एक वाजिब अंत की तरफ / सुशील यादव
उसे पार्टी बनाने का शौक अचानक पैदा हुआ। हम लोग ये अंदाजा लगा नही पाए। रिटायरमेंट के बाद सोचते थे, वे, थैला लेकर बाजार से घर, घर से बाजार वाले आम आदमी हो जाएंगे। अचानक उन्होंने धमाका किया। हम लोग समझाए, बाबू जी ये आप को क्या हो गया ? (सठिया गए हैं आप ) इतना आसान नहीं है नेतागिरी।
वे भडक गए।
हम लोगो ने कहा, आप ढंग से बात भी कहाँ कर पाते हैं? पिछली बार शादी में गए थे, कितनी फजीहत हुई थी| आपने घराती-बराती किसी को नहीं छोड़ा, सब से अपनी बात मनवाने में लगे रहे। आजकल कौन सुनता है किसी की?
अपने समधन को ठीक से जवाब भी नहीं दे पाए। किराने की दुकान, बस स्टेंड, धोबी, नाई कहाँ हंगामा नहीं करते? कौन बचा है जिनसे आप का झगड़ा नहीं होता? सब से तू –तू, मै –मै किए रहते है।
केवल मोहल्ले में जोड़ के भला बताओ आप कितने वोट बटोर पाएगे? पार्षद का चुनाव भी तो आप जीत नही सकते, पार्टी बनाने चले ।
हमारी बातें उन्हें सुई की तरह चुभी ।
वो और भी भडक गए।
झल्लाते हुए बोले, तुम लोग मेरा पीछा छोडो, मुझे जो करना है सो करना है। पार्टी तो बन के रहेगी।
यहाँ सब ऐरे – गैरे पार्टी बना रहे हैं। शुक्ला को देखो पोस्टर- बेनर की बोलते रहता है, खोरबहरा-बिसाहू की नई पार्टी बन गई, साहू मजे में है, चार -चार पार्षद बिठा लिए देखते -देखते। आज सब अपने –अपने लोग जगह –जगह फिट किए जा रहे हैं, अपनी टेक्सी चलवा रहे है। कल ट्रांसपोर्ट कम्पनी के मालिक बने मिलेगे। तुम लोग बस देखते रह जाओगे।
हमारी तरफ से तर्क दिया गया, पर बाबूजी सब के बैक ग्राउंड होते हैं। या तो वे समाज सेवक होते हैं, या समाज से सेवा लेने वाले होते हैं।
मोहल्ले –पडौस में दादागिरी किए होते हैं। नजूल की जमीन घेरने वाले दबंग होते हैं। अफसर –बाबू को धौस देने वाले टपोरी किस्म के लोग होते हैं। कोई डाक्टर –इंजिनीयर नेतागिरी के लिए कहाँ घूमते फिरते हैं। वे लोग कालिज में एक –एक क्लास आसानी से पास नहीं किए होते। कई किश्तों में, ले-दे के, पार किए रहते हैं। इतमिनान से रहने वाले, हरेक कदम दुश्मन को जवाब देने के लिए उठाने वाले लोग राजनीति में फिट हो पाते हैं। इनके पास कट्टा -तलवार -चैन क्या नहीं होता, आपके पास तो एक चाक़ू भी धार वाला नहीं है| फिर?
आप का क्या है, छोटी –छोटी बात पे बहस –तर्क किए रहते हैं। ये सब कहाँ चलता है|यहाँ तो अच्छे को बुरा और कभी –कभी बुरे को अच्छा कहना पडता है। रीढ़ की हड्डी को जो जितना लचीला बना ले वही परफेक्ट है यहाँ।
समझदारों की, सीधे –सादो की, पढ़े –लिखों की यहाँ जरुरत ही नहीं है।
आप क्यों नाहक अपनी टांग फंसा रहे हैं|
बाबूजी, वाक्य के हर शब्द को पकड़ कर लटकने में माहिर हैं।
वे टांग पर लपक लिए।
कहने लगे –आज अगर कहीं टांग नहीं फसायेंगे तो कल को दूसरे हम निकम्मो की बस्ती में आ घुसेंगे।
अंग्रेज भी ऐसे ही आए थे। इसी निकम्मेपन के चलते गोरे हमारे घरों तक घुस लिए। हम लोग सोते रहेंगे तो हमारा देश फिर से सो जाएगा|
वे देश को जगाने के चक्कर में हम लोगो की नींद हराम करने में लग गए।
एकला-चलो के अनुयायी बाबूजी को किसी सपोर्ट की जरुरत नहीं पडी। वे अपने अभियान में जुटे रहे ।
उनका रिसर्च विंग, उनका ‘दिमाग’ खुरापात में लग गया। वे कागज़ कलम लेकर बैठ गए।
उन्होंने समाचार पत्रों को अवगत किया, पिछले दिनों नगर में एक नई राजनैतिक पार्टी ‘धरती विकास पार्टी’ का गठन किया गया। जिसका उद्देश्य धरती को लादेन मुक्त, नक्सल मुक्त, आतंक मुक्त,भ्रस्टाचार मुक्त, महंगाई मुक्त करना है। ‘मुक्ति-धाम’ वाला पहला वक्तव्य समाचार-पत्रों में छप गया।
वे उत्साहि़त हुए। उनकी बयान-बाजी चलते रही। दो-चार लोग उनसे बतियाने लगे। वे छोटे छोटे भाषण भी करने लगे। तमासे की शकल में मजमा लगने लगा।
बाबूजी सियासती ख्व्वाब में खोते चले गए।
हम लोग भी, ये सोच कर कि उनको बिजी होने का मकसद मिल गया चुप से हो गए।
वे अखबार इस गंभीरता से पढ़ने लगे मानो कल एक्जाम की तैयारी कर रहे हों|
वे राष्ट्रीय-अंतर-राष्ट्रीय मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करने लगे।
यों तो वे पहले भी इन पर बोलते थे, मगर हम तव्वजो -वजन नहीं देते थे।
अब डाईनिग टेबल पर, हम पर वे भारी पडने लगे।
बाबूजी ने बौखलाने पर लगाम लगाने की प्रेक्टिस करने लगे। अपने पेंशन की रकम अपनी पार्टी को समर्पित करने में वे व्यस्त हो गए ।
दफ्तर खोल लिया।
दूसरी पार्टी के बुलावे पर वे जाने लगे।
मुद्दों पर समर्थन देने की परंम्परा का उन्होंने निर्वाह भी बखूबी किया , वे एक पार्टी के अनशन करने के प्रस्ताव पर राजी हो गए।
हम लोगो ने खूब समझाया, देखिये, आप बी.पी., शुगर वाले हैं। आपको ये सब नहीं करना है|
मगर बी.पी.-शुगर उनके अनशन –जिद के आड़े आ नहीं पाया। वे बैठ गए। वे लगभग नेता बन गए थे ।
अनशन का पहला दिन उत्साह से गुजर गया। दीगर पार्टी वालो ने उन्हें उकसाया, बाबूजी, एक दिन और कर लो। बात बन जाएगी। वे मान गए।
पुलिस वाले भिन्नाए-बौखलाऐ बैठे थे । वे एकाएक, उठा-पटक में उतारु हो गए। डंडे चले। कार्यकर्ता भाग निकले। पुलिसिया अंदाज में बाबूजी भी खाए, बंद भी कर दिए गए ।
वो तो हम लोगो की तत्परता थी, आनन् -फानन जमानत करवा लिए।
अब, आए दिन बाबूजी पेशी में कचहरी –वकील से मिलते रहते हैं। करीब-करीब उनके दिमाग से भूत उतर सा गया है, अखबार आए पडा रहता है, वे देखने –पढ़ने में जी नहीं लगा पाते।
मगर आज भी बाबूजी, देश की दुर्दशा पर अक्सर दुखी होते रहते हैं।