एक सितारे की निर्माण प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 21 सितम्बर 2013
आज सुशांत सिंह राजपूत चर्चा में हैं, क्योंकि अभिषेक कपूर की 'काइ पो छे' की सफलता के बाद आदित्य चोपड़ा ने उन्हें तीन फिल्मों के लिए अनुबंधित किया है, जिनमें शेखर कपूर की 'पानी' भी शामिल है। उनके चर्चा में होने का एक कारण यह भी है कि उन्होंने दर्जनों प्रस्ताव अस्वीकृत किए हैं, जिनमें कुछ नामी फिल्मकारों के भी हैं। फिल्म क्षेत्र में अस्वीकृत फिल्मों की संख्या बहुत महत्वपूर्ण है, जिसका अर्थ यह है कि कलाकार के पास अपना दिमाग है और वह सोच-समझकर आगे बढ़ रहा है। अनेक कलाकार पहली सफलता के बाद दर्जनभर फिल्में अनुबंधित कर लेते हैं और अपनी एकाग्रता खो देते हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात सुशांत के बारे में यह है कि 'पवित्र रिश्ता' नामक सीरियल से उन्हें लोकप्रियता मिली तथा अनेक प्रस्ताव भी आए, परंतु उन्होंने अमेरिका जाकर फिल्म अभिनय प्रशिक्षण का कोर्स किया। सीखने की यह ललक ही व्यक्ति को सफल प्रवाह के विपरीत दिशा में तैरने का साहस देती है। मनुष्य को भेड़ बनाने के लिए अनेक शक्तियां सक्रिय रहती हैं और भेड़ बनने से इनकार करना ही चरित्र के लोहे को अभिव्यक्त करता है।
सुशांत सिंह राजपूत ने अपना कॅरियर रंगमंच से प्रारंभ किया और एक नाटक में उनके अभिनय के कारण उन्हें 'पवित्र रिश्ता' नामक सीरियल मिला। जल्दी ही उन्हें समझ में आ गया कि सीरियल के प्रारंभिक एपिसोड चरित्र निर्माण के होते हैं और कथा भी रोचक होती है, परंतु शीघ्र ही कथा को रबर की तरह खींचने की प्रक्रिया में अभिनेता को थका दिया जाता है। टेलीविजन में प्रतिदिन कार्य का भरपूर पैसा मिलता है और लोभ आपको अपने व्यक्तिगत विकास के बारे में सोचने का अवसर ही नहीं देता तथा कुछ ही दिनों में आपके पास 'स्टॉक एक्सप्रेशन' हो जाते हैं और मशीनवत काम होने लगता है। मनुष्य धीरे-धीरे भावाभिव्यक्ति की डुप्लीकेटिंग मशीन हो जाता है और 'एक्सप्रेशन' दोहराए जाते हैं।
धन्य हैं रामकपूर और साक्षी तंवर, जो स्वाभाविक कलाकार हैं, परंतु हजार एपिसोड में एक-से एक्सप्रेशन देकर भी वे थके नहीं हैं। उनकी ऊर्जा को सलाम। यह संभव है कि ये दोनों कलाकार जब सो रहे हों, तो 'एक्शन' सुनते ही नींद में अपने संवाद बोल सकते हैं। इसी को कहते हैं 'स्लीपिंग थ्रू ए रोल'।
बहरहाल, सुशांत ने स्वयं को थकने से अभी तक बचाए रखा है और फूंक-फूंककर वे कदम रख रहे हैं। यह उन्हें लंबी पारी खेलने की ताकत देगा। घूम-फिरकर बात इसी सिद्धांत पर टिकती है कि धन उपार्जन अपने में कोई मायने नहीं रखता, वह हमेशा गुणवत्ता के काम का बॉय प्रोडक्ट है। आप अपने काम लगन और एकाग्रता से करें, सफलता और धन अपने आप आ जाएंगे। सुशांत स्वीकार करते हैं कि आज टेलीविजन अधिकतम लोगों तक पहुंच रहा है और उसमें खूब धन भी है, परंतु सिनेमा की विविधता और काम से संतोष प्राप्त करना टेलीविजन में संभव नहीं है।
यह गौरतलब है कि क्या मनुष्य को भेड़ में बदलना या मनुष्य को मशीन में बदलना एक ही घिनौने षड्यंत्र के दो चेहरे हैं? क्या सत्य की खोज के ये दो रास्ते कहीं मिलते भी हैं? आज के युवा की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा उसे भीड़ या भेड़ बनने की आज्ञा नहीं देती। उनके लिए जीवन की सारी गहरी बातें और दर्शन केवल उनके लक्ष्य प्राप्त करने में समाहित हो जाता है। आमिर, सलमान और शाहरुख ने अपने प्रारंभिक दौर में अनेक फिल्में अनुबंधित कीं और उन्हें यह जानने में समय लगा कि कम काम एकाग्रता से किया जाए। दिलीप कुमार ने तो प्रारंभ से ही केवल गुणवत्ता को साधा। इसका यह आशय नहीं कि सुशांत दिलीप कुमार की श्रेणी के हैं, परंतु उन्होंने अपने प्रलोभन पर हमेशा नियंत्रण रखा है। आज के युवा को भरमाने या रेजीमेंटेशन करने के लिए अनेक शक्तियां सक्रिय हैं, परंतु वह अर्जुन की तरह केवल मछली की आंख देख रहे हैं। साथ ही जीवन के स्वयंवर में जीती अपनी द्रोपदी बांटने के लिए तैयार नहीं हैं।