एक सुनियोजित प्रचार और राजनितिक संकेत / जयप्रकाश चौकसे

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एक सुनियोजित प्रचार और राजनितिक संकेत
प्रकाशन तिथि : 20 अप्रैल 2013


मनोज कुमार ने शाहरुख खान और फरहा खान पर मानहानि का पुन: दावा किया है। 'ओम शांति ओम' में उनका मखौल उड़ाया गया है - ऐसा उनका विचार है और हाल ही में जापान में प्रदर्शित प्रिंट से वह दृश्य नहीं निकाला गया है। वितरकों के हाथ प्रिंट आ जाने के बाद निर्माता के निर्देश का पालन करने के लिए वितरक बाध्य नहीं हैं। बहरहाल, मनोज कुमार को शायद इसका भान भी नहीं कि उनकी 'पूरब और पश्चिम' से प्रेरित 'संस्कार' नामक सीरियल दिखाया जा रहा है। सीरियल बनाने वालों ने कुछ परिवर्तन किए हैं और वह कॉपीराइट के बाहर की रचना हो गई है, परंतु अनेक दृश्य समान हैं, मसलन विदेश में भारतीय नायक को 'गंवार' समझे जाने पर उसका फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना एक स्टॉक दृश्य है और उसकी प्रशंसा होती है, परंतु मात्र अंग्रेजी बोलने पर आपको 'गंवार' न समझा जाए, यह कोई प्रशंसा की बात नहीं है। इसी तरह उन्होंने कुछ पात्रों को स्त्री पात्र बना दिया है, मसलन अशोक कुमार के पात्र को कुछ कूपमंडूकता और अंधविश्वास के साथ ही अरुणा ईरानी के रूप में रोपित कर दिया गया है। मनोज की फिल्म में उत्तरप्रदेश का नायक लंदन जाता है, सीरियल में गुजरात का रहने वाला अमेरिका जाता है और अमेरिका के उस भाग में जाता है, जहां गुजरात से आए अनेक लोग बसे हैं। इस फिल्म में गुजरात को महान राज्य की तरह दिखाया गया है।

संजय लीला भंसाली की 'सरस्वतीचंद्र' में भी पात्र गुजरात महिमा का बखान करते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य कार्यक्रमों की भी मूल ध्वनि गुजरात गरिमा की गाथा है और इसके साथ ही गुजरात सरकार द्वारा पर्यटन को बढ़ाने के लिए बनाई गई विज्ञापन फिल्में हर चैनल पर बार-बार दिखाई जा रही हैं अर्थात छोटा परदा पूरी तरह गुजरातमय हो गया है। गुजरात के महान होने पर कोई संदेह नहीं, परंतु भारत के अन्य प्रांतों के पास भी समृद्ध इतिहास की विरासत है। गौरतलब यह है कि क्या यह सब नरेंद्र मोदी के अपने प्रचार का हिस्सा है और जानबूझकर गढ़ा गया है? यह एक सुनियोजित प्रचार है और अगर अन्य राजनीतिक दल या प्रांतों के मुख्यमंत्री ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो यह उनकी समस्या है, जिसके लिए नरेंद्र मोदी को दोष नहीं दे सकते।

इस प्रकरण का दूसरा पहलू यह है कि गुजरात की श्रेष्ठता का यह विराट और तीव्र प्रचार कुछ लोगों के मन में गुजरात के विरोध के पूर्वग्रह को जन्म दे सकता है। प्रचार के संपृक्त घोल के निर्माण में ही यह खतरा अंतर्निहित है। इसे धर्मनिरपेक्षता की हानि से भी जोड़ा जा सकता है। हाल ही में जावेद अख्तर ने भी कुछ इस आशय की बात कही है कि इंटरनेट के वैकल्पिक संसार में कुछ लोगों की सेवाएं धर्मांधता फैलाने के लिए ली जा रही है। प्रचार के घमासान में सत्य की हानि तो अनिवार्य है। शंका होती है कि क्या क्षेत्रीयता की शक्तियां और प्रांतीय श्रेष्ठता के दावे भारत की अखंडता के लिए चुनौती तो नहीं बनने जा रहे हैं? क्या मौजूदा व्यवस्था की सड़ांध समय के चक्र को विपरीत दिशा में घुमाने तो नहीं जा रही हैं और हम फिर अपनी आपसी फूट तथा दुश्मनी से कहीं ऐसी जमीन तो तैयार नहीं कर रहे हैं कि वह विदेशी हुकूमत को परोक्ष रूप से न्यौता बन जाए? कुछ लोगों को विश्वास है कि यह सब अनाम तानाशाह के नाम भेजा जाने वाला निमंत्रण पत्र है?

नरेंद्र मोदी की छवि कुछ इस तरह की है कि उन्हें तानाशाह माना जाता है। सख्त प्रशासन करने की बात भी तानाशाही का ही मुखौटा है। उनके अपने दल में अनेक लोग मन ही मन उनसे आशंकित हैं। संसदीय दल के गठन में एक जमानत पर छूटे व्यक्ति को शामिल किए जाने को भी उनकी मनमानी की तरह ही देखा जा रहा है। नितिन गडकरी को हटाया जाना भी उनकी इच्छा के अनुरूप ही किया गया है।

भारत के कुछ अत्यंत सफल प्रधानमंत्रियों को भी उनके दौर में एक वर्ग तानाशाह ही मानता था। जवाहरलाल नेहरू ने भारत को ठोस आधुनिकता के लिए तैयार करने के लिए कई सख्त कदम उठाए। उनके द्वारा प्रस्तुत हिंदू कोड बिल जो पुत्र के साथ पुत्री को भी संपत्ति का हकदार बनाता है, भी उनकी 'तानाशाही' ही मानी गई थी। उन्हें भाखरा नंगल बांध के लिए भी कुछ 'नेहरूगिरी' करनी पड़ी, भिलाई इस्पात संयंत्र और एटोमिक एनर्जी कमीशन की स्थापना के लिए जद्दोजहद करनी पड़ी थी। नेहरू इसकी कल्पना नहीं कर पाए कि प्रगति का श्रेय टेक्नोलॉजी या आधुनिकता को नहीं दिया गया और ऊपरवाले की कृपा मानकर धार्मिक स्थान मजबूत हुए। इस देश में हर प्रगतिवादी कदम कहीं न कहीं अंधविश्वास और कुरीतियों को मजबूत करता है।

इसी तरह भरी जनमत के आधार पर इंदिरा गांधी ने प्रतिक्रियावादी ताकतों को तानाशाही अंदाज में दबाया। अपने मंत्रिमंडल में उन्हें एकमात्र 'मर्द' माना जाता था। उनके कुछ इस्पाती निर्णयों से देश को लाभ पहुंचा, परंतु आपातकाल लगाना तो विशुद्ध तानाशाही ही थी। अटलबिहारी वाजपेयी ने संतुलन बनाए रखा, परंतु उनकी कई बातें उनके दल ने नहीं मानीं, मसलन वे नरेंद्र मोदी को बर्खास्त करना चाहते थे और इसी बात को अमान्य करने के कारण २००४ का चुनाव हारे। सारांश यह है कि भारत में सफल प्रधानमंत्री होने के लिए कुछ तानाशाही करनी पड़ती है। सक्षम सक्रिय प्रधानमंत्री के गिर्द चक्रवर्ती राजा की गरिमा बनानी पड़ती है। हमारे गणतंत्र में आम आदमी की तरह रहकर शासन नहीं किया जा सकता। सदियों की गुलामी के कारण और आख्यानों के कारण हमें कठोर सख्त प्रशासक ही पसंद है। हमारी पीठ में अजानी-सी खुजली चलती रहती है और पिटने को मन बेकरार-सा रहता है। नरेंद्र मोदी ने अपनी छवि में बहुत सोच-समझकर ऐसे तत्व रखे कि उन्हें सख्त या तानाशाह माना जाए- वे पीठ की खुजली से परिचित हैं। चिंतनीय यह है कि जिन बातों के कारण उनका दल और अन्य दल आतंकित है, वे ही बातें उन्हें जनाधार दे रही हैं।