार ही जेबकतरों का निशाना बन गयी। कितनी ही रातें उसने दाल उबाल कर ब्रेड के साथ खायी है, दाल का पानी पी पी कर रात गुजारी है। पाव और गरम मीठे पानी का कॉम्बीनेशन बनाया है। भला ऐसे दिनों की गिनती रखी जा सकती है क्या? बस, हर बार पगार का सबसे बडा हिस्सा उसे कमरे केलिये रखना पडता है। भूखे पेट ही सही सोने के लिये तो जगह चाहिये। उसके पास इस बात की भी गिनती नहीं है कि कितनी बार उसने खुदकुशी करने की सोची और कितनी बार वापस जाने की। पर दोनों ही काम वह नहीं कर पाया।

आजकल उसे कट कटा कर कुल दो हजार मिलते हैं। जिस जगह पर वह रहता है, वहां उसे रहने के पन्द्रह सौ देने पडते हैं। बाकि पांच सौ रूपये जिन्दगी की बाकी जरूरतों के लिये हैं। इनमें कभी कभार घर भेजा जा सकने वाला मनीऑर्डर भी शामिल होता है। उसकी सारी खुशियां, तकलीफें, बीमारी, कपडा लत्ता, ट्रेन का सीजन टिकट, चाय,टूथपेस्ट, ब्रश, कंघी, तेल, किताब, पैन, तौलिया, अकबार, जूता, मोजा वह पहनता नहीं, रुमाल, प्रेस, साबुन, सिगरेट, पान जो वह अफोर्ड ही नहीं कर सकता, दाढी, हेयर कटिंग, सिनेमा, मनोरंजन, उपहार, घर आने जाने के लिये किराया जो वह पांच साल में सिर्फ एक बार ही जुटा पाया है, और वह सब कुछ जो एक शहरी आदमी को सुबह से लेकर रात को सोने तक जुटाना होता है, उसे इन पांच सौ में ही जुटाने होते हैं। ये पांच सौ रुपये उसके वर्तमान के लिये हैं, उसके भविष्य के लिये हैं, जिनमें सिर्फ सालाना तरक्की पचास रूपये होती है। इसी में उसकी भावी गृहस्थी, मकान, परिवार, बाल बच्चे और उनका भविष्य और खुदके सारे सपने इसी रासि के सहारे पूरे किये जायेंगे। कभी कभार बीमारी की वजह से उसकी पगार से कोई कटौती होती है या ओवर टाईम की वजह से या बोनस की कोई अतिरिक्त राशि मिलती है तो वह समझ नहीं पाता कि इसका क्या करे और कैसे करे।

यहां पैर ठीक से जमा लेने के बाद शुरु शुरु में वह कुछ टयूशनें पढा लिया करता था हाथ खर्च लायक पैसे मिल जाते थे। लेकिन अब सब कुछ छोड छाड दिया है। वहां भी वही खिचखिच। फलां दिन आये थे, फलां दिन नहीं, फलां दिन आये थे पर बच्चे की तबियत ठीक नहीं थी सो पढाया नहीं था। फलां दिन फलां दिन। अब वह कुछ नहीं करता, छुट्टी होते ही यहीं आ बैठता है और तभी जाता है जब खाना खाने और सोने का वक्त हो जाता है। वह हर तरफ से लापरवाह हो गया है। न कुछ सोचता है न ही सोचना चाहता है। पिछले दो तीन सालों से उसकी सारी शामें आम तौर पर यहीं गुजरी होंगी। चुपचाप अकेले दूर क्षितिजों में जहाजों को, नीचे लहरों को या फिर सडक़ पर चल रहे लोगों को चुपचाप देखते हुए। सिर्फ शनिवार को ही वह कुछेक वाक्य बोलता है जब कथानायिका आती है। उस एक घण्टे में वह कथानायिका से जितने शब्द बोलता है, उतने वह पूरे हफ्ते में भी नहीं बोलता।

कथानायिका जैसा कि मैं ने बताया कि हिन्दी में एम ए है और कविताएं लिखती है। उसकी अब तक की पूरी जिन्दगी लगभग उसी तरह की रही है, जैसी कथानायक ने गुजार दी। कभी पढाई के लिये, कभी छत के लिये तो कभी दो वक्त की रोटी के लिये ही। द्याह भी अगर गिनने बैठे कि कुल मिला कर उसे कितनी बार अपनी पढाई स्थगित करनी पडी है तो उसकी कोई गिनती नहीं है। नौकरियों की गिनती भी वह अब भूल चुकी है। लेकिन एक बात हमेशा उसके साथ रही। एक एक कदम आगे बढती बढती वह यहां तक आ पहुंची। वैसे उसके सामने भी कई बार जिन्दगी के शार्ट कट्स आये। वह चाहती तो उनका फायदा उठा कर कहां से कहां पहुंच सकती थी, लेकिन दिक्कत यही थी कि ये सारे शार्टकट्स उसकी देह से होकर गुजरते थे।

इस देश में काम करने के लिये घर से बाहर निकली ज्यादातर लडक़ियों की यही पीडा थी। देश का और देश की लडक़ियों का जिक़्र आया है तो यह देख लेने में कोई हर्ज नहीं कि आमतौर पर बाकी लडक़ियां किस तरह के हालात से गुजर रही हैं। आजादी के इस पचासवीं वर्षगांठ के साल में।

वैसे तो इस देश में एक तरफ पढी लिखी, दूसरी तरफ अनपढ, घरेलू या नौकरीपेशा, कुंवारी या शादीशुदा किसी भी तरह की लडक़ियों की सामाजिक और आर्थिक हालत कभी भी अच्छी, सम्मानजनक और सुकूनभरी नहीं रही थी, लेकिन हर वक्त पैसों की तंगी, रोजाना की जरूरतों के और साथ ही उन जरूरतों को पूरी करने वाली चीजों के दाम बेतहाशा बढ ज़ाने के और किसी भी तरह से उन्हें पूरा न कर पाने की कचोट ने इधर उनके जीवन को और भी दूभर व तकलीफदेह बना दिया था। पढी लिखी लेकिन मजबूरी से या स्वेच्छा से घर बैठी औरत को तो घर की चहारदीवारी के भीतर ही शोषित करने वाले कई हाथ थे लेकिन जो औरत मजबूरी के चलते दो चार अतिरिक्त पैसे कमाने की नीयत से घर से बाहर निकलती थी, उसका गला टीपने के लिये चारों तरफ कई जोडी हाथ उग आते थे। एम ए, एम एससी और बी एड या एम एड वगैरह कर लेने के बाद भी उसके नसीब में गली मोहल्लों में हर चौथे घर में खुले पब्लिक स्कूलों की पांच सात सौ रुपल्ली की नौकरी ही बचती थी, जहां उसे सौ सौ बच्चों की क्लास के सात आठ पीरियड रोजाना लेने होते। ये पांच सात सौ भी उसे अपनी तरफ से कुछ ढीला किये बगैर नहीं मिलते थे। इस आर्थिक मानसिक शोषण के अलावा नौकरी की अनिश्चितता एवं दैहिक शोषण की आशंका अदृश्य तलवार सी हर समय उनके सिर लटकी रहती। किसी भी अन्य बेहतर विकल्प के अबाव में वह वहीं और यूं ही खतती रहती थी। खुशी, कुंठा सपने सब अपनी जगह होते थे और यह छोटी सी नौकरी अपनी जगह होती, जो बेशक एक ढंग की साडी भी नहीं दिला सकती थी, फिर भी कुछ तो देती ही थी। कई जगह तो हालत इतनी खराब थी कि कुछ जवान औरतें सिर्फ इसलिये दो चार सौ की नौकरी करने के लिये दिन भर घर से बाहर रहती थी ताकि अकेले घर पर बैठे बूढे ससुर, जेठ या जवान देवरों की मुफ्त की खिदमतगारी न करनी पडे और इज्जत भी बची रह सके।

यह हमारे वक्त की एक बहुत कडवी सच्चाई थी कि सडक़ के किनारे दिहाडी पर मजदूरी करने वाले मजदूर के लिये तो सरकार ने साठ सत्तर रुपये मजदूरी तय कर रखी थी। स्टेशन पर हमाली करने वाले के लिये भी फी फेरा दस बीस रूपये का इंतजाम था, लेकिन एक एम ए और एम एससी पास किसी मैडम श्यामा के लिये या दिन भर किसी ऑफिस में खतने वाली कॉन्वेन्ट से पढ क़र आई मिस मैरी के लिये सरकार ने किसी न्यूनतम वेतन की भी जरूरत नहीं समझी थी। जो भी चाहे शोषण कर सकता था। लोग धडल्ले से कर रहे थे। पूरे देश का यही आलम था।

यह रचना गद्यकोश मे अभी अधूरी है।
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