एक मूक वार्तालाप / पूनम मनु

Gadya Kosh से
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सुनो, मेरी बात सुनोगे...

सुनोगे तुम...! मेरे हृदय की वेदना... अपनी पीड़ा रोज कह लेते हो मुझसे। क्षोभ से भर लात भी मारते हो मुझे... मारते हो न ...!

लो मैं सौगंध उठाता हूँ ... मैं कुछ न कहूँगा तुम्हें। बस... मेरा दर्द हल्का होने दो आज। आज मेरा उत्ताप भी सुन लो ... सुन लो कि शब्दों के दाँत हैं। वे काटते हैं। दर्द देते हैं पर लहू नहीं निकलने देते। वे शब्द जो मेरी ओर उछलते हैं पर दिखते नहीं ... वे शब्द जो मेरे पास नहीं पर तुम्हारे पास हैं। सुनो, तुम सुन सकते हो मुझे क्यूंकी तुम्हारे पास आत्मा है। आत्मा जो ढाल है तुम्हारी, मेरी, सबकी... इस आत्मा में हो बेचैनी तो लिखना कभी मुझे ... लिखोगे न। मैं बताता हूँ तुम्हें। सुनो-

वह भागे जा रह है। दूर... दूर... सबसे दूर ... सच!

हर रोज़ क्षण प्रति क्षण भागते नहीं सोचा कि सब भाग रहे हैं। कहीं दिन भाग रहे हैं। कहीं रातें। कहीं खामोशी भाग रही। कहीं बातें। इंसान भाग रहा है। कहीं भगवान ...समय भाग रहा। पात, पात अब नहीं साथ। कोई अकेला भाग रहा तो कोई किसी के साथ।

ये नहीं पता कौन किसके कितना साथ। कभी मन भागता किसी से तो कभी तन... आत्मा तक कोई नहीं पहुंचता कभी। ट्रेन भागती दिख रही तो कहीं बस। कहीं रिक्शा कहीं कार ...

उफ... ये सब थकते क्यों नहीं ...? कहाँ की दौड़ दौड़ते हैं ये सब...? कहाँ जाना चाहते हैं और कहाँ जाएंगे भला...?

नहीं सोचता सिवाय मेरे। मैं ठहरा-ठहरा एक पल, एक इंच, एक रत्ती भी कम नहीं हुआ। पड़ा ही रहा बस खड़ा ही रहा। बस बढ़ा ही... और बढ़ता ही रहूँगा। मेरी छाती गर्व से और चौड़ी और चौड़ी होती ही जा रही है पल प्रति पल। मानुष मन के स्तर के निरंतर गिरते रहने के बाद भी।

जिसके मन में जितना मैल उसके घर उतने साफ। कभी सोचता हूँ-घर को साफ़ करने के चक्कर में मन में ज़्यादा मैल जमा होता या मन और आचरण की गंदगी से छुटकारा न पाने की विफलता को घर की सफाई से छुपाया जाता...?

कहीं-कहीं कभी-कभी ऐसा भी लगता क्या पता आत्मा और चरित्र की गंदगी को छुपाने की लगातार कोशिश ही घर की अनधिक सफ़ाई का कारण बनी हो। किन्तु आचरण और चरित्र की गंदगी छिटक-छिटक पड़ती रही बराबर लगातार घर के दरो-दीवार, फर्श को चमकाने के बाद भी।

मैं दिखता तो हूँ कि मैं गंदा हूँ। लोग मुझे चाहें या न चाहें। दुत्कारें और दूर रहें। सब उनकी मर्ज़ी पर निर्भर करता। पर... आदमी से दिखते हुये गंदे जानवरों से हर तरह से बेहतर हूँ। ।

इनकी सहूलियत के लिए तैयार किए गए इनके साफ़ गुसलखानों, कमरों, भवनों में इनके द्वारा अत्यंत गोपनीयता के साथ किए गए निरीह औरतों, मासूम बच्चों-बच्चियों के मानसिक, शारीरिक, यौन-शोषण रूपी इनके पाप को इनके अपनों व खुद के द्वारा सफाई से पुण्य दिखाने के बाद भी... परफ्यूम से तर, साफ़ उजले कपड़ों से ढके होने के बाद भी इनके शरीरों से जाने क्यों निरंतर एक बदबू मुझे आती ही रहती है।

वैसे ही जैसे उस राक्षस को मानस गंध आ जाती है ... जानते हो ...? जानते हो न तुम, उस कहानी को... जिसमें एक राक्षस एक राजकुमारी को कैद कर लेता है ... राजकुमारी की आहों, उसकी तड़प और उसकी पुकार से द्रवित जब उसका प्रेमी उससे मिलने सात समंदर पार उसके पास पहुंचता है तो भावुक मिलन के बाद वह राक्षस से उसकी सुरक्षा हेतु उसे मक्खी बना अपने बालों के जूड़े में छिपा लेती है... परंतु वह राक्षस मानस गंध पहचान लेता है।

ठीक उसी प्रकार मुझे भी तुम इन्सानों में छिपे, चोले में तुम समान दिखते राक्षसों, पापी जिनावरों की गंध हर घड़ी आती रहती है। वह जहरीली गंदी बू...जो हर क्षण मुझे बेचैन किए रहती है।

वह ही बू ...

जो मुझे तो आती है पर उनके जैसे दिखते दूसरे मनुष्यों को नहीं । मानों सत्य पर पर्दा पड़ा रहे तो इसी में सबकी बेहतरी है। भले किसी माँ का कलेजा सिसक-सिसक दम तोड़ता रहे या भले कोई बाप अपनी बेबसी में फुंकता रहे रात-दिन।

वो बू ... जिससे आसमान त्रस्त है। हर अच्छा इंसान त्रस्त है। भगवान त्रस्त है। सारा जहान त्रस्त है।

मेरी बू इतनी पीड़ादायी तो नहीं है कि किसी मासूम की ज़िंदगी ही बर्बाद कर दे। मुझ पर भिनभिनाती मक्खियों, मच्छरों और किटाणुओं के लिए मैं जिम्मेदार नहीं। इनके लिए भी वही लोग जिम्मेदार हैं जो हर तरह से हर किसी का शोषण कर रहे हैं। मासूमों का शोषण यथा सत्य का शोषण ...

मानवता इतनी बेबस तो कभी नहीं थी ...

उफ़्फ़... कलेजा फटता है मेरा। मानों मैं कोई इंसान हूँ। पर मैं ज़िंदा नहीं ... क्या हूँ ...? नहीं तो!

लूट, कालाबाजारी, भ्रष्टाचार से भरे लोगों के फ्रिज, थैले मेरी छाती पर एक बोझा रोज लाद देते हैं। बिना इसकी परवाह किये कि यदि मैं इसी तरह बदस्तूर बढ़ता रहा तो डस्ट फ्री पेंट से चमचमाते उनके घरों को भी ढक लूँगा एक दिन। भागते हैं अपनों से, निर्मल मन से, अच्छे व्यवहार से, नेक आचरण से, सदचरित्र व्यक्तित्व से। ऊँह... मानुष... मानुष ...!

जानते हो...? इस गंद के लिए न कोई एक विशेष धर्म जिम्मेदार है न कोई विशेष जाति। गंद की न कोई जाति होती है न कोई धर्म। पता है न तुम्हें...!

कई बार दो अजनबियों को प्रेम से बतियाते देखता हूँ तो सोचता हूँ-अपनों के वास्ते इन मनुष्यों की प्रेम रूपी इस नदी में अक्सर सूखा क्यों पड़ा रहता ...?

"जीजी, तुम्हारे देवर इस बार करवाचौथ पर मेरे लिए सोने के कंगन लाये...!"

"हें ... तूने भी कड़े लिए ...? मैंने तो तेरे जेठजी से 2 माह पहले ही कह दिया था कैसे भी करो...कहीं से भी करो। इस बार मैं नए डिजाइन के कंगन लूँगी तो, लूँगी ही ..."

"तो ...?" हैरान-परेशान देवरानी के दिल में धुकधुकी बंध गई. मैंने सुनी। कई बार... मैंने सुनी।

"तो, क्या ... लाए ना... लाए ... बिल्कुल लाए. मेरी पसंद के सोने के चार तोले के कंगन...!"

जेठानी की तनी गरदन और देवरानी का उतरा मुंह मुझे बिल्कुल नहीं भाता। न ही किसी देवरानी की ऐसी खुशी जो झूठी हो। अपने घर और तन-मन का गंद मुझ पर फेंकते कई बार सुनता हूँ मैं ऐसी वैसी कितनी ही अच्छी कम बुरी बातें।

परंतु ऐसी देवरानी-जेठानी जैसी कितने ही कुलीन घरों की औरतों के चेहरों पर शिष्टता की जमी परतों को अपने ही पास उखड़ते देखते, हर पल सोचता हूँ ये स्त्रियाँ जो जननी हैं मनुष्य की... सृष्टि की, आचरणों की, संस्कारों की, स्रोत हैं निर्झर नेह का। आज कितनी प्रदूषित हो चुकी हैं। अंदर से। बाहर से। मुझ से भी ज़्यादा। सोच पर पाबंदी तो नहीं...!

एक विचार लगातार घूमता मेरे समक्ष कि-मनुष्यों को जनते-जनते कहीं इन्हीं जननियों ने तो नहीं जने सारे जहाँ के ये गंद...?

जेवर, कड़े लाए पति चाहे कहीं से... नहीं सोचतीं, तनिक भी यही पति किसी सरकारी समिति में बैठा किसी गरीब किसान के नाम पर जाली चैक बनाकर हड़प लेगा उसके हिस्से का जायज़ पैसा और उस पैसे की आस में एक-एक रोटी को तरसता उसका परिवार मायूसी में भले कर ले कहीं जाकर आत्महत्या। इससे क्या सरोकार उन्हें।

भले उसकी नाबालिग बेटी बुदधि से नपुंसक किसी बूढ़े की हवस का शिकार बने। बेबस पिता के हाथों कुछ पैसों के लालच में विवाह के नाम पर हुये उसके सौदे में उसे सौंपे जाने पर।

पति को और ला... और ला...के नाम पर कितना नीचे गिरा भ्रष्टाचार को जन्म देने में सक्षम हैं ये स्त्रियाँ।

घर रूपी साम्राज्य में अपना राज-पाट बनाए रखने वास्ते हर साम-दाम दंड-भेद रूपी हथियारों से लैस इन्हीं स्त्रियों ने कई बार जन्मा है घर में विछोभ। जिसमें फंस फूँक देता है उनका ही बेटा उन्हीं की बहू को।

अपने हिस्से को उकसाती स्त्रियाँ अपने पतियों में पनपा देती हैं कई विषैली योजनाएँ रूपी वाइरस। जिससे ग्रसित हो, पाता है वही परिवार अपने आपको जेल के भीतर।

मुझ पर मुंह बिचकाती सुंदर स्त्रियाँ कई बार अपने अजन्मे गर्भ रूपी पाप मुझ पर डाल करती हैं मेरा विस्तार। उनकी नज़रों में उनके कर्मों से ज़्यादा बदसूरत हूँ मैं। ये जानते भी कि उनके कुकर्मों के परिणाम को कितनी सहजता से छिपा लेता हूँ मैं अपने भीतर... बाद इसके भी स्वीकार नहीं करता कि हर स्त्री ऐसी ही है... क्योंकि मैं ही जानता हूँ मनुष्य धर्म के लुप्त होते इस विकट समय में केवल स्त्रियाँ ही हैं जो हर बार बचा लाती हैं थोड़ी-सी धूप, थोड़ी-सी दूब और थोड़ी-सी नमी।

बावजूद मैं पूछता हूँ, कोई बताए मुझे, मेरा जन्म कैसे हुआ...? आज पूछता हूँ मैं... कौन है मेरा जन्मदाता या कौन है मेरी जन्मदात्री...?

क्या तुम बता सकते हो...? नहीं न...!

राजे-महाराजे तक कब जान सके उनके महल की गंदगी कहाँ जाती है ...? गंदे लोग उनकी अपवित्रता उठाकर चुप ले जाकर गाढ़ते रहे पृथ्वी के सीने में यहाँ वहाँ... जहाँ अब बस चीत्कार है।

वहीं आज मोटे-मोटे मुआवजों से रोज़ पैदा होते सेंकड़ों बे रियासत नवाब, राजे, महाराजे, धन्ना सेठ विदेशी उत्पादकों का उपयोग या उपभोग करते कब पता रखते हैं कि उनसे पैदा हुई मलिनता अब किसकी छाती पर मूंग दलेगी ...?

जानते हो ... बड़े पैकेज का नाटक कर हमारी होनहार युवा पीढ़ी की बुद्धिमता को ऊंचे दामों पर खरीदते ये विदेशी लोग उनकी जीवन शैली को इतना भ्रमित किए जा रहे हैं कि कंपनी के हिसाब से अपने और अपने परिवार के रखरखाव की चेष्टा में पूरी उम्र ये कर्ज़ तले दबे रहने को मजबूर हैं। जितनी कमाई उससे ज़्यादा खर्च ... मानों बच्चों को उसका मनपसंद झुनझुना पकड़ा ताउम्र नचाते ये उसे अपने इशारों पर। इस बाजारीकरण पर आपत्ति है मुझे... क्या तुम्हें नहीं...?

वहीं खुले में शौच के विरोध पर हुई क्रांतिकारी जाग्रति पर उत्साहित मैं सोचता हूँ मेरा उद्धार कैसे होगा...? कौन कृष्ण मेरा भी बेड़ा पार करेगा...?

प्रश्न गूँजता रहता रात दिन ...

अब मैं चिंतित हूँ "काट दो" नामक क्रांति के तहत कामुकों के कटे लिंगों को उदरस्थ करने के लिए स्वयं को मैं कैसे तैयार कर पाऊँगा ...? उससे बड़ा गंद क्या...?

हाँ, पर देखना ज़रूर चाहता हूँ किसी बहादुर लड़की या लड़के को इस योजना को शुरू करते और इस दंड को विस्तार पाते हुये।

अपने कटे-फिटे को कपड़ा रूपी आवरण तले छुपाए घूमते ये कामुक नपुंसक जब ताउम्र अपने कर्मों की सज़ा भोगेंगे तब इन्हें देख हँसना चाहता हूँ उनपर।

खुले में शौच का विरोध करने वाली इन बहादुर औरतों के हाथों में अब दरातियाँ देखकर थोड़ा सुकून में तो हूँ कि मर्दों को अपने पुट्ठे तक टिकाने के लिए अब सोचना होगा। सोचना भी चाहिए.

मंगल-चाँद की ओर लपकते इन गंदे लोगों को धरती और प्रकृति का दोहन करते देख हर सही इंसान का ये फर्ज़ बनता है कि उसे रोके उसे टोके कि अपने हिस्से की गंदगी उसे ही साफ करनी होगी और अब करे भी...

वरना धरती की छाती पर पड़ा-पड़ा मैं किसी दिन मार दूंगा इन्हें। इन्हीं के घरों के साफ गद्दों बिस्तरों पर ही। इतना आक्रोश मन में होते हुये भी मैं चिंतित huhunहूँ इन हवशियों की बढ़ती तादाद को देख कर। आने वाली पीढ़ियों के लिए ...!

तुम भी कुछ करो न। कुछ करो। मुझ से गुजरे कई लोग हैं जो सफाई में उतर जाते। कुछ उन जैसे साफ हो गंदगी का विस्तार करते। कुछ सफाई. ये तुम्हारी मर्ज़ी पर निर्भर करता कि तुम क्या करते और कैसे करते।

मेरे ढेर में कितनी ही शरीफ लाशों के अवशेष हैं। सच्चाई भी यहीं कहीं आजू-बाजू दफन होगी निकाल लेना। निकाल सको तो...!

तुम तो मेरे पास बैठे सांस भी ले लेते हो पर मैं नहीं ले पाता। जानते हो मेरी बस्ती से जो भी गया वह त्रिशंकु ही रहा। पिछले किए वादे पूरे न कर सका। अगले के साथ रह न सका। मुझ पर राजनीति करते संविदाकर्मी नेता हो या राजनेता तनिक मेरा लिहाज नहीं करते। जबकि उनका बचा-खुचा हूँ मैं। सुनो, तुम ही मेरा उद्धार कर दो... कर दो न! लोगों को उनका असली चेहरा दिखाओ. दिखाओ उन्हें मेरे आकार से भी बदसूरत है उनकी सीरत और मुझसे भी ज़्यादा बदबूदार है उनकी बू...

उनकी बू से मितली आती है मुझे। मेरा जीना मुहाल है। (भूल गया कि वह कोई प्राणी नहीं) तुम लोग कैसे जी पाते हो ...? पृथ्वी पर जीवित चंद लोगों से पूछना है मुझे... कब तक बचे रहोगे तुम ...? बोलो कब तक...? प्रतिशत में 2% ही बचे तुम लोगों को ही अब बजाना होगा हर प्रकार के अत्याचार के विरुद्ध बिगुल... ई-ई ई ई-ई ...

मेरे कान तरस रहे हैं ... आह मेरे कान तरस रहे हैं मानवता की बेखौफ हंसी सुनने के लिया... सारा कचरा साफ होते ही मानवता खुलकर सांस लेगी ... लेने दो सांस ... लेने दो! दो अधिकार उसे भी जीने का ... जो उससे छीन लिया गया राक्षसों द्वारा ... दो!

धपाधप धपाधप... धकेल दो इन्हें जहन्नुम में ... नर्क की आग में झोंक दो हर बुराई को।

आने वाली पीढ़ियों की सुरक्षा के लिए अपनी इंजीनियर सेना से कहो-बनाए कोई ऐसी चिप या कोई ऐसी डिवाइस जो हर नवजात बच्चे में वैक्सीन के साथ लगे। किसी भी बालक पर बुरी नज़र पड़ते ही बजे उसमें से ऐसे अलार्म आठों दिशाओं में कि छूने भर की कोशिश से पहले ही पकड़ा जाए व्यभिचारी

... जो बचाए हर मासूम को सदैव, जीवन भर... हर तरह के शोषणों से। न वह किसी का शोषण कर सके न कोई उसका ... कहो अपनी इंजीनियर सेना से बनाए ऐसा कुछ...! ताकि सुरक्षित रहे हर बच्चा स्त्री / लड़कियाँ ...

कहो किसी तानसेन से कि गाये ऐसा कोई राग-जिसके गूँजते ही नंगे हो जाएँ समाज के गंदे किटाणु। किसी सिंदबाद से कहो कि तोड़ दे व्यभिचारियों, अत्याचारियों के तिलिस्म और भस्म कर दे उनको उन्हीं की आग में।

मेरे विवेकशील दोस्त, तुम ही पहुंचा सकते हो मेरा दर्द। मेरा दुख। मेरा क्षोभ। सुसभ्य लोगों तक। क्या पता मेरी तकलीफ जानकर ही पिघल जाए किसी की आत्मा।

रेशमी गद्दों में मुझ समान धँसे मठाधीशों मुल्लाओं से कहो कि उन्हें इस गद्दी पर बैठ सिर्फ़ शरीर का विस्तार करने के लिए ये पद नहीं सौंपें गए हैं कुछ मनुष्य धर्म का भी विस्तार करें। कह दोगे ना...? कह दो!

वह कहता रहा। मैं सुनता रहा ... सुनता रहा ... सुनता रहा...

कुछ कर पाऊँगा नहीं जानता। पर इतना विश्वास है मुझे। शायद उसे भी रहा होगा कि उसका दर्द और मेरी लेखनी को पढ़ कोई तो माई का लाल आएगा जो हमारी सोई आत्मा को झिझोड़ेगा। जिससे शायद जाग जाये कुछ उन चंद लोगों के अंदर आग जो अभी सुप्त अवस्था में हैं और जो चुप देख सुन रहे हैं हर ओर होते अत्याचार अनाचार बिना कोई विरोध किए... यदि जाग गई वह सोई अगन तो स्वाहा कर देगी हर अनाचार अत्याचार पृथ्वी से। शायद आए कोई माई का लाल...मैं प्रतीक्षा में हूँ।