एक वकील जो जज की तरह रहा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 01 जुलाई 2013
सिनेमा शताब्दी के अवसर पर सितारों, संगीतकारों और फिल्मकारों के बारे में बहुत लिखा जा रहा है, परंतु मीडिया के दायरे के बाहर बहुत लोग हैं। सबसे कम प्रचारित प्रदर्शक और वितरक हैं, जबकि फिल्म की सफलता और असफलता का सबसे अधिक असर इस वर्ग पर होता है। पूरे भारत में अनगिनत एकल थिएटर बंद हो गए हैं और फिल्म उद्योग में तबाह होने वाले वितरकों की गिनती करना संभव ही नहीं है। इस सदी में सिनेमा का पोषण प्रदर्शक और वितरकों के धन से होता रहा है। लंबे अरसे तक तय कीमत का 50 प्रतिशत धन वितरक शूटिंग के समय निर्माता को भेजते रहे हैं, जिस कारण फिल्म निर्माण का आर्थिक भार निर्माता पर काफी हद तक घट जाता रहा है। फिल्म की लागत प्रदर्शन और वितरण क्षेत्र से काफी हद तक निकलती है। फिल्म की असफलता का ठीकरा वितरक और प्रदर्शक के सिर फूटता रहा है।
२९ जून को जालंधर में वितरक वकील सिंह की मौत सड़क हादसे में हो गई। कोई पांच दशक तक सरदार वकील सिंह जालंधर की फिल्म मंडी में जज की तरह रहे हैं और उनके दफ्तर में शुक्रवार की दोपहर से ही फिल्म की शल्य चिकित्सा प्रारंभ हो जाती थी। इतने लंबे समय तक 10-15 आदमियों का दोपहर का खाना वकील सिंह अपने घर से लेकर आते थे और उनका दफ्तर फिल्मी लंगर हो जाता था। दोपहर को वकील सिंह कार से आते, परंतु शाम को पैदल ही अपने घर जाते थे। सुबह की आठ-दस किलोमीटर की सैर उन्होंने कभी नहीं छोड़ी। यहां तक कि अपने मुंबई प्रवास में भी अलसभोर में ही सैर के लिए चल पड़ते थे और वापसी में ढेरों फल खरीदकर लाते और दस-बारह गिलास लस्सी का ऑर्डर देकर आते थे। बांद्रा का लिंक-वे होटल पूरे भारत के सभी वितरकों का प्रिय होटल था। वकील सिंह सभी को अपने कमरे में बुलाते और फल खिलाया करते थे। उस व्यक्ति के लिए अकेले कुछ भी खाना कभी भी संभव नहीं था, गोया कि वे चलते-फिरते मनुष्य के रूप में मूर्त एक लंगर थे। गौरतलब बात यह है कि अत्यंत अल्प शिक्षित वकील सिंह ने कम उम्र में लाउड स्पीकर से फिल्मों का प्रचार किया है। उस जमाने में प्रमोशन के लिए आज की तरह मंच नहीं थे। तांगे या रिक्शे पर दोनों तरफ फिल्म के पोस्टर लगाकर एक आदमी हाथ में भोंपू लिए फिल्म का प्रचार करता था। वकील सिंह फिल्म प्रतिनिधि भी रहे हैं। ज्ञातव्य है कि फिल्म प्रिंट के साथ वितरक के प्रतिनिधि के तौर पर फिल्म प्रतिनिधि सिनेमाघर में यह निगरानी रखता था कि प्रदर्शक हिसाब में हेरा-फेरी नहीं कर रहा है और उसे वितरक को प्रतिदिन अपनी रिपोर्ट और थिएटर की कलेक्शन रिपोर्ट भेजनी होती थी। उसे प्रतिदिन भत्ता मिलता था।
वकील सिंह ने अपने अनुभव से सफलता के राज समझने की चेष्टा की। अपने साथ भागीदार लेकर वे मुंबई से छोटे बजट की मार-धाड़ की सस्ती फिल्में लेकर आते थे। उन्होंने दारा सिंह की अनेक फिल्में खरीदीं। जब 'मेरा नाम जोकर' की असफलता ने राज कपूर की साख गिरा दी थी, तब वकील सिंह उनके पास पंजाब वितरण अधिकार खरीदने अपने भागीदार के साथ पहुंचे। राज कपूर का पुराना वितरक कोई उत्साह नहीं दिखा रहा था। वितरण क्षेत्र में लोगों को लगता था कि जब भव्य सितारों की मधुर संगीत वाली 'मेरा नाम जोकर' राज कपूर नहीं चला पाए तो नए कलाकारों की 'बॉबी' कैसे चला पाएंगे? वकील सिंह ठेठ देहाती की तरह सरल और स्पष्ट थे, राज कपूर को यह बात पसंद आई और उन्होंने 'बॉबी' के वितरण अधिकार एक सी ग्रेड की एक्शन फिल्म लगाने वाले वितरक को बेच दिए। ज्ञातव्य है कि उस दौर में किसी भी वितरक ने 'बॉबी' पर विश्वास नहीं दिखाया था। केवल वकील सिंह ने पंजाब अधिकार और शशि कपूर ने एक भागीदार के साथ मिलकर दिल्ली तथा उत्तरप्रदेश के अधिकार खरीदे थे।
बहरहाल 'बॉबी' के प्रदर्शन के समय वकील सिंह ने फिल्म वितरण में एक नया प्रयोग किया। उन्होंने आसपास के कस्बों में बॉबी बसें चला दीं। जहां सिनेमा का टिकट, आना-जाना और नाश्ते के लिए इकट्ठी रकम ली जाती थी। ज्ञातव्य है कि उन दिनों आज की तरह अनेक जगह फिल्म प्रदर्शित नहीं होती थी। बड़े शहरों में चलने के बाद वे ही प्रिंट कुछ घिसी-पिटी हालत में छोटे शहरों में भेजे जाते थे और फिर नंबर आता था कस्बों का, इस तरह प्रदर्शन का पिरामिड ऊपर से नीचे आता था, जैसे सरकारी सहाता छनकर आती है। वकील सिंह की नेकी और दरियादिली प्रसिद्ध थी। सिनेमा व्यवसाय ने जाने कितने लोगों के नसीब बदले हैं। सिनेमाघरों के अहाते में खाने-पीने की चीजें बेचने वालों का व्यवसाय भी चला है। इस उद्योग से जुड़े गुमनाम लोगों का कभी कहीं जिक्र ही नहीं होता और फिल्म से प्रेरित होकर अपने जीवन में नया कुछ कर गुजरने की प्रेरणा भी कुछ दर्शकों ने ली है। अहमदाबाद के एक बालक ने राज कपूर की 'बूट पॉलिश' से प्रेरणा लेकर अपना जीवन बदला और वह राज कपूर के जन्मदिन पर ताउम्र मुंबई आता रहा। सिनेमा के जामेजम में बहुत कुछ हुआ है।