एक सुखद दुःस्वप्न / योगेश गुप्त
उस लम्बी गैलरी में से निकल वह उस खम्भे के ठीक नीचे चौंतरे पर बैठ गया।
रात के ग्यारह बजे हैं। उसका कद लम्बा है। बाल बिखरे हैं। ठुड्डी के गड्ढे में दाढ़ी के चार-पांच बाल खड़े हैं। उसने कुरता और पाजामा पहन रखा है।
आसमान में गहरे बादल हैं। पानी नहीं बरस रहा। खम्भे के नीचे चौंतरे के साथ-साथ पानी से भरी एक नाली है।
नाली में पूंछ डाले एक कुत्ता सो रहा है।
उसने पांव नीचे लटका लिये हैं। कमर पीछे खड़े ऊंचे मकान से लगा ली है और शांत भाव से बैठ गया है।
"हैलो नरेन, यहाँ क्यों बैठो हो?"
"यों ही।"
"चलो, ऊपर चलो।"
"नहीं।"
"अच्छा, घूमने चलो।"
"कहां?"
"कहीं भी। ... चलो।"
"चलो। ... सुनो, ज़रा ठहरो। मैं देख लूँ सब चैन से सोएं हैं ना।"
लम्बी गैलरी में एकदम अँधेरा है। एकदम सामने बायीं तरफ की दीवार पर दायीं तरफ से आकर रोशनी की एक लकीर सीधी पड़ रही है। गैलरी के आधे में जीना शुरू होता है। कुएं की सीढि़यों की तरह।
"तुम आगे चलो।"
"नहीं, तुम।"
नरेन आगे हो गया है।
सीढि़यों के कोनों में ज़्यादा गहरा अँधेरा है।
"नरेन, कोनों, के अंधेरों में पैर न फंसाना"
"डराओ नहीं, चलो।"
ऊपर कैसा अँधेरा है। सपाट, अक्लमंद। कुछ नहीं दीखता। कमरे से एक आवाज आ रही है। पंखे के लगातार घूमने की।
नरेन ने कहा, "कितनी गर्मी है।"
"बारिश आयेगी।"
"हां, इस समय अगर हो रही होती तो पंखे तक की आवाज सुनाई न पड़ती।"
राम जोर से हंस दिया है।
"धीरे हंसो, कोई जाग जायेगा। घूमने जाना मुश्किल हो जाएगा।"
"सॉरी, चलो भी अब।"
"एक नजर देख लूँ।"
नरेन ने अंधेरे में से देखा है। पुष्पा सो रही है। दिनेश सो रहा है। उसकी खाट खाली पड़ी है। उसके एक कोने पर पड़ी सफेद चादर अंधेरे में झलक दे रही है।
"चलो।"
जीना। गैलरी। सड़क और नाली-चौंतरा-खम्भा।
"किधर चलें।"
"अंधेरे में।"
"चलो।"
नरेन ने कुर्ते के पल्ले से मुंह पोंछा। राम ने चप्पल को ज़रा फटकारा और फिर दोनों दायीं तरफ मुड़कर चल दिये।
नरेन और राम हाथ में हाथ डाले चले जा रहे है।
"कहां चलें?"
"दफ्तर चलो।"
"क्यों?"
"कुछ काम मैं अधूरा छोड़ आया था। उसे पूरा करेंगे।"
"ठीक है, चलो।"
दफ्तर वहीं से पांच मील है।
"कैसे चलें? कोई सवारी तो है नहीं।"
"पेड़ों की छांव है सड़क पर सारे रास्ते। निकल चलते हैं। पैदल ही। कोई ऐसी तेज धूप नहीं है। आते-आते दिन निकल आएगा। फिर..."
नरेन ने चलते-चलते हाथ के झटके से राम को एकदम अपने से चिपटाकर पूछा है, "राम, तेरे घर में तो सब ठीक है ना?"
"सब ठीक है, सब ठीक ही रहता है।"
"बीवी... बच्चा... और!"
"नरेन, घर में सब ठीक है। बीवी भी, बच्चा भी। पर उस दिन पड़ोस में आग लग गई. बच्चा स्टोव पर कागज जलाकर खेल रहा था। कागज जलाकर कपड़ों में डालकर बाहर भाग गया। सब।"
बड़ा होशियार बच्चा था।
"कैसे?"
"कागज जलाकर कपड़ों में डालकर बाहर भाग गया। कितना होशियार बच्चा था।"
दोनों जोर से खिलखिलाकर हंस पड़े है। हंसी काले अंधेरे पर पानी पर तेल की तरह तिरमिरा उठी है।
"सुनो राम, तुमने आग की कितनी ऊंची लपट देखी है?"
"उतनी, वह देखो।"
"अरे! यह तो आग लगी है।"
"हां... और देखो, यह बिल्डिंग अपने दफ्तर की नहीं है?"
"अरे बाप रे, वही तो है।" आग की लपटों से हूँ-हूँ की आवाज आ रही है। दूर आसमान में उठती लपटों को काली सलेट पर चिपक-चिपक जाना उन्हें चकाचौंध में डालता रहता है। बिल्डिंग जलकर राख हो गई है। अचानक राम दोनों हाथों में मुंह छिपाकर फफक-फफककर रोने लगता है।
"क्या हुआ, राम?"
"काम पूरा न हो सका, नरेन?"
"हां, यार! सो तो है। सुबह वह घर पर देखेगा तो..."
राम रोये चला जा रहा है। उसके रोने की आवाज चारों तरफ गूंज रही है। नरेन कह रहा है, "अब छोड़ो भी यार, चलो। कल देखेंगे।"
राम अचानक चुप हो गया है, "कहां चलें?"
"चलो, उठो। ... एक जगह चलेंगे।"
चारों तरफ लॉन, बगीचा। बीच में एक बड़ी-सी झील। झील के बीचों-बीच सैकड़ों सीढि़यों के सहारे खड़ी एक ऊंची मीनार। राम और नरेन सीढि़यों पर चढ़ रहे हैं। दोनों के हाथ में एक-एक लाल चाक है, जिससे वे निशान लगाते जा रहे हैं। एक गोल दायरा। बीच में सीढ़ी का नम्बर। चारों तरफ आसमान पर काली धुंध छायी है। जमीन दीखना बंद हो गई है। लग रहा है जैसे मीनार समेत ये लोग आसमान में लटके हैं। आसमान पर एक भी तारा दिखाई नहीं देता।
"राम! तुमने कौन-सा नम्बर डाला है?"
"छह सौ तेईस।"
"मेरा तो अभी... इस बार तू यही नम्बर डाल दे।"
"क्यों डाल दूँ? मैं ठीक हूँ। तूने गलती की है। तू अपना नम्बर डाल, मैं अपना डालता हूँ।"
"अच्छा बाबा, अच्छा। लड़ता क्यों है?"
"मैं लड़ नहीं रहा। तू मूर्ख है।"
"अच्छा! सही। पर देख नरेन, हम आसमान में लटके हैं। डर लगता है।"
"थक भी गये, यार!"
"हां।"
"चलो, वापस घर चलें।"
"चलो।"
अचानक वह ऊंची मीनार रेत की मीनार की तरह धुस्स हो गई है। झील गायब है। एक बड़ा-सा बाग है, जिनके मेनगेट से दोनों निकलने की कोशिश कर रहे हैं। लोहे का गोल घेरा उनके घुसते ही घूमने लगता है। ये घूम रहे हैं... घूम रहे हैं... और...
समय गतिहीन हो गया है।
वे सड़क पर फेंक दिए गए हैं। दोनों खरोंचे सहलाते ओर धूल झाड़ते उठ रहे हैं। एक-दूसरे की तरफ देख रहे हैं।
"अब?"
"कहीं सुनसान में चलें।"
सारा शहर सोया पड़ा है। ऊंचे-ऊंचे मकानों के दरवाजों पर लगता है जैसे सैकड़ों साये भीतर जा रहे है, सैकड़ों बाहर आ रहे हैं। आदमी कहीं नहीं है। प्यासे कुत्ते नालियां में मुंह डाले सो रहे हैं। नालियां सूखी हैं। मकानों की चमड़ी उधड़ी पड़ी है। नीचे की ईंटें साफ-साफ नजर आ रही हैं।
"कितनी सुहानी हवा चल रही है।"
"हां, ठण्डी मीठी।"
"इस हवा में कोई दो महीने भी घूम ले तो सेहत बन जाए."
"वाह, रोज आया करेंगे। श्मशान कितनी दूर है?"
"अरे, वह सामने श्मशान है। राम, गाना सुनेगा?"
"तू सुनाएगा?"
"नहीं, वह सुनाएगी।"
"चलो।"
फिर एक जीना। एक-एक सीढ़ी पर एक-एक दरबान। सबको बख्शीश देते हुए दोनों ऊपर चढ़ रहे हैं। दोनों ने पान लेकर मुंह में दबा लिया है। बीच में एक दरबान के कपड़ों पर पीक थूकी है। दरबान ने झुककर सलाम किया है।
"बाई ऊपर है?"
"नहीं हुजूर, बाई तो नहीं है।"
"अरे वाह, तबले और सितार की आवाज आ रही है।"
"यह आवाज तो आती ही रहती है, हुजूर।"
"बिना उनके भी, क्या उस्तादजी बजाते रहते हैं?"
"वह भी नहीं है।"
"फिर?"
"आवाज आना बंद नहीं कर पाते, सरकार।"
"तुम पागल हो।"
आवाज की लहरें पानी की लहरों की तरह पास आती दीख रही है। दोनों उनसे होते हुए आगे बढ़ जाते हैं।
तरतीब से तकिये-तोशक रखे हैं। बहुत बड़ा हॉल है। चारों तरफ बड़ी-बड़ी तस्वीर टंगी है। हॉल में दरवाजा कोई नहीं है। एक कोने में छोटा-सा एक गोल सुराख है। उसी में से होकर आना जाना होता है।
बेशकीमती कालीनों पर शतरंज बनी हुई है।
रोशनी जाने कहाँ से आ रही है।
राम और नरेन तोशकों के सहारे बैठ गए हैं।
हॉल में और कोई नहीं। बीच में फर्श पर एक नाचता हुआ मोर बना है। उसी पर रखे तबले और सितार में से आवाज आ रही है। दोनों सुनते-सुनते लीन हो जाते है। फिर अचानक जागते हैं।
"राम, नींद आ रही है।"
"सोना नहीं, अभी श्मशान चलना है।"
रात किती लम्बी हो गई है। कितनी खूबसूरत। कितनी काली।
आसमान में फिर काले बादल घिर आए हैं। बादलों की तह-पर-तह चढ़ रही है। बूंद एक नहीं पड़ रही है।
श्मशान में चारों तरफ खड़े ऊंचे-ऊंचे पेड़ चीख-चीखकर हिल रहे हैं, अक्षुण्ण, अनन्त, रात्रि के दैत्याकार पहरेदारों से।
पास ही कोई पवित्र नदी शांत मन से बह रही है।
अलग-अलग चिताओं से उठती लपटों की छाया पानी पर पड़ रही है। उस थिरकती छाया से पवित्र नदी के पानी का मन चंचल हो उठता है।
चिताओं के चारों तरफ कुछ-कुछ लोग इकट्ठा हैं।
"अरे, राम, वह क्या हो रहा है?"
"कहां?"
"वह।"
लोग एक चिता बुझा रहे हैं। चिता बुझा दी गई है। लकडि़यां हट गई हैं।
लाश नीचे से निकल ली गई है। उसे फिर अर्थी पर सजाया जा रहा है।
चारों तरफ घोर अँधेरा है। चिताएं बड़ी मशालों की तरह लग रही है। बंूदें पड़ने लगी हैं।
"क्या हुआ भाई, यह क्या हो रहा है?"
कोई कह रहा है, "इसे कहते हैं पत्नी का प्यार। यह था नहीं, कहीं गया था।"
"कहां गया था?"
"यह नहीं पता। आया तो पता चला कि लम्बी बीमारी से और दवा-दारू न मिलने से पत्नी मर गई और अर्थी श्मशान भी चली गई. पत्नी की आखिरी इच्छा थी कि कम से कम दो मील तक कन्धा अवश्य देना सो..."
दोनों गद्गद् भाव से उस महत् पुरुष के पांव छूते हैं। फिर उस काले गुम्बद में बड़ी-बड़ी मशालों के बीच आकर खड़े हो जाते हैं। पवित्र नदी की मधुर आवाज कानों को तृप्त कर रही है।
"राम।"
"हां।"
"चल, घर चलें।"
"चलो।"
चिताओं के साये पवित्र नदी के पानी पर थिरक रहे हैं।
नरेन ने हंसकर कहा है, "राम, इन सायों को इस पानी में बने मकान का किराया तो नहीं देना पड़ता?"
"मालूम नहीं, यह सामाजिक समस्या है। हम उससे ऊपर हैं।"
दोनों ठठाकर हंस दिए हैं।
वह चौंतरे से नीचे उतर आया है और ऊपर जाने के लिए सदर दरवाजे की तरफ चल दिया है।
लोहे के उस मजबूत दरवाजे के एकदम पास लकड़ी का एक बक्सा टंगा है जिसमें मकान-मालिक और तमाम किरायेदारों को चिट्ठियां आती हैं। बक्से पर मकान मालिक का ताला बंद है। छोटा-सा।
नरेन ने उस ताले की तरफ देखा है। जाने कैसी एक मुस्कराहट उसके होंठों को मुरकी दे गई है। उसने छोटे-से ताले को मुट्ठी में लिया है, मरोड़ा है और कंुडे समेत ताला उखड़ आया है। ताले को उसने जितनी दूर वह फेंक सकता था फेंक दिया है। हल्के-से हंसा है। फिर अंधेरी गैलरी और छोटे जीने और पंखे की घुटनभरी आवाज को पार करता हुआ वह ऊपर चढ़ने लगा है। ऊपर चढ़ रहा है।