एक यात्रा, आदिम एहसासों की / कुमार रवीन्द्र

Gadya Kosh से
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एक स्वप्न मुझे बार-बार दिखता रहा है कि मैं एक ऊँची चट्टान के सिरे पर अकेला खड़ा हूँ और उस चट्टान के ठीक नीचे है अतल गहराई। हवा मेरी देह के आर-पार निकल रही है, हालाँकि वातावरण एकदम शांत-मौन है। मैं सम्मोहित-सा उस नीचे के गह्वर में झाँकता हूँ। वहाँ दिखता है एक महाकाय पक्षी, जो उस अंतहीन गहराई को अपने विशाल पंखों से नाप रहा है। उस निर्जन-बंजर प्रदेश में न तो कोई पेड़ है और न ही अन्य कोई पक्षी। गह्वर के उस पार हैं हिमशिलाएँ और एक हिमशृंग, जो धूप में अपनी सुनहरी आभा से उस पक्षी को और संपूर्ण गहराई को सोनल बना रहे हैं। स्वप्न के टूटने तक मैं वैसे ही खड़ा रहता हूँ निःशब्द-निर्विकार। वह स्वप्न मुझे जोड़ता है पृथ्वी की आदिम आकृतियों से, यानी सृष्टि के आदिम स्वरूप से। जब-जब भी मैं पहाड़ों पर गया हूँ, उसी स्वप्न को खोजता रहा हूँ।

आज जब मैं राहुल की गाड़ी में बैठा हुआ निहार रहा हूँ मसूरी से धनौल्टी जाते हुए ऐसी ही ऊँची और गहरी भू-आकृतियों को, तो मुझे याद आ रहा है मेरा वही स्वप्न। अचानक राहुल ने गाड़ी रोक दी है, कुछ पलों के विश्राम के लिए। हम सब उतर गए हैं। मैं चकित हूँ इस स्थान के दृश्य को देखकर। सड़क के ऊपर सीधा खड़ा चट्टानी शृंग और सड़क के नीचे एक गहरी घाटी। एक पक्षी भी उस गहराई में मेरे स्वप्न के पक्षी की तरह ही उड़ता हुआ। किंतु न तो घाटी बंजर है, न ही वह पक्षी महाकार है और न ही सामने दिख रहे हैं हिमशिलाएँ और हिमशृंग। फिर भी मैं उत्कंठित हो रहा हूँ सड़क के उस पार जाकर उस घाटी को निरखने के लिए, वहाँ खड़े होकर हवा के प्रवाह को देह में समोने के लिए और उस पक्षी को घाटी का ओर-छोर नापते देखने के लिए। किंतु न तो अब मैं अकेला हूँ और न ही मेरी इस उत्सुकता में वह आतुरता है जो मुझे ऐसा करने के लिए विवश कर दे। मैं सोचने लगा हूँ कि स्वप्न और यथार्थ की मनस्थितियों में कितना अंतर होता है। हमारी इच्छाएँ, हमारी कल्पनाएँ, हमारी अंतर्दृष्टि भी जाग्रत अवस्था में परिसीमित हो जाती हैं हमारी देह-चेतना से। स्वप्न में अवचेतन की जो अंतर्मुखी यात्राएँ होती हैं, वे अधिक स्वच्छंद, अधिक मुक्त, अधिक संवेद्य और अधिक मुखर होती हैं। काश, हम अपने चेतन को भी उतना ही मुक्त, संवेदनशील और मुखर बना पाते।

हम आगे बढ़ जाते हैं यानी धनौल्टी की ओर। लगभग दो-ढाई घंटे की इस कार-यात्रा में कई छोटे-छोटे पहाड़ी गाँव आए हैं। उनके निकट से गुजरते हुए दिख रहे हैं छोटे-छोटे पहाड़ी मकान, सीढ़ीनुमा खेत, छोटे-छोटे देवालय, जिनकी ढलवाँ छतों पर लहराती झंडी उन्हें अलगाती है आम मकानों से। हाँ, ऊपर-नीचे चढ़तीं-उतरतीं तमाम पगडंडियाँ भी। मुझे याद आ रहीं हैं पिक्चर-कार्डों पर अंकित पहाड़ी दृश्य-छवियाँ। यहाँ भी यथार्थ और काल्पनिक का विभेद मुझे साफ दिख रहा है। चित्र-छवियाँ कैसी साफ-सुथरी, कितनी चमकीली होती हैं। उनमें सारा 'फोकस' केवल सुंदर के अवलोकन पर होता है। शायद विद्रूपता और कुरूपता चित्रों के सीमित दायरे में नजरंदाज हो जाती हैं या फिर उजागर नहीं हो पातीं। फटे-पुराने कपड़े पहने दुबले-पतले गंदे बच्चे, जो खूबानी बेचते गाँव के आसपास के हर मोड़ पर दिख रहे हैं, उन छवियों में क्यों नहीं होते? कार के निकट पहुँचते ही उनकी आँखों में जो चमक, उनकी आवाज में जो गमक आ जाती है और कार के आगे बढ़ते ही बदल जाती है निराशा और थकन में, उसका अंकन उन चित्रों में क्यों नहीं हो पाता? पहाड़ी प्रदेश के जीवन पर जो डॉक्यूमेंटरीं फिल्में भी मैंने देखी हैं, उनमें भी तो सब कुछ वैसा ही नहीं दिखता, जैसा यहाँ दिख रहा है। मनुष्य के सौंदर्य-बोध को आहत करतीं सड़ी-हुई पत्तियाँ, टूटी-कटी चट्टानें, चीड़ के पेडों की कटी-टूटी टहनियाँ, बदरंग मकान, झुर्रियों भरे असमय बुढ़ाए चेहरे, सिर पर बालन लादे थकी-थकी परबतिया - ये सब क्यों नहीं आ पाते फिल्मों के दृष्टि-पथ में? मैं सोच रहा हूँ और राहुल द्वारा चालित कार बढ़ी जा रही है छोटे-छोटे घुमावों में गंतव्य से दूरी को समेटती। मनुष्य का मन भी कैसा विचित्र है, कितनी विसंगतियाँ भरी हैं उसमें? एक ओर तो मैं सोच रहा हूँ पहाड़वासियों की गरीबी और उनके शोषण के बारे में और दूसरी ओर गर्व भी कर रहा हूँ इन नाजुक खतरनाक मोड़ों पर अपने बेटे के कार साधने के कौशल पर।

धनौल्टी एक छोटा-सा स्थान है। आसपास कोई गाँव भी नहीं।सैलानी भी अधिक नहीं। फिर भी काफी लोग उस दिन वहाँ हमें दिखे। मसूरी से बस आती है धनौल्टी के लिए। घोड़ेवाले पार्किंग स्थान से पहाड़ी के ऊपर तक ले जाने और वहाँ से चारों ओर की मनोरम दृश्यावली का अवलोकन कराने, सेब के बगीचे आदि दिखाने के लिए घोड़े पर चलने का इसरार कर रहे हैं...। राहुल ने तीन घोड़े कर लिए हैं। मैं पैदल ही पहाड़ों के सिरे पर जाना चाहता हूँ। बाद में पता चला कि घोड़े बेकार ही किए गए। न तो ऊँचाई इतनी कि चढ़ा न जा सके और न ही इतनी दूरी कि चढ़ते-चढ़ते आदमी थक जाए। धनौल्टी और चारों ओर की पर्वतीय छवियाँ सम्मोहित करती हैं। क्षितिज तक धरती के नीचे-ऊँचे आकार बिछे हुए। घाटी से ऊपर तक आते विशालकाय हरे-भरे वृक्ष। पूरा परिदृश्य एक व्यापक हरीतिमा का उत्सव। बीच-बीच में झाँकती चट्टानी आकृतियाँ। हल्की-हल्की ठंडी हवा और खिली-खुली सुनहरी धूप परसती-दुलराती। सेब अभी कच्चे ही हैं, फिर भी उन्हें तोड़कर खाने का मन हुआ। बगीचे में जो माली है, उससे पूछकर हमने एक सेब तोड़ लिया है, उसका स्वाद चखने के लिए। टुकड़ा-टुकड़ा ही खाया है, पर उसकी सोंधी हरियाइँध मन-प्राण को जैसे ताजा कर गई है। पगडंडी-पगडंडी हम नीचे भी थोड़ी दूर तक गए। पथरीला रास्ता - एक-एक पैर सँभालकर रखना पड़ा। हमारे एक घोड़ेवाले ने बताया कि सामने दिखते पहाड़ के उस पार उसका गाँव है, जहाँ से पगडंडी-पगडंडी वह घोड़े सहित पैदल चलकर यहाँ सुबह-सुबह दो घंटे में पहुँचा है। पहाड़ों में दूरियाँ बढ़ जाती हैं, क्योंकि रास्ते सीधे-सीधे नहीं होते। घूम-घूमकर पहाड़ पर चढ़ना-उतरना पड़ता है। पगडंडियाँ भी आड़ी-तिरछी ऊपर चढ़ती, नीचे उतरती हैं। सच में, कठिन है पहाड़ों का जीवन। बोझ सिर-पीठ पर लादे, कई बार छोटे बच्चे को भी गोद में सँभाले या आगे आँचल में लटकाए चढ़ती-उतरती पर्वत-बालाएँ मानुषी क्षमताओं को चुनौती देते इन रास्तों पर कैसे अपने को साधती होंगी, सोच-सोचकर विस्मित-रोमांचित हो रहा हूँ मैं। जिन्होंने इन छोटी-पतली पगडंडियों की अपने आकाश-नापते वामन पगों से रचना की होगी, कैसे रहे होंगे इन पहाड़ों के वे पहले वासी। आज भी इन बीहड़ पर्वतों में कहीं-न-कहीं कोई वामन पग ऐसी ही किसी पगडंडी को निर्मित नहीं कर रहा होगा, कौन जाने? सच में, अद्भुत है, हाँ, वंदनीय भी। मानुषी पुरुषार्थ के, आदि-मानव के साहस, धैर्य एवं जिजीविषा के प्रतीक वे वामन पग।

हम धनौल्टी से लौट चले हैं। पहाड़ से घुमाव-दर-घुमाव हमारी कार उतर रही है। कहीं-कहीं एकदम पैनी ढलान - तीखे मोड़ भी। एक ओर पहाड़ का चट्टानी निर्मम चेहरा, तो दूसरी ओर सुरम्य एकदम गहरी घाटी। मेरे मन में मेरा जाना-पहचाना स्वप्न फिर सक्रिय हो रहा है। उसी से जुड़कर उपज रही हैं एक-एक कर गीत-पंक्तियाँ। धीरे-धीरे गीत बनता हुआ। दृश्य-दर-दृश्य बिंबों में अवतरित होता। सबसे पहली पंक्ति -

काश, हम पंछी हुए होते इन्हीं आदिम जंगलों में घूमते हम

फिर पहला पद नीचे धुर गहरे में बहती नदी की पतली-सी धार को देखते हुए -

नदी का इतिहास पढ़ते

दूर तक फैली हुई इन घाटियों में

पर्वतों के छोर छूते

रास रचते इन वनैली वीथियों में


फुनगियों से

बहुत ऊपर चढ़

हवा में नाचते हम


और आगे पगडंडियों के साथ

इधर जो पगडंडियाँ हैं

वे यहीं हैं खत्म हो जातीं

बहुत नीचे खाई में फिरती हवाएँ

हमें गुहरातीं


काश, उड़कर

उन सभी

गहराइयों को नापते हम

स्वप्न की छवि ही जैसे साकार होती हुई। हाँ, वही तो -

अभी गुजरा है इधर से

एक भूरा बाज जो पर तोलता

दूर दिखती हिमशिला का

राज वह है खोलता


काश, हम होते वही

तो हिमगुफा के

सुरों को आलापते हम

कविता पूरी हुई और उसी के साथ मन भी लौट आया है फिलवक्त के यथार्थ में। हाँ, हम पहुँच रहे हैं अपने अगले पड़ाव पर यानी धनौल्टी-चंबा रोड पर। धनौल्टी से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित सुरकंडा ग्राम में। यहाँ के देवी के मंदिर की बडी महिमा है। शक्तिपीठों में इसकी भी गणना है और देवी-दर्शन त्रिभुज की यह एक महत्वपूर्ण भुजा है। मोनिका को इस जाग्रत देवी-तीर्थ के दर्शन की उत्कट अभिलाषा है।

तीसरे पहर के आकाश में अचानक घटाएँ घिर आई हैं। जून का महीना और वह भी उसके तीसरे सप्ताह का अंतिम दिन। वर्षा कभी भी हो सकती है। पहाड़ों पर उमड़ती साँवली घटाओं को देखने का एक अलग ही अनुभव होता है। कैसे वे पर्वतीय ढालों को भिगोती अप्सराओं की या शरारती पर्वतीय बालाओं की टोली-सी कूदती-नाचती चलती हैं, यह देखना, सच में, अतींद्रिय होता है।

मंदिर एक ऊँचे पहाड़ी शृंग पर अवस्थित है। चढ़ाई एकदम सीधी और काफी लंबी, लगभग दो-ढाई किलोमीटर की सीढ़ी-दर-सीढ़ी। सरला ने कहा कि वह इतने ऊँचे चढ़कर नहीं जा पाएँगी, हालाँकि देवी के दर्शन की उनकी भी इच्छा थी। मैं कुछ दूर बच्चों के साथ गया। फिर मुझे भी लगा कि मैं धुर ऊपर तक, जहाँ मंदिर है, नहीं जा पाऊँगा। सो मैं भी लौटकर सरला के साथ कार में बैठ गया और घटाओं के उमड़ने-घुमड़ने का दृश्य अवलोकता रहा। अचानक बूँदाबाँदी शुरू हो गई। और फिर तेज बारिश का लगभग पाँच-सात मिनट का एक झोंका आया और आसमान खुल गया। ऊपर नीला आकाश और नीचे चटख तीसरे पहर की धूप। सामने दूर दिखती घाटी में टुकड़े-टुकड़े इंद्रधनुष उग आया है। सतरंगी उन टुकड़ों को अपने अहसास में सहेजता मैं अपलक उस सौंदर्य को निहारता रहा। प्रकृति-नटी का वह सहज लावण्यमय स्वरूप। मुझे एकाएक लगा जैसे मंदिर की देवी ही हमें दर्शन देने के लिए नीचे घाटी में उतर आई हैं। उस दर्शन के उल्लास से भरा मेरा मन एक अतींद्रिय लोक में कई क्षणों तक विचरण करता रहा। समाधि की वह स्थिति जब टूटी, तो हमें चिंता हुई, तीनों बच्चे भीग गए होंगे। राहुल-मोनिका-शाश्वत को लगभग दो घंटे लगे चढने, मंदिर में दर्शन करने और उतरने में। वे भीग गए हैं, पर प्रसन्न मन हैं। शाश्वत अपनी उपलब्धि पर अतिरिक्त रूप से उत्साहित है। बता रहा है, ऊपर से नीचे बहुत दूर तक चारों ओर के तमाम पहाड़ दिखाई देते हैं। पहाड़ की चोटी से दूर तक फैली दृश्यावली को निहारने का एक अलग ही आनंद होता है - हाँ, अनुभूति भी अनूठी अतींद्रिय - मेरे स्वप्न के दृश्य की तरह की ही। मैं सोच रहा हूँ कि काश, मैं भी ऊपर तक जा पाता। साथ ही यह भी कि क्या तब देवी अपने संपूर्ण सौंदर्य के साथ मेरे सामने की घाटी में यों अवतरित होतीं? क्या शाश्वत ने भी ऊपर से उस लावण्यमयी देवी के दर्शन किए थे? काश, मैं उसे बता पाता कि कार में बैठे-बैठे ही कैसे मुझे देवी के दर्शन सुलभ हो गए थे। सूरज पश्चिमी आकाश की ढलान पर है। हाँ, अब वापसी मसूरी के अपने रिजार्ट की ओर।

'कैंपटी फॉल' ने निराश किया है। भीड़ बढ़ गई है, दुकानें भी। पहली मुश्किल तो पार्किंग की। काफी पहले कार पार्क करनी पड़ी। फॉल की धाराएँ भी बिल्कुल कमजोर - दुबली-छिछली। लगा कि जैसे बीमार हों। झरने का वेग असमर्थ - गतिहीन। नीचे जो ताल बनाया गया है तैरने-नहाने के लिए, उसमें इतनी भीड़ कि धक्कामुक्की की स्थिति। हम दोनों तो उतरे ही नहीं - मोनिका भी बस शाश्वत को सहारा देने भर को। पॉलीथीन की थैलियाँ - कुछ ऊपर तैरतीं, कुछ नीचे पैरों में उलझतीं। एक गंदगी का अहसास देतीं। हम भारतीय वैसे तो बड़ी छूतपाक मानते हैं - शुद्धता और सफाई की बात करते हैं - अपने घरों को साफ-सुथरा भी रखते हैं, किंतु अपने सार्वजनिक स्थानों को, जिनमें तीर्थस्थल भी शामिल हैं, पाक-साफ रखने की ओर न तो हमारा ध्यान है और न ही उन्हें गंदा करने में कोई हिचक। 'कैंपटी फॉल' में उत्सव मनाते स्त्री-पुरुषों के जमघट को देखकर याद आ रहे हैं मुझे नदी-किनारे के अपने तीर्थस्थलों के घाट, वहाँ के भीड़-भड़क्के, शोर-शराबे, गंदगी, मंदिरों के गर्भगृहों की धक्कामुक्की, पर्वों-मेलों में डुबकियाँ लेती अनंत मानवराशि और उसमें उपजता एक अमूर्त गैर-जिम्मेदाराना उत्साह और उल्लास का अगंभीर उत्सवी भाव। काश, हम अपनी व्यक्तिगत दैहिक स्वच्छता को एक सामाजिक आयाम भी दे पाते। मुझे याद आ रही है अपने एक अध्यापक, राजकीय जुबिली इंटर कॉलेज, लखनऊ के श्री पी.एन. मिश्र की स्वच्छता के विषय में कही बात। उनके अनुसार, स्वच्छता को एक मानसिकता या प्रवृति के रूप में अपनाना चाहिए, न कि केवल बाह्य प्रदर्शन के लिए। मानसिक रूप में उसे अपना लेने पर हम कहीं भी गंदगी बर्दाश्त नहीं करेंगे और अपने वातावरण को पूरी तरह स्वच्छ-शुद्ध रखेंगे। मेरे किशोर मन में स्वच्छता का यह विवेचन ऐसा घर कर गया कि किसी भी तरह की बेतरतीबी मुझसे बर्दाश्त नहीं होती। अपने चित्रकारी के शौक से, रेखाओं और रंगों के सम्यक संयोजन के प्रति अतिरिक्त मोह और उससे उपजे सौंदर्य-बोध की वजह से भी मैं इस ओर अतिरिक्त संवेदनशील हो गया हूँ।

दिन का तीसरा पहर होने को है। हम देहरादून में प्रवेश कर चुके हैं। सहस्रधारा देखने का मन है। रास्ते में बुद्ध विहार के लिए थोड़ा मुड़ लेते हैं। वहाँ कुछ समय बिताने से मन मौन - शांत हो गया है। तिब्बती शिल्प का अद्भुत नमूना - उसी शैली की चटख रंगोंवाली चित्रकारी में बुद्धकथा के प्रसंग, बोधिसत्व-आकृतियाँ बीच में भगवान बुद्ध की शांत करुणामयी प्रतिमाकृति - दीपाधारों में जलती जोत के झिलमिल प्रकाश में सारा वातावरण पवित्रता का अहसास देता - अतींद्रिय-अनूठा। आँख मूँदे बैठे हम उस अलौकिक आभा से घिरे और भीतर होतीं हमारी अनुभूतियाँ। बौद्ध मंदिरों का मौन अनुशासन मुझे हमेशा आकृष्ट करता रहा है। और मेरा कवि-चित्रकार मन समोता, मनोरम आकृतियों और रंगों के उस अद्भुत संयोजन को। निस्पृह कर गया बुद्ध विहार में कुछ देर का वह ठहराव - हाँ, बाहर देह का और भीतर अंतर्मन, दोनों का ही ठहराव। राहुल ने बाहर निकलते ही कहा भी - 'पापा, लगता है कि हम किसी और लोक में हो आए हैं। यात्रा की सारी थकान मिट गई है।' देहरादून की लीची मशहूर है। जगह-जगह लीची बिक रही है। हमने भी खरीद ली। बुद्ध विहार के पास में ही है साईं बाबा का मंदिर। सुंदर-भव्य। पर वहाँ भीड़। और अब हैं हम सहस्रधारा की ओर।

सहस्रधारा में भीड़-भड़क्का, गंदगी वैसी ही, जैसी कि 'कैंपटी फॉल'में थी। पानी भी कम। सहस्रधारा पिकनिक-उत्सवियों का अड्डा मात्र रह गया है। नकली उत्साह जगाते पानी में क्रीड़ा करते लोग मुझे मात्र रोबोट जैसे लगे। मनुष्य का रोबोट हो जाना, यही तो आज की सभ्यता की सबसे बड़ी विसंगति है। आज के तथाकथित सभ्य मनुष्य के अनुभव लेने, उसे सँजोने-सहेजने में ही एक मूलभूत कमी है और वह है यह कि हम हर अनुभव को छिछले-छिछले ही जीते हैं, आत्मा में उसे समाने का मौका ही नहीं देते। प्रकृति के प्रति यानी नदियों-वनानियों-पर्वतों के प्रति जो एक पूजा का भाव हमारे पूर्वजों में था, वह अब कहीं बिला गया है। अब तो केवल एक भोग-दृष्टि रह गई है हर चीज के प्रति। इसी का प्रतीक हैं जल में तैरतीं प्लास्टिक की थैलियाँ, जगह-जगह बिखरे 'पाउच' और गुटखा के 'पैकेट'। काश, हम अपनी आस्तिक जिजीविषा को जीवित रख पाते, जिससे हम पृथ्वी और प्रकृति की दैवी अनुभूति को अपने अंतर्मन में धारण करते थे। वह अलौकिकता का महाभाव, जिससे हम समग्र सृष्टि को अवलोकते थे, भोग-पदार्थवादी हमारी आधुनिक दृष्टि के कारण हमसे छिन गया है।

और अब हरिद्वार। हरि की पैड़ी। शाम घिर आई है - आसमान धुँधलाने लगा है - हल्का-हल्का अंधियारा पसर रहा है, नदी-तट के सारे परिवेश को अपने में समेटता, रहस्यमय बनाता। अगणित हाथ दोनों में रखकर दीप नदी में सिरा रहे हैं। एक अनूठी अनुभूति - लगता है जैसे आकाश में बिखरने से पूर्व तारे नदी में स्नान करने उतर आए हैं। हाँ, आतुर प्रतीक्षा गंगा मइया की आरती की। संपूर्ण मौन - प्रकृति भी और पुरुष भी। सभी आँखें तट पर स्थित देवी गंगा के मंदिर की ओर। फिर एक-एक कर कई ज्वालाएँ धधक उठीं। घंटों-घड़ियालों की ध्वनि से पूरा परिवेश स्वरों के महारास में डूबता। चारों ओर सिर-ही-सिर, अनंत जनसमूह - सभी नमन की मुद्रा में और दूसरी ओर भी जनसमूह के बीच आंदोलित होतीं, ज्योति का चक्रवाल बनातीं आरती की अग्नि-शिखाएँ। उस महाज्योति को निहारतीं अनंत आँखें, उसे नमन करतीं अनंत आत्माएँ - श्रद्धा का एक महोत्सव। गंगा मइया की धारा उस नमन को स्वीकारती, कलकल बहती सभी को असीसती। अंदर-बाहर, दोनों ओर एक महाप्रवाह - सामूहिक अवचेतन में पीढ़ियों, जन्मों-जन्मों, युगों-युगों सँजोई आस्तिकता की अनादि-अनंत अमृत धारा का। इसी महाप्रवाह को हमारा यह सामूहिक नमन। आरती की जोत, उसका महानाद समाते जा रहे हैं हमारे मन-प्राण में। यह जोत पहले भी मैंने देखी है। यह गूँज पहले भी मैंने सुनी है। इस जन्म में भी और उसके पहले पता नहीं कितने-कितने जन्मों में।