एक वृत्त चित्र और स्थिर चित्रों के दर्शन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :20 मार्च 2018
हाल ही में प्रतापराव शिंदे ने अपने छाया चित्रों की प्रदर्शनी आयोजित की और इसी संकुल में चुनिंदा वृत्त चित्रों का प्रदर्शन भी आयोजित किया गया। एक वृत्त चित्र में गुजरात के एक कस्बे का विवरण प्रस्तुत किया गया, जिसमें नागरिकों ने अपने सम्मिलित प्रयास से दंगे नहीं होने दिए। उस दौर में गुजरात में सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे। एक वृत्त चित्र मध्यप्रदेश के बुरहानपुर पर भी दिखाया गया, जिसे मुगल बादशाह 'दख्खन का द्वार' मानते थे। गौरतलब इत्तेफाक है कि गुजरात के उसी कस्बे की तरह बुरहानपुर भी सांप्रदायिक दंगों से बचा रहा और दोनों ही कस्बों में इस्लाम के अनुयायियों की संख्या बहुत अधिक रही है। बुरहानपुर में हर मोहल्ले में हिंदुओं और मुसलमानों के घर एक-दूसरे से सटे हुए हैं। अत: एक में आग लगाने से दूसरे के झुलस जाने के भय के कारण शांति बनी रही।
जब दो पड़ोसी दुश्मन देशों के पास परमाणु बम होते हैं तब वे एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं करते, क्योंकि एक के द्वारा किया गया विस्फोट पूरे उपमहाद्वीप को ही नष्ट कर देगा। इस तरह भय की बुनियाद पर शांति कायम रहती है। इस व्यवस्था में निहित खतरे को निदा फाज़ली ने यूं बयान किया था, 'माचिस है पहरेदार तमाम बारूदखानों पर।' इसके साथ ही सरहदों को सुलगाए रखने के लिए आपसी छेड़छाड़ भी कायम रहती है। सरहदों पर लाउड स्पीकर द्वारा अभ्यास के लिए दागी गई गोलियों की सूचना दी जाती है। प्राय: ये स्पीकर गालियों की जंग में भी काम लिए जाते हैं। जाने क्यों अधिकांश गालियां माताओं और बहनों के साथ जुड़ी हैं। दोनों ही देशों के पास मौलिक गालियां ईजाद करने की योग्यता भी नहीं है।
बुरहानपुर पर बने वृत्तचित्र में कहा गया है कि ताप्ती नदी के उथले होने के कारण शाहजहां ने वहां ताजमहल नहीं बनवाया। दरअसल शाहजहां अपनी निगरानी में ताजमहल बनवाना चाहता था, इसलिए आगरा में ताजमहल का निर्माण हुआ। आगरा में यमुना के तट पर बनाए गए ताजमहल की हिफाजत के लिए यमुना के किनारे सौ से अधिक कुंए खोदे गए, जिनमें ईंट के टुकड़े, मोटी रेत और गोंद भरा गया ताकि यमुना में बाढ़ आने पर पानी इन कुंओं में भर जाए और ताज की बुनियाद पर कोई असर नहीं पड़े। सीमेंट के आविष्कार के पहले गोंद मिले चूने की जुड़ाई द्वारा बनाए गए मकान भी ठोस सिद्ध हुए।
भारत की विविधता में एकता भी एक सामाजिक सद्भावना नामक गोंद से जु़ड़ी हुई है। सामाजिक गोंद आपसी सहिष्णुता से बनता है। बुरहानपुर पर बने वृत्त चित्र में नगर की जामा मस्जिद में फारसी व संस्कृत में मनुष्य करुणा व सहिष्णुता के पाठ लिखे गए हैं। सारी भव्य व कालजयी इमारतों को बनाने वाले कारीगर व मजदूर सभी धर्मों के मानने वाले लोग थे और उनकी भाषाएं भी अलग थीं परंतु इस आधार पर उनके बीच कोई द्वंद्व नहीं था। सारे द्वंद्व प्रायोजित होते हैं। अपने काम में डूबे हुए लोगों के पास अकारण द्वंद्व के लिए समय नहीं होता। सारे फसाद कामचोरों द्वारा रचे जाते हैं। बुरहानपुर से थोड़ी दूरी पर असीरगढ़ का किला है और इस किले से शहर तक जमीन के भीतर बनी वृहद सुरंग है, जिसके द्वारा हथियार और रसद पहुंचाई जाती थी। इसी तरह बुरहानपुर में पानी की अजीबोगरीब व्यवस्था है। खूनी भंडारा नामक जगह पर पानी है और भूमिगत नहरें उसे शहर तक पहुंचाती है। कुछ निराश प्रेमियों ने यहां आत्महत्या की थी, इसलिए इसे खूनी भंडारा कहते हैं। जगह-जगह कुंए बनाए गए हैं, ताकि उसमें सूर्य की किरणें व वायु भीतर जाकर जल को शुद्ध रख सके। इस व्यवस्था का वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया है। आज सभी ये स्वीकार करते हैं कि जल का अभाव ही तीसरे महायुद्ध का कारण बनेगा। अत: उस जल व्यवस्था का अध्ययन जरूरी है। मध्यप्रदेश के हुक्मरान सारा समय झूठे-सच्चे या सच्चे-झूठे आंकड़े और चार पृष्ठों के विज्ञापन देने में व्यस्त हैं। उन्हें बुनियादी समस्याओं पर विचार करने के लिए समय ही नहीं मिलता। व्यापमं और किसान आत्महत्याओं पर लीपापोती के काम में सब व्यस्त है। उनकी हुकूमत घपला प्रूफ है, चाहे कुछ भी हो जाए, वे एक रहस्यमयी गोंद की मदद से कुर्सी पर जमे हुए हैं।
वर्ष 1839 में फ्रांस के लुई दगेर ने स्थिर चित्र लेने वाला पहला कैमरा बनाया। धीरे-धीरे कैमरे में सुधार होता गया। विविध लेंस खोज गए। इंदौर के प्रतापराव शिंदे ने पूरे भारत का भ्रमण करके प्रकृति की हर अंगड़ाई के चित्र लिए हैं। शिंदे साहब ने समुद्र की लहरों की चित्रकारी को बखूबी कैमरे में कैद किया है। भारत में सुमित्रानंदन पंत और इंग्लैंड में विलियम वर्ड्सवर्थ ने प्रकृति प्रेरित काव्य रचना की है। प्रतापराव शिंदे के छाया चित्रों को देखकर मुझे एक फिल्म का गीत याद आया, 'ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार है/तपस्वियों सी हैं अटल ये पवर्तों की चोटियां/ये बर्फ़ की घुमरदार घेरदार घाटियां/ध्वजा से ये खड़े हुए/ध्वजा से ये खड़े हुए हैं वृक्ष देवदार के …।' हिरण की तरह अज्ञात झाड़ियों में छलांग लगाती स्मृति में यह गीत संत कवि भरत व्यास ने शांताराम की 'बूंद जो बन गई मोती' नामक फिल्म के लिए लिखा था।