एक सतत विद्रोही — मुद्राराक्षस / विनोद दास

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यह महज संयोग था कि मेरी नज़र एक दिन लखनऊ से प्रकाशित सर्वाधिक लोकप्रिय समाचारपत्र स्वतन्त्र भारत दैनिक के पृष्ठ उलटते-पलटते हुए एक स्तम्भ पर पड़ी। उसका शीर्षक कुछ हटकर और अनोखा था। देखी-सुनी। पढ़ने की लालसा जगी। पढ़ना शुरु किया तो उसमें डूबता ही चला गया। यह कोई कहानी या कविता नहीं थी। यात्रा संस्मरण भी नहीं। यह रेडियो-दूरदर्शन के कार्यक्रमों की साप्ताहिक समीक्षा थी। तीखी और तल्ख़। रूखी-सूखी नहीं, रोचक और पठनीय। यह पहला अवसर था कि मैंने दृश्य-श्रव्य माध्यम पर इतनी गहरी सोचभरी और भेदक कोई टिप्पणी पढ़ी थी। इस स्तम्भ के लेखक और कोई नहीं, हिन्दी के प्रख्यात साहित्यकार मुद्राराक्षस थे।

दिलचस्प बात यह थी कि हमारे पास उन दिनों न तो रेडियो था और न ही टीवी। हम सब सगे,चचेरे -फुफेरे भाई-बहन किराये के एक मकान में पढ़ाई के सिलसिले में बाराबंकी में रहते थे। मेरे पिता जी दिल्ली में थे। चाचा जी धनबाद में। राशन गाँव से हम लाते थे। फीस-किताब,मकान भाड़ा आदि के लिए हर महीने मनीआर्डर दिल्ली-धनबाद से आता था। अख़बार भी हम धर्मशाला के वाचनालय में शाम को तब पढ़ते थे जब खबरें बासी और बेस्वाद हो जाती थीं और अखबार घरों में रद्दी में बेचने के लिए तहाकर रख दिए जाते थे। देखी-सुनी स्तम्भ पढ़ने का मुझे चाव लग गया। इससे टीवी-रेडियो के कार्यक्रम हमारी कौतूहल की ज़द में आ गए थे। यह स्तम्भ एक नये लोक को देखने का ऐसा आईना बन गया था जिसमें रेडियो-टीवी के कार्यक्रमों को देखे बिना पानी की ऊपर चमकते आइसबर्ग के छोटे अंश की तरह यह पता चल जाता था कि बीते सप्ताह वहाँ से कौन से महत्वपूर्ण कार्यक्रम प्रसारित हुए और उनकी गुणवत्ता क्या थी। हालाँकि यह स्तम्भ मेरे लिए इतना भर नहीं था। यह मेरे सरीखे एक युवा कोरे मन को कार्यक्रमों के विश्लेषण के जरिए जीवन और समाज को नई दृष्टि और विवेक से देखना,सुनना और सोचना भी सिखा रहा था।

मुद्राराक्षस आकाशवाणी दिल्ली में नाटक विभाग में काम कर चुके थे। श्रव्य माध्यम की बारीकियों और व्याकरण को जानते-समझते थे,वहीं नाटक के क्षेत्र में काम करने के परिणामस्वरुप दृश्य माध्यम के बुनियादी तत्त्वों और उसकी आत्यन्तिक आवश्यकताओं पर उनकी पकड़ गहरी थी। यह शोध का विषय हो सकता है कि 1976 के पहले किसी भी हिन्दी समाचारपत्र में रेडियो-टीवी की समीक्षा साप्ताहिक रूप से छपती थी या नहीं। यदि ऐसा कोई स्तम्भ किसी हिन्दी दैनिक में नहीं था तो निश्चय ही मुद्राराक्षस को इस विधा के सूत्रपात करने का श्रेय दिया जा सकता है। यहाँ यह उल्लेख करना आप्रासंगिक न होगा कि बाद के दिनों में जनसत्ता में अजदक छद्म नाम से आलोचक सुधीश पचौरी टीवी के कार्यक्रमों पर हर रविवार को नियमित रूप से लिखते थे जो बेहद लोकप्रिय भी था। सुधीश पचौरी के इस स्तम्भ को मैं तो पढ़ता ही था,दसवीं में पढनेवाली मेरी बेटी रूनझुन भी अत्यन्त रूचि से पढ़ती थी।

बहरहाल देश में वह आपातकाल का दौर था। इसी दौरान हम अपनी नवगठित साहित्यिक संस्था पुहुप साहित्य परिषद् के तत्वावधान में समानांतर कहानी पर एक संगोष्ठी सफलता पूर्वक आयोजित कर चुके थे। हम जल्दी ही समकालीन कविता पर एक और कोई विशिष्ट कार्यक्रम आयोजित करके अपनी सफलता के मुकुट पर एक और मोरपंख लगाना चाहते थे। कमलेश्वर द्वारा सम्पादित कथा पत्रिका “सारिका” के नियमित पाठक होने के कारण समकालीन कहानी के परिदृश्य से हमारा किंचित परिचय था लेकिन समकालीन कविता से परिचय अत्यन्त स्वल्प था। हम दूसरी संगोष्ठी आयोजन के बारे में विचार विमर्श कर ही रहे थे कि अचानक सारिका के अंक में मुद्राराक्षस की एक कहानी छप कर आ गयी जिसमें उनके घर का पता लिखा था: 78 दुर्विजय गंज लखनऊ।

मैं नहीं जानता था कि पुराने लखनऊ की गलियों में छिपा यह छोटा सा पता मेरे लिए एक ऐसा स्टेशन होगा जहाँ से मेरे जीवन की राह बदल जायगी। इस पते के मिलने से परिषद की अगली संगोष्ठी का ठिठका हुआ फैसला भी तय हो गया कि समकालीन कहानी पर हम परिचर्चा करेंगे। मुद्राराक्षस मुख्य वक्ता होंगे। किन्तु हमारी संस्था की आर्थिक नस दबी हुई थी। बेचैनी और तनाव से उस समय मैं और घिर गया जब विचार किया कि अपने मुख्य वक्ता को लखनऊ से कैसे टैक्सी से लाएंगे। हमारी संस्था की पास सीमित संसाधन थे। सात सदस्यों की संस्था में केवल पाँच सक्रिय थे। दो रूपये मासिक सहयोग राशि थी। यह अल्पराशि भी कई सदस्य नियमित नहीं देते थे। आयोजन के लिए धर्मशाला के कमरे का किराया। माइक का किराया और चाय बिस्कुट का खर्चा ही जुटाना ही बड़ा सिरदर्द था। ऐसे में टैक्सी भाड़े के लिए धनराशि जुटाना टेढ़ी खीर लग रही थी। हमारे रक्त में एक नवजवान की बेकरारी थी। इसी बेकरारी से यह आत्मबल पैदा हुआ कि कहीं से आकाशवृत्ति हो जाएगी। अन्ततः हमने मुद्राराक्षस से मिलने की ठान ली। बाराबंकी से लखनऊ की दूरी सत्ताइस किलोमीटर है। बड़ी संख्या में विद्यार्थी,नौकरी पेशा और छोटे व्यापारी नियमित लखनऊ आते जाते हैं। उन दिनों यात्रा के लिए ट्रेन सबसे सस्ता माध्यम था। विद्यार्थियों को मासिक पास बनवाने में छूट मिलती थी। मुझे याद है कि मेरा मासिक पास साढ़े आठ रुपये में बनता था। इस मासिक पास को लेकर दिन में ट्रेन से कितनी ही बार हम लखनऊ आ-जा सकते थे। यह पास छोटी लाइन ओर बड़ी लाइन दोनों की ट्रेनों के लिए वैध था। तब मासिक पास में फोटो चस्पा नहीं होता था। ऐसे में जिस दिन लखनऊ नहीं जाना होता था,कुछ लोग अपने मित्रों या सम्बन्धियों को पास का उपयोग करने के लिए उदारता से सौंप देते थे। कई बार किराया बचाने के फेर में बड़े-बूढ़े भी अपने बच्चों के पास लेकर यात्रा करने का जोखिम उठाते थे। पास में उम्र दर्ज़ रहती थी। टिकट निरीक्षक मासिक पास में दर्ज उम्र और पासधारक के उम्र में फ़र्क को देखकर कई बार ऐसे छद्म यात्रियों को पकड़ लेते थे। सुबह हावड़ा-सियालदह एक्सप्रेस ट्रेन सुबह 8.15 पर बाराबंकी आती थी। 9.00 बजे लखनऊ पहुँचाती थी। इसी तरह रात में यह ट्रेन लखनऊ से 7.15 पर छूटती थी। बाराबंकी 8.00 बजे पहुँचती थी। बाराबंकी के दैनिक रेल यात्रियों के लिए यह सबसे लोकप्रिय ट्रेन थी। शायद वह अब भी होगी। रेल नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए भीड़ बल के सहारे अधिकांश दैनिक यात्री थ्री टियर या टू टियर के कम्पार्टमेंट में बैठना अपना एक सहज अधिकार समझते थे। हर कोई वैध रेलयात्री को खिसकाकर-धकियाकर जबरन बैठने की जुगत लगा लेता। उस दौरान उनके शरीर की लोच और मुद्राएँ देखने लायक होतीं। कोई बन्दर की तरह उचक कर ऊपर की बर्थ पर जम जाता तो कोई छिपकली की तरह नीचे की बर्थ के कोने से चिपक जाता। कई उदण्ड यात्री समूह तो सोते हुए यात्रियों को जगा देते। यही नहीं,उनकी सीट पर अनधिकृत कब्ज़ा करके ताश खेलना शुरु कर देते। वैध यात्री इस भय से नहीं बोलते कि विरोध करने पर थुर दिए जायेंगे। दैनिक यात्रियों की काँव-काँव के बीच कोई फब्ती कसता तो कोई चुटकला सुनाकर अपना सिक्का जमाता। कोई फिल्मी गाना गाकर रेल डिब्बे को संगीत से सराबोर कर देता। रेल के वैध यात्री अपने सामान को लेकर ज्यादा चिन्तित रहते। लड़कियाँ-महिलाएँ इस अराजक माहौल में अक्सर डरी-सहमी रहती। जब तक लखनऊ स्टेशन नहीं आता,वे टॉयलेट जाने को तब तक टालती रहती जब तक डेली पैसेन्जर स्टेशन पर उतर नहीं जाते।

ऐसी सियालदह ट्रेन से हम एक सुबह 9.00 बजे चारबाग स्टेशन पहुँचे। चारबाग से दुर्विजयगंज बहुत दूर नहीं था। पूछते-पूछते हम पैदल उस पते पर पहुँच गए। यह पुराना लखनऊ था। नालियाँ खुली हुई थीं। यहाँ बच्चे नालियों की पटरियों पर बैठकर मुदित मन से मल विसर्जन करते थ। महिलाओं की उपस्थिति की परवाह किये बिना पुरुष कहीं कोना देखकर खड़े-खड़े लघु शंका का निवारण कर लेते थे। सड़क पर पड़ा गोबर किसी के जूते या चप्पल से चिपक कर घर तक अपनी महक पहुँचा देता था। दिल्ली की साफ़ सुथरी जगह और सुरक्षित सरकारी सेवा छोड़कर ऐसी जगह रहने आना निश्चय ही मुद्रा जी सरीखे सुरुचिपूर्ण व्यक्ति के लिए यातना भरा था।

मुद्रा जी का यह पैतृक घर था। कहते हैं कि जब किसी पर संकट के बादल मंडराते हैं तो अपने घर की छत ही छतरी की तरह शरण देती है। आपातकाल में अपनी गिरफ्तारी के डर से जिस रात दिल्ली से पूरे घर का सामान ट्रक पर लादकर लखनऊ आए थे, तो अपने पिता के इसी घर का दरवाज़ा खुला मिला था। किन्तु दिल्ली की स्मृति उनसे आसानी से नहीं छूटी। हालाँकि ज़िन्दगी का रास्ता तय करते समय बहुत सारी चीज़ें पीछे छूटती ही हैं।

उनका मकान चुप था। दरवाज़ा पुराने ढब का। मकान भी। घंटी बजायी। काफ़ी देर तक कोई सुगबुगाहट नहीं सुनायी दी। निराश होने के बावजूद बेशर्म और अपराजित व्यक्ति की तरह हम वहाँ डटे रहे। काफ़ी देर इन्तज़ार करने के बाद भीतर से चप्पल की आहट सुनायी दी। कुँडी खोलने की आवाज़ के बाद उनकी पत्नी इन्दिरा जी नमूदार हुईं। उन्होंने बताया कि मुद्राजी अभी सो रहे हैं। देर रात तक जगे रहे हैं। हमने उनसे कहा,”आप उन्हें सोने दें। हम उनसे मिलने कुछ देर बाद आएंगे। ” हम आसपास चाय की दुकान खोजने लगे। कुछ दूर पर एक छोटी दुकान थी। चाय पीने के बाद हम फिर थोड़ी देर में वहाँ पहुँच गए। मुद्रा जी तब तक जग गए थे। इन्दिरा जी ने हमें कमरे की भीतर बिठाया। वह हमारे पढ़ने के लिए अख़बार भी दे गयीं। बैठक छोटी और संकरी थी। वहाँ पड़े एक पुराने सोफे पर हम जम गए। सामने लकड़ी की छोटी सी सेन्ट्रल टेबल थी। टेबल की निचली रैक में कुछ पत्रिकाएँ पड़ी थीं। बैठक के नीम अँधेरे में हम अख़बार बाँच ही रहे थे कि मुद्राजी नाइट सूट पहने आ गए।

नाम की ही तरह मुद्राराक्षस का व्यक्तित्व भी अनोखा था। छोटी कद-काठी। बड़ी-बड़ी आँखें।सिर पर कम बाल। फ्रेच कट दाढ़ी। मुद्राराक्षस का असली नाम सुभाष चन्द्र था। उनके नामान्तरण की भी एक रोचक कथा है। प्रख्यात दार्शनिक और कथाकार देवराज की पत्रिका के लिए हिन्दी साहित्य के उस समय के सबसे ताकतवर लेखक अज्ञेय की किताब पर मुद्राजी ने एक विस्फोटक आलोचनात्मक लेख लिखा था। संस्कृत में विशाखदत्त रचित नाटक मुद्राराक्षस के प्रभाव में उन्होंने इस लेख को अपने छद्म नाम मुद्राराक्षस के नाम से प्रकाशित किया था। साहित्यिक हलके में यह लेख बेहद चर्चित और विवादास्पद रहा। इस नाम से मिली ख्याति के चलते उन्होंने हमेशा के लिए अपना नाम मुद्राराक्षस रख लिया।

मुद्राराक्षस की आँखों में नींद के उच्छिष्ट छितराए हुए थे। हमने पहले उनके स्तम्भ की और फिर उनकी सारिका में हाल ही में प्रकाशित कहानी की प्रशंसामूलक चर्चा की। बाद में अपने आने का सबब बताया। कुछ देर बाद भीतर से आयी पुकार के बाद मुद्राजी एक ट्रे में चाय ले आये। चाय की चुस्कियों के साथ उन्होंने हमारे प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। कार्यक्रम शाम छह बजे था। हमने उनसे पूछा कि उस दिन टैक्सी कितने बजे लाएं। वह अचानक चौंक गए जैसे सहसा उनके दिमाग में कोई खतरे का अलार्म बज गया हो,”आप टैक्सी क्यों लाएंगे?” उनका सीधा सवाल था। ”हम बस से आ जाएंगे। आपको आने की भी जरूरत नहीं है। ” हमने प्रतिवाद किया,”आपके लिए नई जगह है। आयोजन स्थल भी खोजना पड़ेगा। हम दोनों में से कोई आपको लेने आ जाएगा।” सच बात यह थी कि बस से बाराबंकी आने की उनकी बात से ही हमारे मन पर छाए काले बादल छँट गए थे और उजली धूप खिल उठी थी। हम तब हतप्रभ और दुखी हो गए जब उन्होंने बातचीत के क्रम में बताया कि वह आकाशवाणी दिल्ली की ट्रेड यूनियन में पदाधिकारी थे। आपातकाल के आतंक के कारण सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा देकर रातोरात एक ट्रक पर घर के सामान के साथ गुलाब के पचीसों किस्म के गमलों के साथ यहाँ आ गए हैं।

आपातकाल के आतंक को सरकारी कर्मचारियों की जबरन नसबन्दी के मामले में देख सुन रहे थे लेकिन यह पहला वाकया था कि एक व्यक्ति सरकारी तन्त्र के आतंक के फलस्वरूप अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दे। सन्तोष की बात यह थी कि उनका परिवार एक ऐसा बड़ा सहारा था जिसके कारण आपातकाल की आतंकी हिलकोरें उनके भीतर के विश्वास को नहीं डिगा पायीं थीं। मुद्राराक्षस के पाठक जानते ही हैं कि अपने इन जीवनानुभवों को उन्होंने अपने उपन्यास “भगोड़ा” में व्यक्त किया है।

तय दिन पर मुद्राराक्षस बस से बाराबंकी आए। प्रख्यात बांग्ला अनुवादक प्रबोध मजूमदार,कवि राजेश शर्मा और कथाकार वीर राजा भी उनके साथ थे। संगोष्ठी की सामान्य औपचारिकता के बाद मैंने हिन्दी कहानी पर एक छोटा पर्चा पढ़ा। उसे पर्चा कहना पर्चे की तौहीन होगी। दरअसल उसमें सारिका में छपी कहानियों का ही ज्यादातर नामोल्लेख भर था। सभी मुद्राराक्षस के वक्तव्य का बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे थे। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति को पाँचवा वेद बताते हुए उन्होंने समकालीन कहानियों की विशेषताओं को रेखांकित किया। उन्होंने यह भी कहा कि समकालीन कहानियाँ वर्तमान वस्तुस्थिति के यथार्थ से उपजी हैं और कपोल कल्पित नहीं हैं। हालाँकि यथार्थ के अनुभव लोक से रचना के अनुभव लोक में रूपायित करने में आज का कहानीकार उसका सिर्फ़ बाह्य रूप ग्रहण कर रहा है। आज का यथार्थ जटिल है। इस जटिलता को समकालीन कहानियाँ इकहरे ढंग से पकड़ रही हैं। समानांतर कहानी आन्दोलन भी इसी की चपेट में है। इसका शोर अधिक है। इन कहानियों में पत्रकारिता सी सनसनी अधिक और जीवनानुभव कम हैं।

हम सब पहली बार कॉलेज के अध्यापकीय शिक्षण से भिन्न पदावली में व्याख्यान सुन रहे थे। पहली बार बाराबंकी में समकालीन साहित्य पर इतनी गम्भीर परिचर्चा भी हो रही थी। अफ़सोस की बात यह थी कि बाराबंकी के हमारे डिग्री कॉलेज का कोई अध्यापक इस संगोष्ठी में आमन्त्रण के बावजूद नहीं आया था। मुद्राजी के वक्तव्य के बाद प्रबोध मजूमदार और वीर राजा ने भी समकालीन कहानियों के बारे में अपना मत संक्षेप में रखा।

उस संगोष्ठी के बारे में सोचता हूँ तो एक बात लगातार याद आती है कि उसमें आने-जाने के लिए किसी का बस भाड़ा हमें नहीं देना पड़ा। हम बस भाड़ा देना चाहते थे लेकिन किसी ने नहीं लिया। एक छोटे से कमरे में दरी पर बैठकर विचारोत्तेजक बातचीत हुई। आजकल संगोष्ठियाँ कम और लिटरेचर फेस्टिवल अधिक होने लगे हैं। लेखक ट्रेन के एसी दर्जे या हवाई जहाज का किराया लेकर आते-जाते हैं। ऐसे में उस छोटी संगोष्ठी की याद बहुत सार्थक,मीठी और प्रिय लगने लगती है। ऐसे लेखकों के प्रति मन में आदर उमड़ता है। यह अजीब विडम्बना है कि वे चारों लेखक आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन्होंने उस दिन सादगी का जो बीज बोया था,उसकी कोपलें अभी भी हमारे मन में मौजूद हैं। नौकरी छोड़ने के बाद मुद्रा जी की नयी ज़िन्दगी शुरू हो रही थी। देखा-सुनी कॉलम लिखने के अलावा उनके पास उन दिनों कोई आय का साधन न था। कुछ समय के लिए तदर्थ स्तर पर उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी में उन्होंने “छायानट” पत्रिका का सम्पादन किया। वह बहुत उत्साह से पत्रिका निकालने की तैयारी कर रहे थे। नाटक और रंगमंच में उनकी गहरी पैठ थी। उनके नाटक योर्स फेथफुली,तिलचट्टा,मरजीवा और तेंदुआ को व्यापक रूप से सराहाना मिल चुकी थी। आकाशवाणी दिल्ली में वह नाट्यविभाग काम कर चुके थे। उनके अनगिनत रेडियो नाटक वहाँ से प्रसारित भी हो चुके थे। केसरबाग स्थित अकादमी के कार्यालय में यशस्वी कथाकार अमृतलाल नागर के सुपुत्र शरद नागर के सौजन्य से उन्हें सम्पादक के तौर पर एक कोने का कमरा आबंटित हो गया था। विश्वविद्यालय से क्लास छूटने के बाद हम कई बार उनसे मिलने वहाँ जाते थे। उनके कक्ष से सटे कमरे से घुन्घुरुओं के साथ तालों की आवाज़ से हमे इश्क हो गया था। उस बड़े कक्ष में लड़कियाँ कथक सीखती थीं। धा धिन धिना धा या तत्कार सुनायी देती रहती थी। दरवाज़े के नीचे खुली झिर्री से नाचते हुए पाँव झाँकते रहते थे। एक दिन अचानक बीच का दरवाज़ा खोलकर नंगे पाँव कथक गुरु लच्छू महाराज मुद्राजी के कक्ष में आ गये। लच्छू महाराज जब तक बात करते रहे,शब्दों से अधिक अंगों से बात करते रहे । कभी उनकी भवें उठतीं तो कभी आँखों और हस्तमुद्राओं की बाँकी अदा के साथ वह संवाद करते। उनकी अभिव्यक्ति में इतना लास्य था कि मैं नृत्य और अभिनय से बने उनके व्यक्तित्व को मन्त्रमुग्ध निहारता रहा। उस दिन तो नहीं,लेकिन अगली बार जब मुद्रा जी के कक्ष में लच्छू महाराज से मुलाक़ात हुई तो मैंने उनसे मुगलेआज़म फिल्म में उनके नृत्य निर्देशन में मधुबाला की अपूर्व ठुमरी “मोहें पनघट पर नंदलाल छेड़ दियो रहे” की प्रस्तुति का प्रसंग छेड़ा तो वह अपनी उसी शैली में भवें,आँखों,होंठ,हथेलियों की मुद्राओं और माथे पर शिकन डालते हुए विस्तार से बताया। यहीं नहीं,फिल्म जगत में उन्होंने कितनी अभिनेत्रियों को कथक की तालीम दी है,उसका बयान-बखान भी करने लगे। वह तब तक अनवरत अपनी भाव-भँगिमा के साथ बोलते रहे जब तक बगल के कमरे उनके किसी शिष्य का बुलावा नहीं आ गया। कमरे से उनके जाने के बाद मुद्रा जी कुछ असहज होकर बोले,”इनसे कथा सुनने के लिए फुर्सत चाहिए। यह एक बात बार-बार दोहराते रहते है। ” उन दिनों लच्छू महाराज से आज की ख्यात नृत्यांगना कुमकुम धर भी कथक सीख रही थीं। छायानट पत्रिका के प्रवेशांक में मुद्रा जी ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का नाटक “गर्म भात” प्रकाशित किया था। उस अंक में एक उन्होंने एक अच्छी पहल भी की थी कि किसी रंग निर्देशक या अभिनेता के साक्षात्कार के बजाय प्रकाश निर्देशक का महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार छापा था। छायानट के सम्पादन की अवधि सीमित रही। उनका कॉन्ट्रैक्ट आगे नहीं बढ़ाया गया।

उस दौर में मुद्राराक्षस के सहयोग के साथ हमने समीक्षा सम्वाद नामक संगोष्ठी भी शुरू की। श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास मकान और लीलाधर जगूड़ी के कविता संग्रह “रात अब भी मौजूद है” पर आयोजित संगोष्ठी में कुँवर नारायण,श्री लाल शुक्ल,कृष्ण नारायण कक्कड़,गीतकार ठाकुरप्रसाद सिंह,स्वतंत्र भारत के सम्पादक अशोक जी,चित्रकार रणधीर सिंह बिष्ट,मूर्तिशिल्पी मदन लाल नागर,अनुवादक प्रबोध मजूमदार,कथाकार वीर राजा,कवि राजेश शर्मा आदि शिरकत करते थे। इसी बीच पहला लखनऊ महोत्सव का आयोजन हज़रत महल पार्क में किया गया। इसमें गिरीश कर्नाड का चर्चित नाटक “हयवदन” का मंचन भी किया गया था। मुझे याद नहीं,लेकिन शायद मुद्राराक्षस का नाटक “गुफाएँ” भी इसी दौर में मंचित हुआ। गुफाएँ नाटक की मुख्य अभिनेत्री कुमकुम धर थीं। मुझे वह नाटक अच्छा नहीं लगा था। मुझे लखनऊ महोत्सव की वे साँझें याद आती हैं जब मुद्राजी के साथ मैं पूरे उत्साह के साथ चकाचौंध भरे महोत्सव परिसर में घूमता था। वह मुझे दूसरे कलाकारों और लेखकों से बराबरी के स्तर पर परिचय कराते थे जबकि उस समय तक मेरी कोई भी रचना नहीं छपी थी। उनके इस व्यवहार से मुझे बहुत आत्मबल मिलता था। आज जब मैं उन प्रसंगों को जोड़ता हूँ तो लगता है कि वे ऐसी ईंटें थीं जिनसे मेरी रचनाधर्मिता की चिनाई हुई है।

मुद्राजी से मैंने एक लघु पत्रिका निकालने के प्रस्ताव किया। वह बहुत खुश हुए। पत्रिका का नाम “बेहतर” रखा गया। कुछ लेखकों को पत्र भी लिखे गये। मुद्रा जी से जब भी बात होती तो कहते कि कुछ समय लगेगा। इस बीच मैं दिल्ली आ गया। कवि राजेश शर्मा के आर्थिक सहयोग से “बेहतर” पत्रिका का एक पतला अंक चिकने महँगे कागज़ पर निकला। इसमें मुद्राजी के दो सम्पादकीय थे। एक प्रारम्भ में और एक अन्त में। इस अंक में सबसे प्रभावी रचना कथाकार और फिल्म समीक्षक ब्रजेश्वर मदान की कहानी थी। छोटी और मारक कहानी । पत्रिका की समीक्षा “दिनमान” में निकली थी। पत्रिका में मेरा और विनय दास का नाम भी सहायक के रूप में था।

दिल्ली प्रवास के दौरान मैंने एक दिन अखबार में पढ़ा कि रूसी कथाकार गोगोल की कहानी इन्स्पेक्टर जनरल पर आधारित मुद्राराक्षस का नाटक “आला अफ़सर” का मंचन श्रीराम सेन्टर स्थित सभागृह में होने वाला है। निर्देशन बंशी कौल का था। नाटक की परिकल्पना नौटंकी शैली में की गयी थी। उस नाटक को देखने के लिए जब मैं वहाँ पहुँचा तो उपस्थित लोगों की भीड़ देखकर चकित हो गया। शो हाउसफुल था। रघुवीर सहाय,सर्वेश्वर दयाल सक्सेना,विष्णु खरे,शानी सरीखे वरिष्ठ लेखकों के अलावा बड़ी संख्या में युवतर लेखक,कलाकर्मी और रंगकर्मी मौजूद थे। शो शुरू होने के पहले मुद्रा जी विदूषक पात्र की तरह सभागृह से बाहर घण्टी बजाते हुए निकले। मैंने जब उनकों नमस्कार किया तो वह मेरा हाथ पकड़कर सभागृह की तरफ ले गये। यह भी नाटक का एक हिस्सा-सा लग रहा था। इसी तरह उन्होंने रघुवीर सहाय के साथ किया। मन्त्रमुग्ध नाटक देख ही रहा था कि सभागृह की बिजली चली गयी। फिर थोड़ी देर नाटक अँधेरे में चलता रहा। मुझे वह दृश्य याद है कि कोई भी अपनी सीट से नहीं हिला। कोई शोर-शराबा भी नहीं। टार्च की रोशनी में नाटक कुछ देर चलने के बाद सहसा बिजली आ गयी। शायद निर्देशक की यह युक्ति थी होगी कि वह नागर दर्शकों को नौटंकी के मूल परिवेश में ले जाए। इस नाटक में मुद्रा जी को अभिनय करते देख बहुत अच्छा लगा।

एक दशक के बाद चार नौकरियों को छोड़कर पाँचवी नौकरी नाबार्ड में तबादले पर जब लखनऊ में आया,तब तक मेरी शादी हो गयी थी। यही नहीं,एक बेटी का का पिता बन चुका था। बीता समय बासी नहीं हुआ था। मुद्राराक्षस भी अपने पैतृक निवास दुर्विजयगंज से लखनऊ की नई बस्ती इन्दिरा नगर आ गये थे। जब मैंने पत्नी विनीता से उनका औपचारिक परिचय कराया तो उनके लम्बे सघन बालों को देखकर कहा कि क्या आप बंगाली हैं.उन्होंने मुस्कराकर कहा,नहीं। ”

मुद्रा जी कभी-कभार मेरे दफ़्तर आते तो पूरे स्टाफ़ में ख़बर फैल जाती। उनको लोग टीवी में देखकर पहचानते थे। कुछ उनके अलबेले व्यक्त्तित्व को देखकर उन्हें नहीं भूलते। हजरतगंज में उनके साथ चलते हुए अक्सर उन्हें देखकर मुस्कराते। कुछ लपक कर हाथ मिलाते। वह भी उनसे ऐसे मिलते जैसे सालों से उनका राब्ता हो। जब मैं कभी उनसे पूछता कि आप इन्हें जानते है,वह ना कहकर सिर हिला देते। वीरेन्द्र यादव और अखिलेश के दफ़्तर में भी अक्सर मुलाक़ात होती। वहाँ वह अधिक सहज होते। शुक्रवार को कॉफ़ी हाउस में भी वह अक्सर आते।

वह फ्रीलाँस कर जीविकापार्जन कर रहे थे। लखनऊ सरीखे शहर में एक कलमजीवी के लिए यह काम बहुत कठिन था जहाँ स्वतंत्र लेखन से आय अर्जन के अवसर कम थे। इन्दिरा भाभी और दो बच्चों सहित उन पर परिवार का पूरा दायित्व था। इतना ही नहीं,उनके दो कुत्ते और एक बिल्ली भी प्रिय सन्तानों की तरह उनके यहाँ हिलमिल कर रहती थीं। मछली घर की मछलियों के लिए भी चारे की व्यवस्था करनी पड़ती थी। उन्होंने एक लाल रंग का कार भी खरीद ली थी जिसको कभी-कभार चलाने के लिए उसमें पेट्रोल भी डालना पड़ता था। उनके यहाँ उनके प्रेमी आगुन्तकों की कमी नहीं थी,उनका आदर सत्कार भी वह अपनी सीमाओं के तहत करते थे लेकिन मैंने उन्हें कभी किसी के सामने अपनी आर्थिक हालात का रोना सुनाते हुए नहीं देखा। जैसे ही उनको कहीं से चेक मिलता था,वह हजरतगंज की पंजाब नेशनल की शाखा में उसे कैश कराने के लिए बैंक के यूनियन नेता और मुद्राजी के प्रेमी सीपी सिंह साहब के पास चले जाते जो उनको चाय पिलाते और चेक भुनाकर नकद रूपये दिला देते। वहाँ से निकलते ही वह कई बार अपने कुत्ते के लिए गोश्त,मछलियों के लिए आहार और अपने लिए काफ़ी हाउस के पास से विदेशी शराब की छोटी बोतल खरीद लेते। उनमें गज़ब की खुद्दारी और आत्मस्वाभिमान था। वैसे वह किसी के पास नि:संकोच मिलने चले जाते थे लेकिन जब उन्हें लगता कि कोई उनका तनिक भी अपमान कर रहा है तो वहाँ फटकते भी नहीं थ। एक बार तो वह दूरदर्शन केंद्र के गेट से वापस आ गये थे जबकि उनकी रिकॉर्डिंग होनी थी और गेट पर तैनात ने उन्हें जाने से रोक दिया था कि उनके पास कॉन्ट्रैक्ट लेटर नहीं था। दूरदर्शन के केंद्र निदेशक विलायत ज़ाफरी उनके प्रेमी और दोस्त थे लेकिन गार्ड मुद्राजी के अलबेले व्यक्त्तित्व के चलते केन्द्रनिदेशक से बात कराने के लिए तैयार नहीं था। बहस में हुई असहमतियों की गाँठ बाँध कर नहीं रखते थे। कडुवी बातें उसी दिन भूल जाते। अगले दिन उस व्यक्ति से मिलने पहुँच जाते। आलोचक वीरेन्द्र यादव के साथ बहस में अक्सर ऐसा होता। मुद्राराक्षस एक तरह साहित्य,कला और संस्कृति में मूर्तिभंजक थे। वह ऐसे लोगों को पसन्द भी करते थे। वीरेन्द्र यादव ने उनके उपन्यास पर एक तीखी समीक्षा लिखी थी जिसे उन्होंने साग्रह अपनी रचनात्मकता पर केन्द्रित विनय दास सम्पादित पुस्तक में शामिल कराया था।

मुद्राराक्षस के व्यक्तित्व का मूल स्वभाव विलक्षणता था।

मुद्राराक्षस विलक्षणता में विश्वास करते थे। पिटी-पिटाई राहों पर चलने में उन्हें यकीन नहीं था। इसी विलक्षणता के चलते वह कई बार अतिरेक में चले जाते थे। दरअसल ज्ञानोदय पत्रिका के सम्पादकीय विभाग में कार्य करने के लिए कोलकाता सरीखे महानगर में जब मुद्राजी गये तो उनके व्यक्तित्व में बड़ा परिवर्तन आया। हालाँकि मेरा मानना है कि इस विलक्षणता के बीज उनमें वास्तव में अकविता आन्दोलन के दौर में पड़े जब चौंकानेवाली रचनाओं से कृतिकार अपने पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहते थे। रचनाधर्मिता की दृष्टि से यह अराजक दौर था। इसी दौर में गंगाप्रसाद विमल,जगदीश चतुर्वेदी,श्याम विमल आदि अजीबोगरीब अर्थहीन कविताएँ लिख रहे थे। दूसरी ओर कथाकार दूधनाथ सिंह,ज्ञानरंजन भी कहानियों में अलग तरह से तोड़-फोड़ कर रहे थे। उनके इस अटपटे रचनात्मक व्यक्त्तित्व के कारण उनकी छवि एक चौंकानेवाले लेखक के तौर पर शुरू में बनी जिससे वह मुक्ति होने की कोशिश आजीवन करते रहे।

कुछ अलहदा दिखने की कोशिश में वह तरह-तरह के काम भी करते थे। कॉफ़ी हाउस में मित्रों के उकसावे पर कि लेखक को भी संसदीय प्रणाली में हस्तक्षेप करने के लिए चुनाव लड़ना चाहिए,वह एक बार चुनाव भी लड़ गये थे। उनके नामांकन के लिए रकम भी मित्रों ने दी थी। ऐसा नहीं था कि वह अपने चुनाव लड़ने के परिणामों से परिचित नहीं थे लेकिन सबको चौंकाने के लिए कुछ दिन उन्होंने बाक़ायदा अपनी लाल गाड़ी में बैठकर प्रचार भी किया था। मुद्राजी कलम से ही अमीर नहीं थे,बोलने में भी उनका कोई सानी नहीं था। किसी भी विषय पर धाराप्रवाह बोल सकते थे। किसी रैली या सभा में वह ऐसे बोलते जैसे उनके भीतर आग की तपिश छिपी सो रही थी। सिर्फ़ उनके छोटे शरीर और दुबली-पतली काया को जगाने भर की देर होती। वह बुलन्द आवाज़ में बोलते। उस समय वह कोई दूसरे मुद्राराक्षस होते। उनकी कोशिश होती कि अपने ओजस्वी भाषण से श्रोताओं को झकझोर दें। इस प्रक्रिया में उनकी अपनी भुजाएँ भी फड़कने लगतीं। साहित्यिक संगोष्ठियों में भी उनकी तक़रीर कुछ अलहदा दिखने की होती। एक दफ़ा मेरे आग्रह पर हिन्दी दिवस के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में हमारे बैंक के प्रशिक्षण केन्द्र में आये। हमारे बैंक के अधिकारियों का अनुमान था कि वह एक हिन्दी लेखक के तौर पर हिन्दी के प्रचार-प्रसार पर बोलेंगे। बहुत होगा तो बैंक के कामकाज में हिन्दी के कम इस्तेमाल पर बात करेंगे । लेकिन उनका पूरा वक्तव्य नई आर्थिक नीति में बैंक की भूमिका पर केन्द्रित रहा जिसे उन्होंने बैंक की पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग करते हुए रेखांकित किया। उन्होंने साफ़ शब्दों में वर्ष 1992 में कहा था कि भारत सरकार ने विश्व व्यापार संगठन के साथ जो नया समझौता किया है,उसका असर आने वाले दिनों में किसानों पर देखने को मिलेगा और किसान आत्महत्याएँ करेंगें। हमारे बैंक के अधिकारी उनके वक्तव्य से चमत्कृत थे। अपने ऐसे कारनामों से चमत्कृत करने में उन्हें आनन्द आता था। हालाँकि वह ऐसे चमत्कार करके तत्क्षण भूल जाते थे। अगले दिन कोई नया चमत्कार करने के लिए कमर कस लेते थे। मुद्राराक्षस कथाकार अमृतलाल नागर का बहुत सम्मान करते थे। कम लोग जानते होंगें कि अपने छात्र जीवन में वह नागर के आशुलेखक भी थे। नागर जी बोलते थे और मुद्रा जी उनकी रचनाओं को लिखते थे। मुद्राजी ने लखनऊ दूरदर्शन के लिए नागर जी के उपन्यास “अमृत और विष” उपन्यास का धारावाहिक रूप में निर्देशन भी किया था। लखनऊ की गलियों का उसमें फिल्मांकन अत्यन्त प्रभावी था। बाद में नागर जी के प्रति वह क्रिटिकल हो गये थे। कुँवरनारायण के बारे में मुद्रा जी कहते थे कि उन्हें संस्कृत काव्यशास्त्र का ज्ञान है लेकिन उन्होंने इस ज्ञान का अपेक्षित उपयोग नहीं किया। लखनऊ के उर्दू लेखकों से भी उनकी गहरी सोहबत थी। श्रीलाल शुक्ल के लेखन को वह बहुत सराह नहीं पाते थे लेकिन उनके यहाँ अक्सर मयनोशी के लिए चले जाते थे।

दिल्ली के दिनों की अक्सर चर्चा करते थे। मेरी पत्रिका “अन्तर्दृष्टि” के लिए उस पर एक संस्मरण भी लिखा था। साम्प्रदायिकता के खिलाफ़ वह बेहद मुखर थे। जिन दिनों राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद का उन्माद चल रहा था,उन दिनों साम्प्रदायिकता के खिलाफ उनकी आवाज़ में तेज़ाब और बढ़ गया था। एक प्रसंग को बताने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहने पर कट्टर हिन्दूवादियों के उत्साह का ठिकाना नहीं था। रात में ऐसे घरों पर मोमबतियाँ और दिए जल रहे थे। पड़ोसी कथाकार मित्र अखिलेश हम समाज में ऐसी प्रवृति देखकर चकित और दुखी थे। हम दोनों ने सोचा कि कहीं मुद्राजी को चिढाने के लिए कोई हुडदंगी परेशान न कर रहा हो,हम उस रात उनके घर गये। उन दिनों वह ऐसे प्रसंगों का उल्लेख करते रहते थे। उनके घर में अँधेरा छाया हुआ था लेकिन शरारती तत्त्व बाज़ नहीं आये थे। उन्होंने उनके घर के सामने मोमबत्ती जला कर रख दी थी। हम दोनों बत्ती बुझा कर चले आये।

मुद्राजी इन्दिरा नगर में किराये के मकान में रहते थे। मकान मालिक उनसे मकान खाली करने के लिए बराबर आग्रह कर रहा थ। वह मकान न छोड़ने के लिए अनेक तरकीबें अपना रहे थे। उनके पास पुराने लखनऊ स्थित अपने जीर्ण-शीर्ण पैतृक मकान के अलावा कोई छत न थी। आखिरकार मुकदमा वह हार गये। उन्हें फिर अपने पैतृक मकान जाना पड़ा। मुद्रा जी एक अच्छी ज़िन्दगी जीने के शौक़ीन थे। उनका इन्दिरा नगर स्थित घर आधुनिक बोध से अलंकृत था। दुर्विजय गंज में घर में ऐसी सजावट की गुंजायश भी नहीं थी। मैं उनसे इस घर में मिलने गया तो इन्दिरा भाभी ने कारुणिक स्वर में बताया कि इस घर के भीतर एक कमरे की चिनाई उन दोनों ने मिलकर की थी। यहाँ बताना सुखद है कि मुद्रा जी ने प्रेम विवाह किया था। इन्दिरा जी नाटक में अभिनय करती थीं। तबादले के कारण लखनऊ मुझसे छूट गया था।

मित्रों से पता चलता कि अपने आख़िरी दौर में मुद्रा जी धर्मग्रन्थों के पुनर्पाठ और उसमें स्त्री,दलित और जातीय भेदभाव को प्रखरता से राष्ट्रीय सहारा अखबार के अपने नियमित स्तम्भ में रेखांकित कर रहे थे। इस दौर में उनकी लोकप्रियता में असीम विस्तार हुआ। इसी तुलना में उनके विरोधियों की संख्या में भी इज़ाफ़ा हुआ। वे इन सबसे निस्पृह रहकर अपनी वैचारिक धार को हर दिन और तेज करते रहते। मुझसे उनकी आख़िरी मुलाक़ात मेरे पिता जी की पुस्तक “सत्यनाम सम्प्रदाय और जगजीवन दास” पुस्तक के विमोचन के अवसर पर बाराबंकी में हुई थी। उनसे और कुँवर नारायण जी से अपनी कोई किताब विमोचित कराने की मेरी इच्छा थी। कुँवर जी ने अँग्रेज़ी कविताओं के अनुवाद की मेरी पुस्तक का विमोचन दिल्ली में किया था। मुद्रा जी से मुझे अपनी किसी किताब को विमोचित कराने का सुअवसर नहीं मिला। लेकिन मेरे पिताजी की किताब को विमोचित करके एक तरह से मेरे मन की एक अधूरी साध को उन्होंने पूरा कर दिया था। इस कार्यक्रम में मुद्राराक्षस के साथ,वीरेन्द्र यादव,डॉक्टर सुभाष राय,ओर कवि आलोचक चन्द्रेश्वर उपस्थित थे। मुद्राजी अपनी उसी ओजिस्वता से बोले थे। लगता था कि बाराबंकी में पहली बार उनके आने और आख़िरी बार मिलने का चक्र पूरा हो गया था। उनकी काया अत्यन्त क्षीण हो गयी थी। वह अपनी सेहत के प्रति पहले भी कोई सचेत नहीं थे लेकिन बाद में कुछ और अधिक अराजक हो गये थे। दूसरे,नियमित आय का साधन न होने के कारण आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। उनकी आख़िरी यात्रा में लखनऊ का सांस्कृतिक समाज उमड़ पड़ा। अफ़सोस ! हमारा हिन्दी समाज अपने एक खुद्दार और प्रतिभाशाली लेखक को एक अच्छी छत न दे सका।