एक शिक्षक की डायरी / भाग १ / मनोहर चमोली 'मनु'
26/11/2005 - स्कूल में आज मेरा पहला दिन था। बच्चे उचक-उचक कर देख रहे थे। प्रिंसिपल मुझे कक्षाओं में ले गए। उन्होंने बच्चों को बताया कि आज से मैं भी उन्हें पढ़ाऊँगा। स्कूल ढेर सारे बच्चों का घर है। कई गाँव से आने वाले बच्चे, अलग-अलग दीखते हैं। कोई गोरा तो कोई काला। कोई पतला तो कोई मोटा। कोई ठिगना तो कोई लंबा। लड़कियों के तो क्या कहने। नन्ही सी प्यारी-प्यारी बच्चियाँ एक जैसी वेश-भूषा में गुड़ियों सी लग रही हैं। चुटिया लाल रिबन से बंधी हुई हैं। ऐसा लग रहा है जैसे सिर पर लाल बुरांश खिले हों। सब मुझे देखकर खुश थे और मैं भी बहुत खुश हूँ। यह विद्यालय उत्तरखण्ड के जनपद पौड़ी के विकास क्षेत्र कल्जीखाल के नलई में आता है। पहले यह जूनियर हाई स्कूल था। हाल ही में यह उच्चीकृत होकर हाई स्कूल बना है।
28/11/2005 - अपने आप से कुछ निर्णय लिए हैं। एक तो कोशिश करनी है कि बच्चों को कक्षा-कक्ष में, स्कूल में पीटना नहीं है। न ही उन पर हाथ उठाना है। किसी भी प्रकार का शारीरिक दण्ड नहीं देना है। यह भी प्रयास रहेगा कि कक्षा-कक्ष में बच्चों से ऐसी कोई बात नहीं कहनी है कि उन्हें अपमान-सा कुछ लगे। उनमें मेरी बात का असर हो, उसके लिए वह भयभीत रहें, ऐसा भी नहीं होना चाहिए। कुछ ऐसा तरीका खोजना होगा कि वे आज्ञा का उल्लंघन न करें।
29/11/2005 - पहले ही दिन बच्चों से बात की थी कि मैं उन पर कभी हाथ नहीं उठाऊंगा। किसी भी प्रकार का दण्ड नहीं दूंगा। मगर मुझसे झूठ न बोला जाए। दूसरा जो काम कहा जाए उसका तुरंत पालन हो। मेरा बताया हुआ काम कल पर न टाला न जाए। बस मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मैं बच्चों के चेहरे देख रहा था, वे सिर झुकाए बैठे रहे। यहां के बच्चे गुरुजी की आंखों में नहीं देखते। बड़ा अटपटा सा लगा। बस चुपचाप सुनते रहेंगे। पर नजरें नहीं मिलाएंगे। चोरी से कभी सिर उठा लिया तो अलग बात है नहीं तो पूरे वादन वे सिर झुकाए रहते हैं।
30/11/2005 - यहाँ के बच्चे विशुद्ध रूप से ग्र्रामीण जीवन में ढले हैं। घर में काम बहुत होता है। पारिवारिक स्थिति भी सभी बच्चों की एक जैसी नहीं है। कुल मिलाकर कुछ बच्चे ही हैं जो पढ़ाई का महत्व जानते हैं। मैं भाषा में और रावत जी सामान्य में हैं। हाईस्कूल के लिए हम दोनों ही हैं। सुना है कि एक शिक्षक और आने वाले हैं। फिर भी मज़ा आ रहा है। बच्चों के लिए मैं नया किस्म का प्राणी हूँ। जूनियर में पांच शिक्षक हैं। वे सभी मुझको लेकर काफी उत्साहित हैं। बच्चों के बीच काम करने का काफी अनुभव है। वो सब यहां काम आ रहा है। पढ़ाई को उनके जीवन के साथ जोड़ने की कोशिश कर रहा हूँ। उन्हें भी अच्छा लग रहा है।
02/12/2005 - एक लेखन कार्यशाला में चंडीगढ़ गया। आठ दिनों की कार्यशाला है। अभी चैथा दिन ही था। प्रिंसिपल साहब का फोन आ गया। कहने लगे कि बच्चे पूछ रहे हैं कि चमोली सर कब आएंगे। यह सुनकर अच्छा लगा। वापिस लौटा तो अन्य शिक्षकों ने शिकायत की कि बच्चे शोर करते हैं। मैं क्या कहूं। शोर करना तो बच्चों का काम है। उन्हें व्यस्त रखना हमारा काम है। क्या हम बच्चों को विद्यालय के पूरे समय बांध कर रखते हैं ? फिर बांधना भी तो अच्छा नहीं। क्या बच्चे ढोर हैं, जो उन्हें बांधा जाए।