एक रिश्ता अनकहा सा / मनोज शर्मा
एक हाथ से ट्राली बैग को खींचते हुए और दूसरे हाथ में हाथ से सिले बैग को लिए क़दम दर क़दम आगे घसीटता बढ़ता जा रहा था। पास ही स्टेशन से ट्रेन अब सीटी की आवाज़ और ईंधन से निकलते धुएँ को यहाँ छोड़ती हुई आगे बढ़ चली थी। मैं शहर को कहीं पीछे छोड़ता हुआ गाँव की ओर बढ़ रहा था। काठ से बने पुल पर लम्बे और घने पेड़ों से आ रही छांव मेरे इस सफ़र का शायद अन्तिम बेहतरीन पडाव होगा। यहाँ का मौसम पल-पल में बदल रहा था।
पेड़ों पर बैठे पक्षियों का कलरव और इस पुल के नीचे बहती नहर के जल से उत्पन्न ध्वनि बहुत मधुर थी। बायीं कलाई पर बंधी घड़ी को आंखो के करीब लाते हुए टाईम देखा पर यकीनन मेरी चाल अब पहले से धीमी पड़ती जा रही थी। मौसम भी गर्म और थकाने वाला होता जा रहा था। टाईम साढ़े तीन बजे का था बरसात के बाद की धूप घनी और चुभने वाली-सी थी। मैं किसी तरह उस घर के पास पहुँच गया जो मेरा गन्तव्य था। कितने सालो बाद यूं सुनयना मुझे याद करेगी और मुझे मिलने को बुलायगी।
सब अजीब-सा लगरहा था पर यहाँ अनोखी आत्मीयता-सी झलक रही थी। तभी तो मैं पुराने दिनों को स्मरण करते हुए झट से दौड़ पड़ा इस दूसरे शहर में जहाँ सुनयना आज तक उन्ही स्मृतियों में जिन्दा थी मैं एक पल में मिलने को दौड़ पड़ा था। मैं गुमसुम उस घर के सामने पहुँच गया जहाँ अब वह रहती है। बाहर गेट पर लगी बैल को कई बार बजाने पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। फिर मैने अपने हाथ से दरवाजे पर चोट करते हुए कुछ आहट की। दरवाजे में बने एक सुराख में झांकने पर एक धुंधली आकृति जो गैलरी से होती हुई दरवाज़ा खोल साक्षात हुई।
शैलेश ने आखों पर से चश्मा हटाकर उसे साफ़ करते हुए सामने की ओर काफ़ी दूर देखते हुए एक आकृति को करीब आते हुए देखा। जैसे-जैसे ये चेहरा पास-पास आता रहा ह्दय गति तेज होने लगी। लगा कि ये सुनयना होगी पर हाँ ये सुनयना ही थी किन्तु अब वह चेहरा परिपक्व हो चुका है आंखों के नीचे गहरे काले निशान और बालों में भी सफेदी आ चुकी है मैंने पुनः चश्मे को आखों पर लगा कुछ बोलना चाहा पर मेरे बोलने से पहले ही उसने प्रश्न पूछने की-सी तरह मुझसे बोली आर यू मि।शैलेश। उसे देखते ही मैं उन्ही पुराने दिनों में खोता चला गया जिनसे मैं चाहकर भी नहीं निकल सका था कभी। मुझे बैठने के लिए कहा पर कुछ ही देर में जलपान के बाद आरामकुर्सी पर बैठते ही मेरी आंख-सी लग गयी। मै डायरी के उन्हीं पन्नों में लौट गया जो बीते सालों में खींच ले गये। बात उन दिनों की थी जब मैंने नौकरी शुरू की ही थी। क्या थे मेरे ऑफिस के वह शुरूआती दिन जब ऑफिस में दिन के दो बज चुके थे। उस दिन मौसम बेहद ठंडा था तभी तो ऑफिस के अन्दर भी बाहर की-सी ठंड है। शैलेश ने एक पुराने रजिस्टर पर से नज़रे हटाते हुए सामने खुली खिडकी पर डाली। आकाश में बादलों का एक बड़ा पहाड़ लगातार आकार बदल-बदल कर इधर ही ताक रहा था। कहीं बीच-बीच में पंछियों की लम्बी कतार इधर से उधर आकाश को चीरते जा रहे थी। आधा ऑफिस अभी भी लंच से लौटा नहीं इक्का दुक्का लोग अपनी सीटों पर सुस्ता रहे हैं। अभी भी वहाँ पहुचने में जिसके लिए मैं बेहद अधीर हुए जा रहा था वहाँ पहुँचने में अभी दो ढाई घंटे है पर सूबह से ही न जाने कितने दफ़ा टाइम देखा जा चुका है। शैलेश ने मिलने के चक्कर में न कुछ खाया और न ही कुछ ख़ास काम किया आज बल्कि सूबह से रिपोर्टिंग हैड मिस्टर माथूर के पास कई बार जा चुका है ये बताने कि उसे चार बजे निकलना है पर माथूर साहब भी चुटकियाँ लेने में कम न थे और कह देते कि ठीक है पर जल्दी क्या है भाई चार तो बजने दो। यही नहीं उन्होने ऑफिस की दूसरी ब्रांच जो दूसरे शाहर में यहाँ से दूर थी ट्रांसफर के लिए पूछ चुके थे। ये सुन शैलेश कई बार खीझ जाता।
ऑफिस के सभी लोग अपनी-अपनी सीट पर अपने काम कर रहे थे पर शैलेश का दिल दिमाग़ कहीं और ही है। सामने पिंक सूट में बैठी मिसेज कुलकर्णी भी कई बार जल्दी जाने का सवब पूछ चुकी थी और शैलेश कहीं और ही किसी दुनिया में खोया हुआ था। रह-रह कर वही बाते उसे विचलित कर रही थी जो पिछले चार सालों से उसके साथ थी कैसा था वह दिन तीन साल पहले जब उस दिन मेहता एंड संस को फ़ोन करना था पर नंबर नहीं मिल रहा था। उसी दिन परेशानी में न जाने कितने अंजान नंबरस पर फ़ोन लगा दिया था। उसे क्या पता था कि इन्हीं अंजान नंबरों में ही कहीं मेरी ज़िन्दगी भी होगी। उस दिन शैलेश ने टेलिफोन ड्रारेक्टरी से देख एक नंबर लगाया था पर ग़लत नंबर कहकर दूसरी तरफ़ से फ़ोन काट दिया था। समय बीतता चला था पर एक नंबर जो कभी किसी रोज़ मिला था लगा जैसे कोई राह ही देख रहा था। और एक दिन जब फिर से नोटपैड पर लिखे नम्बर को डायल कर दिया। इस बार फ़ोन का रिसीवर उठाया गया पर दूसरी ओर से केवल एक शांत-सी प्रतिक्रिया थी पर उस चुप्पी में भी गहरी आत्मियता-सी थी जो उस ओर खींच रही थी। सामने गर्द से भरा टेवल पर थोड़ी देर पहले चाय पीये गये कप प्लेट के निशान बन चुके थे। बीच-बीच में खिड़की के पर्दे हवा के ज़ोर से आगे पीछे की ओर लहरा रहे थे।
उस दिन न जाने क्यों ऐसा लगा था कि दूसरी ओर सुनयना होगी पर शायद वह सुनयना ही थी। उसके बाद तो उस नंबर पर फ़ोन मिलाना अब ङेल्ही रूटीन्स ही हो गया था। न जाने क्यों फ़ोन के दूसरी तरफ़ के चेहरे को जानने की इच्छा प्रबल होती गयी और एक दिन शांति को चीरती वह आवाज़ कानों तक पहुँच ही गयी। माता पिता का साया तो बचपन से ही उठ गया था बुआ ने ही उसे जीने लायक बनाया था किन्तु फिर भी वह सदा दया, कृपा, हीन और ईर्ष्या का पात्र रहा था। मुफलिसी के रहते वह इंटर तक ही पढाई कर सका था।
सफेदी से पुती दीवार जिस पर एक कलैंडर लगा है और जिसपर तारीखे नित्य बढती जा रही थी कुछ तारीखों पर सर्कल किये हुए थे जिनपर नीले लाल और अन्य रंगों से कुछ निशान या इंगलिश में लिखे कुछ शब्द थे पर इन सबका क्या मतलब होगा मुझे अभी तक नहीं पता चला था। नित्य कोई न कोई तारीख किसी गोले में रंगीन होती रहती थी। आसमान में भी आज कई रंग थे कहीं सफेद तो कहीं नीला पर दूर क्षितिज अब स्याह नारंगी-सा हो चला था। अब वह नंबर रटा जा चुका था।
आज शैलेश ने हिम्मत करके सामने वाली आवाज़ से उसका नाम पूछ ही लिया। यद्यपि पहले तो सुनयना ने टालने की कोशिश की पर काफ़ी आग्रह और थोड़ी ज़िरह के बाद सुनयना ने अपना परिचय दे ही दिया। थोड़े ही दिनों में अब शैलेश सुनयना दोनों काफ़ी घुल मिल गये।
दिन बीतने लगे थे अभी तक मिले नहीं थे वो, उन दोनों का दिनोदिन लगाव बढता ही जा रहा था और उन दोनों ने एक दूसरे से क़सम ली कि वे दोनों कभी भी रूबरू नहीं होंगे। दिल जुड़ चुके थे अब वह सुख दुख के साथी बन चुके थे। आकाश में मस्त पंछियों की भांति वह कलरव करते थे। पर शैलेश ने कभी भी अपनी अपंगता के बारे में ज़िक्र नहीं किया। सूबह शाम दिन रात बस वह दोनों एक दूसरे के ख्यालों में रहते थे यहाँ तक कि रविवार छुट्टी के दिन भी पब्लिक काल से काल कर लेते थे। पर कभी भी पसन्द नापसन्द और प्रेम के अलावा उन्होने कभी कोई बात न की। सब दिन एक से लगने लगे थे और वह दोनों मजे-मजे ज़िन्दगी बसर कर रहे थे। दिल दिमाग़ पर हावी होने लगा था। प्रेम के मध्य ज़रूरते बढने लगी थी केवल फ़ोन के सहारे ही ज़िन्दगी निकालना अब भारी लगने लगा था। ये जिंन्दगी यथार्थ होते हुए भी कल्पना से भरी पूरी थी। पर शैलेश को ये हमेशा लगता कि उसकी सच्चाई को जानते ही सब ख़त्म हो जाएगा। पर सुनयना के प्रेम पर कभी कोई शुवहा नहीं हुआ। ये पता था कि दोनों बहुत निर्धन है पर ऐसी छोटी-सी जाॅव से ही दोनों के घर चल रहे थे। शैलेश ने एक दिन इधर उधर की बाते करने के बाद उसे देखने की इच्छा ज़ाहिर की पर सुनयना ने न केवल मिलने के लिए मना किया बल्कि फिर कभी ऐसा न करने के लिए कहा। पर ये कमबख्त दिल था कि हर थोड़े दिनों में मिलने की चाह रखता था हालांकि दिल में बहुत उथल पुथल होती थी पर एक नज़र देखने की उत्सुकता दिनोदिन बढ़ती ही जा रही थी।
शनिवार का दिन था घर से निकलते हुए बैसाखी को थामते हुए अपने मौहल्ले से धीरे-धीरे निकल रहा था। ज्यादा काम न होते हुए भी बह व्यस्त-सा दिख रहा था दफ्तर पहुचते ही उसने सुनयना को काॅल किया पर आज दोनों तरफ़ एक अजीब-सा भय था जैसे कोई गहरा राज खुलने के डर से अपराधी के चेहरे पर दिखाई देता है। शैलेश का गला भरा हुआ था और सुनयना भी बीच-बीच हिचकिया ले रही थी। चार बजे डाबर लि।के ऑफिस का पता पूछते हुए जहाँ सुनयना जाॅव करती थी
शैलेश सीढियों के दीवारों का सहारा लिये ऑफिस के नीचे खड़ा था। शनिवार होने के कारण लोग ऑफिसस से बाहर की ओर निकल रहे थे। आसमान साफ-सा था पर कुछ बड़े बादल छोटे बादलों को अपने में समेटे जे रहे थे। बीच-बीच में बहते समीर से सामने खड़े दरख़्त झूल रहे थे। शैलेश वहीं खड़ा इंतज़ार करने लगा। साढ़े चार बज चुके पर अब तक सुनयना अपनी फ्लोर से नीचे नहीं आई थी। बहुत देर इन्तजार के बाद शैलेश सीढियो के सहारे बैसाखी थामे ऊपर फ्लोर की तरफ़ बढ़ने लगा। इस मंज़िल पर वीरानगी छाई हुई थी। दायी तरफ़ मुड़ते हुए एक-एक क़दम टेकता शैलेश आगे बढ़ता जा रहा था। बैसाखियों के सहारे चलने की आहट से सन्नाटे में यह आवाज़ गूंज रही थी। दूसरी ओर दीवार की ओट में बैठी सुनयना अजीबोगरीब कश्मकश में स्वयं को पा रही थी
छत पर घुमते पंखे की हवा में भी वह पसीने से लथपथ थी। वो समझ नहीं पा रही थी कि उसने मिलने की अनुमति देकर कुछ ग़लत तो नहीं किया। अपने ही अन्दर पल भर में सैकड़ो ख्यालों को टूटते बनते देख रही थी। भयभीत आंखों और छटपटाते ह्रदय को स्वयं में समेटे सामने की ओर एकटक देखे जा रही थी। इधर अपनी ही परछाइयों का पीछा करता शैलेश बस करीब ही था। तेज आंधी और बरसात के आने के पूर्व का-सा मौसम यहाँ उमडता जा रहा था। शैलेश ने सामने मेज की और बढ़ते हुए सुनयना-सुनयना दो एक बार आवाज़ दी सुनयना ने चौकते हुए शैलेश की ओर मुंह़ किया पर-पर वह शून्य थी और कपकपा रही थी उसने कोई जवाब नहीं दिया। केई प्रतिक्रिया न पाकर और ऐसे बर्ताव को देख शैलेश को लगा कि उसकी अपंगता के विषय में सुनयना ने सब देख भांप लिया इसी से उसकी प्रतिक्रिया ऐसी है। सुनयना निरूत्तर-सी बस अचेतन बैठी है। शैलेश ने कई मर्तवा फिर पुकारा पर सुनयना कि आंखे रो दी और असंख्य चीखों को स्वयं में संभाले भरे गले से बोली आपको यहाँ नहीं आना चाहिए था मैं आपके सामने हाथ जोड़ती हूँ यहाँ से चले जाइए। शैलेश अपनी असहज स्थिति और बेबसी को संभालते हुए पुनः सुनयना कि ओर देखता रहा। पर सुनयना का उसकी ओर इस तरह एकटक देखे जाना और बस रोते जाने का सबब जानने को वेचैन था।
शैलेश एक हारे यौद्धा कि भांति लौट जाने को अब तैयार था उसे अपनी स्थिति पर स्वयं क्रोध, ईर्ष्या, दया के भाव पल-पल में स्वचलित होते दिख रहे थे। ऊधर सुनयना कि लगातार रोती आंखे बहुत कुछ कह रही थी वह बात जो आजतक कभी उसकी जुबां तक नहीं आई थी वह होठों तक आते-आते हमेशा कहीं अन्दर ही दब जाती थी। पर अब जैसे ही शैलेश उदास मन से लौट रहा था तभी उसने भरे मन से कहा शैलेश मैं तुम्हारे काबिल नहीं। शैलेश ने करूण स्वरों में आंखों में वेदना लिए सुनयना से कहा एक बार मेरी आंखों में झांककर तो देखों और मेरे प्रेम को देखो। सुनयना ने दुखी ह्रदय से शैलेश को कहा आपको दिल की नजरो से ही देख सकती हूँ तुम्हे साक्षात देखने के लिए मुझे दो आंखे चाहिए पर मेरे पास तो तुम्हें देखने के लिए आंखे ही नहीं है मैं अंधी हूँ शैलेश मैं तुम्हे नहीं देख सकती हूँ, हाँ! मैं तुम्हे नहीं देख सकती। मैं तुम्हे धोखे में रखा और इससे ज़्यादा नहीं रख सकती। तुम चले जाओ अब भगवान के लिए चले जाओ। शैलेश हतप्रभ-सा खड़ा सुनयना के चेहरे की ओर देखता रहा और अपनी बैसाखी को संभालते हुए कहने लगा सुनयना तुम भी एक सच्चाई को जिसे सालों से तुमसे छिपाया हुआ है सुनो मैं भी एक अपंग और लाचार इंसान हूँ मेरी दोनों टांगे नहीं है। शैलेश अब स्वयं को संभाल नहीं पा रहा था वह सारे अरमानों पर बज्रपात होते देख रोते हुए लौटने लगा उसकी अपनी ज़िन्दगी उसका साथ छोडे जा रही थी वह सामने की ओर ख़ुद को घसीटता हुआ चलते हुए उसकी रूंदी जुबां से यही निकल रहा था कि अब सब ख़त्म हो चला सब सुनयना भी औरो-सी निकली मेरे दिल मेरे जज्बातों को नहीं समझ सकी और धीरे-धीरे क़दम टेकता कुछ ही देर में वहाँ औझल हो गया। अब दोनों ओर अन्दर बाहर इधर सुनयना सुबकिये लिए तभी से ही रोये जा रही थी उसे नहीं पता था कि उसने ग़लत किया या ठीक पर उसे इतने आभास हो रहा था कि दोनों ओर हजारों ह्रदयों पर एक साथ आघात हुआ है। वो हाड मांस की मूर्ति-सी हो गयी थी मानो ज़िन्दगी भर का सरमाया एक ही कठोराघात में खो दिया हो। शैलेश रात भर स्वयं को कोसता रहा और सूबह उठते-उठते निर्णय ले लिया कि वह अब यहाँ नहीं रहेगा। पर उसे नहीं पता था कि कहाँ जाना है उसे। वह सूबह जल्दी दफ्तर पहुँच गया। आज उसको सारी आवोहवा अलग-सी लग रही थी। उसे यहाँ एक-एक पल भारी लग रहा था। मिस्टर माथुर के आते ही शैलेश ने आगे बढ़कर दूसरे शहर में भेजने वाले ऑफर को बिना शर्तों के हाँ कर दी। और वह जल्द ही वहाँ चला गया। और फिर कभी नहीं लौटा।