एक शिक्षक की डायरी / भाग ४ / मनोहर चमोली 'मनु'

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07 अक्टूबर 2006 - बच्चों को चित्र बनाने की ओर प्रेरित किया था। एक बाल पत्रिका में कुछ बच्चों के बनाये चित्र भेजे थे। पिंकी का बना चित्रा छपा। किताब बच्चों को दिखाई। पिंकी तो बहुत खुश हुई। अपना नाम और नलई का नाम छपा हुआ देखकर बच्चों की आंखों में अजीब सा आकर्षण देखा मैंने। शिक्षकों को भी अच्छा लगा।

13.10.2006 - एक युवक जो इस विद्यालय का पूर्व छात्र था, रास्ते में मिला। मैं उसे नहीं जानता। उसने बताया कि पुराने गुरूजी ने इतना मारा कि विद्यालय से नफरत हो गई। अब बड़ा हो गया हूं। पढ़ने नहीं आ सकता। उसने कहा कि बच्चे आपकी बहुत तारीफ करते हैं। आप पहले गुरूजी हैं जो सुनते हैं कि मारते नहीं। पर बच्चे आपसे डरते हैं। इस छात्र को देखकर अजीब सा लगा। आंखें बड़ी-बड़ी। आंखों में अजीब सा कुछ था। ऐसा लग रहा था जैसे वो मेरी आंखों के अंदर से मेरे अंदर उतर जाना चाहता है। दोनों हाथ जोड़कर उसने जैसे प्रणाम किया तो लगा कि हम शिक्षकों की बड़ी जिम्मेदारी होती है। लोग हम पर बहुत विश्वास और आस रखते हैं। हम उतना कर पाते हैं क्या, जितना हमें करना चाहिए।

12/12/2006 - मैंने अपना तबादला आदेश सर को दिखाया। कहने लगे चुपचाप अपना आदेश बनाओ और मुझसे दस्तखत करा लो। अभी मत बताना यहां। फिर एल.पी.सी. लेने आना। तब देखते हैं। मैंने आज ही रा.उ.मा.वि. भितांई में कार्यभार ग्रहण कर लिया। यह विद्यालय अभी उच्चीकृत हुआ है। कक्षा नौ हमें ही शुरू करनी है। प्रधानाचार्य का चार्ज एल.टी. के ही एक शिक्षक के पास है। कुल 7 पद स्वीकृत हैं। अभी हम दो ही हैं। जूनियर में पांच शिक्षिकाएं हैं। वरिष्ठ हैं। बच्चों की संख्या 50 के आस-पास है।

14/12/2006 - नलई के कुछ लोग पौड़ी में मिले। बधाई देने लगे। कैप्टेन साहब भी थे। कहने लगे- "मैंने तो आपके लिए मकान बनाना शुरू कर दिया था। आप वहीं रहते। चुपचाप तबादला करा दिया। हमें पता चलता तो हम तुम्हें रिलीव ही नहीं होने देते। ग्राम पंचायत सदस्य कहने लगे कि वहां क्या दिक्कत थी। अगर तबादला कराना ही था तो देहरादून कराते।" खैर बहुत कम समय ही मैं नलई रहा। अगर आप अच्छा काम करते हैं तो आपसे ज्यादा उम्मीदें हो जाती हैं। मगर मैं भी क्या करता। मुझे चार बजे उठना पड़ता था। दो घंटे की यात्रा के बाद मैं स्कूल पहुंचता था। दिन के स्कूल में तो शाम को 6 बजे से पहले कभी घर नहीं पहुंचा जाता था। थकान अलग लग जाती थी।

15/12/2006 -भितांई का यह स्कूल जनपद पौड़ी के ब्लॉक पौड़ी में ही आता है। गांव में सब्जी-दूध का कारोबार ज्यादा है। यही कारण है कि बच्चे पौड़ी शहर के विद्यालयों में जाते हैं। दूध और सब्जी भी ले जाते हैं और पढ़ते भी हैं। हमारे इस विद्यालय में बच्चों की संख्या ज्यादा नहीं होनी है।

8 जनवरी 2007- ग्रामीण बच्चों का परिवेश भले ही बेहद साधारण होता है, लेकिन मेरा मानना है कि ये बच्चे शहरी बच्चों से ज्यादा समझदार होते हैं। केवल अक्षर ज्ञान और अच्छे स्कूल से पढ़ाने से बच्चे गुणवान नहीं बन जाते। ग्रामीण परिवेश में सामुदायिकता, कला, संस्कृति, रीति-रिवाज, सहयोग, आपसी तालमेल, सामुहिकता के साथ-साथ ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के दर्शन होते हैं। वहीं शहरी बच्चे अपने घर ही नहीं कमरों तक सीमित हो जाते हैं। वे खेल, मौसम, खेती, पशुपालन, प्रकृति से दूर हो जाते हैं। यही कारण है कि वे किताबी शक्ल मंे अथवा कक्षा-कक्ष में भले ही मेधावी माने जाते हों, लेकिन जीवन की किताब से उनका वास्ता कम और आधा-अधूरा ही होता है। ये ओर बात है कि शहरी बच्चे ही सरकारी महत्वपूर्ण सेवाओं में बड़े पदों पर काबिज होते हैं, परिणामस्वरूप वे सामाजिक सरोकारों से इतना जुड़ाव नहीं रखते। इसका असर दूर तक होता है। इसी तरह हमारी राजनीति, नीति निर्धारक और न्यायपालिका में भी है। वे बच्चे जो सुदूर ठेट ग्रामीण परिवेश से अच्छे ओहदे तक जाते हैं, वे दुनिया में लोकप्रिय भी होते हैं और समाज हित मंे वे अच्छा कार्य भी करते हैं। स्कूली जीवन में शहरी और ग्रामीण संरचना का बेहद प्रभाव है। शिक्षाविदों को ग्रामीण परिवेश को ध्यान मंे रखते हुए भी नीतियां बनानी चाहिए।

10/2/2007 - अक्सर मेरा ध्यान इस बात पर अवश्य जाता है कि क्या एक शिक्षक और एक अभिभावक के व्यवहार में अंतर होता है? बतौर शिक्षक और अभिभावक तो मेरा अनुभव यही है कि सजग शिक्षक अपनी भूमिका में स्वयं को अभिभावक के रूप में भी रखता है। उसका व्यवहार दोहरा नहीं होता। वह छात्रों के साथ केवल शिक्षक ही नहीं होता उनका संरक्षक भी होता है और अभिभावक भी होता है। मगर क्या एक पिता का अनुभव इससे इतर हो सकता है? मैं नहीं जानता। अभी मैं पिता के अनुभवों से वंचित हूं। लेकिन मैंने अपने इर्द-गिर्द, पास-पड़ोस और अपने घर-परिवार में यह शिद्दत के साथ महसूस किया है कि हम बड़े चाहे बच्चे के व्यवहार को समझे न समझें, पर बच्चे हमारे व्यवहार और आदत को भली-भांति पहचान लेते हैं और उसी अनुसार व्यवहार करने लगते हैं। भांजे-भांजी और भतीजे-भतीजों के साथ रहते हुए अपने अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि हम बच्चों को पहचानने में गलती कर सकते हैं मगर वे बेहद सजगता के साथ हमें पहचान लेते हैं। मसलन हमें किन बातों पर गुस्सा आता है, किन बातों से हम परेशान हो जाते हैं, कौन सी चीजें हमें परेशान करती है और अपनी मनौतियों को मनवाने का कौन सा समय उपयुक्त है, वे जानते हैं और उसी के अनुरुप वे व्यवहार भी करते हैं। आखिर कौन से कारण है कि एक ही कक्षा के बच्चे अपने उन सभी शिक्षकों को जो उन्हें वादनवार पढ़ाने आते हैं, उनका मूल्यांकन कर लेते हैं और उनकी पसंद-नापसंद की सूची में हम शिक्षकों का क्रम एक समान नहीं होता। बच्चे समान रूप से हम सभी को अपना पसंदीदा शिक्षक नहीं मानते।

27 जनवरी 2007 - बच्चों में असीमित प्रतिभा होती है। केवल दो-तीन दिनों के अभ्यास मात्र से बच्चों ने गणतंत्र दिवस पर अच्छे कार्यक्रम प्रस्तुत किये। बच्चों की संख्या कम है। यही कारण था कि हमने इस बार प्रत्येक बच्चे को मंच पर आने की अनिवार्यता की घोषणा कर दी। प्रत्येक बच्चे ने कुछ न कुछ प्रस्तुत किया। बच्चों का हौसला बढ़ाना चाहिए। अधिकांश शिक्षक जाने-अनजाने में बच्चों के प्रवाह को रोक देते हैं। बच्चे खुलने में थोड़ा समय लेते हैं। मगर हम हैं कि धैर्य नहीं रखते। ‘इसके बसका कुछ नहीं है’, ‘बोल भई! क्या सांप सूंघ गया है?’ ‘अरे मूर्ति क्यों बन गया है?’ ‘ये कुछ नहीं कर सकते, गंवई के गंवई रहेंगें’. . ऐसी टिप्पणियां सुनने को मिलती रहती हैं। बड़ा अजीब लगता है। मेरा मानना है कि हम बच्चों के साथ पेश आते समय भूल जाते हैं कि वे भी कक्षा-कक्ष में अपना सम्मान चाहते हैं। उनका अपमान करने का हमें कोई हक नहीं है।