एक लिपि विस्तार कान्फरेंस / रामचन्द्र शुक्ल
गत 29 दिसम्बर, को काँग्रेस (अधिवेशन के अवसर पर) एक लिपि विस्तार कान्फरेंस की बैठक हुई। श्रीमान शारदाचरण मित्र महोदय ने कान्फरेंस का कार्य आरम्भ किया। रायबहादुर लाला लालचन्द के प्रस्ताव और राजा पृथ्वीपाल सिंह के अनुमोदन पर मद्रास के जस्टिस कृष्णस्वामी अय्यर सभापति चुने गए। सभापति महाशय ने एक अत्यन्त युक्तिपूर्ण और मनोहर वक्तृता दी जिसका सारांश यह है-
“मैं केवल इसी कारण सभापति बनाया गया हूँ कि मैं एक ऐसे प्रान्त का हूँ जहाँ इस लिपि के प्रचार की ओर लोगों का बहुत कम ध्यान है और जहाँ के लोगों को उस लिपि को ग्रहण करने पर उद्यत करना अत्यन्त कठिन है जिसकी उत्पत्ति दक्षिण लिपि से भिन्न है। वर्ष के इस अवसर पर काँग्रेस और कान्फरेंसों की धूम रहती है। यद्यपि यह एक लिपिविस्तार कान्फरेंस सबसे पीछे की है पर महत्तव में यह किसी से घटकर नहीं है। देश में एक नई जागृति और एकता का जातीय भाव फैल रहा है। पर जातीय एकता के भाव का तब तक कुछ नहीं हो सकता जब तक कि हम एक भाषा और एक लिपि स्थापित करने का प्रयत्न न करें। इस सभा में हम एक भाषा का विषय नहीं लेते हैं, हम पहले अपने देशवासियों को एक लिपि ग्रहण करने की उपयोगिता को बतलाना चाहते हैं। एकता तब तक पूर्ण रूप से स्थापित नहीं हो सकती जब तक हम उन विभेदों को दूर न कर दें जो हममें बहुत अधिक हैं। एक जाति का समाज बनाने के लिए एक भाषा और एक लिपि प्रधान सामग्रियाँ हैं। पर प्राय: 20000 लिपियों और 147 भाषाओं के होते हुए एक लिपि और एक भाषा का प्रचलित होना पहले पहल एक असम्भव स्वप्न समझा जाएगा। पर कुछ ऐसे उन्नत दृष्टि के लोग भी हैं जो यह देख रहे हैं कि जो आज एक स्वप्न है और कल एक आशा मात्र है वही परसों एक प्रत्यक्ष बात हो जाएगी। विधाता के यहाँ कोई बात अनहोनी नहीं है। इस समय 29 करोड़ मनुष्य आर्य भाषाएँ बोलते हैं और साढ़े पाँच करोड़ मनुष्य द्राविड़ भाषाएँ जिनका उद्भव संस्कृत से स्वतन्त्र समझा जाता है। अत: यदि भारतवासी अपनी निज की भाषा और लिपि के अतिरिक्त एक और व्यापक भाषा और लिपि का व्यवहार करने लगें तो इससे उपर्युक्त अनेक बोलियों और लिपियों पर किसी प्रकार का व्याघात न पहुँचेगा। विचार कीजिए कि भिन्न भिन्न लिपियों के होने से हमें कितनी हानि है। भिन्न भिन्न भाषाओं के होने पर भी यदि लिपि एक हो तो किसी एक भाषा का देश में समझा जाना सम्भव है क्योंकि उनमें से अधिकांश आर्य हैं और उनके कुछ न कुछ शब्द सब भाषाओं में समान रूप से मिलेजुले हैं। अब जब कि इतने उत्कृष्ट लेखक देशी भाषाओं के साहित्य की पूर्ति कर रहे हैं और उन सब देशी साहित्यों का उठान प्राचीन आर्य से है तब क्या एक भाषा की सम्पत्ति को दूसरी के पास पहुँचाना आवश्यक नहीं है? यदि आवश्यक है तो क्या इसका साधन एक लिपि के द्वारा धीरे धीरे सम्भव नहीं है? जहाँ तक मैं समझता हूँ कि अब लोगों को एक लिपि की आवश्यकता समझाने की जरूरत नहीं है। अब जरूरत है इस बात के बतलाने की कि एक लिपि का होना सम्भव है।
अब हम यदि किसी एक लिपि को ग्रहण करना चाहें तो हमारे सामने कई लिपियाँ हैं। एक ओर फारसी लिपि है जिसे यदि सब नहीं तो अधिकांश मुसलमान अपने संकीर्ण जातीय ममत्व के वशीभूत होकर अपनाए हुए हैं। कुछ लोग रोमन अक्षरों को उपयुक्त बतलाते हैं। फिर देवनागरी लिपि है जिसमें आजकल हिन्दी और प्राय: समस्त भारतीय भाषाओं की जड़ संस्कृत लिखीजाती है। अब यदि आपको एक लिपि स्वीकार करना है तो यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि व्यापक लिपि होने के लिए गुण क्या होने चाहिए। सबसे पहले तो यह जरूरी है कि वह सर्वांगपूर्ण हो। उसमें व्यर्थ अक्षरों की भरती न हो। प्रत्येक ध्वनि को सूचित करने के लिए अक्षरों की कमी न हो। इनके अतिरिक्त यह भी देखना है कि वह लिपि सुगमता से सीखी, लिखीऔर छापे जाने के योग्य हो।
अब मैं इन तीनों लिपियों पर एक एक करके विचार करता हूँ। अरबी लिपि तो इस कारण तिरस्कृत है कि वह अपूर्ण भी है और उसमें व्यर्थ अक्षरों की भरती भी है (अनुमोदन ध्वनि)। उसमें कई ऐसे अक्षर हैं जो एक ही ध्वनि को सूचित करते हैं। कुछ ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए इस अरबी वर्णमाला में स्वतन्त्र अक्षर भी नहीं है। आज मुझे इस विषय के अच्छे ज्ञाता मि. सैयद अली विलग्रामी का यह निश्चित मत सुनाया गया कि अरबी लिपि भारतीय लिपि होने के योग्य नहीं है और मुसलमानों को भी चाहिए कि वे इस लिपि को शीघ्र परित्याग कर उस लिपि को ग्रहण करें जिसका चलन सारे देश में है और जिसमें सब कामकाज निकल सकतेहैं।
रोमन अक्षरों के विषय में हम यह तो अवश्य कहेंगे कि उसे स्वीकार कर लेने में कई सुभीते हैं। ऍंगरेजी क्या योरोप की प्राय: सब भाषाएँ जिनमें वर्तमान काल की सर्वोच्च सभ्यता का विकास है इन्हीं अक्षरों में लिखीजाती हैं। यदि ये अक्षर प्रचलित हो जायँ तो देश के एक भाग के निवासियों को दूसरे भाग के निवासियों के साथ व्यवहार करने में सुविधा हो जायगी। साधारण यात्रा के लिए हिन्दी भाषा और रोमन अक्षरों में बने हुए टाइम टेबल से बहुत सहारा मिलेगा। यदि आपको दक्षिण में यात्रा करनी पड़े तो यह विदित हो जाय कि मेरे ऐसे आदमी को उत्तरीय भारत में यात्रा करने में कितनी कठिनाइयाँ पड़ती हैं। मैं यह कहने के लिए उद्यत नहीं हूँ कि रोमन अक्षरों के ग्रहण से हानियाँ न होंगी। बहुत सम्भव है कि इससे लोगों के जातीय भाव को धाक्का पहुँचे जैसे कि अरबी को हटाने से मुसलमान लोगों को जातीय भाव को धाक्का पहुँचना सम्भव बतलाया जाता है। मैंने रोमन के पक्ष में लिखे हुए लेखकोंको सहमत होने के विचार से पढ़ा। पर जितनी ही मैंने इसकी परीक्षा की उतना ही मुझे इसका स्वीकार किया जाना असम्भव प्रतीत हुआ (अनुमोदन ध्वनि)। असम्भव इस कारण कि असम्पूर्णता और व्यर्थ की भरती के कारण यह लेखन का एक अनुपयुक्त साधन है। अंगरेजी वर्णमाला का कोई अक्षर लेकर देखिए। 'A' लीजिए। यह आ, ए, ऐ, आदि अनेक ध्वनियों को सूचित करने के लिए प्रयुक्त होता है। 'U' को देखिए। इससे यू (Acute), m (Put) और अ (Cut) आदि अनेक ध्वनियो का काम लिया जाता है। अंगरेजी भाषा को सीखने में बड़ी भारी अड़चन उसकी वर्णमाला की गड़बड़ के कारण है। कुछ लोग इस अपूर्णता को दूर करने के लिए कुछ संकेतों की सृष्टि का उपदेश देते हैं। पर मैं नहीं समझता कि जब वहाँ कई ध्वनियों को सूचित करने के लिए अक्षर ही नहीं हैं तब इन संकेतों से क्या होगा। मैं यह मानता हूँ कि a और u लिखकर और निकाला जा सकता है। पर यह भी स्मरण रखना चाहिए कि अधिकांश भाषाओं में सन्धि का प्रयोग है। अत: इस रीति से भी हमारा काम नहीं चल सकता।
भिन्न भिन्न ध्वनियों को अक्षरों द्वारा व्यंजित करने में भारतवासी सबसे बढ़े चढ़े हैं। उन्होंने जिह्ना, तालु, कण्ठ आदि उच्चारण स्थानों के अनुसार नाद के विभाग किए हैं। पर इस पूर्णप्राग लेख शैली में कुछ त्रुटियाँ भी हैं। जैसे नागरी वा उससे निकली हुई वर्णमालाओं में रोमन और अरबी के 'फ' और 'ग' के लिए कोई स्वतन्त्र संकेत नहीं है। दक्षिण की तमिल, तैलंगी और मलयालम आदि भाषाओं में भी कुछ ऐसी ध्वनि हैं जिनके लिए नागरी वर्णमाला में कोई स्थान नहीं। पर नागरी अक्षरों को ग्रहण करने में यह कोई बड़ी बाधा नहीं है। जो जो संकेत नहीं हैं वे बना लिए जा सकते हैं। यूरपियन विद्वानों ने भी संस्कृत के लिए इसी लिपि को स्वीकार किया है और गवर्नमेंट की अध्यक्षता में सम्पादित संस्कृत पुस्तकें भी इसी नागरी लिपि में छपती हैं। इन बातों का बहुत विस्तृत प्रभाव पड़ा है और तैलंग, कन्नड़ी, मलयालमी आदि सब दक्षिणी लोग जो पहले अपनी भिन्न लिपियों में संस्कृत ग्रन्थों के छपाने के पक्षपाती थे अब संस्कृत पुस्तकें नागरी अक्षरों में ही छपाते हैं। मेरे मित्र बाबू शारदाचरण मित्र कहते हैं कि बंगाल में भी यही अवस्था है। महाशयो, मैंने सुना है कि जर्मनी और जापान के लोग भी, जिनके समान देशभक्त संसार में नहीं हैं, अपनी निज की लिपि को छोड़ सर्वव्यापक लिपि को ग्रहण कर रहे हैं वा ग्रहण करने पर उद्यत हो रहे हैं। अब मेरी यह प्रार्थना क्या निष्फल होगी कि पंजाब, बंगाल, संयुक्त प्रदेश के लोग अपनी भिन्न भिन्न लिपियों को छोड़ जो प्राय: सबकी सब या तो नागरी से निकली हैं या उससे मिलती जुलती हैं, देश के हित के लिए नागरी अक्षरों का व्यवहार स्वीकार करें?” इत्यादि। वक्तव्य के उपरान्त निम्नलिखित प्रस्ताव पास किए गए-
पहले प्रस्ताव में भिन्न भिन्न प्रान्तों में सामाजिक और साहित्य विषयक बातों में अधिक मेल बढ़ाने, विद्या के प्रचार करने और आपस के विचारों को फैलाने के लिए भिन्न भिन्न भाषाओं के लिखने में एक राष्ट्र लिपि व्यवहृत होने की आवश्यकता स्वीकार की गई। इस प्रस्ताव को 'माडर्न रिव्यू' के प्रसिध्द सम्पादक बाबू रामानन्द चटर्जी ने उपस्थित किया और मद्रास के मि. जी. ए. नैट्सन और लखनऊ के पं गोकर्णनाथ मिश्र ने इसका समर्थन किया। दूसरे प्रस्ताव द्वारा यह निश्चय हुआ कि भारत की राष्ट्रलिपि होने के लिए देवनागरी लिपि ही सबसे उत्तम लिपि है। इस प्रस्ताव को रायबहादुर लाला बैजनाथ ने उपस्थित किया और मि. बी. एस. मित्र, पं. श्रीकृष्ण जोशी, मि. महादेव राजाराम बोड्स और विजगापटम के मि पी एल. नरसिंहम ने इसका समर्थन किया। तीसरे प्रस्ताव में स्वीकार किया गया कि भारत की एक राष्ट्रलिपि होने के लिए इस बात की आवश्यकता है कि इसकी उपयोगिता दिखानेके लिए सरक्यूलर और सूचनापत्र निकाले जायँ। इसका प्रचार करने के लिए उपदेशक भेजे जायँ और भारत की भिन्न भिन्न भाषाओं की पुस्तकें देवनागरी लिपि में छापी जायँ और विद्यार्थियों को सुन्दर नागरी अक्षर लिखने के लिए पदक और पारितोषिक दिए जायँ। इस प्रस्ताव को पंजाब के प्रो. रामदेव ने उपस्थित किया और मारिशस के डॉ. मन्नीलाल ने इसका समर्थन किया। चौथे प्रस्ताव में यह निश्चय हुआ कि उक्त प्रस्तावों को कार्य में परिणत करने के लिए भिन्न भिन्न प्रान्तों के प्रतिनिधियों की एक प्रधान कमेटी बनाई जाय और सब प्रान्तों में इसकी शाखा सभाएँ स्थापित की जायँ। इस प्रस्ताव को पं. श्यामबिहारी मिश्र ने उपस्थित किया और पं. रामनारायण मिश्र ने इसका समर्थन किया। इस कमेटी में मि. जस्टिस कृष्णस्वामी अय्यर, पं. मदनमोहन मालवीय, बाबू शारदाचरण मित्र, पं. बालकृष्ण जोशी, माननीय मि. हरचन्द राय, डॉ. सतीशचन्द्र बैनरजी, लाला लालचन्द, लाला मुंशीराम, सर गुरुदास बैनरजी, प्रो. रंगाचारी, मि. अप्पाराव, बाबू गोविंददास और मि. मोहनचन्द कर्मचन्द गाँधी चुने गए और इस कमेटी को यह अधिकार दिया गया कि वह इस कमेटी में और लोगों को भी बढ़ा सकती है। छठें प्रस्ताव में इस बात पर खेद प्रकट किया गया कि भारतवर्ष के अधिकांश लोगों में देवनागरी लिपि का प्रचार होने पर भी नए करेंसी नोटों से वह निकाल दी गई और प्रार्थना की गई कि अब जो नए नोट बनें उन पर उनका मूल्य नागरी अक्षरों में भी दिया जाय। इस प्रस्ताव को बाबू बलदेव प्रसाद ने उपस्थित किया और बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने इसका समर्थन किया। सातवें प्रस्ताव में गवर्नमेंट से प्रार्थना की गई कि नए सिक्कों पर उनका मूल्य नागरी में भी लिख रहे। इस प्रस्ताव को पं. सूर्यनारायण दीक्षित ने उपस्थित किया और बाबू गौरीशंकर प्रसाद ने इसका समर्थन किया। माननीय पं. मदनमोहन मालवीय ने सभापति और श्रीमान शारदाचरण मित्र को धन्यवाद दिया।
इस कान्फरेंस में और जो हुआ सो अच्छा ही हुआ पर चौथे प्रस्ताव के सम्बन्ध में मुझे कुछ कहना है। प्रतिनिधियों की जो कमेटी बनाई गई है वह किस बात का लक्ष्य करके? हिन्दी के प्रसिध्द प्रसिध्द ग्रन्थकारों और लेखकों में से किसी का नाम न देख सन्देह होता है कि शायद इन प्रस्तावों को कार्य में परिणत करने के लिए उन लोगों में से किसी की आवश्यकता नहीं है जिन्होंने मान मर्यादा बढ़ाने की चिन्ता छोड़ अपने जीवन का मुख्ये भाग हिन्दी भाषा का भंडार भरने में लगाया है। पं महावीरप्रसाद द्विवेदी, बाबू श्यामसुन्दर दास बी. ए., उपाध्याय पंडित बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन', पंडित अमृतलाल चक्रवर्ती आदि में से क्या किसी का सम्बन्ध इन प्रस्तावित विषयों से नहीं है? अन्त में हम यही कहते हैं कि जब तक भारतवासियों के हृदय से दिखावट और तड़क भड़क की रुचि न जाएगी तब तक कोई सच्चा हितकर कार्य नहीं हो सकता।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, जनवरी, 1911 ई.)
[ चिन्तामणि: भाग-4]