एक शाम और वह पेन्टिंग / नीरजा हेमेन्द्र
आठ वर्ष पूरे हो गये हैं, इस पेन्टिंग को दीवार से चिपके हुए। इन आठ वर्षों में एक भी शाम ऐसी न गुज़री होगी, जब इस पेन्टिंग नें उसके समक्ष जि़न्दगी से सम्बन्धित कोई ज्वलन्त प्रश्न न खड़ा किया हो। उसे भलि-भाँति याद है सावन ने दूसरी मुलाकात में अपने हाथों से बनाये हुए अनेक खूबसूरत चित्रों में से एक खूबसूरत-सा यह चित्र उसे दिया था। वैसे सावन से उसकी वह दूसरी नही पहली मुलाकात ही थी। पहली बार उन्होने एक दूसरे को देखा भर था किसी अजनबी की तरह। दूसरी बार सावन के घर जाने के पश्चात् ही वह उसे जान पायी थी, और यह भी जाना था कि सावन एक चित्रकार है। कितनी खूबसूरत पेन्टिंग थी यह-” क्षितिज के पार कोहरे को चीर कर निकलता हुआ सूरज/सीधी और साफ सड़क पर चलता हुआ एक आदमी। जो कदाचित् रात भर अँधेरे में चलता रहा है।” सावन ने जब उसे बताया था कि उसे भोर का सूरज बहुत अच्छा लगता है, तो उसके चेहरे पर किसी छोटे बच्चे-सी कोमलता व मासूमियत पसर गयी थी। सावन की पेन्टिग्ंस में जीवन, ऊर्जा, उत्साह व आशा की किरणें प्रस्फुटित होती रहती थीं। निराशा व उदासी उसे पसन्द नही थी न उसके चित्रों में इनका समावेश था।
धीरे-धीरे कब उसे भी भोर का सूरज अच्छा लगने लगा और सावन भी। उसे ढ़लती हुई साँझ की वह बेला भी याद है जब सावन ने अत्यन्त सहजता से उसे बताया था कि दुनिया में उसके जीने का एक मात्र सहारा उसकी नौकरी जो कि अस्थाई थी छूट चुकी है। जितनी सहजता से सावन ने वह बात उससे बतायी थी उतनी सहजता से वह उसे स्वीकार नही कर पायी थी। कितनी भाग-दौड़ के पश्चात् सावन को वह नौकरी मिली थी। सावन पुनः बेरोजगाारों की भीड़ में कहीं खो गया था। सावन की आँखों में जो एक बहुत बड़ा चित्रकार बनने का स्वप्न पल रहा था, वह स्वप्न उसे टूट कर बिखरता हुआ दिखाई दे रहा था। वह जानती थी कि जितनी सहजता से सावन न अपनीे नौकरी छूटने की बात कही है, उस नौकरी के बिना आगे का जीवन उतना सहज नही है। उसे भय था कि जीवन की मूल-भूत आवश्यकताओं को पूरा करने के संघर्ष में सावन के ह्नदय का चित्रकार कहीं दम न तोड़ दे। दौर उसका स्वप्न एक दिवास्वप्न बन कर न रह जाए। उसने अपने ह्नदय में उपजती इस आशंका को सावन के सामने व्यक्त नही किया, कारण यह कि निराशा के इन पलों में सावन और निराश न हो।
उसे याद है सावन कहा करता था-” तुम जानती हो मेघा! आज मनुष्य, मनुष्य से कितना दूर होता जा रहा है। जीवन को आसान बनाने के लिए भौतिक सुख-सुविधाओं को जितना अधिक एकत्र करता जा रही है, उतनी ही उसकी जि़न्दगी जटिल होती जा रही है। कदाचित् हम लोगो ं की साचें बदल गयी हैं। हम लोग दूसरे से जिस व्यवहार की अपेक्षा करते हैं, वैसा ही व्यवहार हम दूसरो के साथ क्यों नही करते। हम लोगों की मानसिकता में दिनों दिन इतनी गिरावट क्यों होती जा रही है। मेधा! तुम नही जानती कि आज मनुष्य की जीवन-शैली में इतने बदलाव आ चुके हैं कि आज की जि़न्दगी जी लेना ही मनुष्य की सबसे बड़ी चुनौती बन गयी है।” वह अबोध बच्ची की तरह उसकी बातें सुनती। वह कल्पनाओं में खोया-सा आगे बोलता जाता-” मेधा! मैं इन सब बातों को, इन समस्यों को अपने चित्रों के माध्यम से लोगों तक पहुँचाऊँगा। मनुष्य क्यों अपनी जि़न्दगी को जटिल बनाता जा रहा है? क्यों....?” वह निरूत्तर रह जाती।
जीविकोपार्जन का साधन ढूँढने के प्रयास में सावन टूट गया। बेरोजगार सावन के लिए जि़न्दगी जीना बहुत बड़ी चुनौती बन गयी थी। उसका चित्रकार बनने का स्वप्न, उसकी शिक्षा, उसकी स्वस्थ मानसिकता सब जि़न्दगी की समस्याओं के हुजूम में खो गये। उसके बनाए तमाम चित्र जिनके माध्यम से वह लोगों की चेतना को जगाना चाहता था, जिनमें लोगों को नर्म सोच के धरातल पर खड़ा करने की शक्ति छिपी थी, वे सारे चित्र खामोश चित्र बन कर रह गये। उनकी जीवन्तता उनके रचनाकार के टूट कर बिखर जाने के साथ नष्ट होती गयी।
जब असफलतायें मनुष्य की साथी हो कर जीवन की राह पर चलने लगती हैं, तब मनुष्य अन्दर ही अन्दर कितना छटपटाने लगता है, इसकी अनुभूति सिर्फ वही कर सकता है जो इन असफलताओं का साथी हो। जब वह काम करना चाहता है, किन्तु काम नही मिलता। हाथ-पाँव होते हुए भी उसे यूँ महसूस होता है जैसे किसी ने उसके हाथ-पा्ँव काट दिये हों और वह अपाहिज हो गया हो।
बेरोजगारी का दंश झेलता सावन इस शहर में नौकरी के लिए भटकता रहा और धीरे-धीरे अपने लक्ष्य से दूर होता गया। आखिर एक दिन सावन यह शहर छोड़ कर चला गया। सावन कहा करता था-”मेरे लिए ये शहर का तुम्हारा पर्याय है मेधा! इस शहर की सुबह-शाम तुम हो, इस शहर की खुशनुमा ऋतुयें तुम हो।” उसे ये शहर भी बोझ लगने लगा था। सच भी था बेराजगारी के कंधों पर कोइ्र्र शहर का बोझ कैसे उठा सकता था। दो वर्ष पूर्व एक दिन अचानक सावन उसके सामने खड़ा हो गया था। वह पहचान ही नही पायी कितना परिवर्तन हो गया था उसमे। बुझी-बुझी सी आँखें और थका-सा चेहरा। उसके व्यवहार में भी उसे दूरी व औपचारिकता नज़र आयी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मुझसे या इस शहर से उसका कोई परिचय न था, पहचान न थी।
वह समझ नही पा रही थी कि सावन उसका क्यों अपरिचित समझने लगा है, तथा उस अवस्था को अपना,जहाँ आज वह खड़ा है, हतप्रभ-सा। वह उससे सिर्फ इतना ही पाया था-”मेघा! मेरा प्रयत्न जारी है...।”और मेरी ओर से किसी प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना चला गया। उसने सावन को एक ऊँचाई के बाद निराशा के गर्त में समाहित हो जाते देखा था। वह सावन के प्रयत्नो के अन्त और सफलता के आगमन की प्रतीक्षा करने लगी।
प्रत्येक दिन सूरज उगता और अस्त होता। सावन के दिये उगते सूरज की पेन्टिंग उसमें शक्ति भर देती प्रतीक्षा करने की।
आठ वर्ष व्यतीत हो जाने के उपरान्त आज की शाम उसे कुछ उदास-सी क्यों लग रही है। ह्नदय में बेचैनी व कमरे में उसे घुटन-सी लग रही है। उसने कमरे की खिड़की खोल दी हैै। शाम हो गयी है। सूरज धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा है। शाम का धुँधलका उसके कमरे में भरने लगा है। सावन की दी हुई उगते सूरज की पेन्टिंग धीरे-धीरे उस अन्धकार में विलीन होती जा रही हैं।