एक रूकी हुई जिंदगी / देव प्रकाश चौधरी
भरे-पूरे परिवारों की उस पक्की गली में किसी अपरिचित को देखते ही बच्चे एक-दूसरे को पुकारने लगते हैं। ऊपर से जो घर अलग-अलग लगते हैं, वे सब अचानक आपस में इस क़दर मिल जाते हैं कि पता ही नहीं चलता कि दीवारें उन्हें अलग भी करती हैं। बड़े-बुजुर्ग अपनी लड़ाईयाँ, जवान अपने पैंतरे, औरतें अपनी चख-चख और बच्चे अपनी कुट्टी छोड़कर, पक्की गली की ढलान पर बने उस छोटे से घर के आगे जमा हो जाते हैं, जिस घर में एक माँ रहती है।
शहीद हेमराज सिंह की मां! कई बच्चे एक साथ आवाज़ देते हैं। घर की उदास खामोशियाँ टूटती हैं। लोहे का लाल दरवाज़ा खुलता है। माँ बाहर आती हैं। अंदर दो कमरे, एक बरामदा, दो खाटें, तैयार होने के लिए रखे अनाजों के छोटे-छोटे ढेर, खाना पकाने के लिए खुली जगह, कुछ खाली बरतन और उससे भी ज़्यादा खालीपन। "हेमराज इसी घर में पला-बढ़ा था," माँ की डबडबायी आंखें हेमराज की तस्वीर पर टिक जाती हैं। दीवार के जिस ताक पर हेमराज की किताबें रहती थीं, उस पर उनकी एक छोटी-सी तस्वीर है।
आस-पड़ोस के लोग एक साथ हेमराज के बारे में ढेर सारी बातें बताते हैं-"हेमराज इसी गाँव के स्कूल में पढ़ा... बचपन से शांत था...हेमराज के बाद भी इस गाँव के लड़के फ़ौज में गए... हेमराज गाँव का नाम रोशन कर गया... अब इस गाँव को लोग हेमराज के नाम से जानते हैं... गाँव तक पहुँचने की सड़क का नाम भी शहीद हेमराज मार्ग है...सड़क में गड्ढे हैं...सरकार को कुछ करना चाहिए... ।" पड़ोसियों के पास बताने के लिए और भी बाते हैं। शहीद बेटे की तस्वीर को निहारती माँ चुप है। लेकिन उनकी आंखें बोल पड़ती हैं-"अब हृदय की व्यथा कहने का रिवाज़ नहीं रहा-न पड़ोसियों से, न देवताओं से, न रिश्तेदारों से।"
शहीद बेटे पर माँ को गर्व है। हेमराज छह जनवरी 2001 में सेना में भर्ती हुए थे। राजपूताना रेजीमेंट में लांस नायक के पद पर वह पाकिस्तान की सीमा पर तैनात थे, जब शहीद हुए। घटना 8 जनवरी, 2013 की है। लेकिन उनकी लाश के साथ पाकिस्तानी सेना के बर्बरता पूर्वक व्यवहार को माँ आज तक माफ़ नहीं कर पाई है-"अच्छा नहीं हुआ।" माँ को नहीं पता कि युद्ध के भी अन्तर्राष्ट्रीय नियम बने हुए हैं और शत्रु सैनिकों के शव के साथ भी मर्यादापूर्वक व्यवहार होना चाहिए। वह तो इसे मानवीय ढंग से देखती हैं-"यह इंसानियत नहीं। हेमराज के बाद भी ऐसा हुआ।"
बोलते हुए माँ फिर खो जाती हैं। उन दिनों में जब हेमराज छुट्टियों में गाँव आते थे। खेती-बारी को शौक था। नौकरी के बाद भी पुश्तैनी खेती में भाइयों और चाचाओं का हाथ बंटाते थे। हंसता-खिलखिलाता परिवार था। हेमराज अपनी शादी से भी बहुत खुश थे। पत्नी धर्मवती को वह हाईस्कूल से आगे भी पढ़ाना चाहते थे। माँ को तीर्थयात्रा कराना चाहते थे। पुश्तैनी घर को बड़ा बनाना चाहते थे। भाईयों को अच्छे सरकारी पदों पर देखना चाहते थे।
"जो आप सोचते हैं, वह नहीं होता। देवता न्याय नहीं करते, पुण्यों का हिसाब रखने वाले देवता अब रहे नहीं," माँ की आवाज़ बताती है कि इनकी ज़िन्दगी में आशा का हर विन्यास, हर स्थापत्य इस क़दर बिखर गया है कि उसे जोड़ने का समय ही नहीं है किसी के पास। न गाँव के लोगों के पास, न रिश्तेदारों के पास और न ही सरकार के पास।
"वैसे सरकार ने किया बहुत। सेना ने किया। हेमराज के तीनों बच्चों को सेना पढ़ा रही है। धर्मवती भी सेना के क्वार्टर में रहती है। अच्छा होगा अगर बच्चे बन जाएँ।" माँ की इस प्रार्थना में एक दबी चीख का अनुभव आप कर सकते हैं। बच्चे बुलाते हैं। दूसरे बेटे भी चाहते हैं कि माँ शहर में रहे। शहर जाती भी हैं तो कुछ दिनों के लिए। वापस लौट आती हैं। लेकिन कोई धागा ऐसा है, जो गाँव से माँ को बाँधता है। तभी एक पड़ोस का बच्चा कहता है-"ताई समाधि पर आज नहीं जाओगी?"
मां चौंक पड़ती है। कुछ छूट गया हो जैसे। अचानक खड़ी हो जाती हैं-"आज देर हो गई।" मुझे भी चलने के लिए कहती हैं। समाधि मतलब वह जगह जहाँ अंतिम संस्कार किया गया था। वहाँ अभी शहीद हेमराज सिंह की एक प्रतिमा लगी हुई है। प्रतिमा का लगना, माँ की ज़िद है। हेमराज के ताऊ हरिकिशन सिंह कहते हैं-"हम सब लोगों ने प्रतिमा के लिए पैसे दिए।" जब से शहीद की प्रतिमा लगी है, मथुरा से सटे कोसी कलां के शेरनगर खरार गाँव में रहती हुई माँ रोज़ यहाँ आती हैं। आंचल से प्रतिमा पर लगी धूल पोंछती हैं। कई-कई घंटे बिताती हैं। बातें करती हैं-कभी ख़ुद से। कभी शहीद बेटे से। अवकाश पर गाँव आए थे हेमराज। 20 दिसम्बर को डयूटी पर गए थे। 8 जनवरी को शहादत की ख़बर आई। यादों के बोझ में कभी ढेर सारे सपने भी रहे होंगे, अब वह सिर्फ़ सच ढो रही हैं। प्रतिमा के चारों ओर की ज़मीन बंजर है। माँ मीना देवी चाहती हैं कि आस-पास हरियाली हो जाए-"बंजर ज़मीन अच्छी नहीं लगती न!"
फिर वह चुप-सी हो जाती हैं। आत्मा में जब न प्रार्थना के लिए कोई जगह बची हो और न ही शोकगीतों के लिए... तो चुप्पी ज़िन्दगी को टोहने के लिए सबसे बड़ी लाठी होती है। बेटे की प्रतिमा के साथ बैठी एक माँ के दर्द को महसूस कर यहाँ से निकलते हुए यही लगा जैसे आज की तारीख में राजनीति और संस्कृति के जिस्म पर शहादत एक विज्ञापन भर है।