एक सिपाही की मौत / आलोक कुमार
मेरी साँस धौंकनी-सी चल रही थी। आज उस्ताद ने ग्राउंड के पूरे पाँच चक्कर लगवाये थे। ये मेरी आर्मी ट्रेनिंग का आखिरी हफ्ता था। उसके बाद चार सप्ताह की छुट्टी और फिर सीधे यूनिट में पोस्टिंग।
कसम परेड के दौरान मैंने परेड में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था।
"द मोर यू स्वेट इन पीस द लेस यू ब्लीड इन वार" कमांडिंग ऑफिसर का अंतिम भाषण मेरे कानों में गूंज रहा था। "आज से तुम लोग 'मेन इन यूनिफॉर्म' हो। शेर की ज़िंदगी और शेर की मौत। सबको नसीब नहीं होती ये"। सीओ साहब की आवाज़ परेड ग्राउंड में धमक पैदा कर रही थी। उनकी आवाज़ की धमक थी या फिर मेरे अंदर का जुनून, मेरे रोंगटे खड़े हो रहे थे।
छुट्टी के तुरंत बाद मैंने यूनिट जॉइन कर लिया। सुबह पीटी से शुरू होकर रात के नाईट रॉल कॉल (रात की गिनती) तक लगभग व्यस्त ही रहता था। जब काम ज़्यादा होता तो मैं अपने कमांडिंग ऑफिसर की बात याद करता-"द मोर यू स्वेट इन पीस द लेस यू ब्लीड इन वार" और दूने उत्साह से मैं दिये गये टास्क को पूरा करता। समय तेजी से बीत रहा था और मैं अपने ऑन जॉब ट्रेनिंग में पूरी तल्लीनता से लगा था।
एक दिन नाईट रॉल कॉल के बाद ड्यूटी बँटवारे के समय ड्यूटी एनसीओ ने कहा कि कल तुम सीओ साहब के यहाँ चले जाना। सामान्य-सी उत्सुकता में मैंने पूछा-"सीओ साहब के यहाँ किस लिये सर"।
'कल तुम्हारी हेल्पर ड्यूटी है। साहब का हेल्पर छुट्टी पर गया है'। उनका स्वर बेहद सपाट था।
कुछ समझा, कुछ नहीं समझा मैंने। लेकिन ज़्यादा माथापच्ची किये बगैर "जो होगा देखा जायेगा" सोचकर चुप ही रहा।
सुबह सवेरे मैं साहब के बँगले पर पहुँच गया। डोर बेल बजते ही सीओ साहब ने गेट खोला। उनींदे से स्वर में बोले-आ गए तुम।
'यस सर'। पूरे सावधान की मुद्रा में था मैं।
"रिलैक्स। तो आज तुम आए हो। तुम तो नए रिक्रूट लग रहे हो"। सीओ साहब ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा।
'यस सर'। मैं रिलैक्स होने के बावजूद तना हुआ था।
'कोई बात नहीं। आज पूरा काम ठीक ढंग से समझ लो, फिर कल से ख़ुद ब ख़ुद कर लेना'। सीओ साहब थोड़ा ठहरे और फिर बोले 'सबसे पहले अंदर जाकर शू रैक से सारे जूते लेकर उसे ठीक से पालिश करके रख दो। फिर यूनिफॉर्म प्रेस करके बेल्ट और कैप के सारे मेटल को ब्रासो से चमका दो। कोई शक'। एक सांस में ही पूरी बात बोल गए वो।
'नो सर'। मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया।
यस सर-नो सर की तो ट्रेनिंग थी मेरी, लेकिन मन पूरी तरह उधेड़बुन में रहा। सीओ साहब के सामने मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कुछ बोलने की। लेकिन मन के अंदर भावों का आवेग हिलोरें ले रहा था। "शू पालिश" वह भी किसी और का। ये बात मुझे पच नहीं रही थी। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि फ़ौज में मुझे किसी के घर में काम करने को बोला जाएगा। अपने जूते चमकाने की तो आदत थी मेरी, लेकिन सीओ साहब के जूते।
मैं अभी तक अपने विचारो के झंझावात से जूझ ही रहा था कि सीओ साहब फिर से बोल पड़े-मैडम घर में रहेंगी, आगे का काम वही बताएँगी। तुम नए हो, इसलिए आज पूरा काम बताया। कल से इसी वक़्त आ जाना और ये सारा काम कर लेना।
सीओ साहब काम बताकर अंदर जा चुके थे। एक बार पूरी हिम्मत लगाकर मैंने सोचा कि बोल देते हैं कि सर मुझसे ये काम नहीं होगा, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी। जिन सीओ साहब को मैंने इतने नज़दीक से पहली बार देखा था, उनके सामने उन्हीं के आदेश की अवहेलना, बहुत हिम्मत जुटाकर भी नहीं कर पाया मैं। धीरे से जाकर यूनिफॉर्म प्रेस करने लगा। मैं वक़्त लेना चाह रहा था कि शायद कुछ हो और मुझे जूता पालिश न करना पड़े। यूनिफॉर्म प्रेस करके मैं मेटल चमका ही रहा था कि सीओ साहब उधर से निकले और बोल पड़े, 'अभी तक शू पालिश नहीं किये हो'।
मेरी रही सही आशा भी जवाब दे गई। आसन्न भविष्य के संकट को मैं और आगे धकेलना चाहता था, इस आशा में कि कोई करिश्मा शायद मुझे ये करने से बचा ले। लेकिन सीओ साहब के फिर से दुहराये गए आदेश ने मेरी रही सही आशा पर भी पानी फेर दिया। हताशा में मेरे मुंह से बस इतना ही निकल पाया, "सर ये जूता... मैं... पालिश करूंगा?"
सीओ साहब मुड़ के बोले, "क्या? कुछ कहा क्या तुमने" ?
रूह तक काँप गई मेरी। घिग्घी बंधे हुए स्वर में बोला, 'नहीं सर'।
सीओ साहब दुबारा बोले, 'कुछ प्रोब्लेम है तो बताओ'।
'नहीं सर कुछ नहीं'। सांसें थम-सी गई मेरी। मैंने बिना कुछ सोचे जूता उठाया और पालिश करने लगा।
घर से निकलते वक़्त सीओ साहब बोलकर गए कि अभी जाकर मेस में नाश्ता कर लो फिर नौ बजे इधर ही आ जाना।
मेस की ओर जाते वक़्त ऐसा लग रहा था मानो मेरा सब कुछ लुट गया हो। जाकर सीधे अपने बेड पर ढेर हो गया। न खाने की इच्छा हो रही थी और न ही कुछ करने की। विचारों का झंझावात चल रहा था मेरे मस्तिष्क में। मेरे सोचने-समझने की शक्ति मानो किसी ने छीन ली थी। बार–बार घूम कर जूता मेरे सामने आ जाता था। मन को वहाँ से दूर करना चाहता था लेकिन मन बार-बार वहीं जाकर अटक जाता था। बिना नाश्ता किए ही मैं ऑफिस की ओर चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर मैं जल्द से जल्द कंपनी हवलदार साहब से मिलना चाह रहा था।
ऑफिस में कुछ देर इंतज़ार के बाद मुझे हवलदार साहब दूर से आते दिखाई दिये। लपक कर मैं उनके पास पहुँचा।
"जय हिन्द सर।"
"जय हिन्द।" गंभीर-सी आवाज़ में बोले वो।
"सर मुझे आपसे कुछ बात कहनी है।"
"हाँ बोलो।"
"सर, दरअसल मैं आज सीओ साहब के यहाँ गया था।" कुछ देर के लिए मैं साँस लेने के लिए रुका और अपने आपको आगे की बात बताने के लिए तैयार करने लगा। ।
"हाँ-हाँ बोलो"। हवलदार साहब बोल पड़े।
"सर मुझे वहाँ काम नहीं करना है"। बिना बात को विस्तार दिये मैं सीधे मुद्दे पर आ गया।
"क्यों, क्या प्रोब्लेम है वहाँ" ? हवलदार साहब मेरी इस धृष्टता पर थोड़े अचंभित हुए थे।
'कुछ नहीं सर। बस ठीक नहीं लगा वहाँ' ... मेरा स्वर फिर से सपाट था।
हवलदार साहब अनुभवी इंसान थे। बात को भाँप तो गए लेकिन अनभिज्ञ बने रहे।
बोले-"बेटा यहाँ अपने हिसाब से नहीं, फ़ौज के हिसाब से काम करना पड़ता है"।
"वो तो ठीक है सर, लेकिन किसी के घर में काम करना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है"। मैं बेधड़क बोल रहा था।
इस बार हवलदार साहब ने घूर कर देखा मुझे।
बोले-"फिर कहाँ काम करोगे तुम? रोड पर चूना लगाओगे। ऑफिस के गार्डेन में पानी डालोगे। बोलो-कुछ तो करोगे और हाँ... वहाँ तुम काम नहीं करोगे तो दूसरा कौन करेगा? अगर सभी यही बोलने लग जाएँ तो फिर सीओ साहब के यहाँ तो कोई काम ही नहीं करेगा। तुम बताओ क्या मैं सीओ साहब को बोल दूँ कि कोई आपके यहाँ काम नहीं करने को तैयार नहीं है। उसके बाद पता है अनुशासनहीनता के नाम पर पूरी यूनिट परेड ग्राउंड पर नज़र आएगी। मैं तुम्हें इतना इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि मुझे ख़ुद तुम्हें वहाँ भेजना अच्छा नहीं लगता, कोई दूसरा कंपनी हवलदार होता तो तुम अभी पिट्ठू लगाकर दौड़ रहे होते। तुमसे बड़ा हूँ, 24 सालों से आर्मी में हूँ। सब ऊँच-नीच देखी है मैंने। कुछ दिनों की बात है। एक बार सीनियर हो जाओगे फिर वहाँ कोई और चला जाएगा और हाँ, एक बार उधर सेट हो गए तो फिर कोई ड्यूटी नहीं करनी पड़ेगी। राजस्थान सैक्टर में जाओगे तो 50 डिग्री टेंपरेचर में बाहर काम करना पड़ेगा। तब तुमको यही ड्यूटी आसान लगेगी"। हवलदार साहब तो मानो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। एक साथ अपना सारा अनुभव उन्होंने मेरे सामने उड़ेल दिया।
"नहीं सर बिलकुल नहीं"। हवलदार साहब की बात ख़त्म होने का इंतज़ार नहीं कर सका मैं। जल्दी से दुबारा बोल पड़ा। "कितना भी कठिन काम कर लूँगा सर, पर ये काम मत करवाइए"।
हवलदार साहब के माथे पर बल पर गया। कुछ सोचते हुए बोले-ठीक है एक दो दिनों तक अभी वहीं काम करो फिर देखते हैं।
इतना आश्वासन मिलने पर थोड़ी देर के लिए राहत महसूस की मैंने।
ब्रेकफ़ास्ट के बाद मैं बुझे मन से सीओ साहब के घर पहुँच गया। देखा कि सीओ साहब जा चुके थे। मैडम घर के अंदर काम में व्यस्त थी।
"जय हिन्द मैडम। सीओ साहब बोले थे कि नाश्ते के बाद आपके पास आ जाऊँ"।
अच्छा तो तुम नए हो।
"यस मैडम" धीरे से बोल पड़ा मैं।
'ठीक है थोड़ा गार्डेन में पानी-वानी दे दो फिर अंशु को स्कूल छोड़ देना और हाँ लौटते समय सब्जी का लिस्ट दूँगी वह लेते आना'।
प्रत्येक बीतते पल के साथ मेरा आत्मविश्वास डिग रहा था। हीन भावना से ग्रसित एक-एक पल मेरे लिए दूभर हो रहा था। लंच तक एक घरेलू नौकर की तरह मैं मैडम के हुक्म की तामील करता रहा। लंच के समय मैडम बोली-अब शाम में एक बार आ जाना अगर कुछ काम नहीं होगा तो पूछकर चले जाना और हाँ अगर कोई दूसरा कुछ काम बोले तो बता देना कि सीओ साहब के यहाँ हेल्पर हैं। बाहर कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। कोई कुछ बोले तो मुझे बताना। मैडम गर्वोन्नत भाव से मुझे समझा रही थी कि यहाँ काम करोगे तो और किसी तरह के काम या ट्रेनिंग की ज़रूरत नहीं है।
उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाया। भोर को जब नींद आई तो देखता हूँ कि सीओ साहब एक तांगे पर बैठे हैं। ये क्या! तांगे में कोई घोडा नहीं लगा है। सीओ साहब बोलते हैं कि इस तांगे को खींचो। मैं असमंजस में उनकी ओर देखता हूँ। खींचो... मुझे लगा जैसे परेड ग्राउंड में उस्ताद की आवाज़ गूंजी हो। यंत्रवत मैं तांगे को खींचने की कोशिश करता हूँ। तांगा टस से मस नहीं होता है और ज़ोर से... पीछे से फिर वही आवाज़ गूँजती है। अपना सारा ज़ोर लगा देता हूँ पर वह तांगा तो जैसे अपनी जगह पर जैसे जम-सा गया है। पसीने से तर बतर मैं चिल्लाना चाहता हूँ कि तभी मेरी नींद खुल जाती है। बैरक में पंखे के नीचे भी मेरे पसीने निकल आए हैं। "द मोर यू स्वेट इन पीस द लेस यू ब्लीड इन वार।" मन झल्ला उठा मेरा, सीओ साहब यही पसीना बहाने की बात कर रहे थे।
'सुबह फिर सीओ साहब के यहाँ ही जाना है' , ये सोचकर ही मेरे पेट में एक अजीब-सी ऐंठन शुरू हो गई। कंपनी हवलदार साहब ने बोला है कि एक दो दिन देख लो, फिर देखता हूँ। ये सोचकर थोड़ी तसल्ली हुई।
आज सीओ साहब के यहाँ मेरा चौथा दिन था। अभी तक दूसरा कोई लड़का मेरे बदले नहीं आया था। शाम को ड्यूटी से वापस आते ही मैं हवलदार साहब से मिलने चला गया। मुझे देखते ही हवलदार साहब बोल पड़े-आओ-आओ, बताओ कैसी चल रही है तुम्हारी ड्यूटी।
बिना किसी प्रस्तावना के मैं सीधे बोल पड़ा-'सर अभी तक मेरे बदले कोई नहीं आया है वहाँ'।
हवलदार साहब बोले-बैठो... मैंने टू-आई-सी (सीओ के बाद का सीनियर अधिकारी) से बात की थी। लेकिन उनका कहना है कि अगर एक को हटाएँगे तो सभी बोलेंगे कि हमें भी ये काम नहीं करना है। फिर बहुत प्रोब्लेम होगी। इसलिए अभी तो उसे करने दो, बाद में देखते हैं। सीओ साहब को बात पता लगेगी तो वह बोलेंगे कि ये छोटी-मोटी बातें भी तुमलोगों से नहीं संभल पाती है।
उस शाम जब मैं घर पर बात कर रहा था तो मैंने पिताजी को कहा कि मुझे आर्मी की नौकरी नहीं करनी है। पिताजी को सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। वह बोले-क्या बोल रहे हो बेटा... आजकल बड़े भाग्य से सरकारी नौकरी लगती है और तुम ये क्या बोल रहे हो? घर की सोचो। किसानी में आजकल कुछ बचता नहीं है। ऊपर से दो-दो जवान बहन है घर में। अब तो तुमने कठिन वक़्त गुजार लिया है। ट्रेनिंग के दौरान कुछ कठिनाई होती है, पर अब तो तुम्हारी ट्रेनिंग ख़त्म हो चुकी है। अब क्या प्रोब्लेम है।
'पिताजी... दरअसल बात ये है कि आप लोगों की बहुत याद आती है'। बड़ी सफ़ाई से झूठ बोल गया मैं। 'लगता है नौकरी छोड़ कर वहीं आप लोगों के पास आ जाएँ'।
'ऐसे नहीं बोलते बेटा' ... बाबूजी की आवाज़ में अधीरता झलक रही थी। 'भगवान की दी हुई चीजों का सम्मान करना चाहिए। कुछ दिन में सब ठीक हो जाएगा। फिर तुमको वहीं मन लगेगा। यहाँ की हालत तो तुमने देखी है। एक भाई तो खेती में लगा ही है। फिर एक ही ज़मीन से कितनों का गुज़ारा होगा'।
मुझे लगा... अभी बात करने का ज़्यादा फायदा नहीं है। मैंने बात का रुख दूसरी ओर मोड़ दिया। बोला... ठीक है होली में आएंगे फिर बात करेंगे।
दिन बीतते जा रहे थे। रोज़ सुबह सही वक़्त पर सीओ साहब के यहाँ पहुँच जाता और एक घरेलू नौकर की भांति अपने काम में जुट जाता। धीरे-धीरे ऐसा लग रहा था-जैसे मेरी आत्मा मरती जा रही थी। मेरे अंदर जोश और जुनून की जगह अब एक अजीब-सी उदासी ने ले ली थी। ख़ुद में ही खोया रहता मैं। महीने के अंत में पेमेंट मिलते ही पिताजी के अकाउंट में तीन चौथाई हिस्सा ट्रान्सफर कर देता और बाक़ी से अपना ख़र्च चलाता।
एक दिन अपने सीनियर ने पूछा-'और भाई कैसी चल रही है। तुम तो बड़े गुमसुम से रहते हो।'
'कुछ नहीं सर बस ऐसे ही'-बुझा-सा स्वर था मेरा।
'अरे यार फ़ौज में मौज करो, ज़्यादा सोचो मत'-सीनियर चहक रहा था।
'सर अगर मैं यहाँ से भाग जाऊँ तो क्या होगा?' मुझपर जैसे उनके सुझाव का कोई असर ही नहीं हुआ था।
सीनियर ने मेरी तरफ़ ऐसे देखा जैसे कोई अजूबा देख रहा हो।
बोले-'क्या प्रोब्लेम है भाई।'
'कुछ नहीं सर बस यहाँ अफसरों के घर में काम करना मुझे अच्छा नहीं लगता है'। मैं सचमुच उदास हो गया था।
सीनियर का चहकना बिलकुल बंद हो गया जैसे किसी ने उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो।
कुछ बोले नहीं बस मेरे हाथ पर उन्होंने अपना हाथ रख दिया।
'भाई अँग्रेज़ चले गए लेकिन अपनी औलादें यहाँ छोड़ गए'। उनका स्वर भी इस बार दुख से भींगा था।
फिर बोले-'लेकिन अब अगर भाग गए तो पुलिस पकड़ कर लाएगी। भगोड़ा घोषित करके सज़ा मिलेगी'।
'सर अगर मैं फ़ौज से इस्तीफा दे दूँ तो'। मैंने अपना दूसरा तीर छोड़ा।
अरे यार ये फ़ौज है, यहाँ एक तो तुम्हारा इस्तीफा मंजूर नहीं होगा और खुदा न खास्ते अगर हो भी गया तो ट्रेनिंग के एवज में इतने पैसे मांगेंगे कि तुम दे नहीं पाओगे।
वो रुके नहीं-आगे बोलते ही गए, 'भाई फ़ौज वन वे ट्रेफिक है। यहाँ लोग आते तो अपनी मर्जी से हैं लेकिन जाते फ़ौज की मर्जी से हैं। लेकिन ज़्यादा सोचने से कुछ नहीं होगा। आराम से बिना सोचे नौकरी करो। शाम में दारू पियो और सो जाओ'। उन्होंने अपना दर्शन या यों कहें कि अपना अनुभव हमसे साझा किया लेकिन मेरे मन को तसल्ली नहीं मिली।
होली की छुट्टी में घर आया तो सारा घर खुशियों से भर गया। सबके लिए मैं कुछ न कुछ लेकर आया था। सब खुश थे। मैं अपने मन की बात पिताजी से करना चाहता था लेकिन सभी इतने खुश थे कि मैं अपनी बात कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। गाँव में भी सब लोग मुझे आर्मी के बारे में पूछते तो मैं भरसक मुस्कराने की कोशिश करता और कहता-सब ठीक ठाक है। जल्दी ही बात का रुख किसी और दिशा में मोड़ देता। छुट्टियाँ ख़त्म होने को थी, लेकिन मैं अब तक इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाया कि किसी से अपना दर्द बयान कर सकूँ। मैं अपनी ख़ुशी के लिए घर में सबको गमगीन नहीं करना चाहता था। फिर ये बात दिमाग़ में आती कि अगर ये लोग मान भी गए तो आर्मी मुझे नौकरी छोडने नहीं देगी। अंत में बिना किसी को कुछ बताए मैं यूनिट वापस आने को तैयार हो गया। इस बार जब मैं छुट्टी से वापस आया तो आर्मी छोडने की बात अपने मन से निकाल आया था।
वापस आकर कुछ दिन तो सामान्य-सी दिनचर्या रही क्योंकि सीओ साहब के यहाँ कोई और जाने लगा था। मैंने सोचा चलो बला टली। लेकिन बकरे की माँ आख़िर कब तक खैर मनाती। एक सप्ताह के भीतर ही मुझे फिर से एक ऑफिसर के घर भेज दिया गया। इस बार मेरी ड्यूटी एक नए ऑफिसर के घर में लगी थी जिसकी नई-नई शादी हुई थी। उसकी पत्नी किसी ब्रिगेडिएर साहब की बेटी थी। बचपन से ही फ़ौजी माहौल में पली बढ़ी इस लड़की के लिए घर में काम करने वाले फ़ौजी भैया एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। इसे तो वह अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती थी। मैंने महसूस किया कि इससे अच्छा तो सीओ साहब का ही घर था। कम से कम उनकी वाइफ़ के बोलने का सलीक़ा तो ठीक था।
एक दिन तो तब हद ही हो गई जब बाथरूम से बाहर आते ही उसने फरमान सुना दिया कि आज बाथरूम में रखा कपड़ा धो देना। ऊपर से नीचे तक जैसे मेरा पूरा शरीर सुन्न हो गया। अपनी जगह से हिल भी नहीं पाया मैं। लेकिन दुबारा जब वही आवाज़ मेरे कानों में गूंजी तो मेरी चेतना वापस लौटी। अंदर का इंसान विद्रोह कर उठा।
बोला-'मेम साहब ये काम मुझसे नहीं होगा'।
मेम साहब को शायद ये गुमान नहीं था। जब से होश संभाला था, तब से सीनियर आर्मी ऑफिसर की बेटी बनकर ही ज़िया था उसने। कैंप में पापा के साथ जब भी निकलती, सामने की भीड़ डरे सहमे हुए कुत्तों की भांति पूंछ दबाये उनके पापा को सलाम करती थी। उसे तो उस तरफ़ देखने की आदत भी नहीं थी। हाँ एक बार जब पापा ने किसी सिपाही को सल्युट नहीं देने के कारण दंडित किया तो उसे पता चला था कि ये लोग इतना क्यों डरे रहते हैं। घर में भी अनुभवी फ़ौजी भैया से ही उनका पाला पड़ा था। आज पहली बार किसी अनुभवहीन अक्खड़ सिपाही को उसने आदेश की अवहेलना करते सुना था तो सिर से पाँव तक आग लग गई। सोचा-'क्या इज़्ज़त रह गई मेरी' , जब इस टुच्चे से सिपाही ने साफ़ मना कर दिया।
बोली-'जो बोला सो करो ज़्यादा बात बनाने की ज़रूरत नहीं है'।
मैडम के चेहरे पर आए एक पल के फीकेपन ने मेरी हिम्मत थोड़ी बढ़ा दी थी।
बोला-'नहीं मैडम ये काम मुझसे नहीं होगा'।
मैडम शायद अब तक गुस्से पर नियंत्रण कर रही थी, लेकिन इस बार के जवाब से वह आपे से बाहर हो गई। बोली-'गेट आउट ऑफ माइ हाउस। अभी के अभी बाहर निकलो। आउट...'।
मैं भी बिना कुछ बोले वहाँ से बाहर आ गया।
रात को नाइट रोल कॉल के बाद मुझे बताया गया कि अभी तुरंत ऑफिसर मेस जाना है। आने वाले संकट की आशंका से मेरा मन सिहर गया।
एक बार मैंने कहा ... 'सर, कल सुबह चले जाएंगे, अभी रात में जाकर क्या होगा' ?
'फॉलो द ऑर्डर अजय'। ... ड्यूटी एनसीओ गुस्से से चिल्ला उठा।
मैं बिना कुछ बोले वहाँ से निकलकर ऑफिसर मेस की तरफ़ चल पड़ा। मेस के बाहर ही मुझे अपनी यूनिट के चार नए ऑफिसर दिखाई दिये। उनमें से एक वह भी था जिसके यहाँ मैं काम करने जाता था। नज़र मिलते ही उनमें से एक ने मुझे अपने पीछे आने का इशारा किया। अब हम पांचों एक ही कमरे में थे। ये कमरा उनमें से ही किसी बैचलर ऑफिसर का था। कमरे का दरवाज़ा बंद होते ही उनमें से एक बोल पड़ा—'और हीरो, कैसे हो' ?
"हीरो" ...इस सम्बोधन से थोड़ा अकचका गया मैं, लेकिन अपने को नियंत्रित कर बोला ... 'ठीक हूँ सर'।
'बड़ी चर्बी चढ़ गई है तुम्हारी। बहुत दिनों से पिट्ठू परेड नहीं हुआ है क्या' ? दूसरा ऑफिसर बड़े ही सर्द स्वर में बोला।
'नहीं सर ऐसी कोई बात नहीं है'। दबी ज़ुबान में मैं बस इतना ही बोल पाया।
"देन हाउ डेयर यू मिसबिहेव वीथ एन ऑफिसर्स वाइफ़।" ... तीसरी कड़कती आवाज़ मेरे कानों में गूँजी।
अंदर तक हिल गया मैं। बस इतना ही बोल पाया... 'नहीं सर मैंने तो कुछ भी नहीं किया है'।
'आगे अब करने लायक रहोगे भी नहीं' ... फिर से चौथी गुर्राती आवाज।
जहाँ एक ही ऑफिसर दूर से आते दिखता था तो जवानों की भीड़ ऐसे सतर्क हो जाती थी जैसे शेर की आहट से भेड़ का झुंड सावधान हो जाता है। "वहाँ अकेला मेमना चार-चार शेरों के बीच " घिघिया भी नहीं पा रहा था मैं।
उनमें से एक अंत में बोला ... 'यार इससे बात क्या करनी है। अभी मिलिटरी पुलिस को बुलाओ और इसको हैंड ओवर करो। दो दिन छुट्टी है। क्वार्टर गार्ड में बंद रहेगा फिर मंडे देखते हैं कि क्या पनिशमेंट देनी है'।
'लेकिन अभी चार्ज क्या लगाए'। दूसरे ने शंका जाहिर की।
कुछ नहीं यार एक कमिसंड ऑफिसर एक सिपाही को कभी भी बंद कर सकता है। मंडे को डिसोबीडिएन्स का चार्ज लगेगा इसपर।
तुरंत दो पुलिस वाले आए और मुझे क्वार्टर गार्ड में बंद कर दिया।
मेरी साँस धौंकनी-सी चल रही थी। रात भर क्वार्टर गार्ड में बंद मैं क्रोध और अपमान से जल रहा था। देश की सरहद का निगहबान आज अपनी अस्मत नहीं बचा पा रहा था। जिसकी ख़ुद की इज्ज़त न हो वह किसी और की इज्ज़त क्या बचाएगा। क्रोध और अपमान का दावानल जैसे मेरी देशभक्ति के जज्बे को धीरे-धीरे जला रहा था। क्वार्टर गार्ड के अंदर पंखा नहीं था लेकिन आज शायद मेरे अंदर की आग इतनी दहक रही थी कि मुझे पता नहीं चल रहा था कि पसीना बाहर की गर्मी से है या अंदर की गर्मी से। "द मोर यू स्वेट इन पीस द लेस यू ब्लीड इन वार" कमांडिंग ऑफिसर का अंतिम भाषण मेरे कानों में गूंज रहा था। आज से तुम लोग 'मेन इन यूनिफ़ोर्म' हो। "शेर की ज़िंदगी और शेर की मौत"। सबको नसीब नहीं होती ये।
सच में ये ज़िंदगी तो नसीब वालों को ही मिलती है।
सोमवार को मेरा चार्ज सीट दाखिल हुआ और एक सप्ताह तक चले ट्राइल के बाद मुझे 28 दिन तक सेल में बंद रहने के सजा मिली। सिस्टम से लड़ना सबके बस की बात नहीं है। 28 दिन तक सेल में क़ैद रहकर मैंने फ़ौज की कड़वी सच्चाई को बेहद करीब से देखा था। दमन के सैकड़ों किस्से जो यूनिट के इतिहास में दफन हो चुके थे, इन 28 दिनों में मिलिटरी पुलिस द्वारा मेरी जानकारी में आए थे।
28 दिनों की ज़लालत के बाद मैं बाहर निकला। एक सप्ताह तक मुझे कहीं नहीं भेजा गया। मैं भी शांति और खामोशी से अपना जीवन बस काट रहा था। गाँव का सीधा, सच्चा और बहादुर नौजवान वीरता और देशभक्ति के जज़्बे को भूल चुका था। याद था तो बस इतना ही कि सिस्टम से अपनी ख़ुद की इज्ज़त भी नहीं बचा पाया। कैसी विडम्बना है, देश की इज्ज़त ऐसे हाथों में है, जिसकी ख़ुद की कोई इज्ज़त नहीं। अगर देश का सिपाही सोचने लगे कि "कोऊ नृप होए हमें का हानी, चेरी छाडि कहाब रानी" , तो देश की अस्मिता कौन बचाएगा?
आज पता चला कि परतंत्रता कितनी पीड़ादायक होती है। आर्मी मेरा इस्तीफा मंजूर नहीं करती और अंदर अफसरों की चाकरी मेरे स्वाभिमान को दिन रात कुचलती। चारों ओर से बंधन। उफ, घुटन-सी होने लगी मुझे।
गर्मियों के दिन थे। बार्डर पर हलचल बढ़ गई थी। उड़ती ख़बर थी कि कुछ घुसपैठिए बार्डर क्रॉस करके इस तरफ़ आ गए हैं। रोज़ किसी न किसी यूनिट के मूवमेंट की ख़बर आती रहती और फिर एक दिन जब मेरे यूनिट को मूव करने का आदेश मिला तो मेरे लिए ये किसी आजादी से कम नहीं था। मैं इस बहाने साहब के घर के काम से मुक्त हो गया था।
तंबुओं में जीवन आसान नहीं था, लेकिन मैं फिर भी खुश था। हथियार वगैरह की सफ़ाई दिन रात चलती, तरह-तरह के ड्रिल होते, इलाके का मैप समझाया जाता। कुल मिलाकर यूनिट में बड़ी हलचल थी। साहब का काम तो यहाँ भी करना पड़ता था लेकिन मेम साहब के नखरे नहीं थे।
एक दिन रात 11 बजे ख़बर आई कि आज एक टीम को सर्च मिशन पर जाना है। संयोग से मुझे भी उस टीम में लिया गया। रात 2.30 बजे हमारी टीम मिशन पर निकली। करीब 4.30 सुबह तक हमलोग जंगलों के रास्ते गुजरते रहे। मंज़िल पर पहुँचते-पहुँचते सुबह के 5 बज गए।
मेरी साँस धौंकनी-सी चल रही थी। खंदक में छुपा मैं अपने असोल्ट राइफल के साथ अगले आदेश की प्रतीक्षा कर रहा था। ट्रेनिंग की कमी का असर मेरे ऊपर दिख रहा था। इतनी चढ़ाई में ही मेरी सांस फूल गई थी। लगभग 6 महीने से मैं घरेलू नौकर की ज़िंदगी ही तो जी रहा था। तभी कुछ मूवमेंट-सा महसूस हुआ और कुछ लोगों के पास होने की आहट हुई। 'फायर' —ये आवाज़ सुनने भर की देर थी कि हमारे साथियों के गन ने गोलियाँ उगलनी शुरू कर दी।
तड़-तड़-तड़ के स्वर से पूरी घाटी गूंज उठी। घुसपैठियों में भगदड़ मच गई। इस अप्रत्याशित हमले से वे घबड़ा गए थे। इधर उधर तितर बितर होकर वे भागने लगे। हमारी टीम ने उनका पीछा करना शुरू किया।
थोड़ी दूर दौड़ने के बाद उन लोगों ने भी पोजिशन ले लिया और दोनों तरफ़ से फ़ाइरिंग शुरू हो गई। तभी मुझे एक घुसपैठिया एक तरफ़ मूव करता दिखा। मैंने गोली चला दी। लेकिन गोली सही निशाने पर नहीं लगी। अजीब-सी झल्लाहट में मैंने दूसरा फायर किया, लेकिन ये क्या, गोली फिर निशाने से चूक गई। ट्रेनिंग की कमी अपना असर दिखा रही थी। तब तक उसने दुबारा एक पेड़ की ओट में शरण ले ली। मैं अपना पोजिशन रिवील कर चुका था। मैंने अपनी ट्रेनिंग के दौरान लिया सबक याद किया। अब मुझे जल्द से जल्द अपना पोजिशन चेंज करना था। मैंने क्रोलिंग करना शुरू किया, लेकिन तभी एक ग्रेनेड हमारे सामने ही आ गिरा। मैंने अपना मुँह दूसरी ओर घुमाकर ज़मीन में ज़ोर से चिपका दिया। धमाका जोरदार था। मैं बुरी तरह घायल हो चुका था। मेरे दोस्तों ने मुझे कवर करते हुए दुश्मनों पर गोलियाँ दागनी शुरू कर दी। मेरे शरीर का निचला हिस्सा बुरी तरह घायल हो चुका था। तब तक मेरे दो साथी मुझे पीछे ले जाने को मेरे पास आए। मैं घायल होने के बावजूद गोलियाँ चला रहा था। तभी हमपर पीछे से भी फ़ाइरिंग शुरू हो गई। हमारी टीम पर अब दोनों तरफ़ से गोलियाँ चल रही थी। हमलोग शायद दुश्मन के ट्रेप में फँस चुके थे। हमारे ज़्यादातर साथी या तो घायल हो चुके थे या मारे जा चुके थे। एक बात हमारे पक्ष में ये गई कि हमारा रेडियो ऑपरेटर शहीद होने से पहले अपनी पोजिशन की जानकारी हमारे सपोर्टिंग टीम को दे चुका था। सौभाग्य से हमारी रिकवरी टीम पास में ही थी। उनके पास पहुँचते ही पासा फिर से पलट गया। दुश्मन की टोली में फिर से भगदड़ मच गई। घुसपैठिए या तो खेत रहे या भाग निकले। मैं अपने दोस्त के साथ घायल पड़ा था। घायलों की संख्या ज़्यादा थी, इसलिए एक बार में सबको ले जाना संभव नहीं था। मेरे दोस्त ने कहा-तुम पहले चले जाओ। लेकिन मैं किसी हालत में वहाँ से जाने को तैयार नहीं था।
वो बोला–'दोस्त तुम ज़्यादा घायल हो। तुम पहले चले जाओ'।
'देखो तुम्हारा जीना देश के लिए ज़्यादा ज़रूरी है'। बोलते हुए भी मैं दर्द से कराह रहा था।
'ऐसा क्यों बोलते-बोलते हो? तुम भी देश की संपत्ति हो'। उसके स्वर में एक दर्द था।
'नहीं दोस्त... मन का हारा आदमी किसी के काम का नहीं होता'। मेरे स्वर में अथाह वेदना थी।
'अगर तुम नहीं जाओगे तो मैं भी नहीं जाऊंगा। कम से कम यहाँ तुम्हारा खयाल तो रखूँगा'। उसने अपना फ़ैसला सुना दिया।
मैंने कहा-'तुम चले जाओ। मेरी परवाह मत करो'।
'एक सिपाही अपने दूसरे सिपाही को कैसे छोड़ सकता है'। उसकी आवाज़ तरल हो चली थी।
"सिपाही" ... "सोल्जर" ... हाँ यही तो था मैं। पर न जाने क्यों अपने लिए ये सम्बोधन मुझे अटपटा-सा लगा। सामने घूम गया-सीओ साहब का जूता, साहब का कुत्ता, मैडम की कड़कती आवाज, 28 दिन क्वार्टर गार्ड की सज़ा। क्या मैं सचमुच देश की सरहद पर मर मिटने वाला सिपाही था?
तभी साथी की आवाज़ ने मेरी तंद्रा भंग की।
'क्या सोच रहे हो भाई' ?
कुछ नहीं, बस यूँ ही। मैं कुछ बोल नहीं पाया।
मेरा खून ज़्यादा रिस चुका था और बार-बार मेरी पलकें बंद हुई जाती थी। मेरा साथी बहुत परेशान था। कभी अपने वॉटर बॉटल से मुझे पानी पिलाता, कभी आँख पर पानी के छींटे मारता।
वो बोला-तुम चिंता मत करो। मैं तुम्हें हॉस्पिटल पहुँचाने के बाद ही दम लूँगा।
मेरे शरीर का निचला हिस्सा सुन्न हुआ जाता था।
मैंने अपने दोस्त से कहा-तुम क्यों बेवजह चिंतित होते हो, किसके लिए व्यर्थ परेशान हो। मैं तो पहले ही मर चुका हूँ। बस ये एक सिपाही का शरीर है जो तुम्हारे साथ है। मेरे अंदर के सोल्जर को तो हमारे सिस्टम ने पहले ही मार दिया है। आज अगर यहाँ शहीद हुआ तो मेरी आत्मा को थोड़ी तसल्ली मिलेगी कि ये मरा हुआ सिपाही भी देश के काम आया। वापस जाकर भी तो फिर से वही चाकरी ही करनी है अपने साहब की। इससे अच्छा तो मेरा ये शरीर देश के काम आ जाए। मेरी आँखें भींग चुकी थी। मन से हारा हुआ सिपाही कभी जंग नहीं जीतता। इसलिए मेरा मर जाना ही सबके लिए हितकर है।
मेरा दोस्त बिलकुल शांत हो चुका था। वह कुछ भी नहीं बोल पा रहा था। शायद उसके सांत्वना के शब्द मेरे या कहूँ हमारे साझे दुख के नीचे दब गए थे।
जब होश आया तो ख़ुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया। सिस्टर ने जल्द ही डॉक्टर को बुला लिया।
'कैसे हो अजय' ? डॉक्टर साहब एक नए मेजर थे।
'ठीक हूँ सर'। मेरी आवाज़ काफ़ी हल्की थी।
'एव्रिथिंग इज फ़ाइन अजय। लेकिन हम तुम्हारा एक पैर नहीं बचा सके'। डॉक्टर साहब एक झटके में बोल गए।
पहली बार मेरा ध्यान अपने पैर पर गया। मेरा चेहरा रूआँसा हो गया।
'घबराने की कोई बात नहीं है, आजकल आर्टिफ़िश्यल लेग भी आ रहा है। मैं उसके लिए तुम्हारा नाम रिकमेंड कर दूँगा'। डॉक्टर साहब मुझे ढाढ़स बंधा रहे थे। 'लेकिन एक बात है कि अब आर्मी से तुम्हें मेडिकल ग्राउंड पर निकाल दिया जाएगा'। डॉक्टर साहब यहीं नहीं रुके। बोले-'परंतु तुम्हें मेडिकल पेंशन मिलेगी और फ्री ट्रीटमेंट भी'।
मैं जानता था कि सिपाही का पेंशन बहुत कम है और उसमें जीवन गुजर करना आसान नहीं होगा परंतु न जाने क्यों मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई।
डॉक्टर साहब को लगा कि उनकी पेंशन और फ्री ट्रीटमेंट वाली बात शायद मेरा हौसला बढ़ा गई।
बोले-'गुड इसी तरह हँसते रहना है। यू आर अ ब्रेव सोल्जर। दिस इज पार्ट अँड पार्सेल ऑफ अ सोल्जर्स लाइफ'।
मैं बिना कुछ बोले धीमे-धीमे मुस्कराता रहा।
कुछ ही दिनों में मुझे मेडिकल ग्राउंड पर आर्मी से डिस्चार्ज कर दिया गया। अपनी अपंगता का मुझे काफ़ी ग़म था, किन्तु फ़ौज के इस ज़िल्लत से आज़ादी, पता नहीं क्यूँ मुझे सुकून दे रहा था। ऐसा लग रहा था-मानो अभेद्य से लगने वाले इस चक्रव्यूह को आज किसी अज्ञात अभिमन्यु ने मेरे लिए तोड़ दिया था।