एक मौत सच / प्रेम गुप्ता 'मानी'
तीसरी बार वे सचमुच मर गए। मौत के लिए सचमुच कहना सच्ची बहुत अजीब लगता है। आदमी क्या बार-बार मरता है...? शायद नहीं, पर वे कई बार मरे थे। पहली बार तब जब ढेर सारे लोगों के सामने पीड़ा की साक्षात मूर्ति बनी पत्नी से उन्होंने लड़ख़ड़ाती ज़ुबान में कहा था, "अपने मरने का मुझे इतना दुःख़ नहीं, जितना इस बात का कि मैं धन के सिवा तुम्हें कोई और सुख़ नहीं दे सका..." और तब सम्बन्धियों के जाते ही उन्हें अचेतन हालत में जानकर पत्नी बड़बड़ाई थी, "दिन भर इनका गू-मूत साफ करते-करते मेरी तो ज़िन्दगी ही नरक बन गई। किसी तरह मरें तो कोई सुख़ मिले।"
और दूसरी बार तब जब प्राण हलक में अटके ही थे कि तभी करीबी रिश्तेदारों की गिद्ध निगाह उनके धन पर अटक गई थी और वे नाप-जोख़ में जुट गए थे। जल्दी मरें तो वे सब भी कुछ पाएँ...सारी ज़िन्दगी उनकी चाटुकारिता में बीत गई... आखिर अब तो कुछ मुआवजा मिलेगा।
और तीसरी बार...संतान कोई थी नहीं और पत्नी नकली कंठफोड़ विलाप में व्यस्त थी, तब रिश्तेदारों ने आनन-फानन में ही सारी तैयारी कर दी। एक ने उन्हें बिना नहलाए-धुलाए ही सस्ते क़फ़न में लपेट दिया और दूसरे ने जल्दबाजी में बनाई गई लचकदार बाँस की अर्थी में पटक दिया तो उन्होंने (आत्मा) इस भौतिक संसार से विदा लेना ही उचित समझा।
थोड़ी देर बाद जब भाई-भतीजों के कंधे पर सस्ती-लचकदार बाँस की अर्थी थी और "राम नाम सत्य..." का समवेत स्वर पत्नी के ऊँचे विलाप में गड्मड हो रहा था, वे सच में मृत्यु को प्राप्त थे।