एक लिजलिजा एहसास / मनीषा कुलश्रेष्ठ
बहुत अजीब अनुभव है ये। स्त्री के अपने आप में पूरे और सक्षम अस्तित्व की सम्पूर्णता को एकदम नकारता हुआ। कि मानो स्त्री कुछ नहीं बस एक ‘देह’। अभी तक सुन्न हूँ मैं इस आघात से। कभी यह फोन बेवजह नहीं घनघनाया था तुम थे तब। तुम थे तो मैं पूर्ण थी‚ प्रतिष्ठित और सच्चरित्र पत्नी। तुम्हारे साथ सजी सजी स्वतन्त्र खिलखिला कर हँसने को‚ कोई भी फैशन फॉलो करने को‚ थिरकने को‚ कुछ भी बोल देने को।
तुम क्या गये मैं बस एक देह रह गई। एक खुली‚ अकेली आमंत्रित करती देह मेरी वही हँसी संदिग्ध हो गई‚ शब्द मुंह से बिना निकले मुखर हो गये प्रतिष्ठा– चरित्र तुम्हारे नाम के साथ चला गया। एक फोन ने घनघना कर मुझे मेरी हैसियत बता दी‚ कि अब मैं मैं नहीं अकेली छूट गई भोग्य वस्तु हूँ।
“हलो‚ मैम मेरा नम्बर ले लीजिये‚ सर ने आपकी हैल्प के लिये कहा था। “आप कौन? इतनी रात गये “ “मैं तो बस सर का एक दोस्त हूँ। मैम क्या आप अपनी मैराईटल लाईफ से खुश हैं?” “यह बकवास क्यों कर रहे हैं आप? ……कौन हो तुम इडियट? “बस ऐसा लगा सुनिये‚ मैं हूँ यहां आपकी हैल्प के लिये। सर गये हुए हैं तो क्या…आप जब भी बुलाएंगी मैं हाजिर हो जाऊँगा। देर रात को भी……। मैं बताऊँगा न जब आऊँगा कि मैं कौन हूँ। कब आऊँ ? कल रात …”
मैं ने जी भर कर उसे गालियां दी‚ सिक्योरिटी वालों को बुलाने की भी धमकी दे दी‚ सीनीयर आफिशियल्स से शिकायत की भी धमकी दे दी। सारी बहादुरी दिखा कर धड़ाम बिस्तर पर गिर तब से सुन्न पड़ी हूँ। ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने सारे कपड़े नोच कर एक लिजलिजा गिरगिट छोड़ दिया हो।
तुम थे तो क्यों नहीं घनघनाया था यह फोन इस तरह आधी रात को? बस कुछ हफ्तों को तो तुम दूर गये हो तो मैं रेसपेक्टेड लेडी वाईफ से एक भोग्या होकर रह गई? जबकि मैं तुम्हारा रोल निभाने को तत्पर‚ सक्षम सारे घर बाहर के काम बखूबी कर रही हूँ। यहाँ तक कि अपनी और बच्चों की सुरक्षा भी करती आई हूँ।
यहाँ तक कि इस सायकोपैथ को ढूंढ निकालना कोई बड़ा काम नहीं। इसी कैम्पस में से किया गया यह फोन और किसका हो सकता है‚ उन्हीं तुम्हारे पचास साठ कलीग्स में से एक का न जो बखूबी जानते हैं कि तुम बाहर गये हुए हो।
पर इस अहसास का क्या करुं? जो लिजलिजे गिरगिट सा रैंग रहा है……उस क्षत विक्षत आत्मविश्वास का क्या करुं? अपने एकदम अधूरा होने की यह पीड़ा …किससे कहूँ? तुम्हें बताऊं? तुम्हें कहूँ ? तुम घबरा जाओगे और बार बार पूछोगे कि स्विमिंगपूल तो नहीं गई थीं मेरी एबसेन्स में ? जिम में कुछ ऊटपटांग तो नहीं पहना था? किसी और से कहूँ तो उस पर भी अपने उपर उछलने वाले छींटों से कहाँ बच सकूंगी?
“कुछ तो हुआ ही होगा‚ कोई हिन्ट या गलतफहमी इनकी तरफ से”
“बॉडी लैंग्वेज से आकर्षित किया होगा‚ अब शिकायत कर रही है।”
“ये ही ऐसी होगी…।”
और अपने ही जैसी स्त्रियों से कहना पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है।
“हँ बड़ी खूबसूरत है न जो…और घूमो भई पति के बिना यहां वहां…।”
न जाने कितनी बातें सोच गई हूँ। बहुत आहत हूँ‚ अपने ही सामने अन्दर तक बेइज़्जत हो गई हूँ। फिर भी चलो तुम्हें तो बता ही दूं कल को बात बढ़ गई तो तुम यही कहोगे…
“मुझे तुरन्त क्यों नहीं बताया?"
मेरी कांपती उंगलियाँ तुम्हारे मोबाइल का नम्बर डायल कर रही हैं।