एक रात की दुल्हन / आलोक कुमार

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'शाफ़िया, सुनो, मेरा टिफिन अंदर ही छूट गया'–बाहर निकलते हुए आमिर चिल्लाया।

ऑफिस जाने की हड़बड़ी में आमिर अपना टिफिन घर के अंदर ही भूल गया था। शाफ़िया लगभग दौड़ती हुई गेट से बाहर निकली और टिफ़िन हाथ में थमाते हुए झल्ला पड़ी।

'अभी कितना काम बचा है घर में, कुछ पता है आपको। आप तो एक भी काम ठीक से नहीं कर पाते हैं'।

"सॉरी बेगम अब गुस्सा थूकिये, मैं ऑफिस के लिए लेट हो रहा हूँ"।

टिफिन हाथ में लेते ही वह अपनी बाइक की ओर चल पड़ा।

चार साल पहले ही आमिर और शाफ़िया कि शादी हुई थी। अभी तक कोई संतान नहीं हुई थी। हालांकि आमिर ने इस बारे में कभी सोचा नहीं था लेकिन शाफ़िया के मन में एक खटका-सा रहता था। एकाध बार आमिर की अम्मी ने घुमा फिरा कर बात पूछी भी थी, लेकिन शाफ़िया टाल जाती थी। फरीदाबाद की एक प्राइवेट फ़ैक्टरी में आमिर सुपरवाईजर था। मूलतः वह सहारनपुर उत्तर प्रदेश का रहनेवाला था। ज़िंदगी साधारण तरीके से गुज़र रही थी। बस एक चाह थी कि थोड़े पैसे कमा लूँ फिर गाँव में एक पक्का मकान बनाऊँगा। विधवा अम्मी घर में अकेली रहती थी। आमिर ने उनसे कहा भी कि आप भी हमारे साथ फरीदाबाद चलो, सब साथ मिलकर रहेंगे लेकिन उसकी अम्मी नहीं मानी।

कहने लगी, -बेटा इस डीह पर तुम्हारे पिता कि यादें हैं। तुम जब छोटे थे तभी वह गुजर गए थे। तब से इसी डीह पर मैंने मेहनत मशक्कत करके तुमको पाला है। मैं यहीं रहूँगी और फिर जमाना भी तो ठीक नहीं है। जरा-सा घर छोड़ो तो ज़मीन हथियाने वालों की कोई कमी नहीं है। ऐसे लोग तो इसी ताक में रहते हैं कि कब मौका मिले और बिना आदमी की डीह पर धीरे-धीरे कब्जा जमाएँ।

आमिर अम्मी की बात टाल न सका, लेकिन महीने में एक बार उनसे ज़रूर मिल आता था।

एक दिन उसने ऑफिस में ही किसी से सुना कि सऊदी अरब में किसी फ़ैक्टरी में सुपरवाईजर की ज़रूरत है। एक आदमी है, वह 8 लाख रुपये लेकर, नौकरी, पासपोर्ट, वीज़ा सब चीज का जुगाड़ कर देता है। अपनी नौकरी से ऐसे भी संतुष्ट नहीं था वो। न तो पैसा बहुत था और न ही मालिक का व्यवहार उसे अच्छा लगता था। ऐसे में उसे सऊदी जाने की बात किसी सपने से कम न लगी। बस पैसे का इंतज़ाम उसे करना था। घर आकर उसने अपनी पत्नी को ये बातें बताई। पत्नी खुश तो हुई, लेकिन पैसे कहाँ से आएंगे, ये सोचकर थोड़ी उदास-सी हो गई। दोनों मियाँ बीवी के पास कुल मिलकर 3 लाख रुपयों का बन्दोबस्त हो पाया। अगर उसे सऊदी जाना है तो एक हफ्ते के भीतर पैसे का जुगाड़ करना पड़ेगा।

शाफ़िया और आमिर दोनों ने अपने-अपने घर में फ़ोन किया। शाफ़िया के घर से भी कुल 3 लाख का इंतज़ाम हुआ और आमिर की अम्मी ने गाँव के ही एक व्यक्ति से ब्याज पर 2 लाख रुपये उधार लिए। इस तरह घर, ससुराल, अम्मी व पत्नी के सहयोग से उसने पैसे जमा कराये। खुदा का शुक्र था कि वह आदमी ईमानदार निकला और एक महीने के भीतर ही आमिर सऊदी को रवाना हुआ। जाते वक़्त सबकी आँखें नम थी। पता नहीं विदेश जा रहा है, अब कब वापस लौटे। तरह—तरह की कहानियाँ भी उन लोगों ने सुनी थी सऊदी के बारे में कि कैसे वहाँ पासपोर्ट, वीज़ा छीनकर जबरन काम करवाते हैं। आमिर भी थोड़ा घबराया हुआ था, लेकिन फिर सब कुछ अल्लाह की मर्ज़ी पर छोडकर वह सऊदी पहुँचा।

इधर शाफ़िया भी फ़रीदाबाद से वापस अपने मायके आई। मायका और ससुराल पास-पास ही था। कुल 5 किलोमीटर का फ़ासला था। कुछ दिनों तक मायके में रहने के बाद वह फिर अपने ससुराल आ गई। लेकिन आमिर के बिना उसे सब सूना सूना-सा लगता। सोचती, अभी तो गए हैं वो। साल भर से पहले तो नहीं ही लौटेंगे। साल भर का समय उसे किसी युग-सा लगता था। इधर सास भी गाहे बगाहे ताने देती। कहती-कि शादी के चार साल हो गए हैं, लेकिन पोते का मुंह देखने को तरस गई। शाफ़िया इन बातों को अनसुना करने की कोशिश करती, लेकिन बात उसके मन में कहीं कांटे-सी फंस जाती। पड़ोस की कोई बूढ़ी आँगन में आई नहीं कि उसकी सास का रोना शुरू हो जाता।

"कितने अरमान से आमिर की शादी की थी कि इस डीह पर भी पोते-पोतियों की किलकारियाँ गूँजेगी, लेकिन चार साल गुजर गए, एक बच्चे का मुंह देखने को तरस गई। अल्लाह जाने इसको बच्चा होगा भी या नहीं। मैं तो आमिर को कहती हूँ कि दूसरी शादी कर लो, लेकिन पता नहीं वह मेरी बात को हँसकर टाल देता है"।

दूसरी महिलाएँ उसकी बात सुनती, थोड़ी सहानुभूति जताती और फिर जाते-जाते ढाढ़स बंधाती कि अल्लाह के घर में देर है, पर अंधेर नहीं है। तुम चिंता मत करो बहन, अल्लाह ने चाहा तो ढेर सारे पोते पोतियाँ तुम्हारे घर में आएंगे।

उस दिन तो हद ही हो गई जब एक दिन शाफ़िया के अब्बाजान बेटी से मिलने आए। औपचारिक बातचीत के बाद जब शाफ़िया अपने अब्बू के लिए चाय लेकर पहुँची तो देखती है कि सास रोये जा रही है।

"मेरे तो करम ही फूट गए। जिस आशा को धरकर मैंने अपने आमिर का निकाह आपकी बेटी से किया था सब धरे के धरे रह गए। अब तो आमिर भी सऊदी चला गया। अब मैं बिना पोते-पोतियों का मुंह देखे ही मर जाऊँगी"।

शाफ़िया के लिए ये कोई पहला मौका नहीं था, जब उसने अपनी सास को बच्चे के लिए किसी और के पास रोते देखा था, लेकिन जब अपने अब्बू के सामने ही अपनी शिकायत सुनी तो आग बबूला हो गई।

बोली-अम्मी, अल्लाह से डरिये। आपको कैसे पता है कि बच्चा मेरे कारण नहीं हो रहा है? और अगर बाद में आमिर में ही कोई कमी निकली तो आप फिर क्या कहेंगी। खुदा न करे कल को अगर आपकी शबनम के साथ यही हो तो आप फिर किसे दोष देंगी? पूरी तरह से फट पड़ी शाफ़िया। बोलते-बोलते रुआँसी हो गई थी वो।

सास भी शायद अंदर ही अंदर भरी पड़ी थी। बोली देखो-देखो, इसके तेवर तो देखो-एक तो अब तक मुझे पोते-पोतियों के लिए तरसाया, अब श्राप भी दे रही है कि मैं नानी भी न बन पाऊँ। तेरे मुँह में कीड़े पड़ें, खबरदार जो शबनम के बारे में कुछ बोला तो।

"देखा अम्मीजान जब अपनी औलाद पर आता है तो कैसे दिल जलता है और आप मेरे अब्बू को बैठाकर मेरा गुणगान कर रही हैं। अब्बूजान मुझे नहीं रहना है यहाँ। जब से आमिर गया है, तब से मेरा जीना मुहाल कर रखा है अम्मी ने। मैं बस लिहाज करती रही और चुपचाप सहती रही, लेकिन अब मुझसे और बर्दाश्त नहीं होगा"।

हुंह... लिहाज... वह तो मैं देख ही रही हूँ। सास तमक कर बोली और मुझे अपने घर जाने की धमकी मत सुनाओ। बुढ़ापे में भी अल्लाह की रहमत से किसी पर बोझ नहीं बनी हूँ।

शाफ़िया के अब्बूजान सोचते थे कि बीच में विराम आए तो मैं कुछ बोलूँ और स्थिति संभालूँ, लेकिन एक का ख़त्म नहीं होता था कि दूसरा शुरू हो जाता था। अंत में देखा कि अब तो पानी सर से ऊपर आ रहा है। डपटकर शाफ़िया से बोले-"बस बहुत हो गया, यही संस्कार तूने सीखे हैं। जब दो बड़े आपस में बात कर रहे थे तो तुम्हें बीच में टपकने की क्या ज़रूरत थी"। वह शाफ़िया को सचमुच डांट रहे थे या माहौल शांत करने के लिए उसे बस एक झिड़की दी थी, ये तो वह ही जानें लेकिन इसका असर उल्टा ही हुआ।

शाफ़िया पैर पटकती हुए वहाँ से चली गयी लेकिन उसकी सास बोल पड़ी-

"अगर अच्छे संस्कार होते तो कोई अपने शौहर की अम्मी से ऐसे बात नहीं करती"।

वो यहीं नहीं रुकी, बोली-" मजाल है कि शबनम अपनी सास से ऐसे बोलने की हिम्मत भी करे। हमने अपने बच्चों को ऐसे संस्कार नहीं दिये हैं।

शाफ़िया के अब्बू समझदार इंसान थे। बोले-जाने दीजिये जैसी भी है, अब आपके घर की ही बहू है। मैं उसको समझाऊंगा।

अम्मी ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया।

शाफ़िया के अब्बू की हिम्मत थोड़ी और बढ़ी तो झट से बोल पड़े कि अगर आप बुरा न माने तो कुछ दिनों के लिए शाफ़िया को अपने साथ लेता जाऊँ। उसका भी मन बहल जाएगा और ये तनाव भी समय के साथ ख़त्म हो जाएगा। अभी अगर मैं ऐसी स्थिति में ही छोडकर चला जाऊंगा तो फिर कोई सम्भालनेवाला भी नहीं रहेगा। अभी आप दोनों गरम हैं। ऐसे में दोनों को बिना किसी तीसरे के एक साथ छोडना भी ठीक नहीं है। बल्कि मैं तो कहता हूँ कि आप भी हमारे साथ चलिये और लोगों से मिलेंगी तो आपका मन भी बहल जाएगा।

अम्मी चुपचाप सुनती रही।

अब शाफ़िया के पापा इसे रजामंदी समझें या इंकार वह कुछ फ़ैसला नहीं कर पाये। फिर धीरे से बोले-सब कुछ आपकी मर्जी से ही होगा। अगर आप नहीं चाहती हैं तो शाफ़िया यहीं रहेगी।

इस बार उसकी सास धीरे से बोल पड़ी-आपकी बेटी है, भला मैं रोकनेवाला कौन होती हूँ? पर मैं तो यहीं रहूँगी।

शाफ़िया के पापा ने इसे रजामंदी ही समझी और कुछ ये सोचकर कि कुछ दिन अलग-अलग रहेगी तो मन की कड़वाहट अपने आप ही कम हो जाएगी, शाफ़िया को ले जाने का निर्णय लिया।

अंदर आकर शाफ़िया से बोले-चलो अपना कपड़ा वगैरह ले लो। अपने घर चलेंगे।

शाफ़िया भी इस माहौल से ऊब चुकी थी। लेकिन उसके माथे पर कुछ देर के लिए सिलवटें उभरी, मानो पूछ रही हो कि अम्मीजान मान गई।

उसके अब्बूजान बस मुस्कुरा भर दिये और बोले हाँ सब मान गए, अब चलो कुछ दिनों के लिए।

शाफ़िया के जाने के बाद उसकी सास निढाल होकर बिस्तर पर गिर गई। शाम में जब फ़ोन की घंटी से नींद खुली तो देखा कि बेटी शबनम का फ़ोन है। शाफ़िया के साथ हुए प्रसंग के बाद शबनम पहली अपनी थी, जिससे वह बात कर रही थी। एक-एक कर सारी बातें उसने शबनम को बताई। आदमी जब किसी को किसी घटना का विवरण सुनाता है तो अपने हिस्से की चीज सुनाते समय उसको अपने तर्कों से जस्टिफाय भी करते जाता है। जितनी बार उस घटना का विवरण प्रस्तुत होता है, अपनी भूमिका उतनी ही रिफ़ायीन होती जाती है और जो पक्ष वहाँ मौजूद नहीं होता है, धीरे-धीरे सारा दोष उसी का नज़र आने लगता है। यही बात इस घटना के साथ भी हुई।

उधर शाफ़िया के मायके में जब उस घटना का विवेचन बारंबार हुआ तो दोषी उसकी सास थी और उसके ससुराल में इस घटना कि मुख्य खलनायिका वह स्वयं थी।

रात में जब आमिर का फ़ोन आया तो उसकी अम्मी अब तक तीन बार उस घटना का विवरण अपनी बेटी व बहन से कर चुकी थी। चौथी मर्तबा जब आमिर के सामने उसने घटना का विवरण शुरू किया तो कुल जमा ये निकल कर आया कि "मैं शाफ़िया के अब्बा से बोल रही थी कि अब तो बस एक ही इच्छा है कि जल्दी से पोते पोतियों का मुँह देख लूँ, पता नहीं कब अल्लाह का बुलावा आ जाए। लेकिन न जाने उसने क्या सुना कि ले देकर मुझपर भड़क गई। उसको बच्चा नहीं होने का अपना दर्द है परंतु उसने अपना सारा गुबार मुझपर निकाल दिया। जब मैंने पलटकर जवाब दिया तो पैर पटककर बोली कि मुझे यहाँ नहीं रहना है और अपने अब्बा के साथ अपने घर चली गई"।

आमिर ने सुना तो उसके तन बदन में आग लग गई। बस इतना ही बोल पाया कि माँ फ़ोन रखो मैं उससे बात करता हूँ। लेकिन माँ फ़ोन रखने के बजाय सुबकने लगी-मेरा तो एक ही बेटा है, अगर उससे भी नहीं बनी तो मैं कहाँ जाऊँगी। आगे की बात उसकी हिचकियों में दब गई। आमिर उसे शांत करता रहा लेकिन शिकायतकर्त्ता को हमेशा इस बात की आशंका रहती है कि पता नहीं उसकी शिकायत ठीक तरीके से सुनी गई या नहीं। आमिर जितनी बार अम्मी के मुँह से उनकी व्यथा सुनता, शाफ़िया पर उसका गुस्सा उतना बढ़ता जाता। जब उसकी माँ ने फ़ोन रखा तो गुस्से के अतिरेक में उसने तुरंत शाफ़िया को फ़ोन लगाया। उसे इस बात पर और ज़्यादा क्रोध आ रहा था कि शाफ़िया अम्मी से झगड़कर अपने घर चली गई। उसे ऐसा लगा मानो शाफ़िया उसको चैलेंज करके गई हो कि अगर ठीक से नहीं रहे तो मैं अपने घर चली जाऊँगी।

इधर शाफ़िया के घर में शाम ढलते-ढलते अनेकानेक बार ये प्रसंग दुहराया जा चुका था और उसकी सास बहुत बड़ी खलनायिका बन चुकी थी। वह ख़ुद ये बात आमिर को बताना चाहती थी, लेकिन ये सोचकर मन मसोसकर रह गई कि पता नहीं अभी फ़ैक्टरी में होंगे, परेशान हो जाएंगे। रात को उनका फ़ोन आएगा तब उनसे बात करेंगे। उसे आमिर के फ़ोन का बेसब्री से इंतज़ार था और ऐसे में जब रात को उसका फ़ोन आया तो उसने लपककर फ़ोन उठाया और कुशल क्षेम पूछने लगी। लेकिन आमिर के तो सर से पाँव तक आग लगी थी। शाफ़िया के सवालों को अनसुना कर उसने सीधे यही पूछा कि तुम माँ को अकेले छोडकर अपने घर क्यों चली गई। शाफ़िया विस्तार से अपनी बात बताना चाहती थी, लेकिन आमिर कुछ सुनने को तैयार नहीं था। उसने बस एक ही रट लगा रखी थी कि कल सुबह होते ही मेरी माँ के पास पहुँचो, उसके बाद ही कोई बात होगी। थोड़ी देर शाफ़िया उसे वस्तुस्थिति बताने की चेष्टा करती रही। आख़िर उसके घर में अब तक हुए वार्तालाप में सारी गलती उसकी सास की थी और यहाँ आमिर उसकी कोई दलील सुनने को तैयार ही नहीं है। उसका मन झुँझला उठा। आप किसी व्यक्ति के पास किसी और की शिकायत लेकर जाएँ और वह व्यक्ति आपको ही दंडित करने लगे तो बहुत पीड़ा होती है। शाफ़िया के साथ यही हो रहा था। उसे और कुछ नहीं बस आमिर से सहानुभूति चाहिए थी, लेकिन आमिर तो बहुत ही अजीब तरीके से बिहेव कर रहा था। अंत में उसने ये कहकर फ़ोन रख दिया कि मैं अभी नहीं जाऊँगी। आप आएंगे, अब तभी जाऊँगी।

फोन कटने से आमिर का गुस्सा और भड़क उठा। उसे लगा था कि जब वह शाफ़िया को अपने घर जाने को कड़ाई से कहेगा तो वह सहम जाएगी, अपनी सफ़ाई पेश करेगी लेकिन उसने न केवल मना कर दिया, बल्कि फ़ोन भी काट दिया। उसके अहं को ठेस लगी। उसने दुबारा फ़ोन लगाया और सीधे कहा कि कल तुमको हर हाल में मेरे घर आना है और अगर नहीं आई तो फिर सोच लो दुबारा उस घर में क़दम नहीं रखना। शाफ़िया ने आमिर का ये रूप नहीं देखा था। वह घबरा तो गई लेकिन हिम्मत जुटाकर बोली कि ऐसी धमकी से मैं नहीं डरनेवाली हूँ, अब तो मैं घर तभी जाऊँगी जब आप आएंगे। ये कहकर उसने फ़ोन रख दिया।

दुबारा फ़ोन कटने से आमिर को लगा जैसे गुस्से से उसका सर फट जाएगा। ये तो उसकी मर्दानगी को खुल्लमखुल्ला चैलेंज जैसा था। उसे ऐसा लगा मानो किसी बच्चे को लाख मना करने के बाद भी वह मुँह चिढ़ाने से बाज नहीं आ रहा हो।

'चटाक' ...... एक जोरदार थप्पड़ उसने बच्चे के मुँह पर मारा।

लेकिन बच्चा कहाँ था। थप्पड़ से उसका गुस्सा शायद शांत हो जाता लेकिन यहाँ तो उसके हाथ में केवल फ़ोन था। उसने तीसरी बार फ़ोन लगाया। इस बार शाफ़िया ने फ़ोन नहीं उठाया लगातार तीन बार फ़ोन की घंटी बजती रही लेकिन शाफ़िया ने फ़ोन नहीं उठाया। अब तक उसके मस्तिष्क पर क्रोध का पूरा कब्जा हो चुका था। अब निर्णय लेने की बारी मस्तिष्क नहीं वरन क्रोधग्नि की थी। उसने फ़ोन उठाया और चटाक, चटाक, चटाक... एक साथ तीन थप्पड़ शाफ़िया के मुँह पर दे मारे।

इधर शाफ़िया भी गुस्से से आपा खो रही थी। फ़ोन की घंटी सुनकर भी अनसुना कर रही थी। लेकिन जब फ़ोन की घंटी कुछ देर के लिए नहीं बजी तो लगा चलो एक बार फ़ोन कर ही लेते हैं। ज़्यादा अड़ेंगे तो कल ससुराल चली जाऊँगी लेकिन इनसे बात नहीं करूंगी। इसी ऊहापोह में फ़ोन के पास पहुँची ही थी कि फ़ोन पर मैसेज का बीप बजा। लपककर फ़ोन उठा लिया। सोचा आमिर का ही मैसेज होगा। उसका अनुमान सही था। मैसेज आमिर का ही था। फुर्ती से उसने इनबॉक्स खोला लेकिन ये क्या मैसेज देखते ही ऐसा लगा मानो, चटाक, चटाक, चटाक... मूर्छित होकर वहीं ज़मीन पर गिर पड़ी।

घर के लोग दौड़ कर आए, अरे देखो शाफ़िया को क्या हो गया।

उठो, शाफ़िया उठो बेटा, अरे क्या हो गया? कोई पानी लाओ, अरे बेटा क्या हो गया?

परिवार वाले शाफ़िया को झकझोड़ रहे थे। जब उसके मुंह पर पानी का छींटा मारा गया तो वह कुनमुनायी।

आमिर...आमिर... बस यही एक शब्द वह बार-बार बुदबुदा रही थी।

थोड़ी देर में जब उसे होश आया तो देखा कि सारा परिवार उसके पास इकट्ठा हो चुका है।

अब्बू बोले बेटी क्या हुआ॥ तबीयत तो ठीक है ना। कुछ तो बोलो-एकाएक गिर कैसे गई?

कुछ नहीं अब्बू... आमिर...

क्या हुआ आमिर को... अब घरवाले सचमुच परेशान हो गए थे।

"आमिर का मैसेज आया है। बस इतना ही बोल पायी वो" ... आगे के शब्द हिचकियों में दब गए।

"क्या मैसेज है... बोलो बेटी आमिर ठीक तो है"। ये कहकर उसके अब्बू फ़ोन की ओर लपके।

फोन ऑन करते ही मैसेज ही दिखा। तलाक, तलाक, तलाक।

या अल्लाह, ये क्या देख रहा हूँ मैं? एक साथ तीन तलाक। अरे देना ही था तो एक बार देता।

सिर पकड़कर वहीं ज़मीन पर बैठ गया वो।

बस बुदबुदा रहा था केवल... तीन तलाक का मतलब भी समझते हैं ये लोग। अरे ये कैसी गिनती है, जहाँ सीधे तीन आता है।

घरवाले और परेशान हो रहे थे। तभी उसकी अम्मी बोल उठी... अरे खुदा के वास्ते, कुछ तो बताओ। क्या हुआ?

अरे अब बचा ही क्या, आमिर ने शाफ़िया को तलाक दे दिया है। उसके अब्बू वहीं ज़मीन पर ही निढाल पड़ गए।

पूरा घर सदमे में था। किसी के पास कहने सुनने को कुछ नहीं। बस एक ही खयाल कि अब शाफ़िया का क्या होगा?

इधर गुस्से के अतिरेक में आमिर ने तलाक, तलाक, तलाक लिखा और फ़ोन वहीं फेंककर बिस्तर पर धम्म से गिर पड़ा।

"इसको मुझसे ज़ुबान नहीं लड़ाना चाहिए था। अब भुगतो"। आमिर का मन पूरी तरह क्रोध के वश में था। बार–बार शाफ़िया का गुस्सैल चेहरा उसके सामने प्रकट हो रहा था। मानो वह इसको चिढ़ा रही हो कि जो करना है सो कर लो पर मैं तो तुम्हारी माँ के साथ नहीं रहनेवाली। गुस्से से ऐसा लगा मानो उसका सर फट जाएगा। भूख और नींद आँखों से कोसों दूर थी। बस वह बिस्तर पर करवटें ले रहा था। सुबह जब नींद खुली तो दिन चढ़ आया था। घड़ी पर नज़र पड़ते ही वह चौंका, अरे ये तो लेट हो गए आज। फुर्ती से उठा वो, लेकिन जब कल रात की बात याद आई तो फिर धम्म से उसी बिस्तर पर ढेर हो गया। ड्यूटि पर जाने की बिलकुल इच्छा नहीं हुई उसकी। ऐसा लग रहा था मानो किसी ने उसकी सारी शक्ति निचोड़ ली हो। लेकिन ड्यूटि पर न जाने का केवल एक ही उपाय था कि कंपनी का डॉक्टर उसकी बीमारी की ताकीद करे। लेकिन डॉक्टर तो मानो रेस्ट अड्वाइस के लिए बना ही नहीं था। सारी बीमारी को पहले शक की निगाह से ही देखता था। अभी पिछले महीने ही नौशाद जब साइट पर अधमरा-सा हो गया था तब कहीं डॉक्टर ने उसे बड़े शहर में शिफ्ट करवाया था। नौशाद का कमजोर व लाचार चेहरा उसके सामने था, लेकिन तभी डॉक्टर का कठोर चेहरा उसके सामने घूम गया। दोनों चेहरे आपस में गडमड होकर एक बन गये और अजीब-सी आकृति उसकी आँखों में चुभने से लगे। हड़बड़ा कर उसने बिस्तर छोड़ दिया और बाथरूम में घुस गया।

दिन भर न तो उसका मन काम में लगा और न ही आराम में। फुर्सत के कुछ क्षण जिनका वह बाक़ी दिन इंतज़ार करता रहता था, आज तो मानो उसे काटने दौड़ते थे। अपने किसी मित्र से उसने इसकी चर्चा नहीं की। किसी ने कुछ पूछा भी तो बता दिया कि माँ की तबीयत ठीक नहीं है। आदमी गुस्से में बड़े से बड़ा निर्णय ले लेता है, लेकिन जब उसके बाद की स्थिति पर सोचता है तो परेशानी और बढ़ने लगती है। शाफ़िया के लिए उसने इस बार सोने का एक हार खरीदा था। सोचा था इस बार ईद में घर जाएंगे तो उसे देंगे। गुस्सा का एक झोंका उसके लहलहाते दाम्पत्य को जलाकर ख़ाक कर चुका था और तलाक की आँधी से जब दाम्पत्य का पेड़ उखड़ जाए तो फिर प्यार की कितनी भी बरसात क्यों न हो उसे पुनर्जीवित नहीं कर सकती। जितनी बार वह बात की गहराइयों में जाता, उसका मन उतना ही उलझते जाता। भविष्य पूरी तरह उलझा-उलझा दिखता।

रात में उसने फिर अपनी अम्मी को फ़ोन लगाया। अम्मी ने फिर अपना दुखड़ा शुरू किया। लेकिन आज आमिर कुछ बोला नहीं। बस अंत में इतना ही बोल पाया कि अम्मी मैंने शाफ़िया को तलाक दे दिया है।

'हे अल्लाह, ये तू क्या बोल रहा है बेटा। तलाक का मतलब भी समझता है'। उसकी अम्मी बिफर पड़ी।

'अम्मी अब तो मैंने तलाक दे दिया है, अब सोचकर क्या फायदा' ? आमिर का संक्षिप्त-सा जवाब था।

'लेकिन बेटा अभी तुम्हारा पूरा जीवन पड़ा है, बिना पत्नी के कैसे गुज़ारा होगा'। अम्मी को बेटे के भविष्य की चिंता हो रही थी।

अम्मी इस बारे में आकर बात करेंगे, अभी कुछ दूसरे काम हैं। अब कल बात करेंगे। आमिर ने बात यहीं ख़त्म कर दी।

इस एक छोटे से शब्द 'तलाक' ने तीन-तीन जगहों पर मनहूसियत फैला दी थी। आमिर सऊदी में, उसकी माँ अपने गाँव में और शाफ़िया का पूरा परिवार उसके ससुराल में, हर जगह की खुशियाँ मानो इस एक शब्द ने लील ली थी।

समय बड़े से बड़ा घाव भर देती है। लेकिन किसी अपने से दूर आप इस आशा में जी रहे हों कि एक दिन उससे मिलने की बारी आएगी और उस आशा पर ही वज्रपात हो जाए तो आदमी टूट जाता है। ऊपर से ये अहसास कि थोड़ी देर अगर गुस्से पर काबू कर लेता तो हालात इतने खराब न होते। आमिर अंदर ही अंदर टूट रहा था। अपने पुराने दिनों की सुनहरी यादें बरबस उसका ध्यान अपनी ओर खींच लेती। ये सोचकर तो उसे अजीब-सा ही लगता कि चार सालों का प्यार भरा रिश्ता बस एक झटके में टूट गया। कल्पना में भी वह इस बात से सिहर जाता कि वह अब शाफ़िया से अजनबी की तरह मिलेगा। मन में विचारों की आँधी-सी चलती रहती और सारी बातें बस एक बिन्दु पर आकर ठहर जाती कि अब सब कुछ ख़त्म हो गया। काम में तो उसका मन लग नहीं रहा था। आए दिन कुछ न कुछ गलतियाँ होती और इससे पहले कि वह कोई बड़ी गलती करता और किसी बड़े झमेले में फंस जाता, अपने दो महीने का पेमेंट वहीं छोड़ घर लौटने का फ़ैसला ले लिया। यारों दोस्तों ने बहुत समझाया कि तुम गलती कर रहे हो, कुछ दिन और रुको, फिर एक साथ ईद की छुट्टी में चलेंगे। लेकिन उसपर तो मानो घर वापस लौटने का भूत सवार हो गया था। उसने किसी की न सुनी और वापस अपने वतन लौट गया।

इधर शाफ़िया के घर का बुरा हाल था। बेटी के भविष्य को लेकर सभी चिंतित थे। कुछ ही दिनों में घरवाले दूसरा रिश्ता ढूँढने लगे। लड़की जिस घर में नाज़-नखरे से पलती है, वही घर शादी के बाद उसे पराई समझने लगता है। जल्दी से उसकी विदाई हो जाए और अपने ससुराल में वह खुश रहे, यही सोच पूरे परिवार की हो जाती है। शाफ़िया को ये बात बिलकुल अच्छी नहीं लगती। उसे लगता, क्या वह बिना शादी किए इस घर में नहीं रह सकती है और अगर शादी करनी ही है तो ऐसी जल्दी भी क्या है। कभी ख़ुद को कोसती कि उस दिन अगर आमिर की बात मान कर उसके घर चली ही जाती तो आज अपने ससुराल में शान से रह रही होती। फिर लगता कि आमिर ने तो उस दिन उसकी बात ही नहीं सुनी। बस अपने घर वापस जाने को लेकर अड़ गया। तरह-तरह के सवाल मन को खंगालते पर जवाब किसी का न होता। पिछले जीवन के प्यार भरे लम्हे अब केवल ख़्वाब बनकर रह गए थे।

आमिर अपने घर लौटा तो उसकी अम्मी ख़ुशी से फूली न समाई। मन उदास था लेकिन बेटे के आने की ख़ुशी में वह सब कुछ भूल गई। बोली

'बेटा चिंता न करो, अल्लाह सब ठीक कर देंगे। उससे भी अच्छी बहू मैं तुम्हारे लिए ढूँढकर लाऊँगी। अल्लाह ने चाहा तो सब कुछ ठीक होगा। उसकी मर्जी से ही ये सब हुआ है। इसलिए पुरानी बातें भूल जाओ और अल्लाह पर भरोसा रखो। वह तुम्हारे लिए कुछ अच्छा ही सोचे होंगे'।

अम्मी बोलती जा रही थी, लेकिन आमिर तो मानो जैसे कुछ सुन ही नहीं रहा था।

बस अंत में केवल इतना ही बोला, 'अम्मी मैं सब ठीक कर दूँगा। मैं आज ही शाफ़िया से मिलने जाऊंगा'।

'लेकिन बेटा अब उससे मिलकर क्या करोगे। सिवाय दुख के अब तुमको क्या मिलेगा। बीते हुए दुख को बार-बार याद करके तुम केवल और केवल अपना दुख बढ़ाओगे। जब तुम समय को पलट नहीं सकते तो बेहतर है कि पिछले ग़म को भूलकर समय के साथ चलो'। अम्मी का अंदाज़ दार्शनिक हो चला था।

'नहीं अम्मी, मैं शाफ़िया से माफी मांग लूँगा। अपनी गलती का प्रायश्चित कर उसे फिर से अपने घर लाऊँगा'। आमिर अपनी ही रौ में बोलता चला गया।

'लेकिन बेटा ये अब संभव नहीं है'। ...

नहीं अम्मी, मैं अभी उसके घर जाऊंगा और उसे मनाकर दुबारा इस घर में ले आऊँगा। अपनी अम्मी की बात काटकर वह बोल उठा।

अम्मी कुछ और बोलती, इससे पहले ही वह शाफ़िया के घर को निकल गया।

शाफ़िया ने जब सुना कि आमिर आया है तो पल भर को उसे विश्वास ही नहीं हुआ। एक पल में सारा गुस्सा व दुख मानो गायब हो गया। दौड़कर कमरे से बाहर आई और आँगन पार कर बैठक की तरफ़ भागी। रास्ते में अब्बू दिखे। वह ठिठक कर वहीं आँगन में खड़ी हो गई। अब्बू ने उसकी तरफ़ देखा, मानो पूछ रहे हों, अब उसके लिए ऐसा उतावलापन क्यों? अब वह तुम्हारा कौन है?

और अगले ही पल, अपनी बीवी के मुख़ातिब हो बोले-'पागल हो गया है आमिर, कह रहा है कि शाफ़िया से माफी मांगने आया है और इसे लेकर ही वापस जाएगा'।

शाफ़िया कि अम्मी गुस्से से आग बबूला हो उठी-'तलाक देते वक़्त क्या उसकी अक्ल घास चरने गई थी। गुड्डे-गुड़ियों का खेल समझ रखा है इसने-निकाह और तलाक को। कह दो यहाँ से चला जाय'।

शाफ़िया को पता नहीं क्यों अपनी अम्मी का ये व्यवहार अच्छा नहीं लगा। इन दो महीने में घर में अम्मी-अब्बू उसकी चिंता से ज़्यादा उसके निकाह के लिए चिंतित थे। बस एक बार निकाह हो जाए, फिर अपने शौहर के साथ चली जाएगी। आज एक शौहर अगर अपने किए पर शर्मिंदा है तो उसको दुतकारने से क्या फायदा? आमिर के साथ तो चार साल रही है वो। उसका अच्छा व बुरा रूप देख चुकी है। नए आदमी का क्या ठिकाना? अगर वह इससे भी खराब निकला तो।

क्यों शाफ़िया तुम्हारा क्या विचार है? अब्बू की आवाज़ ने शाफ़िया कि सोच पर विराम लगाया।

क्या बोलती वो। चुपचाप नज़रें नीची किए खड़ी रही। वह बस एक बार आमिर से मिलना चाहती थी। पूछना चाहती थी कि क्यों किया तुमने ऐसा? तुम्हें एक बार भी मेरी चिंता नहीं हुई।

अब्बू दुबारा बोले एक बार आमिर से मिल लो, फिर हम उसे मना कर देंगे। इतनी ज़िद लेकर बैठा है। तुम एक बार उससे मिल लो।

जी। बस इतना ही बोली शाफ़िया और बैठक से पहले औरतों के लिए टंगे पर्दे की ओट तक पहुँच गई।

पर्दे की ओट से उसने देखा कि आमिर काफ़ी दुबला हो गया है। पर्दे की ओट से ही बोली। कैसे हैं आप।

चार महीने से इस आवाज़ को तरस गया था आमिर। जब कोई चीज आपकी पहुँच से दूर हो तो आपकी उसको पाने की लालसा तीव्र से तीव्रतर होती जाती है।

ठीक हूँ मैं, आप कैसी हैं। जवाब के साथ ही उसने भी उसका कुशक क्षेम पूछ लिया।

अब ठीक रहने को बचा ही क्या है? शाफ़िया के स्वर में उदासी थी।

मुझे माफ़ कर दो शफू। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। तुम इस गलती की जो सजा देना चाहो, दे दो, लेकिन वापस लौट आओ। पिछले दो महीने मैं दोज़ख की आग में जला हूँ। गुस्से की एक चिंगारी ने तुम्हें मुझसे दूर कर दिया। मैं तोबा करना चाहता हूँ। मुझे माफ़ कर दो। फफक पड़ा आमिर।

शाफ़िया का गुस्सा पता नहीं कहाँ काफूर हो गया। उल्टे उसे आमिर पर दया आने लगी। बोली आप रोइए मत। आप जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा।

आमिर को इस बात की आशा बिलकुल नहीं थी। परंतु उसे क्या मालूम था कि शादी के बाद बेटी मायके में बोझ की तरह हो जाती है। उसका पुराना अधिकार न जाने कब और कैसे उससे छिन जाता है कि इसका आभास तक नहीं होता है। शाफिया पिछले दो महीने में इन बातों को भली भांति समझ चुकी थी।

सिसकते हुए आमिर बोल पड़ा, बस शफू अब मैं दुनिया से लड़ जाऊंगा। तुमने हाँ कह दिया तो मैं सबको मना लूँगा।

शाफ़िया से भी आमिर का दुख देखा नहीं गया। वह वापस अपने घर लौट आई और सीधे अपने कमरे में बिस्तर पर निढाल होकर पड़ गई।

अब्बू को जब पता चला कि दोनों एक दूसरे के साथ रहने को राज़ी हैं तो उसे समझ में नहीं आया कि वह खुश हो या दुखी। उसकी अम्मी ने जब सुना तो बिफर पड़ी।

'उसे पता भी है कि वह दोनों क्या बोल रहे हैं। ये इतना आसान थोड़े ही है'।

'लेकिन हम अपनी बेटी को घर में बैठाकर भी तो नहीं रख सकते। कहीं न कहीं तो शादी करनी ही पड़ेगी'। अब्बू संयत स्वर में बोले।

शादी की चिंता तो पिछले दो महीने से अम्मी को सोने नहीं दे रही थी।

हारकर बोली-'तुम जो उचित समझो वह करो। मुझे तो बस अपनी बेटी की ख़ुशी चाहिए'।

आमिर के साथ शाफ़िया चली जाय, इससे एकसाथ पूरे परिवार की चिंता का निवारण हो जाता। वरना, नया लड़का ढूँढो, निकाह पढ़वाओ और उसकी भी क्या गारंटी कि वह अच्छा ही निकले।

अंदर ही अंदर दोनों तैयार हो गए।

आमिर ने जब सुना कि शाफ़िया के घरवाले तैयार हैं तो वह ख़ुशी से पागल हो गया। भागा-भागा अपने घर आया और अपनी अम्मी से बोला-'आप अब बिलकुल चिंता न करें अम्मीजान। शाफ़िया और उसके परिवार वाले तैयार हो गए हैं'।

लेकिन तुम शाफ़िया को यहाँ लाओगे कब। अम्मी ने शंका जाहिर की।

बस अम्मी अगले जुम्मे को मैं शाफ़िया को ले आऊँगा।

ये इतना आसान नहीं है बेटा। तीन तलाक देने के बाद तुम ऐसे ही उसे अपने पास नहीं ला सकते हो। अब वह तुम्हारी बीवी नहीं रही।

कोई बात नहीं अम्मी, हम फिर से निकाह कर लेंगे। आमिर पूरे जोश में था।

ये निकाह और तलाक मज़ाक नहीं है बेटा। हमारे शरिया में सारी चीजों का नियम है। ऐसे मनमर्जी निकाह व तलाक नहीं कर सकते।

'फिर' । आमिर ने शंका जाहिर की।

अम्मी: अब अगर दुबारा उससे निकाह करना है तो शाफ़िया को एक बार किसी और से निकाह कर फिर तलाक लेना पड़ेगा और उससे तलाक के बाद ही वह तुमसे निकाह कर सकती है।

और अगर हमने ऐसा नहीं किया तो। आमिर थोड़ा झुँझला गया था।

अम्मी: ऐसा नहीं बोलते बेटा। तुम अल्लाह की नाराजगी क्यों मोल लेना चाहते हो?

आमिर: अम्मी, हमारा निकाह दो इन्सानों के बीच का समझौता है। इसमें अल्लाह का क्या काम और फिर समझौता तोड़ने या जोड़ने को दोनों पार्टी राज़ी हो तो मज़हब का इससे क्या लेना देना? हमारा इस्लाम नया मज़हब है। इसमें दो इंसान आपस में समझौता करके रिश्ता बनाते हैं। यहाँ कोई सात जन्मों का रिश्ता नहीं है। जब कांट्रैक्ट में अल्लाह हमें पूरी आज़ादी देते हैं तो फिर तलाक और दुबारा निकाह में अल्लाह क्योंकर दखल देंगे।

अम्मी: नहीं बेटा। जो अपने शरिया के हिसाब से जायज है, वही तुम करोगे।

उसकी अम्मी ऐसे भी शाफ़िया से दुबारा निकाह के पक्ष में नहीं थी। एक तो कुछ दिनों पहले का झगड़ा और दूसरे उसके अब तक कोई बच्चा न होने की कसक। वह तो सोचती थी कि चलो इसी बहाने उससे पिंड छूटा। लेकिन बेटे की ज़िद के आगे मजबूर थी। इसलिए शरिया के इस नियम को लेकर अड़ गई।

आमिर किसी भी हालत में शाफ़िया को खोने के मूड में नहीं था। ससुराल से लौटकर आया था तो उसे लगा था कि सारी समस्या हल हो गई है, लेकिन अब जब अम्मी का ये फरमान सुना तो वह फिर सोच में पड़ गया। लेकिन वह अब कुछ भी करके शाफ़िया को हासिल करना चाहता था।

बोला-अम्मी अगर शाफ़िया ऐसे ही इस घर में आती है तो यही सही, पर अब वह ज़रूर आएगी।

अगले ही दिन वह पास की मस्जिद के मौलवी जी से मिले। निकाह की बात करने पर मौलवी जी ने भी दुबारा निकाह का वही रास्ता सुझाया जो उसकी अम्मी ने सुझाया था।

बोले-बेटा निकाह इंसानी समझौते हैं, लेकिन इसमें अगर कोई समस्या आ जाय तो तलाक से इसका निदान पा सकते हैं। लेकिन नबी को मालूम था कि अगर तलाक इतना आसान कर दिया तो इंसान इसको गंभीरता से नहीं लेगा। इसलिए ऐसा नियम बनाया कि तीन बार तलाक देने के बाद ही मियाँ बीवी अलग-अलग होंगे। शुरू के दो तलाक एक तरीके से चेतावनी के रूप में इस्तेमाल होंगे। इस बाद अगर सब कुछ ठीक हो गया तो फिर दोनों आराम से साथ रह सकते हैं। लेकिन अगर तीसरी बार भी तलाक देने की नौबत आ जाए तो फिर ये मान लिया जाता है कि अब वह दोनों साथ नहीं रह सकते हैं। लेकिन आजकल तो मानो पहले और दूसरे तलाक की कोई चर्चा ही नहीं होती है। सीधे तीन तलाक की बात होती है। अब अगर किसी ने सोच समझकर तीन बार तलाक दिया है तो फिर ऐसी क्या परिस्थितियाँ बदल जाएगी कि वह साथ रह सकते हैं। फिर निकाह होगा, फिर कलह होगी और फिर तलाक होगा और अगर किसी ने तीन अलग-अलग समय में दिये जानेवाले तलाक को एक ही झटके में दे दिया है, फिर तो उसे इस गुनाह की सज़ा मिलनी ही चाहिए। उसने शरिया के दिये इस सुविधा का बेज़ा इस्तेमाल किया है। इसलिए हमारे शरिया में सोच समझकर ये व्यवस्था बनाई गई है कि तीन तलाक के बाद फिर से दुबारा निकाह न हो पाये।

जब आप शिद्दत से किसी चीज को चाहते हैं तो उस राह में आने वाली हरेक बाधा उस चीज की भूख और बढ़ा देती है। आमिर अब हर हाल में शाफ़िया को अपनी बीवी बनाना चाहता था।

उसने कहा, 'अब जो भी हो मौलवी साहब, जो कुछ भी करना पड़े, मैं करूंगा बस शाफ़िया मेरी होकर रहेगी'।

'ठीक है, फिर एक लड़का ढूँढो, जिससे शाफ़िया का निकाह हो सके और वह फिर तलाक देने के लिए भी राजी हो। उसके तलाक देने पर आप दुबारा निकाह कर लेना'। बस उस तलाक़ के बाद तीन महीने इद्दत के गुजारने पडेंगे। मौलवी साहब ने किसी विशेषज्ञ की भांति पूरी प्रक्रिया समझा दी।

'लेकिन ऐसा लड़का अब मैं कहाँ से लाऊं'। आमिर मन ही मन बुदबुदाया।

'कुछ कहा आपने मियां'। मौलवी साहब उसकी आँखों में झाँककर बोले।

'नहीं मौलवी साहब, मैं सोच रहा था कि ऐसा लड़का अब मैं कहाँ से लाऊं'। आमिर ने धीरे से अपनी बात कही।

वो तो है बेटा, लेकिन लड़का तो आपको खोजना ही पड़ेगा। वह भी ऐसा कि पहले निकाह करे और फिर एक दिन बाद तलाक भी दे। मौलवी साहब की आवाज़ में चिर परिचित गंभीरता थी। जैसा कि उनके लिए ये एक प्रक्रिया भर हो।

'लेकिन मैं तो एक दिन भी इंतज़ार नहीं करूंगा। निकाह के तुरंत बाद उसे तलाक देने बोल दूंगा'। आमिर मानो एक पल भी इंतज़ार करने के मूड में नहीं था।

'नहीं बेटा, आप ऐसा नहीं कर सकते। कम से कम एक दिन उसे उसकी बीवी बनकर रहना होगा। जब तक वह मुकम्मल तौर पर बीवी न बन जाए तब तक वह तलाक नहीं दे सकता और अगर दे भी दिया तो वह निकाह जायज नहीं माना जाएगा। बेटा फिर तो ये अल्लाह को धोखा देने जैसी बात हो गई। उनसे कुछ छुपा नहीं है बेटा। उनका आदेश है कि निकाह होना है तो पूरी तरह से होना है'। मौलवी साहब ने मानो एक ही बार में आमिर को सब कुछ समझा दिया।

अब तो आमिर और परेशान हो गया। किसे ढूँढे, किसे ये चीज बताए, कौन तैयार होगा? ऐसे ढेर सारे सवाल आमिर को परेशान करने लगे।

मौलवी साहब तजुर्बेदार थे। पहले भी वे ऐसी परिस्थिति से रूबरू हो चुके थे। गंभीर मुद्रा में बोले, 'बेटा मैं तुम्हारी चिंता समझता हूँ। अगर कोई पहले से शादी शुदा है तो वह अपनी बीवी के कारण ये निकाह नहीं करेगा और अगर कुँवारा है तो इस डर से नहीं करेगा कि कहीं भविष्य में इससे उसके अपने निकाह में बाधा न हो। इसलिए ये काम गुप्त तरीके से करना पड़ेगा'।

मौलवी साहब ने तो आमिर की उलझन और बढ़ा दी।

बड़े ही मायूस स्वर में वह बोला, फिर तो ऐसे किसी लड़के को ढूँढना मुश्किल ही है।

'सो तो है बेटा। आख़िर अल्लाह चाहता है कि इंसान को उसके किए की सजा मिले, इसीलिए तो ऐसा नियम बनाया है'। मौलवी साहब ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाया।

'तो फिर मैं क्या करूँ मौलवी साहब'। आमिर हताश हो रहा था।

मौलवी साहब को लगा कि अब लोहा पूरी तरह गरम हो चुका है। बड़े ही सधे स्वर में बोले कि 'बेटा एक उपाय है, लेकिन उसके लिए तुम्हें पैसे ख़र्च करने होंगे'।

'कोई बात नहीं मौलवी साहब पैसे की कोई चिंता नहीं है, आप बस वह उपाय बताइये'। आमिर अधीर हो उठा।

मौलवी साहब का स्वर अभी भी बिलकुल शांत था। बोले 'बेटा एक लाख रुपये लगेंगे'।

'एक लाख, ये तो बहुत है मौलवी साहब' अमीर दबी ज़ुबान में बोला।

'ठीक है बेटा कोई बात नहीं फिर आप ख़ुद देख लो'। मौलवी साहब ने अपना पल्ला झाड़ लिया।

'नहीं नहीं मौलवी साहब आप सारा इंतज़ाम कीजिये, मैं पैसे देने को तैयार हूँ'। आमिर ये मौका हाथ से नहीं जाने देना चाह रहा था।

'ठीक है बेटा, फिर एक दिन तय करके लड़की ले आओ। एक दिन उसका निकाह होगा और अगले दिन तलाक। फिर इद्दत के तीन महीने। उसके बाद तुम उससे निकाह कर लेना'। मौलवी साहब ने एक ही सांस में पूरी बात बता दी।

' लेकिन लड़का पहले मिले तो फिर मैं शाफ़िया को लाऊँ। आमिर आश्वस्त हो लेना चाहता था।

'बेटा लड़का इतनी जल्दी कहाँ मिलेगा और ऐसी चीजों के लफड़े में कोई नहीं पड़ना चाहता। अब तुम्हीं बताओ, तुमको ऐसा मौका मिलता तो क्या तुम अपनी बेगम के डर से ऐसा करते'। मौलवी साहब ने गेंद फिर से उसी के पाले में डाल दी।

आमिर: सही बात है मौलवी जी, लेकिन आपको ऐसा लड़का कैसे मिलेगा?

मौलवी: कोई नहीं मिलेगा बेटा। अब ये काम मुझे ही करना पड़ेगा। आख़िर किसी न किसी को तो ये ज़हर पीना ही पड़ेगा।

आमिर का तो मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया। मुंह से बस इतना ही निकला 'मौलवीजी आप'।

' हाँ मैं। नहीं तो दूसरा कोई लड़का खोजना मुश्किल भी है और फिर न जाने ये बात कितनों तक पहुँच जाएगी। यहाँ तो आज निकाह और कल तलाक, फिर उसी दिन तुम उसे ले जाना और तीन महीने बाद मैं ही तुम दोनों का निकाह पढ़वा दूंगा। मौलवी साहब ने समझने वाले अंदाज़ में जवाब दिया।

आमिर को ये बात जंच गई। लगा ये सही है। ये बात भी केवल दो व्यक्तियों के बीच रहेगी वरना अगर वह लड़का ढूँढने निकला तो पता नहीं कितनों को ये बात बतानी पड़ेगी और देरी होगी सो अलग। वह झटपट तैयार हो गया।

अगले ही दिन आमिर शाफ़िया को लाने उसके घर जा पहुँचा। शाफ़िया के घरवाले ने जब सुना कि वह शाफ़िया को लेने आया है तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्दी ये कैसे शाफ़िया को ले जा सकता है। लेकिन जब आमिर ने बताया कि मौलवी जी से सारी बातें हो गई है और वह शरीयत के हिसाब से सारी प्रक्रिया पूरी कर देंगे तो थोड़ा मन मसोसकर ही सही लेकिन शाफ़िया को उसके साथ भेजने को राजी हो गए। उन्हें ये सब अच्छा तो बिलकुल नहीं लग रहा था लेकिन ये सोचकर शांत हो गए कि आख़िर बच्ची की शादी किसी न किसी से तो करनी ही पड़ेगी। फिर आमिर तो देखा भला लड़का है। पता नहीं दूसरा लड़का कैसा होगा। उसी दिन शाम तक आमिर शाफ़िया को लेकर अपने घर लौट गया। रात को जब शाफ़िया काम ख़त्म कर अपने कमरे में सोने के लिए जाने लगी तो आमिर की अम्मी ने उसे रोका, बोली बेटी आज तुम बरामदे में ही सो जाओ। शाफ़िया को ये थोड़ा अटपटा-सा लगा।

शाफ़िया: क्यों अम्मी कोई काम है आपको?

अम्मी: नहीं बेटी। लेकिन अभी तुम आमिर के पास नहीं सो सकती।

शाफ़िया: क्यों अम्मी?

अम्मी: बेटी तुम्हें आमिर ने कुछ बताया नहीं।

शाफ़िया के चेहरे पर उलझन भरे भाव थे। उसने ना कि मुद्रा में सर हिलाया। फिर अम्मी ने उसे सारी बातें समझाई। उसे बताया कि अब तुम आमिर की बीवी नहीं हो और अब सीधे-सीधे उससे निकाह भी नहीं कर सकती हो। इसके लिए तुम्हें एक और निकाह कर उससे तलाक लेना होगा। उसके बाद ही तुम दुबारा आमिर से शादी कर पाओगी।

शाफ़िया का सारा उत्साह काफूर हो चुका था। हजारों सवाल उसके मन को बींध रहे थे लेकिन उसका जवाब देनेवाला आमिर अपने कमरे में सो रहा था। उसने उसे जगाना उचित नहीं समझा। उसके मन में सैकड़ों सवाल थे। क्या मेरे अब्बू, अम्मी को ये सब पता होगा, क्या इसके लिए वह सब भी तैयार होंगे, आमिर ख़ुद मेरा निकाह दूसरे से कराएगा, क्या यही एक रास्ता है? बहुत देर तक वह सवालों से स्वयं जूझती रही, किन्तु कोई उत्तर ना मिला तो उसने अम्मी से पूछा। अम्मी, क्या इसके अलावा कोई उपाय नहीं है?

अम्मी: नहीं बेटी, अगर तुम आमिर के साथ ज़िंदगी गुजारना चाहती हो तो बस यही एक रास्ता है। या फिर तुम किसी और से निकाह कर उसके साथ रह सकती हो।

शाफ़िया: लेकिन अम्मी, तलाक हम दोनों का आपसी मामला है और जब हमें वापस साथ रहने में कोई कष्ट नहीं है तो फिर धर्म का इससे क्या लेना देना?

अम्मी: बेटी, आमिर ने भी यही कहा था। मेरी बात तो उसने ठीक से सुनी भी नहीं लेकिन जब मौलवी जी ने समझाया तो फिर मान गया और इस बुढ़ापे में मैं तो ऐसा कुछ नहीं करना चाहती कि क़यामत के दिन अल्लाह ताला को मुंह न दिखा सकूँ। तुम लोग ख़ुद समझदार हो। जो अच्छा लगे वह करो, लेकिन मेरे रहते इस घर में ऐसा कुछ मैं नहीं होने दूँगी जो अल्लाह के हुक्म से अलग हो।

शाफ़िया को लग गया कि अब और कोई उपाय नहीं है।

फिर हारकर बोली-अम्मी लेकिन मेरा क्या? मैं किसी गैर मर्द से निकाह करके उसकी बीवी बन जाऊँ और वह भी एक रात के लिए, ये सही है क्या?

अम्मी: बेटी, ये सब सोच की बातें हैं। जब एक बार तुम्हारा तलाक हो गया तो तुम्हें किसी दूसरे मर्द से ही निकाह करना होगा। यहाँ भी तो तुम वही कर रही हो। फर्ज़ करो वहाँ भी किसी कारण से तुम्हारा तलाक हो गया तो तुम किसी तीसरे मर्द से निकाह करोगी। फिर तुम्हारे जीवन में तीन मर्द आएंगे। यहाँ तो बस एक ही मर्द आ रहा है तुम्हारे जीवन में, वह भी नाम के वास्ते। उसके बाद तुम आराम से आमिर के साथ रह सकती हो।

शाफ़िया का दिमाग़ और उलझ गया। उसे भी लगा कि अगर मैं अभी मना कर भी देती हूँ, तो बात तो वही होगी जो अम्मी ने कहा है। मेरा निकाह किसी और लड़के से होगा। फिर वह किस स्वभाव का होगा, ये भी पता नहीं। आमिर जब से सऊदी से लौटा है, उसने उसकी आँखों में सच्चाई देखी है। वह अब दुबारा आमिर को नहीं खोना चाहती है। आमिर उसे सच्चा प्यार करता है, नहीं तो वह दूसरी शादी कर लेता। सऊदी में कमाता है, उसे भला लड़की की क्या कमी होगी। फिर भी वह उसे मनाने आया। अब मैं ज़हर का हर घूंट पी लूँगी, लेकिन आमिर को वापस पा कर ही रहूँगी। रात में ये बातें सोचते-सोचते कब उसकी आँख लग गई, पता ही नहीं चला।

अगली सुबह आमिर, शाफ़िया और अम्मी के साथ सीधे मस्जिद पहुँच गया। कल शाम में ही उसने मौलवी जी से सारी बातें कर ली थी। पहली बार शाफ़िया ने मौलवी जी को देखा और मौलवी जी ने शाफ़िया को। मौलवी जी 55 साल की उम्र में भी काफ़ी फुर्तीले दिखते थे। छोटा कद, सांवला रंग, सिर पर टोपी, लंबी खिचड़ी दाढ़ी, सफाचट मूंछे, लंबा कुर्ता और छोटा पाजामा पहने टिपिकल मौलवी ही लग रहे थे। शाफ़िया ने एक निगाह उनको देखा फिर नज़र दूसरी ओर मोड़ लिया। मौलवी जी ने भी तिरछी नज़रों से शाफ़िया को देखा लेकिन चेहरा बुर्के से ढंका होने के कारण कुछ ज़्यादा अनुमान नहीं लगा सके। वह आमिर से बात करने में व्यस्त था। निकाह से पहले आमिर से बोल पड़े-पैसे निकाह के पहले ही देने होंगे।

हाँ हाँ मौलवी साहब पैसे मैं लेकर आया हूँ, आप निकाह की रस्म आगे बढ़ाइए। पैसे मिलते ही मौलवी जी ने फटाफट निकाह की रस्म पूरी की। निकाह के गवाह बने आमिर और उसकी अम्मी। निकाह ख़त्म होते ही मौलवी साहब आमिर की ओर मुख़ातिब होकर बोले-अब काम हो गया आपका, कल सवेरे-सवेरे मैं तलाक दे दूंगा और फिर आप दोनों का तीन महीने बाद यहीं निकाह करवा दूंगा। अब आपलोग जा सकते हैं।

दोनों के जाते ही मौलवी साहब इशारों से शाफ़िया को मस्जिद के अंदर बने एक कमरे में ले गए। ये कमरा मौलवी साहब के लिए ही बना था। मौलवी साहब दूर के गाँव से थे और सप्ताह में एक बार अपने घर को जाते थे। यही उनका पेशा था। इसी मस्जिद की आमदनी से उनका घर चलता था। कमरे में जाते ही मौलवी साहब प्यार से बोले आप अपना बुर्का उतार कर आराम करो। मैं खाना लेकर आता हूँ। पास के ही होटल से मौलवी साहब खाना लेकर आ गए। आकर जैसे ही अपने कमरे में आए, उन्होने पहली बार शाफ़िया को देखा। मौलवी साहब के लिए ये निकाह कोई पहली बार का किस्सा नहीं था। पहले भी दो मौकों पर उसे तलाक़शुदा महिलाओं से शादी करनी पड़ी थी। लेकिन आज जब उसने शाफ़िया को देखा तो देखते ही रह गए। लेकिन जल्द ही उसने अपने विचारों के प्रवाह को रोका और बोल पड़े। आप खाना खा लो और आराम करो। मैं बाहर से होकर आता हूँ। दोनों ने उसी कमरे में बैठकर खाना खाया। खाने के बाद मौलवी साहब किसी काम के बहाने बाहर चले गए। उन्हें लगा कि उनकी वज़ह से शाफ़िया ठीक से आराम नहीं कर पाएगी। जाते हुए उन्होंने कमरे का आगे का गेट लगा दिया और शाफ़िया से कहा कि वह पिछला दरवाज़ा अंदर से बंद कर ले। उनके जाते ही शाफ़िया ने चैन की सांस ली और दरवाजे की छिटकनी लगाकर सो गई।

इधर मौलवी साहब के तो क्या कहने। दिल बल्लियों उछल रहा था। 1 लाख रुपये की कमाई एक ही झटके में। उनकी तो मानो लॉटरी निकाल आई थी। सबसे पहले वह बैंक जाकर पैसे अपने अकाउंट में जमा कर देना चाहते थे। जाते-जाते गाँव वालों को कह गए कि आज मार्केट में थोड़ा ज़रूरी काम आ गया है, इसलिए लौटते-लौटते शाम हो जाएगी। हो सकता है कि रात भी हो जाय। उन्हें शक था कि नमाज़ के वक़्त लोग बेवजह उनका इंतज़ार करेंगे या हो सकता है उनके कमरे की तरफ़ ही उन्हें खोजने चले जाएँ। वह नहीं चाहते थे कि कोई बेवजह शाफ़िया को उधर उनके कमरे में देखे। तभी उसे शाफ़िया का ख़्याल आया। उसे लगा कि बैंक में पैसे जमा करने के बाद थोड़ी देर इधर उधर घूमेंगे और फिर शाम होने के बाद वापस जाएंगे। उनके जाने से बेवजह शाफ़िया को परेशानी होती। आख़िर एक ही कमरा है। उसमें वह रहेगा तो शाफ़िया को आराम करने में व्यवधान होगा।

शाफ़िया कि नींद खुली तो पिछला दरवाज़ा खोलकर बाहर निकली। शाम हो गई थी लेकिन मौलवी साहब अभी तक वापस नहीं आए थे। वह बाहर निकल कर बस खड़ी ही हुई थी कि उसे कुछ लोगों की आवाज़ सुनाई दी। शायद नमाज़ी मस्जिद में आने लगे थे। तुरंत वह पिछले दरवाजे से अंदर आ गई और कमरा अंदर से बंद कर लिया। थोड़ी देर हलचल के बाद जब शांति हुई तो अँधेरा हो चुका था। तभी उसके फ़ोन पर आमिर का कॉल आया।

आमिर: कैसी हो शफू?

शाफ़िया: मैं ठीक हूँ, आप कैसे हैं?

आमिर: बस कल का इंतज़ार कर रहा हूँ।

शाफ़िया: मैं भी।

आमिर: और अभी क्या कर रही हो?

शाफ़िया: कुछ नहीं बस सो ही रही थी। अभी जगी हूँ।

आमिर: ठीक है शफू, अपना खयाल रखना, बाय।

शाफ़िया: बाय।

फ़ोन रखते ही वह बाथरूम में घुस गई। थोड़ी ही देर में उसे दरवाजे पर कुछ खट-खट की आवाज़ आई। बाथरूम का दरवाज़ा थोड़ा-सा खोलकर उसने सुना तो लगा कि मौलवी साहब वापस आ गए हैं। वहीं से उसने आवाज़ लगाई-आप अंदर आ जाइए, मैं बाथरूम में हूँ। जब उसने गेट पर ताला खुलने के बाद गेट खुलने की आवाज़ सुनी तो बाथरूम बंद कर लिया। नहाकर जब वह बाहर निकली तो देखा कि मौलवी साहब रात का खाना लेकर ही आए हैं। निकलते ही मौलवी साहब बोल पड़े कि मैं भी नहा लेता हूँ, फिर खाना खा लेंगे, नहीं तो खाना ठंढा हो जाएगा। शाफ़िया ने सहमति में केवल अपना सिर हिला दिया। रात का खाना खाने के बाद मौलवी साहब बाहर निकल गए। उन्हें शायद रात का खाना खाने के बाद घूमने की आदत थी। शाफ़िया भी पिछले दरवाजे से बाहर निकलकर थोड़ी देर के लिए बाहर बैठ गयी। रात को सोते समय मौलवी साहब बोले-शाफ़िया ये बिस्तर बहुत छोटा है। इसमें दो आदमी नहीं सो सकते, इसलिए इस बेड को हटकर अपना बिस्तर नीचे ही लगा लेते हैं।

शाफ़िया: कोई बात नहीं, आप बेड पर सो जाइए और मैं नीचे सो जाऊँगी।

मौलवी: ऐसा कैसे हो सकता है, आज तो हमने निकाह किया है। हमदोनों को आज एक साथ ही सोना होगा। तभी कल तलाक मुकम्मल होगा। मैंने आमिर को भी सारी बातें बता दी थी।

शाफ़िया को पहली बार मौलवी साहब की बात अजीब-सी लगी, लेकिन वह और कर भी क्या सकती थी। रात को मौलवी साहब बोले, शाफ़िया एक बार इधर तो देखो। देखो, आज हम दोनों के बीच शौहर और बीवी का रिश्ता है। तुम घबराओ मत। आज के लिए मुझे आमिर जैसा ही समझो।

शाफ़िया को इस वक़्त मौलवी साहब की ज़ुबान से आमिर का नाम अच्छा नहीं लगा। 55-56 साल के बुज़ुर्ग मौलवी साहब और 26 वर्ष की जवान शाफ़िया का कोई मेल नहीं था। वह कैसे उस बूढ़े मौलवी को आमिर जैसा समझे। लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। उसकी तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया होते न देख मौलवी जी ने सीधा उसके ऊपर हाथ डाला और अपनी ओर घुमा लिया। शाफ़िया ने कोई प्रतिरोध तो नहीं किया लेकिन उस अंधेरे में भी जब उसे ये अहसास हुआ कि ये कोई और नहीं वही बूढ़ा ठिगना-सा मौलवी है तो उसे उबकाई-सी आने लगी। लेकिन दिन भर से सपनों के सागर में गोते लगाता मौलवी अब भला कहाँ रुकने वाला था। फिर वह कोई ग़लत काम भी तो नहीं कर रहा था। दीन धरम के हिसाब से अपनी ब्याहता बीवी के साथ था। इस रात को वह अपनी ज़िन्दगी की सबसे हसीन रात बना लेना चाहता था।

शाफ़िया को ऐसा लग रहा था मानो उसका शरीर नहीं बल्कि उसकी आत्मा को कुचला जा रहा है। वह चुपचाप मुर्दे-सी बिस्तर पर पड़ी रही। मौलवी जी के लिए रात पूरी तेजी से ख़त्म हो रही थी और शाफ़िया को ऐसा लग रहा था जैसे इस रात की कोई सुबह ही नहीं है। रात में जब भी शाफ़िया कि नींद खुली उसे मौलवी साहब का हाथ अपने जिस्म पर रेंगता हुआ मिला। वह शायद इसके पूरे शरीर को एक रात की भेंट मानकर ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़ लेना चाहता था।

सुबह जब शाफ़िया कि नींद खुली तो मौलवी साहब कमरे में नहीं थे। उसने उस ओर ज़्यादा ध्यान भी नहीं दिया और बाथरूम में घुस गई। बाथरूम से बाहर निकली तो करीब आठ बज चुके थे। लेकिन मौलवी साहब का कहीं पता नहीं था। सोचा कहीं बाहर बैठे हों तो बाहर निकलकर देखते हैं, लेकिन ये क्या कल की तरह फिर से मेन गेट बाहर से बंद था। फिर पीछे के दरवाजे पर नज़र पड़ी तो उधर से छिटकनी खोलकर बाहर निकली। लेकिन बाहर भी वह कहीं दिखाई नहीं दिये। शाफ़िया फिर अंदर आ गई। मन में ये भी खटका था कि बाहर कहीं कोई देख न ले। अंदर आते ही उसने आमिर को फ़ोन लगाया। उधर से आमिर की आवाज़ सुनते ही वह फफक कर रो पड़ी। ऐसा लगा जैसे रात का पूरा गुबार बाहर आ रहा हो। रोते-रोते ही उसने बताया कि मौलवी साहब सुबह से नहीं दिख रहे हैं। मेन गेट पर ताला लगाकर गए हैं। बस पिछला दरवाज़ा खुला है। कल भी जब बाहर गए थे तो इसी तरह गेट बाहर से लॉक कर के गए थे। आमिर ने उसे सांत्वना देते हुए कहा कि तुम परेशान मत हो, मैं आकर देखता हूँ।

थोड़ी ही देर में आमिर आ गया। जब उसने आकर बताया कि उनका फ़ोन भी नहीं लग रहा है, स्विच ऑफ बता रहा है, तब दोनों की चिंता बढ़ी। देर होते जा रही थी। बाहर से नमाजियों की आवाज़ भी आ रही थी। लोग मौलवी जी को खोजने उनके कमरे तक आ रहे थे लेकिन ताला देखकर लौट जा रहे थे। आमिर और शाफ़िया चुपचाप उस कमरे में बैठे हुए थे। जब बाहर की आवाज़ थोड़ी कम हुई तो आमिर धीरे से गेट खोलकर बाहर निकला। लोग शायद मस्जिद से जा चुके थे। उसने शाफ़िया से कहा कि तुम यहीं रुको, मैं खाना लेकर आता हूँ और उधर बाज़ार में मौलवी साहब के बारे में थोड़ा पता भी करूंगा। उन दोनों के पास और कोई चारा भी नहीं था।

आमिर जब बाज़ार से लौटा तो बारह बज गए थे। आते ही उसने शाफ़िया से कहा कि मौलवी साहब का फ़ोन आया था। वे बोल रहे थे कि उनके चचा का इंतकाल हो गया है। इसलिए वे गाँव गए हैं। सवेरे-सवेरे ख़बर मिली, इसलिए वह बिना किसी को बताए चले गये। वे बोले हैं कि शाम तक लौटने की पूरी कोशिश करेंगे।

शाफ़िया: लेकिन अगर वह शाम तक नहीं लौटे तो?

आमिर: अरे चिंता मत करो। मैंने कहा है कि वे ज़रूर शाम तक ज़रूर वापस आ जाएँ।

शाफ़िया: नहीं अगर किसी कारण से नहीं लौटे तो?

आमिर: आ जाएंगे। मैं फिर थोड़ी देर में फ़ोन करके पूछ लूँगा।

शाफ़िया चुप हो गई। वह आमिर को और परेशान नहीं करना चाहती थी लेकिन पता नहीं क्यों उसे लग रहा था कि मौलवी साहब शाम तक वापस नहीं आएंगे। उसके और आमिर के बीच अब करने लायक ऐसी कोई बात बची नहीं थी। कल तक जो बात हुई थी, उसके और आज के बीच में बस कल की रात ही अलग-अलग बीती थी और उस बारे में बात करने लायक कोई चीज थी ही नहीं। बैठे-बैठे शाम के पाँच बज गए, लेकिन न तो मौलवी साहब आए और न ही उनका फ़ोन आया। इस बीच दो बार आमिर की अम्मी का फ़ोन आ चुका था। रात करीब आठ बजे आमिर शाफ़िया का खाना लेकर आया। दोनों ने साथ बैठकर खाना खाया कि तभी मौलवी साहब का फ़ोन आया। बोले मुझे रात में आने में देर हो जाएगी। इसलिए अब तलाक वाला काम कल ही हो पाएगा। तुम चिंता नहीं करो। कल सवेरे-सवेरे हम सारा काम निबटा लेंगे। आज मैं बुरी तरह से फंस गया। मैं जानता हूँ कि तुम्हें बुरा लग रहा होगा लेकिन मैं लाचार हूँ। बस एक दिन का किसी तरह सब्र कर लो। शाफ़िया ने जब ये सब सुना तो बिफर पड़ी। बोली-झूठ बोल रहा है वो। लेकिन सिवाय झल्लाने के और मौलवी जी को कोसने के उन दोनों के पास और उपाय ही क्या था। खाने के बाद आमिर अपनी अम्मी के पास चला गया और शाफ़िया उसी कमरे में लेट गई।

शाफ़िया कि आंखों से नींद कोसों दूर थी। अपनी हालत उसे जाल में फंसी उस चिड़िया जैसी लग रही थी, जो कितना भी ज़ोर क्यों न लगा ले, न तो पास आते व्याधे को रोक सकती है और न ही जाल का बंधन तोड़कर उड़ ही सकती है। उसका जी करता था कि ज़ोर-ज़ोर से रोएँ, लेकिन उसका दर्द समझने वाला कौन था? जब अल्लाह की मर्जी से ही ये सब कुछ हो रहा था तो फिर इंसान उसके दर्द को कैसे समझ सकता था? तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई तो उसकी तंद्रा भंग हुई। विचारों का प्रवाह टूटा। देखा तो मौलवी साहब दिख रहे थे। पता नहीं क्यों, अंधेरे में भी उसको मौलवी साहब की आँखों में एक शैतानी चमक दिखी। दुनिया में शायद हम अपनी ही सोच का प्रतिविम्ब देखते हैं। मौलवी साहब ने लाइट जलाया और शाफ़िया से देर होने के लिए माफी मांगी। शाफ़िया ने कोई जवाब नहीं दिया और न ही मौलवी साहब ने उसके जवाब का इंतज़ार किया। फौरन बाथरूम में घुसे और जल्द ही नहाकर बाहर निकल आए। थोड़ी ही देर में लाइट बंद करके वह भी शाफ़िया के बगल में लेट गए। न तो शाफ़िया ने कुछ पूछा और न ही मौलवी साहब ने कुछ बताया। मौलवी साहब शांत थे लेकिन केवल ज़ुबान से। उनके हाथ धीरे-धीरे शाफ़िया के बदन पर घूम रहे थे। शाफ़िया ने जब से सुना कि मौलवी जी रात में देर से आएंगे, तभी से उसको इस स्थिति का आभास हो चुका था। वह शांत ही रही लेकिन मौलवी साहब आज ज़्यादा आक्रामक लग रहे थे। शाफ़िया ने इसे अपनी नियति मान ली थी और मौलवी साहब के लिए तो मानो ये ज़िन्दगी की आखिरी रात थी। भरपूर जी लेना चाहते थे वो। आज नींद दोनों में से किसी की आँखों में नहीं थी। शाफ़िया आज सोना नहीं चाहती थी कि कहीं फिर सवेरे मौलवी जी गायब न हो जाएँ और मौलवी जी आज रात सोकर इस सुनहरे पल को गंवाना नहीं चाहते थे। शाफ़िया जैसी सुंदर युवती अब भला दुबारा उसे इस ज़िन्दगी में तो नसीब नहीं होगी। रात बीतती रही, मौलवी साहब जागते रहे। आदमी पाप से डरता है, समाज से डरता है, लेकिन अगर ऐसा कोई डर न हो, तो आदमी के अंदर का राक्षस उसे शैतान से भी बदतर बना देता है। आज मौलवी साहब के लिए ऐसा ही दिन था। आज शाफ़िया के रूप में एक वस्तु उसके सामने थी और जिसका उपभोग करने की आज़ादी उसे समाज और धर्म दोनों ने ही दे दी थी। आज न तो वह कोई अनैतिक व अमर्यादित कार्य कर रहा था और न ही कोई अधार्मिक कार्य। ये कार्य शरीयत के हिसाब से हलाल था। फिर उस वस्तु के उपभोग में संकोच कैसा, झिझक कैसी? शाफ़िया पर क्या गुजर रही है, इसकी ज़िम्मेदारी मौलवी साहब की नहीं थी, फिर वह व्यर्थ ऐसी बातों में क्यों पड़ता, क्योंकर मन को किंचित भी मलिन करता। वह हर पल नए अनुसंधान करता रहा तब तक, जब तक कि सुबह नहीं हो गई। मुर्गे की बाँग से जब सुबह का एहसास हुआ तो मौलवी साहब की तंद्रा टूटी। बस आखिरी बार वह अपनी इस अनमोल उपहार को जी भरकर देख लेना चाहता था, जी भरकर भोग लेना चाहता था। शाफ़िया तो करीब-करीब बेसुध ही थी, बस किसी तरह वह नींद के आगोश में आने से बच रही थी।

सुबह हुई। आमिर आए। मौलवी साहब तैयार ही बैठे थे। उनका शाफ़िया से तलाक हुआ। अब शाफ़िया उसकी हुई। बस केवल तीन महीने का इंतज़ार बीच में था। आमिर बहुत खुश था लेकिन शाफ़िया किसी चट्टान की भांति शांत और स्थिर थी। कोई हलचल नहीं, कोई भाव नहीं। दोनों ने मौलवी साहब से विदा ली। मस्जिद से बाहर आते ही आमिर बोला-शफू, अब चेहरे पर पर्दा गिरा लो। शाफ़िया ने आग्नेय नज़रों से उसे घूरा-'पर्दा, अब कैसा पर्दा और किससे' ? आमिर उसकी आँखों को देखकर सहम-सा गया। फिर धीरे से बोला-अब गाँव से गुजरेंगे, पर्दा कर लो, प्लीज। शाफ़िया कुछ बोली नहीं, बस उसने चेहरे पर पर्दा गिरा लिया। जब वह गाँव से गुजर रही थी तो उसे ऐसा लग रहा था मानो गाँव वाले की नज़रें एक्स रे की भांति पर्दे से ढंके उसके शरीर को छेद रही हो और उसके शरीर का एक-एक अंग उनके समक्ष नुमाया हो रही हो।

दोनों के घर पहुँचते ही अम्मी ने चैन की सांस ली। बोली-बेटा अब बस तीन महीने का और इंतज़ार करो, फिर शाफ़िया तुम्हारी। लेकिन ये तीन महीने तुम उससे पूरी तरह दूर रहना।

'ठीक है अम्मी। अब बस कुछ खाने को दे दो। सवेरे का ही निकला हुआ हूँ। बहुत ज़ोरों की भूख लगी है और हाँ, अम्मी मैं सोच रहा था कि आसपास के ही शहर में कोई छोटी मोटी नौकरी ढूँढ लेता हूँ। इस बहाने मैं शाफ़िया से दूर भी रहूँगा और कुछ आमदनी भी होती रहेगी'। आमिर ने एक ही सांस में अपनी बात पूरी कर दी और हुआ भी ऐसा ही। वहीं मेरठ में एक छोटी-सी कंपनी में फिर से नौकरी करने लगा।

दिन बीत रहे थे बस ये इंतज़ार की घड़ियाँ लंबी हो रही थी। आमिर दिन भर तो काम में व्यस्त रहता लेकिन रात को बिलकुल अकेला महसूस करता। उधर शाफ़िया भी दिन भर घर के काम में लगी रहती किन्तु रात को जब अकेले में होती तो उसे भी आमिर की बहुत याद आती। कभी-कभी यादों के इस मधुर पल में मौलवी साहब का शैतानी चेहरा कड़वाहट घोल देता। वह उन दो रातों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना चाहती थी लेकिन वह रातें तो मानो जोंक की तरह उसकी आत्मा से लिपटकर निरंतर उसका लहू चूसती रहती थी। उसे लगता था कि धीरे-धीरे ही सही वह इन चीजों को भूल जाएगी। इधर उसका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता था। अम्मी बोलती कि तुम बहुत ज़्यादा सोचती हो। इतनी चिंता तुम्हारी सेहत के लिए ठीक नहीं है। सब कुछ भूलकर आगे का जीवन देखो। शाफ़िया उनकी बात सुनती, लेकिन उसका अपने मन पर वश नहीं चलता। घटना को बीते हुए करीब डेढ़ महीने बीत चुके थे। एक तरफ़ शाफ़िया को लगता कि चलो आधा समय तो बीता, लेकिन बाक़ी आधा उसे पहाड़-सा दिखता था। उसकी तबीयत दिन ब दिन खराब हो रही थी। खाने की कुछ इच्छा नहीं होती। शरीर दिनों दिन कमजोर हो रहा था। एक दिन ऊबकर अम्मी बोली कि अब तुझे डॉक्टर से दिखाना ही पड़ेगा। मैं सोच रही थी कि इद्दत के समय कहीं बाहर न जाने दूँ लेकिन अब बिना डॉक्टर को दिखाए काम नहीं चलेगा। मुझे पता है दिन भर घर में बैठे-बैठे तुम उल जलूल सोचती रहती हो। एक बार डॉक्टर साहब समझाएँगे, दवाइयाँ देंगे, फिर तुम ठीक हो जाओगी। इस बहाने बाहर निकलोगी तो मन भी बहल जाएगा और फिर एक दिन दोनों डॉक्टर के पास पहुँचे। पूरा चेक अप करने के बाद डॉक्टर साहिबा ने कुछ टेस्ट लिखे और दोपहर में आने को कहा। दोपहर में जब दोनों पहुँचे तो डॉक्टर साहिबा प्यार से बोली कि चिंता कि कोई बात नहीं है सारे टेस्ट अच्छे आए हैं। बस आप लोगों के लिए एक खुशखबरी है कि ये आपकी बहू माँ बननेवाली है। 'या अल्लाह' , अम्मी के मुंह से बस इतना ही निकला। शाफ़िया तो वहीं कुर्सी पर ही शिथिल पड़ गई। दोनों की ज़ुबान जैसे सर्द होकर जम गई। डॉक्टर साहिबा मुस्करायी, बोली-क्यों आप लोगों को अच्छा नहीं लगा। शाफ़िया तो बिलकुल निढाल पड़ी रही। लेकिन अम्मी धीरे से बोल पड़ी नहीं-नहीं मैडम बहुत अच्छा लगा। डॉक्टर ने ढेर सारी हिदायतें दी, कुछ दवाइयाँ लिखी लेकिन दोनों सास बहू अब शायद कुछ करने की स्थिति में नहीं थी। वहाँ से निकलकर दोनों सीधे घर आ गई। दोनों अपने-अपने बिस्तर पर धम्म से गिर पड़ी।

"या खुदा, आपको मैंने पोता मांगा था लेकिन इस तरह नहीं। जिस बच्चे में हमारे वंश का खून ही नहीं उसे मैं भला अपना पोता कैसे मानूँ। शाफ़िया ने एक दिन कहा था कि आपको कैसे पता है कि कमी मेरे अंदर है। हो सकता है आमिर में ही कमी हो"। अम्मी जितना सोचती, उतना ही उलझते जाती।

इधर शाफ़िया का हाल तो और बुरा था। उसकी तो मानो सोचने की शक्ति ही ख़त्म हो गई थी। लगता था जैसे दिमाग़ की नसें जम चुकी हैं। दिमाग़ में कभी आमिर आता, कभी बच्चा और कभी मौलवी। आगे का भविष्य बिलकुल बियावान जंगल की भांति उलझा-उलझा दिखता। जब आमिर सुनेगा, तब क्या होगा? क्या वह मुझे अब भी स्वीकार करेगा? क्या वह बच्चे को स्वीकार करेगा? क्या अम्मी बच्चे को अपना पोता मानेगी? आमिर के पुरुषत्व को चोट तो नहीं लगेगी? सवाल सैकड़ों थे और जवाब किसी का नहीं। दिमाग़ सुन्न हुआ जाता था। कभी लगता कि आमिर अच्छा लड़का है। वह दोनों को स्वीकार कर लेगा। लेकिन क्या ये सही होगा। उसे हमेशा ये लगता रहेगा कि आमिर ने उसे और उसके बच्चे को अपनाकर उसपर एहसान किया है। कभी सोचती कि अगर आमिर ने मना कर दिया तो फिर वह क्या करेगी। वह गर्भपात की सोचती लेकिन संस्कार इसकी इजाज़त नहीं देती। ये तो ऐसे ही हराम है। कोई इसके लिए तैयार नहीं होगा। फिर तो दो ही रास्ते बचते हैं। एक ये कि आमिर उसे बच्चे सहित स्वीकार कर ले लेकिन इसमें पूरी ज़िंदगी उसे ऐसे आमिर के साथ जीना पड़ेगा जिसने एक साथ विष के दो-दो घूंट पिये हों। पहला दूसरे का बच्चा और दूसरा पुरुषत्व वाले अहम पर आघात। आमिर के अस्वीकार करनेवाली बात तो उसे हिलाकर रख देती और दोनों ही स्थिति में आने वाली संतान उस काली रात को पूरी ज़िन्दगी भूलने नहीं देगी। उसे पूरा जीवन ही अंधकारमय दिखने लगा। अनुमान से आने वाला डर और अपनी ही सोच से पैदा होनेवाली हताशा हमेशा दुखदायी होती है। शाफ़िया अकेली थी और उसकी सोच उसकी पकड़ से दूर हो चुकी थी। निराशा, दुख व ज़िल्लत से भरी हुई ज़िन्दगी भविष्य में उसका व उसके बच्चे का इंतज़ार कर रही थी और फिर जब उसकी अपनी सोच उस अंधकारमय भविष्य की घुप्प काली रात में गुम हो गई तो एक ही रास्ता नज़र आया, ख़ुद को ख़त्म करने का। उसके दिमाग़ ने एक बार और ज़ोर लगाया लेकिन वह उस निराशा भरे बादल की ओट से निकलने में नाकामयाब रही। वह चुपचाप उठी और उस राह पर चल पड़ी जहाँ से उसका लौटना नामुमकिन था।

शाम में जब अम्मी ने काफ़ी देर तक शाफ़िया कि आवाज़ नहीं सुनी तो उसका दरवाज़ा खटखटाया। बहुत देर तक जब कोई उत्तर नहीं मिला तो उसका मन सशंकित हो गया। आसपास के लोगों को बुलाकर दरवाज़ा तोड़ा गया। अंदर का नज़ारा वीभत्स था। शाफ़िया का शरीर पंखे से झूल रहा था। अम्मी वहीं बेहोश होकर गिर पड़ी। पड़ोसियों ने संभाला और बाहर खाट पर लिटा दिया। देर रात आमिर भी घर पहुँचा। कहाँ तो वह तीन महीने ख़त्म होने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था और कहाँ ये खबर। उसकी तो मानो दुनिया ही लुट गई। आँगन में शाफ़िया का शरीर पड़ा था। अम्मी बैठी सुबक रही थी। कौन किसको ढाड़स बँधाता? पड़ोसी अपने-अपने घर चले गए थे। अब अगले दिन ही शाफ़िया कि अंतिम क्रिया कि जानी थी। अम्मी ने रो रोकर पूरा घटनाक्रम आमिर को बताया। आमिर को जब बच्चे का पता चला तो पल भर को वह हक्का बक्का हो गया। ऐसा कुछ तो उसने सपने में भी नहीं सोचा था। लगता है अल्लाह ने सारा कुसंयोग उसके लिए ही बचाकर रखा है। उसे लगा कि इस सारी फसाद की जड़ वह स्वयं है। वही है शाफ़िया का हत्यारा। उसी की ज़िद और नासमझी ने शाफिया कि जान ली है और अब जब शाफ़िया चली गई, तो फिर इस आत्मग्लानि के साथ वह नहीं जी सकता। शाफ़िया कि मौत के गुनहगार को जीने का कोई अधिकार नहीं है। वह उसी कमरे में घुसा और उसी पंखे से ख़ुद लटक गया।

अम्मी को रात भर तो कुछ आभास नहीं हुआ लेकिन जब सवेरे उठकर कमरे में गई तो आमिर को देखा। आमिर का शरीर बेजान हो चुका था। वह चिल्लाती हुई बाहर निकली। आस पास के लोग आवाज़ सुनकर बाहर निकले। देखा कि आमिर की अम्मी चिल्लाती हुई घर से बाहर दौड़ रही है। लोग आए, लेकिन अम्मी तो मानो कुछ सुन व देख पाने की स्थिति में थी ही नहीं। लोग उनके पीछे भागे। आख़िर पूछें तो कि क्या हो गया, लेकिन वह कहाँ रुकनेवाली थी। वह आगे-आगे और पड़ोसी पीछे-पीछे और फिर एक छपाक की आवाज़ के साथ वह कुएँ में कूद गई। लोगों ने जब तक उनको निकालने की तैयारी की तब तक वह इस दुनिया से बहुत दूर जा चुकी थी।

एक ही घर से एक ही दिन तीन जनाजे निकले। तीनों एक ही दिन काल के गाल में समा गए।

लेकिन इन तीनों की मौत का ज़िम्मेदार कौन था?

शायद आमिर या उसकी अम्मी या फिर शाफ़िया या वह मौलवी या फिर कोई और? इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं था या फिर कोई सही जवाब देना नहीं चाहता था।