एक शिक्षक की डायरी / भाग ५ / मनोहर चमोली 'मनु'

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29 जनवरी 2007 - बच्चों से होमवर्क न करके लाने हम शिक्षकों की शिकायत रहती है। मगर मैंने अनुभव किया है कि हमारा उनकी कॉपी से लगाव नहीं होता। हम बेरहमी से उनकी कॉपी की जांच करते हैं। हम बेहद सावधानी से उनकी कॉपी जांचे तो वे भी सतर्क हो जाते हैं। हमारा ध्यान उनकी कॉपी में गलतियां निकालना होता है। लेख सुधारिये। कार्य अच्छा नहीं है। दोबारा करें। इस तरह की टिप्पणियां हम बच्चों की कॉपी में देते हैं। हमे उनकी खूबियां दिखाई ही नहीं देती। हम कितने हैं कि उनके कार्य की सराहना करते हैं। हम गृह कार्य क्यों देते हैं। यह अनावश्यक है। यदि गृह कार्य देना ही है तो वह मौलिक हो। किताब से यहां से यहां तक कर लो। इन प्रश्नों के जवाब लिख कर लाना। यह तो मौलिकता नहीं है। फिर क्या? हम बच्चों को जितना कुछ दे सकें वे स्कूल में ही दें। घर के लिए कुछ भी न दें। यदि देना ही हो तो वह चुनौतीपूर्ण हो, नया हो, अनोखा हो। बच्चे एक ही पैटर्न को ज्यादा पसंद नहीं करते। गृह कार्य बेहद नीरस, बोझिल और थका देने वाला काम हो जाता है। मैं तो गृह कार्य देने के पक्ष में नहीं हूं। हां। प्रश्न-अभ्यास हैं। तो वो तो करने ही हैं। मगर ये क्या कि कल ही करके लाना। उन्हें प्रश्न-अभ्यास करने के समय की पूरी छूट हो। ये ओर बात है कि इतनी भी छूट न हो कि वे करे ही नहीं।

29 जनवरी 2007- बच्चों से प्यार और दुलार की कितनी घटनाएं स्कूल में हैं? घटनाएं इसलिए कहना पड़ रहा है कि बच्चे तरस जाते हैं कि उनके शिक्षक उनसे प्यार करें। दुलार करें। मगर हम अधिकांश हमेशा गुस्से में रहते हैं। अनुशासन का डण्डा चलाना हमारा शगल बन गया है। क्या हम ऐसा व्यवहार घर में अपने बच्चों के साथ भी करते हैं? हम स्कूल में जो धर्म निभाते हैं, यदि हमारे अपने घर-परिवार के बच्चे भी हमारे स्कूल में पढ़ते, तो क्या तब भी हमारा यही धर्म होता? जो आज है? मुझे लगता है कि हम शिक्षकों में अधिकांश शिक्षक दोहरा चरित्र निभाते हैं। अपने बच्चों के लिए उनका आचरण दूसरा है, और जहां वे पढ़ाते हैं, उन बच्चों के लिए दूसरा। ये क्या बात हुई।

30 जनवरी 2007 - बच्चे अपने शिक्षकों के नाम रखते हैं। यह परम्परा आज की नहीं आश्रम पद्वति के विद्यालयों में भी रही होगी। बच्चे हमारी आदतों, कार्य व्यवहारों, लक्षणों और विशेषताओं के आधार पर हमारे नाम रखते हैं। इसमें बुरा नहीं मानना चाहिए। हम भी तो पीठ पीछे दूसरों के बारे में बहुत कुछ टिप्पणी करते हैं। मगर हमारा नाम बेहद असामाजिक और अनर्गल रखा गया है तो हमें अपने व्यक्तित्व पर नए सिरे से विचार करना चाहिए। हमारा आचरण, व्यवहार कहीं से तो ऐसा होगा, जिसके कारण बच्चे हमारा उट-पटांग नाम रखते हैं।

3 फरवरी 2007 - हम शिक्षक अक्सर बच्चों की समस्याओं से खुद को अलग रखते हैं। ये ओर बात है कि बच्चों को उनकी समस्याएं, विवाद निपटाने का भी अवसर दिया जाना चाहिए। मगर बच्चों मंे कुछ बच्चे दबंगई होते हैं। वे पूरी कक्षा में तानाशाही रवैया अपनाते हैं। ऐसे में गंभीर, भोले और संस्कारिक बच्चों की अभिव्यक्ति दब जाती है। विवादों का निपटारा यदि निष्पक्ष नहीं होता है तो इसके गंभीर परिणाम होते हैं। एक तो कक्षा सुचारु रूप से नहीं चलती, दूसरा यही बच्चे आगे चलकर समाज में भी तो व्यवस्था-अव्यवस्था का भाग बनते हैं। मेरी राय में तो हमें स्कूल में और कक्षा में बच्चों की छोटी-छोटी बातों पर भी गौर करना चाहिए। आखिर स्कूल सिर्फ किताबी ज्ञान देने का ही स्थल नहीं है।

21/06/2008 - सार्थक, विदूषी और श्रेया हमारे घर की रौनक हैं। बढ़ते हुए बच्चे हैं। तीनों में बेहद प्यार है। मगर हैं तो वे बच्चे भी। दिन भर थकते ही नहीं। बस खेल में ही लगे रहते हैं। नींद आँखों में है ही नहीं। सार्थक तो अपने में ही मस्त रहता है। उसे तो भूख भी नहीं लगती।

3 जुलाई 2008 - हमारे बच्चे हमें कहां भूलते हैं। पौड़ी में नलई के बच्चे मिले। पैर छूने लगे। दो छात्राओं को तो मैं पहचान ही नहीं पाया। साड़ी पहने, मांग में सिंदूर लगाए। अच्छा लगा। स्कूल में तो नन्हीं सी लगती थीं। आज सम्पूर्ण महिला बन गई हैं। पता चला कि पढ़ाई भी चल रही है और शादी भी हो गई है। इंटर भी नहीं किया अभी उन्होंने। गांव की परंपराएं हैं। पर क्या वो शादी के बाद आगे की पढ़ाई कर पायेंगी। मुझे तो नहीं लगता। मैंने जरूर कहा-‘‘पढ़ाई मत छोड़ना। चाहे कुछ भी हो जाए।’’

14 नवंबर 2008 - पिछले दो वर्षों में बच्चों को हर संभव एक पेंसिल या एक रबड़ ही सही। मैं इस दिन के अवसर पर देता रहा। इस बार कुछ ऐसा रहा कि नहीं हो पाया। कई बार आप चाह कर भी अपनी इच्छा जैसा नहीं कर पाते। यह तो तय है कि बच्चों की मनः स्थिति के शिक्षक बहुत कम हैं। मैंने साफ देखा है कि अधिकांश शिक्षक बच्चों के साथ वैसा व्यवहार करते ही नहीं जैसा उन्हें करना चाहिए। मैंने महसूस किया है कि बच्चे प्यार की भाषा सुनने को बेताब रहते हैं। मैंने तो प्यार ही प्यार में ऐसे कठिन काम बच्चों से करवाएं हैं, जो हम कर ही नहीं पाते। बच्चे स्वाभिमानी होते हैं और हम अक्सर उनका स्वाभिमान तार-तार करते हैं। फिर उनसे अपेक्षा करते हैं कि वे हमारा सम्मान करते हैं। क्या संभव हैं?

6/12/2008 - दो से पांच दिसंबर सरल बाल लेखन कार्यशाला का आयोजन एकेश्वर के राज.बालिका इंटर कालेज में हुआ। मैं और मोहन चौहान विषय विशेषज्ञ के तौर पर वहां गए। शुरू शुरू में ऐसा लगा कि हम क्या कर पाएंगे। 170 बच्चे वे भी बालिकाएं और बालिका स्कूल। कैसे इतने सारे बच्चों को नियंत्रण में रखेंगे। यही कारण था कि हम दोनों एक तारीख को ही एकेश्वर पंहुच गए। सेमल्टी दीदी के घर पर ही हमने एक दिन पूर्व शाम को विस्तार से योजना बनाई। स्कूल और छात्राओं का माहौल जाना। कैसे हम क्या करेंगे, क्या नहीं करना है। सब तरह की बातों पर गौर किया। मुझे विश्वास था कि मैं सब कर लूंगा। फिर भी एक अलग तरह की चिंता थी। श्री चैहान जी ने भरपूर सहयोग दिया। वे बहुत अच्छे साथी हैं। उन्हें खुद से ज़्यादा मुझ पर भरोसा रहता है। कहीं भी योजना बनाते समय भी और कार्यशाला के चार दिनों में भी उनका बड़ा होना नहीं दिखाई दिया। उन्होंने मेरी योजना को ही फाइनल माना। कहीं भी किसी तरह की उलझन और मतभेद या किसी तरह का विरोधाभास नहीं होने दिया। मैंने ही ज्यादा समय लिया और वे मुझे ही हौसला देते रहे। कार्यशाला के बच्चे। शुरू में तो मुझे लगा कि क्या होगा। पर धीरे-धीरे बच्चे खुलते गए। इतना खुल गए कि उन्होंने अपनी और परिवार की और विद्यालय की ऐसी ऐसी बातें हमसे की कि शायद ही हम कर पाते हों। बच्चे वास्तव में मन के सच्चे होते हैं। कक्षा 6 से 8 की बालिकाएं ज्यादा सक्रिय रहीं। सबको अच्छा लगा। ये मेरे लिए खुशी की बात है। बच्चों को हम जैसा बना सकते हैं, वे वैसा ही बनते हैं। बशर्ते हमारा व्यवहार उनको आदर्श के रूप में दिखाई दे। हमने मीड डे मील में ही भोजन करना स्वीकार किया। हम जमीन पर बच्चों के साथ ही बैठे तो सबको बड़ा अजीब सा लगा। पर बच्चों को अच्छा लगा। हम तीन दिन अलग-अलग बच्चों के साथ बैठे। बच्चों को भी अच्छा लगा। सारे एकेश्वर में हम पहचान लिए गए। यहां तक कि पहली बार विद्यालय के पहले कार्यक्रम में इतने सारे अभिभावक आए। आज भी ये धारणा है कि लड़कियों का स्कूल है। लड़कियां क्या कर सकती है। इन्हें तो इतना भर पढ़ाना है कि दूल्हे को ठगाया जा सके।