एक शिक्षक की डायरी / भाग ६ / मनोहर चमोली 'मनु'

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12.12.2008 - हमारी परिचित शिक्षिका हैं। मन से पढ़ाती हैं। वो कक्षा 11 में पढ़ा रही थीं। बच्चों ने आपस में पर्ची उछालने का काम उन्हीं के सामने किया। पर्ची पकड़ी गई। पर्ची में ऐसा कुछ अशोभनीय लिखा था कि शिक्षिका कक्षा से बाहर आ गईं। उन्होंने उस कक्षा में कभी न जाने का निर्णय भी ले लिया। बच्चों ने ऐसा अशोभनीय व्यवहार किया कि शिक्षिका बेहद आहत हो गईं। कैसा माहौल पैदा हो गया है। बच्चे शिक्षकों को शिक्षक नहीं समझ रहे हैं। बड़ी हैरानी हो रही है। आने वाला कल कैसा होगा।

27.12.2008 - शीतकालीन अवकाश है। देहरादून में हूं। कुछ कहानियां लिख रहा हूं। हम बच्चों के बीच में काम करते हैं। हर साल नये बच्चे आते हैं। स्कूल हमारे लिए प्रयोगशाला हो सकता है। पर हम इतना कहां कर पाते हैं।

1.1.2009 -नया साल आ गया है। नव वर्ष की शुभकामनाएं बच्चों ने दी। अच्छा लगा। इस साल कुछ अच्छा करना है। विद्यालय में वो माहौल नहीं है। चाहता था कि कुछ करूं, मगर नहीं कर पा रहा हूं। कभी-कभी ऐसा होता है कि सब कुछ कर सकने की सामथ्र्य के बावजूद भी आप आस-पास के तनावपूर्ण माहौल के चलते कुछ नहीं कर पाते। खैर इतना तो है कि बच्चों के साथ मैत्राीपूर्ण व्यवहार तो रख ही सकता हूं। उनके दिल और दिमाग में अच्छी पैठ बना सकता हूं। उन्हें मन से पढ़ा तो सकता हूं। उन्हें सही दिशा तो दे ही सकता हूं। उन्हें मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदनशील तो बना ही सकता हूं।

14 जनवरी 2009 - बोर्ड की परीक्षा निकट है। विद्यालय में बच्चों को लेकर तनाव है। मगर मेरा मानना है कि हमारा परीक्षा परिणाम अच्छा रहेगा। मुझे उम्मीद है कि सभी बच्चे अच्छे अंक लाएंगे। मगर अन्य शिक्षक बच्चों को हतोत्साहित करते हैं। उनका मनोबल गिराते हैं। बुरा लगता है। गाहे-बगाहे मैं विरोध भी करता हूं।

6 जून 2009 - दो-तीन दिन पहले ही परीक्षा परिणाम आया है। बच्चों ने अपने पास होने की सूचना फोन पर दी। गौतम, सोहन और चंद्रकला सफल नहीं हो पाए। खराब भी लगा। इस बात का दुख रहेगा। मगर ये तीनों ही पढ़ाई के प्रति इतने सजग कहां थे। कितना समझाया। कक्षा 9 से इनके पीछे पड़ा था। मगर सारा दोष इनका ही नहीं है। बच्चों की संख्या कम है। एक-एक बच्चे पर जितना गौर किया जा सकता था, उतना नहीं हो पाया।

28 जून 2009 - आज की सुबह भीमताल पंहुच गए हैं। कक्षा 4.5.7.8 की पुस्तकों का लेखन हो रहा है। अनु भी साथ है। इस तरह की कार्यशालाओं में शिक्षा के प्रति नजरिया बेहतर होता है। अच्छा लेखन और स्कूली बच्चों के लिए उसकी सार्थकता पर हम सोचते हैं। खुद के लेखन के प्रति भी हम और संवेदनशील हो जाते हैं। उम्मीद है कि मुझे यहां से और दिशा मिलेगी। स्कूल ओर स्कूली बच्चे याद आएंगे।

3 जुलाई 2009 - आज भीमताल में हूँ। पुस्तक लेखन कार्यशाला में। हेमराज भट्ट बालसखा की याद में एक आयोजन था। हेमराज भट्ट की डायरी, कविता, कहानी का वाचन हुआ। हमारे अच्छे साथी थे। उनका ऐसे चले जाना बहुत पीड़ा देता है। लेकिन रचनाकार कभी नहीं मरता। ये बात आज गहरे से महसूस की। वे इतना तो काम कर गए कि हम शिक्षकों के लिए प्रेरणास्पद हैं। हमें भी लिखना-पढ़ना चाहिए। बच्चों के लिए लिखना आसान नहीं। बड़ी बातें कोई भी कर सकता है। मगर बच्चों के लिए कुछ लिखो भी तो। बच्चों की पत्रिकाओं के बारे में तो जानकारी है नहीं। चले हैं, बाल विशेषज्ञ बनने। कभी-कभी तो बेहद बौखला जाता हूं। फिर सोचता हूं कि नहीं, अपना काम करो। बाल लेखन में अपनी पकड़ बनाओ। खूब पढ़ो दूसरों को समझो। फिर अपनी राय रखो।

9-7-2009 - हिंदी का समूह कुछ उलझा हुआ सा लग रहा है। वो सजगता और वो पैनी धार नहीं है, जो पिछले समूह में थी। मैं तो पूरी शिद्दत के साथ चर्चा कर रहा हूं। मगर कई बार अच्छी सामग्री भी बाहर हो जा रही है। मैं चयन सामग्री से भी संतुष्ट नहीं हूं। कुछ का चयन तो ठीक हो रहा है। मेरे अनुसार। ये भी जरूरी नहीं है कि मैं ही सही सोचता हूं। अनु भी काफी ठीक काम कर रही है। मगर उसे और सजग होना होगा। अपनी राय देनी होगी। ताकि आगे से उसकी अपनी अलग पहचान हो। मैं यह नहीं चाहता कि कोई यह कहे कि अनु को चमोली की वजह से बुलाया है। जल्दी ही अनु अच्छी पकड़ को हासिल कर लेगी। ऐसा विश्वास है। पुस्तक लेखन कार्यशाला में एक और अच्छा काम हो सकता था। हम जिस सामग्री का चयन कर रहे हैं। उसे उसी समूह वर्ग में भी पढ़ाया जाना चाहिए, जिसके लिए वे तैयार हो रही है। ताकि यहीं मूल्यांकन हो सके। बड़ी हास्यास्पद स्थिति है। बच्चों के लिए वो रचना सामग्री तैयार कर रहे हैं जिन्होंने बच्चों के लिए कभी नहीं लिखा।

10.7.2009 - भीमताल में हूं। आज लेखन कार्यशाला के बीच से यशोधर मठपालजी का संग्रहालय देखने चले गए। मैं, अनु, पुण्डीरजी और बादलजी साथ थे। हम आठ सदस्य गए हुए थे। मठपालजी का काम अद्भुत है। विराट है। जिसका कोई सानी नहीं। बेहद बेजोड़ काम है। पहचान लिया। खुश हुए। व्यवस्था का दोष बताने लगे। हम भी क्या करते। मगर ऐसे लोगों को देखकर लगता है कि हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं। हमने 100 रुपये की सहयोग राशि दी। ऐसे व्यक्ति को नमन् है। आज काफी कुछ अनुभव हुआ। कार्यशाला में कई तरह के लोग आए हुए हैं। चाटुकार, किताब चोर, बातूनी, गप्पी और चुगलखोर। इससे ज्यादा खतरनाक लोग भी आएं हुए हैं अहंकारी और दूसरों के बारे में अनर्गल बातें फैलाने वाले। ऐसे लोगों को देखकर लगता हैं कि ये लोग कितना छोटा सोचते हैं। खराब लगता है कि सब में अधिकांश शिक्षा विभाग से जुड़े हैं। क्या होगा? हम समाज को क्या दिशा देंगे, पहले अपनी दिशा तो ठीक करें। मैंने मठपाल जी से भी कहा कि वे बच्चों को केन्द्रित कर कुछ चित्र बनाएं।

11जुलाई 2009 - आज सदन में दो बार गरमा-गरम बहस हो गई। मैं डा.देवेन्द्रजी एक राय नहीं थे। पर मुझे लगता है कि मैं सार्थक बहस करना चाहता हूँ। मगर वे सोचते हैं कि वो जो कुछ सोचते हैं, वह सही है। आखिरकार सदन जो बहुमत से चाहता है, वही तो होना चाहिए, और वो हो भी रहा है। पर कभी-कभी वे जबरन कुछ रचनाएं शामिल करवाना चाहते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। मानता हूं कि वे विद्वान हैं। मुझे चाहते भी हैं। मगर हर किसी को अपनी बात कहने का हक है और सबकी बात सुनी भी जानी चाहिए। भीमताल पुस्तक लेखन कार्यशाला में कई शिक्षक और शिक्षिकाएं आए हैं। अगर हम हिंदी की बात करें तो हिंदी ही ऐसा विषय है, जिसमें अधिकतर साथी साहित्यिक हैं। छपते हैं। अपना नाम है। मगर काम और सोच? अधिकांश बेहद छोटा सोचते हैं। मानसिकता भी अच्छी नहीं है। बड़ा कष्ट होता हैै। अनु भी साथ है। मगर मैं नहीं चाहता कि मैं अनु को वो सब बातें बताऊं, जो मुझे विचलित करती हैं। मैं चाहता हूं कि वो खुद समझे, जाने और महसूस करे कि आखिर किस तरफ जाना है। क्या अच्छा है और क्या बुरा। कैसे रहना है। कैसे सीखना है। कौन लोग अच्छे हैं। कौन दिशा दे सकते हैं। किनके साथ रहने से नाम और सोच आगे बढ़ सकती है। बहुत सी बातें हैं,जो हमें दिशा देती है और पीछे भी धकेल सकती है। हम जैसे औरों का विश्लेषण कर रहे हैं क्या हमारा विश्लेषण न हो रहा होगा? आखिर एक अच्छा शिक्षक कौन है? शिक्षक से पहले हम क्या हैं। क्या हमारी दिनचर्या होनी चाहिए। क्या हमारा आचरण होना चाहिए। क्या हमारा व्यवहार होना चाहिए। इस पर हमें ही तो सोचना चाहिए। जब हमारा आचरण सार्वजनिक रूप से सर्वमान्य नहीं है तो हम कक्षा-कक्ष में भी कैसे स्वीकार्य होंगे?

14-7-2009 - रात के दस बजने वाले हैं। आज संपादन के लिए टीम बन गई है। अनु को कल जाना है। अलमोड़ा होते हुए। मैं रुक रहा हूं। दुनियां स्वार्थियों से भरी पड़ी है। मगर मुझे ओर अनु को लक्ष्य निर्धरित करना है। हम दोनों बाल लेखन में अच्छा कर सकते हैं। देखते हैं कितना कर पाएंगे। मगर अभी तो शुरूआत है। अभी बहुत कुछ सीखना है। बहुत कुछ करना है। कितना कर पाते हैं। ये ओर बात है। पर प्रयास तो हमें ही करने होंगे। इस कार्यशाला से और दिशा मिली है। नाटक, यात्रा वृतांत और संस्मरण बहुत कम हैं। पत्रा विधा भी लुप्त प्राय हो रही है। इस पर भी हम काम कर सकते हैं। देखते हैं कि क्या हो सकता है। वाकई, बाल केन्द्रित सामग्री का सर्वथा अभाव है। जो कुछ है वो सब उपयोगी नहीं है।

15 जुलाई 2009 - भीमताल पुस्तक लेखन कार्यशाला में मेरे साथ अनु भी थी। हम 28 जून की सुबह यहां पहुंच गए थे। आज अठारहवें दिन अनु को जाना पड़ा। कमरा न.105 से बाहर आ ही रहे थे कि अनु रो पड़ी। मेरी आंखें भी भर गई। हम 24 मई से साथ थे। यह पहला अवसर था जब हम इतने दिन एक साथ रहे। खैर। हमे एक-दूसरे से अलग तो होना ही था। 21 अक्टूबर 2007 से आज तक ये पहला अवसर है, जब मुझे भी खराब लग रहा है। बहुत ज्यादा। अब रात के आठ बज चुके हैं। मैं सड़क पर अनु को चार बजे छोड़ चुका था। अनु अल्मोड़ा 6.40 सांय पहुंच गई थी। विनीता दी के यहां तुम्हें रुकना है। कल तुम हरमनी चली जाओगी। मैं जानता हूं कि तुम्हें भी बेहद खराब लग रहा होगा। पर मैंने पहली बार जाना है कि हूक क्या होती है। गले के नीचें से सिर की ओर जाती हुई हवा-सी जो अपने साथ अजीब सा अहसास लेकर रह-रहकर उठ रही है। आज 6.30 बजे छूटे, तो सीधे घूमने के लिए अकेला ही गया। मल्लीताल एक भुट्टा खाया और सीधे वापिस आ गया। आज रात को इसी कमरे में रहूंगा और फिर कल शायद बदल दूं। इस कमरे में 18 दिन से रह रहे थे, हम दोनों, और अब अकेला रहना होगा। खैर आज कुछ मन तो नहीं लग रहा था। मगर फिर भी एक पाठ के अभ्यास बनाए। कल से नया काम शुरू करना होगा। पौड़ी की भी याद आ रही है। उससे ज्यादा अपने पत्र-पत्रिकाओं की। पोस्टमेन जुगरानजी को फोन किया तो वे बोले कि तुम्हारी डाक का ढेर लगा है। मैंने कहा कि पोस्टकार्ड भी संभाल कर रखना। दो-एक रजिस्टर्ड डाक है तो उन्हें छुड़वाने को कह दिया था। कुछ पत्र लिखने थे मगर यहां समय नहीं मिल रहा है। कल देखता हूं। आज हिन्दी समूह से काफी लोग चले गए हैं, बड़ा अजीब सा लग रहा है। इन कार्यशालाओं में सीखा बहुत जाता है। पर अब भी और पहले भी मैं मानता हूं कि सबसे अच्छा आपका स्कूल होता है। हर दिन नई चुनौतियां, नई समस्याएं और नए अनुभव। बच्चों के साथ रहकर, उन्हें देखने भर से, उनसे बात करके, उनके साथ काम करके मुझे नए नए अनुभव होते हैं। यहीं से किस्सा-कहानी और कविताओं के प्लॉट उठाता हूं।

16 जुलाई 2009 - भीमताल, आज भीमताल का हरेला मेला देखने गए। मैं, स्वाति और आशुतोष पाण्डेय जी साथ थे। हम चार बजे की चाय पीने के बाद ही गए। पांच बजे हम झील के दूसरी ओर से मेला स्थल पर पंहुच गए थे। स्वाति के अलग हो जाने के बाद किमोठी जी मिल गए। वे भी थोड़ी देर ही साथ रहे और चुपचाप से अलग हो गए। बहरहाल अब सात बज चुके हैं। मेला जाने से पहले मैं सोच रहा था कि कुमाँऊं के मेलों में आज भी धरोहर के रूप में कुछ मिल जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं है। ये मेला अत्याधुनिकता की भेंट चढ़ गए हैं। मैंने महसूस किया कि पहनावा और आचार-व्यवहार भी इतना बदल गया है कि लोग सब जगह एक जैसे दिखते हैं। इस मेले में भी स्थानीय स्तर की खाने-पीने की चीजें ही नहीं, सामान भी नहीं देखने को मिला। सब रेडीमेड और बना-बनाया। पैक्ड सामान। फास्ट फूड ने तो हमारे पारंपरिक खान-पान को तहस-नहस कर डाला है। मेले में इक्की-दुक्की महिलाए दिखीं जो पहाड़ी जेवर पहने हुए थीं। अन्यथा पहाड़ी परिवेश तो कहीं दिखाई ही नहीं दिया। बूढ़े पुरुष और महिलाएं नहीं दिखीं। एक जगह सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था। जागरशैली में एक गीत सुना वो भी बेढंग के हास-परिहास से सराबोर रहा। जब हमने अपने बड़ों से कुछ सीखा ही नहीं तो हम नई पीढ़ी को क्या दे पांएगे। आज जो फूहड़ता को देखकर हमें कष्ट हो रहा है, उसके हम भी तो जिम्मेदार हैं। जब हम कुछ सीख ही नहीं पाए तो हम सीखाएंगे क्या। जब हम कुछ सीखा नहीं पाए तो हमें कुछ बेहतर क्या दिखाई देगा। यह सोचनीय है। मेले अपनी पहचान खो चुके हैं। कहीं के भी मेले हों, वे एक रूप लेते जा रहे हैं। मेलों में अब कुछ विशेष नहीं दिखाई देता। जो मेलों को अलग बनाता था। अलबत्ता चर्खियां और खेल-खिलौनों की दुकानें देखकर कुछ याद आता है। मगर बहुत कुछ ऐसा है, जो मेलों की शान हुआ करते थे। अब मेलें बेनूर हो चले हैं। बहरहाल अनु हरमनी 11 बजे से पहले पंहुच गई होगी। आज उसे भी खराब लग रहा होगा। मैं तो कल रात ठीक से सो भी नहीं पाया। हां विनीतादी को फोन कर रहा था, पर नंबर है कि लग ही नहीं लग रहा है। खैर तुमसे तो कैसे बात करूं, हरमनी ऐसी जगह है जहां नेटवर्क ही नहीं है। पुण्डीरजी का कैमरा मैंने कई दिन इस्तेमाल किया। बहुत अच्छी फोटो खींची। मगर वो अचानक खराब हो गया। मुझसे तो गिरा भी नहीं। मगर उस पर जो भी खर्चा आएगा, वो तो देना ही है। वे परेशान हो रहे होंगे।

17जुलाई 2009 - आज कक्षा 4 के पाठों पर काम हुआ। अभ्यासों पर काम हुआ। पहले आशुतोश पाण्डेय जी फिर स्वातिजी के साथ काम किया। मदनमोहन पाण्डेयजी ने मेरी कहानियों की तारीफ की। ये भी कहा कि मैं अच्छा हास-व्यंग्य लिख लेता हूं। अच्छी बात है। खैर मैं जानता हूं कि वे अच्छे समीक्षक भी हैं और आगे बढ़ाने वाले भी हैं। मुझे अभी और मेहनत करनी है। शाम को छह बजे के बाद मैं, डिमरी जी और डा.उमेश चमोला जी घूमने गए। झील के आखिरी छोर के पास बैंच पर बैठे रहे। अनु के बारे में सोच रहा हूं। ऐसा लगता है कि वो भी साथ है। मगर वो तो 15 जुलाई की शाम को ही चली गई थी। आज उससे बात नहीं हो पाई। शोभा से काफी देर बात की। उसे भी मातृत्व को करीब से देखने का मौका मिल रहा है। वो कई डिलीवरी करा चुकी है। बस। वो अच्छा करे। आगे बढ़े। मैं तो यही चाहता हूं। अब वो काफी बात कर लेती है। मुझे भी अच्छा लगता है। मैं उसे हंसाना चाहता हूं। सतीश को लेकर वहां काफी परेशानी हो रही होगी। कैसे कर रहे होेंगे वे। सोच रहा हूं कि कैसे मदद की जाए। अभी देखते हैं। अनु से बात कर कुछ उपाय खोजना होगा। यहां पुस्तक लेखन में कम लोग ही रह गए हैं। मन लगाना पड़ रहा है। देखते हैं कितना हो पाता है। बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है। मगर अब स्कूल की ओर भी ध्यान जा रहा है। मैं जानता हूं कि वहां वही कोर्स पूरा होने की बात कही जा रही होगी। मगर हम यहां कौन सा आराम कर रहे हैं। सुबह 5 बजे से रात के बारह बजे तक काम हो रहा है। कौन देखता है। मगर सब कुछ राज्य के बच्चों के लिए ही तो। कभी तो मन करता है, यहां इतना समय खराब हो रहा है। अपना मौलिक लेखन नहीं हो रहा है। फिर दूसरा मन कहता है कि सब यही सोचेंगे तो कैसे होगा। पाठ्य पुस्तकों में हमारा योगदान क्या नहीं गिना जाएगा।

18 जुलाई 2009 - आज सामान्य लेखन रहा। हम हिंदी में संपादन के काम में जुटे हुए हैं। पर लगता है कि सब खुद को बेहद महत्वपूर्ण समझ रहे हैं। मैं अपनी बात रख देता हूं। मगर दवाब नहीं डालता कि उसे माना ही जाए। मगर अन्य कई साथी बेहद जोर डालते हैं कि वे सही हैं। खैर। मैं तो अपने लक्ष्य को तय कर चुका हूं। मुझे ज्यादा से ज्यादा सीखना और समझना है। ताकि मैं आने वाले समय में बेहतर कर सकूं। आज शाम को घूमने गए। स्टेनो विवेक रावत के साथ काफी चर्चा हुई। बड़ा अजीब लगता है कि समाज में आज भी बेहद अंधविश्वासी और ईश्वर के प्रति अंध आस्थावान लोगों की कमी नहीं है। कुछ सुनना ही नहीं चाहते। अपने तर्को को कुतर्कों के बल पर रखते हैं। मुझे लगता है ऐसे लोग जो सुनना ही नहीं चाहते, समझना ही नहीं चाहते, जानना ही नहीं चाहते, उनके साथ ज्यादा समय बिताना ठीक नहीं। हां। अपनी बात और राय रख लेनी चाहिए। अपनी असहमति जता देनी चाहिए। अनावश्यक समय की बर्बादी से कोई लाभ तो होने से रहा। उल्टे जो समय पढ़ने-लिखने में दिया जा सकता है, वो भी बेकार जाएगा। कल से मैं समय बिताने के लिए इन लोगों के साथ नहीं रहूंगा। बल्कि घूमकर फिर अपने लक्ष्य पर जुट जाना ही ठीक रहेगा। कल रविवार है। यहां तो दिन और तारीख का पता ही नहीं चल रहा है। हम शिक्षक यदि अंधविश्वासी हैं। दकियानूसी सोच रखते हैं, तो क्या हमसे पढ़ने वाली पीढ़ी कुछ सीख पाएगी? क्या वैज्ञानिक समाज की स्थापना ऐसे हो सकती है। जब गणित का शिक्षक ये मानता है कि ज्योतिष एक विज्ञान है। जब विज्ञान का शिक्षक मंदिरों में घंटी और प्रसाद चढ़ाकर मनौती मांगता है, तो उसके पढ़ाए हुए छात्र कैसे समाज का हिस्सा बनेंगे, इसका अंदाजा लगाकर दुख होता है।