एक सीरियल के बहाने / प्रताप सहगल

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भारत के आज़ाद होने के बाद तीन नयी पीढ़ियाँ आ चुकी हैं। भारत में भी और ब्रिटेन में भी। आज़ादी के आसपास जन्मी पीढ़ी आज प्रौढ़ हो चुकी है, उसके बाद की युवा और उसके बाद की पीढ़ी अभी अपने शैशव से बाहर निकल रही है। इतिहास कभी करवट बदलता है तो कभी धीरे-धीरे सरकता हुआ रूपाकार लेता है। 1947 की करवट एक महत्‍तवपूर्ण बिंदु था, जहाँ से नया भारत निकलना शुरू होता है। परतंत्रता के उस परिवेश से बाहर निकल आने के बाद उस काल की कहानियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रही हैं। यही कहानियाँ कहीं न कहीं हमारी मानसिकता और विभिन्न चीज़़ों तथा देशों के प्रति हमारे दृष्टिकोण का निर्माण करती हैं। ब्रिटेन में भी स्थिति ऐसी है। वहाँ भी ब्रिटिश राज की 'गरिमापूर्ण' कहानियाँ उस देश में आने वाली बाद की पीढ़ी के नज़रिए को अपनी तरह से एक दिशा देती हैं। इस बीच भारत पर अनेक तरह से लिखा गया। भारत के दर्शन, परंपराओं ओर संस्कृति पर तरह-तरह की टिप्पणियाँ की गईं। फ़िल्मकार भी इस क्षेत्र में पीछे नहीं रहे। एटेन ब्रो हों या डेविड लीन या फिर शेक्सपियरवाला टीम में शामिल लोग, सभी ने इस दिशा में काम किया है।

कल्पना कीजिए कि आज अगर कोई अंग्रेज़ भारतीय परिवेश को लेकर कोई फ़िल्म या कहें कि 13 किस्तों वाला सीरियल बनाना चाहे तो वह इसे किस तरह से बनाएगा। उसके मन में क्या ख़ाका होगा। वह व्यक्ति जो कुछ अरसा भारत में रहा है, लेकिन भारत के साथ उसका 'इन्वाल्वमेंट' इतना ही रहा है कि उसके पास दो खानसामे थे, एक माली था या ऐसे ही कुछ नौकर थे, जिन्हें वह अपनी संपत्ति मानता था। उसने भारत में कुछ जगहें भी देखी हैं। जैसे हिमालय देखा है, उसने गंगा को देखा है और कलकत्ता कि बेहद ग़रीबी भी उसने गाड़ी से गुज़रते हुए देखी है। आज वह इंगलैंड में अपने दोस्तों के साथ बैठा याद करता है। शिमला में उसके नौकर कितने समर्पित थे और लागोस या शंघाई में कितने अच्छे।

बस यहीं से वह अपनी शुरुआत करता है। ठीक उस बूढ़े की तरह जिसके पास अपना वर्तमान नहीं होता। उसके पास सिर्फ़ अतीत होता है और अतीत की यादों में वह बार-बार लौटता है। बार-बार पुराने फ़िल्मी गाने ही सुनता है। पुरानी फ़िल्में उसे बहुत अच्छी लगती हैं। पुराना वक़्त उसे आह्लादित करता है। वह आज भी उसी परिवेश में जीता है, जिसे वह कभी का छोड़ चुका है। ठीक यही स्थिति आज अंग्रेज़ों की हो चुकी है। वह एक बूढ़े की तरह से ब्रिटिश राज के अतीत की गौरव गाथाओं को कह-कह कर ख़ुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा है। बूढ़े की ही तरह से अपने वर्तमान से क्षुब्ध है और बार-बार यही सोचता है 'जाने कहाँ गए वे दिन'।

यही वह बिंदु है जहाँ से हम ब्रिटिश मानसिकता को पकड़कर विश्लेषित कर सकते हैं। सीरियल बनाने की बात चल रही थी। वह सबसे पहले उन्हीं नौकरों के चित्र खींचेगा, उन्हीं को वह कैमरे में उतारेगा, लेकिन उन चित्रों से रंग ग़ायब होंगे, क्योंकि उसका रिश्ता नौकरों से रहा है, आदमियों से नहीं। एक मानवीय रिश्तों की जो गरमाहट उभरनी चाहिए, वह उस सीरियल में नहीं उभरेगी, क्योंकि उसका इन्वाल्वमेंट सिर्फ़ उस आदमी के साथ रहा है जो जातीय चरित्र में कहीं भी उसके आसपास नहीं पड़ता। नौकरों के प्रति या फिर अपनी 'प्रजा' के प्रति उसका रवैया तो यह रहा है 'डू ऐज़ आई से। नॉट ऐज़ आई डू' तो वह चरित्र की बारीकियों को कैसे पकड़ेगा। उसे लगता है कि चरित्र सतही बन रहा है तो वह 'कट' करके कैमरा ज़ूम करता हुआ हिमालय की खूबसूरत बर्फीली चोटियों की ओर ले जाता है और थोड़ी देर के लिए कैमरा लुभावनी प्राकृतिक छटा में खोया रहता है और फिर 'कट' मारकर वह चरमराती बैलगाड़ियों और उसमें ऊँघते देहातियों के शाट लेता है। कैमरा फिर हिमालय की किसी तलहटी पर नज़र डालता है। वहाँ घूमता नज़र आता है एक गोरा। वहीं घोड़े पर सवार भारतीय आ रहा है। उसे उतरना पड़ता है। वह गोरे के सामने घोड़े पर सवार होकर नहीं निकल सकता। छाता लेकर चलता व्यक्ति गोरे को सामने पाकर छाता अंदर कर लेता है। क्लाड आचिनलैक की नज़र में वह 'व्हाइट सुपीरियारिटी' है, जिसे आज भी परंपरागत तरीक़े से अंग्रेज़ निभाए चला जा रहा है।

यही मानसिकता इस बात को भी निश्चित करती है कि अंग्रेज़ का भारत के प्रति क्या नज़रिया बनता है। वह भारतीय संस्कृति, दर्शन, भारतीय परिवेश और भारतीय परंपराओं को किस नज़र से देखता है। यही नज़रिया ही तो आखिरकार उस सीरियल या किसी फ़िल्म में ध्वनित होगा। अक्सर कहा जाता है कि पुरानी आदतें बड़ी मुश्किल से छूटती हैं और कई बार तो वे आदमी के साथ ही ख़त्म होती हैं, लेकिन जब इन आदतों या रवैयों का सम्बंध पूरे समाज से हो तो? समाज तो नहीं मरते, बदलते हैं। अक्सर धीरे-धीरे बदलते हैं। तो रवैयों की बात हम 1935 में छिपी मिस मेयो की किताब 'मदर इंडिया' से कर सकते हैं। मिस मेयो को भारत में इतना कूड़ा नज़र आया कि गाँधी जी को कहना पड़ा कि ' यह किताब नाली के सफ़ाई निरीक्षक की एक रपट है। "

अब जो सीरियल बनेगा तो उसकी प्रतिध्वनि कहीं न कहीं इन्हीं बातों को पुष्ट करेगी। सीरियल ज़ाहिर है कि अंग्रेज़ी में ही बनेगा और इसलिए अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में जाएगा। तो उसमें कुछ बातें जापान और कुछ अमेरिका के बारे में भी होनी चाहिएँ। यहाँ वह शाट दिया जाएगा जब जनरल परसीवल सिंगापुर में जापानी कमांडर के सामने सफेद झंडा उठाए नज़र आता है। अब यह शाट चाहे जितना भी अटपटा लगे लेकिन अमेरिकियों द्वारा यह ज़रूर पसंद किया जाएगा। ब्रिटिश को अपमानजनक स्थिति में पाकर हर अमरीकी को मज़ा आता है। शायद ऐसा ही मज़ा संभवतः हर भारतीय को भी आता है। अंग्रेज़ जहाँ अपनी 'व्हाइट सुपीरियारिटी' से मुक्त नहीं हो पाया, वहीं भारतीय भी कहीं न कहीं आज भी 'काम्पलैक्स इनफिरियारिटी' से जकड़ा हुआ है। अब यहाँ इस बहस में जाना मुनासिब नहीं लगता कि सुपीरियारिटी काम्पलैक्स नाम की कोई चीज़ नहीं होती।

आप पूछ सकते हैं कि सीरियल की कहानी क्या होगी तो यह सवाल ही बेतुका है। सीरियल में भला कहानी का क्या काम? हाँ यह ज़रूर है कि उसे फिर भारत की ओर ही लौटना होगा, क्योंकि जितनी विविधता भारत में मिल सकती है, उतनी और कहाँ मिलेगी। अपनी सारी विविधताओं और सारे आर्थिक विकास के बावजूद आज़ादी के लंबे अरसे के बाद भी भारत की प्रतिमा सपेरों और जादूगरों के देश की ही होगी या फिर यहाँ दर्शन है। दर्शन भी ऐसा जिसका कोई सिर पैर नहीं, जो शून्य से शुरू होकर शून्य पर ही ख़त्म होता है। यह तो बहुत पहले ई॰ एम॰ फास्टर अपनी किताब 'पैसेज टू इण्डिया' में साबित कर ही चुके हैं। हाँ तो भारत की प्राचीन रहस्य विद्या को दर्शाने के लिए वही सीन सर्वाधिक उपयुक्त रहेगा। जब जवान, परेशान मेम साहब बलात्कार का किस्सा लेकर आती है और चलता है लंबा मुकदमा।

यहाँ यह भी देखिए ई॰ एम॰ फास्टर ने पूरी ताक़त से यह साबित कर दिया है कि भारतीय दर्शन में सिर्फ़ भ्रम है। सही है। हम भी मान लेते हैं कि 'ब्रह्म' और 'कोहं' से 'सोहं' की यात्रा सभी की समझ से परे हैं। लेकिन यह समझ में नहीं आया कि फास्टर साहब ने सर्वाधिक व्यावहारिक दर्शन, बौद्ध-दर्शन का कहीं कोई उल्लेख क्यों नहीं किया? वह भी तो भारतीय दर्शन का एक हिस्सा ही है और जिसने दुनिया भर को प्रभावित किया।

कहने का तात्पर्य यह कि यहाँ भी फास्टर साहब की नीयत पर कुछ शक होने लगता है। हालाँकि भारतीय एवं इंग्लिश मानवीय अंतःसम्बंधों का चित्रण खूबसूरती से हुआ है। लेकिन वह इस सीरियल का हिस्सा नहीं है। सीरियल में तो जादूगर होंगे, सपेरे होंगे, टोने-टोटके वाले होंगे और फिर एक शाट धुआँ उगलती चिमनी का होगा।

यह तो अच्छा हुआ कि 'फेस्टिवल ऑफ इण्डिया' जहाँ तहाँ लगने लगा। (चाहे करोड़ों रुपया गया) पर भारत की कुछ साफ़-साफ़ तस्वीर तो उन लोगों के सामने आई, जिन्हें भारत को सिर्फ़ अपनी ही सीमित निगाह से देखने की आदत पड़ गई थी।

चार्ल्‍स एलेन ने अपनी किताब 'प्लेन टेल्स फ्राम राज' में जिन अंतःसम्बंधों की बात की है, वे भी कहीं-कहीं इस सीरियल का हिस्सा बन सकते हैं। इसी किताब में आया एक दृश्यात्मक वर्णन फ़िल्माया जा सकता है, जहाँ एक भिखारी किसी घर के सामने बर्तन फैलाए भीख माँगता खड़ा है और उसे भीख मिलती भी है, लेकिन जब वह भिखारी थकान के मारे वहीं गिर पड़ता है तो भीख देने वाली महिमा या घर के दूसरे लोग उसके लिए कुछ नहीं करेंगे, क्योंकि वह अछूत को छू लेने से जन्म भ्रष्ट हो जाने की भी सीख देता है। यानी हिंदू धर्म में 'काम्पैशन' का अभाव है, जबकि ईसाई धर्म की बुनियाद ही 'काम्पैशन' है। यह शाट दृश्यांकन और नसीहत दोनों नज़रियों से बेहतर रहेगा। हालाँकि आज स्थिति वह नहीं है, जिसका ज़िक्र एलेन ने किया है, शिक्षा के प्रचार-प्रसार से स्थितियाँ बदली हैं। लेकिन यह तो सच है कि हिंदू धर्मावलंबियों में यह बात रही है और कहीं-कहीं रूप बदल कर अभी भी है।

इसी 'काम्पैशन' की नज़र से एटेन ब्रो ने 'गाँधी' बनाई। याद कीजिए वह दृश्य जब गाँधी जी एक नदी के किनारे बैठी कपड़ों के अभाव की मारी महिला को अपनी धोती दे देते हैं और याद कीजिए उस समय उनके चेहरे पर आया सौम्य भाव। यह एटेन ब्रो नहीं, उनकी ईसाइयत बोल रही है। इसमें हमें कोई एतराज़ नहीं होना चाहिए कि उन्होंने अपनी नज़र से गाँधी को देखा और पेश किया, लेकिन एक भारतीय की नज़र में गाँधी केवल 'काम्पैशन' की प्रतिमूर्ति नहीं थे, उनकी अहम राजनीतिक भूमिका भी थी। इसी भूमिका कि वज़ह से भारत आज़ाद भी हुआ। यहीं ताज्जुब भी होता है कि इतनी अहम भूमिका को एटेन ब्रो को एक सिरे से ख़ारिज़ कर के उसके बारे में चुप्पी साध लेते हैं तो इनकी भूमिका भी कुछ-कुछ फास्टर जैसी ही हो जाती है।

नज़रियों में यह बुनियादी फ़र्क सीरियल को कितना प्रभावी बना सकेगा। यह कहना तो फिलहाल मुश्किल है। पर सीरियल में 1857 की म्यूटिनी यानी विद्रोह के कुछ शाट भी होंगे और यह भी कि ब्रिटिश राज ने उसे कितनी चतुराई और तत्परता से दबा दिया है। हालाँकि यहाँ भी नज़रियों में बुनियादी फ़र्क है और यह कि जिस घटना को अंग्रेज़ आज भी विद्रोह की संज्ञा देते हैं, भारतीय जनमानस में वह घटना स्वतंत्रता आंदोलन की पहली लड़ाई के रूप में अंकित है। इतिहासकार भले ही जो कहें और फिर इतिहास सिर्फ़ किताबों में ही तो नहीं होता। लोगों की ज़बानों पर भी होता है। किताबों में लिखा इतिहास कभी मर भी सकता है। लेकिन लोगों की ज़बानों पर लिखा इतिहास कभी नहीं मरता।

सीरियल का फैलाव अधिक हो रहा है। घटनाएँ अनेक हैं। ब्रिटिश राज में फैली कहानियों, घटनाओं और चरित्रों की कमी नहीं है। मसलन 1857 के बाद अंग्रेज़ों के एक रेजिमेंट की विभिन्न कंपनियों में विभिन्न धर्मों के लोग रखे। धर्म के आधार पर किए सेना के पुनर्गठन में अंग्रेज़ों को यह सुविधा दी कि वे उन्हें कभी मिलने न दें। मुसलमान सिपाही मांस खाता था तो शराब नहीं पीता था, हिंदू सिपाही सिगरेट तो पी लता था, शराब भी, लेकिन मांस नहीं खाता था, इस डर के मारे कि कहीं गोमांस न हो। सिख सिपाही शराब भी पीता था, मांस भी खाता था तो सिगरेट नहीं पीता था। फिर भी सभी साथ-साथ थे, लेकिन इस खान-पान के आधार पर वे अपनी-अपनी कंपनी के साथियों के साथ ही रहते थे। अब पता नहीं इस बात को सीरियल में लाना चाहिए या नहीं, लेकिन इससे अंग्रेज़ों की कुशलता तो सामने आती ही है।

राज में फैले राजे-महाराजाओं के किस्से सीरियल में दिलचस्प तरीक़े से फिट किए जा सकते हैं। यह सब या और भी बहुत कुछ हो सकता है, लेकिन सवाल तो सिर्फ़ यह है कि उसके पीछे नज़रिया क्या है, उसका चरित्र क्या है? क्या आज का ब्रिटेन आज के भारत को समझ पा रहा है? ब्रिटेन या पश्चिमी संसार समझ पा रहा है? आर्थिक विकास के साथ-साथ आज़ादी के बाद आई पीढ़ियों ने अपनी पहचान जिस रूप में बनाई है, क्या उन्हें वह रेखांकित करने की क्षमता अर्जित कर चुका है? या मात्र ब्यौरों, मज़ाकों और हल्के-फुल्के व्यंग्यों से ही सीरियल पूरा हो जाएगा। यह सीरियल अगर बना तो 13 किस्तों में इसका सिमटना मुश्किल है और इतने बडे़ कैनवास पर फैले सीरियल के लिए कोई उपयुक्त शीर्षक भी तो चाहिए। आप देंगे कोई शीर्षक?