एक सुबह का महाभारत / प्रकाश मनु
सच्ची कहता हूँ, मेरी कहानी के सुनने वालो! आपसे जरा भी झूठ नहीं बोलूँगा। इस सबके लिए मैं जिम्मेदार हूँ। मैं—सिर्फ मैं। और मेरे सिवा कोई नहीं। मैंने खुद ही खुद को चौपट कर लिया। बीच राह में, गले में कालिदास की परंपरा का पट्टा लटकाकर बैठ गया कि हाँ जी, हाँ, मैं हूँ लेखक—मैं हूँ साहित्यकार महान! जबकि साहित्य-फाहित्य से होता क्या है आज के जमाने में? सिर्फ यही कि घड़ी की सूइयाँ बेतुकी चाल चलने लगती हैं। कभी समय से थोड़ा आगे, कभी समय से थोड़ा पीछे। और फिर... और फिर यह रोग कोई आज का थोड़े ही है, बचपन तक इसकी जड़ें जाती हैं। बचपन में खाट पर बैठा-बैठा ‘महाभारत’ पढ़ता था, तो अकसर साँझ का अँधेरा घिर आता था। और मेरी समाधि टूटने में नहीं आती थी। माँ टोकती थीं, “अब रहने भी दे, बेटा!” पर मुझे इतना रस आता था, इतना कि...एक दिन मैंने कर्ण पर खंड-काव्य लिखने का इरादा कर लिया। और कुछ आगे चलकर तूफानी गति से सौ-डेढ़ सौ कच्चे-पक्के छंद लिखे भी गए! तब क्या जानता था कि एक दिन...! एक दिन यह महाभारत मेरी जिंदगी से होकर मेरी कहानी तक चला आएगा, कुछ ऐसी ही तूफानी चाल से...कि सब कुछ दरहम-बरहम। जैसे कि आज का दिन।...आज की कटी-पिटी चिथड़ा सुबह, जो असंभव नहीं कि मेरे पीले चेहरे और मेरी गीली आँखों की कोरों से झाँक रही हो!
खैर! क्या आप जानना चाहते हैं कि आज सुबह घर में क्या हुआ? एकदम सुबह-सुबह मुझ चंद्रकांत विनायक के घर पर अशुभ...अशांति, अमंगल—यानी महाभारत!
अब मैं समझता हूँ, मुझे तफसील से और साफ-साफ सब कुछ बताना चाहिए। सुधा और अपनी भूमिकाएँ भी, बगैर पहेलियाँ बुझाए हुए।...असल में बड़े दिनों से घर में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था और भीतर-भीतर ‘गृहस्थी की उच्छल तरंग’ के अलावा यह आशंका मुझे खाए जा रही थी कि इतने दिन बीते, अब होगा...कुछ होगा! और वह आज सुबह-सुबह हो गया! अपने पूरे भौंडेपन और भड़-भड़-भड़ के साथ।
झगड़ा! झगड़ा ही कहेंगे उसे? खैर, जो भी वह हो और जो भी नाम दें आप उसे, मगर असल में वह तो हमारे भीतर ही सो रहा होता है। और जब एक झटके से चारपाई से उठकर खड़ा हो जाता है तो हम कहते हैं—झगड़ा!...कि साब, दो दिल झगड़ पड़े। मैं कहता हूँ, क्यों झगड़ पड़े—क्यों? क्या यह झगड़ा उसी वक्त हुआ जब ये झगड़ रहे थे? जी नहीं जनाब, इसका जो बीज होता है, बीज...! (आप नहीं समझोगे। कोई नहीं समझता!)
खैर, बात कुछ खास न थी। यह मैं ही था, मेरा उखड़ा मूड जो झगड़े का कारण था। कई दिनों से मैं कुछ लिखना चाह रहा था और लिख नहीं पा रहा था तो मेरे पैर टेढ़े-टेढ़े पड़ रहे थे। साँस टेढ़ी-टेढ़ी चल रही थी और सब कुछ गड़बड़ हो गया था।
दफ्तर में दफ्तर के काम थे, घर में घर की चिंताएँ। ट्रेन में ट्रेन की भब्भड़! दोस्तों में दोस्तों की हड़बड़! रात में थके-टूटे जिस्म और नींद की गड़बड़। तो फिर लिखता कब? मगर इस खोपड़े में जो धम-धम कर रहा था राक्षस, रात-दिन...रात-दिन, उससे निजात तो नहीं पा सकता था न! लगता था, अपने कथानायक बैरिस्टर कामता बाबू को यों दिखाएँ, वो दिखाएँ, वो-वों दिखाएँ, तो बात बन जाए।
कामता बाबू मेरी नई कहानी के खासमखास कैरेक्टर थे। कामता बाबू के धाँसू कैरेक्टर के जरिए असल में मैं बहुत-कुछ कह डालना चाहता था। और जो कह डालना चाहता था, उसका नक्शा दिमाग में करीब-करीब बन चुका था। मगर सिर्फ दिमाग में बनने से तो बात नहीं बनती न! कागज पर...! असल बात तो यह है कि कागज पर कब उतारें उसे—कैसे?
सुबह चाय पीकर एक हलकी अँगड़ाई ही ली थी—कि पता नहीं चाय का असर था या मौसम का या कुछ और...वह जिन्न फिर एकाएक बोतल से निकलकर खड़ा हो गया, जिसे बमुश्किल बोतल में डाला था। और वह लगा चीखने, ‘लिखना चाहिए—लिखना, कुछ लिखना चाहिए!’ अब हार तय थी। बड़ी मुश्किल से रद्दी के ढेर में हाथ-पैर मारकर कुछ कागज ढूँढ़े, जिन पर एक तरफ बच्चों ने कुछ नीला-पीला किया हुआ था, दूसरी तरफ खाली। टैग लगाकर ऐसे पच्चीस-तीस पन्नों को बाँधा और गला खँखारकर लिखने की भूमिका बनाने लगा।
कुछ देर बाद मैंने पेन उठाया और शीर्षक ठोंक दिया—‘कामता बाबू की अनोखी आत्मकथा’। यह तरीका, झूठ क्यों बोलूँ, मैंने अपने गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से सीखा था। उनके उपन्यास ‘बाण भट्ट की आत्मकथा’ से। अब आगे...? शुरुआत कहाँ से की जाए? लगा, कुछ मुश्किल आ रही है।
आखिर मैं झटके से उठा और कमरे में टहलने लगा। सुना है, टॉलस्टाय हों, दोस्तोवस्की, चेखव या पुश्किन, इन सबको कमरे में टहलने की बीमारी थी। ये सब कमरे में खूब-खूब टहलते और खूब-खूब लिखते थे। और मजे की बात तो यह है कि ये सबके सब मेरे नायक हैं, सबके सब!
‘अरे व्वाह...!’ मैं बाँहें कसे हुए कमरे में टहल रहा था। मन ही मन गौरवान्वित भी हो रहा था। ‘आखिर हम भी किसी से कम नहीं’ वाली महानायकी मुद्रा! और सच्ची कहूँ, कहानी लिखने से ज्यादा मुझे पुलकित कर रहा था अपना यह सोचना कि पूरी होते ही कहानी ‘इक्कीसवीं सदी’ के संपादक को भेजूँगा। कंबख्त इतवारीलाल ‘अलबेला’ भी याद करेगा कि कोई चीज है! छापे न छापे, मगर चीं बोल जाएगा, चीं! इतवारीलाल ‘अलबेला’ ने अभी लेखक नहीं देखे। बौने लेखकों की जमात के बल पर राजा बना हुआ है। मैं ससुर को फिर से बौना बना दूँगा, बौना! पुनर्मूषको भव!...
अभी यह सब धाराप्रवाह चल ही रहा था कि अचानक किसी ने पानी में कंकड़ फेंका। सुधा के जोर-जोर से बोलने, बच्चों के ‘पापा...पापा’ कहकर रोने-चिल्लाने और चाँटों की चट-चटाक की आवाज आई, तो मामला धडड़ड़़...धड़ा..म हो गया।
बच्चे काफी पिट गए थे शायद। इस मामले में सुधा का सिद्धांत है (और वह कभी मेरी समझ में नहीं आया) कि या तो पीटो नहीं, या फिर इतना कड़काओ कि किसी एकाध बच्चे की एकाध हड्डी-वड्डी तो चटकनी ही चाहिए।
बहरहाल, मैं जो लेखन की दुनिया में काफी अंदर तक चला गया था, एकाएक शीर्षासन करता हुआ दूसरी दुनिया तक आया!...मैं दरअसल, जैसा कि शायद पहले भी बताया है, कामता बाबू पर एक उपन्यासनुमा लंबी कहानी लिखने की सोच रहा था। और सोच रहा था कि कहानी में उनकी उपस्थिति किस रूप में हो और उनके साथ क्या-क्या ड्रामेबाजी हो, जो भँप जाए? फिर यह भी कि उनके चेहरे में और कौन-कौन से चेहरे शामिल किए जाएँ?
तमाम चेहरे मेरे जेहन में थे, जिनके बीच से कामता बाबू का चेहरा बनना था। एक सुदर्शन, मगर खुर्राट चेहरा। ऐसे सत्तापुरुष का, जो सत्ता के ऊँचे सिंहासन पर भी काबिज है और संस्कृति की आत्मा भी है। हर क्षण मुसकराता हुआ सम्मोहक चेहरा, जो न दुख जानता है, न उदासी। और मेरे-आपके हर सवाल का जवाब उसका यही अमोघ अस्त्र, यानी मोहिनी मुसकान है।...
कहानी में असल कामता बाबू के गंजेपन को मैं हलके-फुल्के बालों से भर देना चाहता था। इसके अलावा मैं उन्हें, जैसे वे हैं, उससे थोड़ा अधिक तंदुरुस्त दिखाना चाहता था। हाँ, आवाज और गरदन को बारी-बारी दाएँ-बाएँ हिलाकर बोलने का अंदाज नहीं बदलना चाहता था और यह सचमुच मुझे प्यारा लगता है। मेरा ख्याल है, आप भी इसकी ताईद करेंगे।...जरूर करेंगे!
तो अब आप ही सोचिए, जब मैं ऐसी महाधाराओं में बह रहा था, तब सुधा का चिल्लाना मुझे कैसे लगा होगा?
“सुधा...!” गुस्से से बेकाबू होकर मैं चीखा। लग रहा था, मेरा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।
कोई जवाब नहीं मिला, तो धम-धम पैर पटकता बच्चों के पिटे हुए गालों और चीख में बदल चुके रुदन के एकाएक सामने आ पहुँचा। “क्या हो गया? तुम भी कभी-कभी सुधा, हद्द है भई...!” गुस्से में बिलबिलाते हुए भी मैंने बीच के कुछ ‘गैप्स’ जान-बूझकर रहने दिए दिए थे, ताकि मामला एक हद से ज्यादा न बढ़े। या बढ़े तो सँभाला जा सके!
“चीख क्यों रहे हो? मैं तुमसे ज्यादा जोर से चीख सकती हूँ।” सुधा की धीमी मगर तनी हुई आवाज मेरे कानों को चाकू की तरह काटती चली गई।
मैं जानता हूँ, सुधा जब अपनी पर आ जाए तो जीतना मुश्किल है। यह वही दृश्य था। हू-ब-हू वही। एकदम मैंने हाथ में लिए धनुष-बाण जमीन पर डाल दिए, “क्या हुआ सुधा, बताओ तो?”
“तुम्हारे जिम्मे था न, बच्चों को उठाना। फिर क्या हुआ अब?...घड़ी देखो जरा, कितने बजे हैं?” सुधा की तल्खी अभी कायम है, “मैं रसोई में थी। मुझे क्या पता था कि तुम...अम् हवाई किले बना रहे हो? पौने सात हो गए। अब बच्चे कब नहाएँगे, कब तैयार होंगे! कैसे बस पकड़ेंगे?”
“ओह सॉरी...मैं करता हूँ जल्दी से। बस, इतनी सी बात!” मेरे क्रोध ने झट कलाबाजी खाई। मैंने कामता बाबू और लंबी कहानी दोनों को मन ही मन गोली मारी और जोर-शोर से बच्चों से मुखाबित हुआ, “ऐ बच्चो, नहाने की जरूरत नहीं। फौरन मुँह-हाथ धोकर कपड़े पहनो और पाँच मिनट में मामला तैयार!...ठीक है?’
“नहीं, नहाना है।” सुधा के उसी तने हुए चेहरे ने कहा, “ये नहाएँगे और नहाकर तैयार होंगे। खाना खाएँगे। और देर हो गई, बस छूट गई तो...तुम इन्हें छोड़कर आओगे।”
“सुधा, इतनी दूर रिक्शे में आना-जाना!” मेरी आँखों में निरीहता की हलकी-हलकी घास उग आई है। समझौते की मुद्रा में मैं अब जमीन पर पूँछ पटपटा रहा हूँ।
“मैं कुछ नहीं जानती। सुबह की चाय पिए इतनी देर हो गई, तब से क्या कर रहे थे?”
“सुधा, एक जरूरी चीज थी, मैं लिखना चाहता था। मैं दरअसल लिखना चाहता था, मैं सोच रहा था कि...” मैं सफाई देने वाली मुद्रा में आ जाता हूँ।
गुस्से में कुछ ज्यादा ही लावण्यवती हो आई साँवली सलोनी सुधा पर इसका असर तो पड़ा होगा, पर ऊपरी दबंगी कायम रहती है। (फिल्मों की निरूपा राय? नहीं—अपर्णा सेन! थोड़ी उम्र कम करनी होगी।)
“ठीक है, तुम जानो, तुम्हारा काम। पर ऐसे घर नहीं चल सकता।” वह भुनभुनाती हुई रसोई में घुस गई। और थोड़ी देर में वहाँ से भुनते हुए जीरे की सोंधी महक बाहर आने लगी।
मगर बाहर जो तनाव था, उसका क्या किया जाए? मैंने बच्चों की ओर अनुरोध भरी निगाह से देखा। बच्चे इसका मतलब जानते हैं कि प्यारे बच्चो, पापा की लाज रखनी है। सो उन्होंने दो-चार मग जल्दी-जल्दी पानी डाला। उलटे-सीधे कपड़े गले में अटकाए। जूते डाले। खाना खाया। (इस बीच मैंने कंघियाँ कर दीं।)...बैग लगाया और हाँफते-हाँफते दौड़ लगा दी। बस मुश्किल से मिली। वह निकलने ही वाली थी कि मैंने मोड़ पर हाथ देकर रोक लिया—ओह, वह रुकी—हाय, रुकी! छोटी वाली और बड़ी दोनों बेटियाँ उसमें चढ़ गई हैं और अब हाथ हिला रही हैं।
बस के जाने के बाद भी मेरा ऊपर वाला हिस्सा देर तक धड़धड़ाता रहा। अब संतुष्ट लौट रहा हूँ। सोचते हुए कि बस न मिलती तो रिक्शा के पंद्रह रुपए जाते हुए और पंद्रह रुपए आते हुए, यानी तीस रुपए का फालतू खर्च। तीस रुपए का मतलब तीन या शायद चार दिन की सब्जी—मतलब...?
लेकिन मतलब कुछ भी हो, भीतर की भब्भड़ अभी गई नहीं है।
अलबत्ता लौटकर आया तो नहाने के लिए गुसलखाने में घुस गया। अभी कपड़े-वपड़े आधे-अधूरे पहन ही पाया था कि खाने की थाली मेज पर पटक दी गई।
“सुनो, तुम भी ले आओ, साथ-साथ खा लेंगे।” आवाज में जितनी नरमाई घोलकर कह सकता था, मैंने कहा। मैं दरअसल झगड़े का ‘सुखद समारोप’ करना चाहता था, मुंबइया पारिवारिक फिल्मों वाले अंदाज में!
“अभी मुझे और भी बहुत से काम करने हैं।” सुधा का वही रूखा-सूखा संक्षिप्त उत्तर।
मेरा माथा फिर गया। सुधा क्या बिल्कुल नहीं समझना चाहती चीजों को? बिल्कुल एडजस्ट नहीं कर सकती। उसे क्या पता, मेरे भीतर मेरी अनलिखी लंबी कहानी के कथानायक बैरिस्टर कामता बाबू कैसी उथल-पुथल मचा रहे हैं! बल्कि उथल-पुथल तो क्या, मारकाट...एकदम मारकाट—नादिरशाही ढंग से!! क्या सुधा बिल्कुल नहीं समझ सकती एक लेखक का मूड, एक लेखक की भावना, उसकी दुनिया...जो कामता बाबू से बनती है, जो सैकड़ों कामता बाबुओं से बनती है...जो उसके भीतर लगातार घुसते ही चले आते हैं, घुसते ही...!
सुधा को क्यों नहीं नजर आता यह सब? तो ठीक है, मुझे भी नहीं खाना। ऐसा खाना किस काम का, जो यों अपमान से ला पटका जाए? जिसमें जरा भी...अम् जरा भी स्नेह की चिकनाई न हो। वो...वो कवि ने कहा है न कि रहिमन रहिला (चना) की भली, जो परसे चित्त लाय। लेकिन रहिला की कौन सस्ती है? महँगाई, उफ महँगाई! यही जड़ है झगड़े की। मगर सुधा, यह कौन कम है?...इससे तो दफ्तर ही भला! उठाऊँ साइकिल...निकलूँ?
“सुनो चंदर!” सुधा की लरजती आवाज सुनाई पड़ती है, जब साइकिल बाहर सड़क पर आ जाती है। पर मैं गुस्से में अनसुना कर देता हूँ। मुझे करना ही चाहिए।
“सुनो!” मुझे फिर सुनाई पड़ता है, जब मैं साइकिल पर बैठकर पैडल मारना शुरू करता हूँ।
“सुनो...!” फिर वही आवाज, नहीं—आवाज की गूँज पीछा कर रही है। पर मुझे अब परवाह नहीं है। मुझे अब जाना ही है...जाना है दूर, बहुत दूर।
मैं पीछे मुड़कर देखना चाहता हूँ, पर नहीं देखता और तमतमाता हुआ साइकिल दौड़ाए लिए जाता हूँ। पर...
पर गली के मोड़ तक आते-आते जाने क्या होता है कि साइकिल खुद-ब-खुद धीमी पड़नी शुरू हो जाती है और मेरे भीतर उलटी रेल चलनी शुरू हो जाती है—ओह! सुधा कितनी परेशान रहेगी दिन भर! मैं रात आठ बजे लौटूँगा। तब तक कितना खून फुँकेगा इस बेचारी का।
घड़ी देखता हूँ—सवा आठ। अगर अभी लौट जाऊँ तो खाना खाकर, चाय पीकर साढ़े बजे निकला जा सकता है—यानी दस बजे वाली ट्रेन। थोड़ा लेट हो जाऊँगा, मगर...सुधा का एक दिन, पूरा एक दिन बरबाद होने से बच जाएगा।
मैं लौट पड़ा हूँ और अब मुझे यह ‘गिल्ट’ खाए जा रहा है कि सुबह-सुबह मुझे भाव-समाधि लगाने की क्या जरूरत थी? भाड़ में गई लंबी कहानी...! महाशय कामता बाबू कहीं भागे तो न जा रहे थे। और फिर रोज-रोज के काम, बच्चों की हड़बड़, व्यस्तताएँ! सुधा अकेली कैसे सँभाले? वह खुद भी तो दुखी और चिड़चिड़ी रहती है। इन दिनों तबीयत भी ठीक नहीं। एड़ी में और घुटनों में ऐसा दर्द रहता है जैसे पका हुआ फोड़ा हो। कभी-कभी तो जमीन पर पैर रखते ही चीख निकलती है। उसे भी थोड़ा सहारा, थोड़ी सहानुभूति चाहिए कि नहीं!
सबके अपने काम, अपनी जरूरतें हैं, मगर वह...? वह जो इस पूरे घर की ‘अंतरात्मा’ है, अकेले सहती है सबको!
घर आया तो मैंने चुपके से किसी शातिर चोर की तरह दरवाजा खोला, चुपके से साइकिल एक ओर रखी। झोला मेज पर पटका और देखते ही देखते मेरी आरामकुर्सी ने मुझ जज्ब कर लिया। पंखे की ठंडी हवा के नीचे मेरी आँखें बंद हो चली हैं। जाने कब सुधा आती है, जाने कब और गीले, अवश शब्दों में लपेटने लगती है, “मुझे पता था, मुझे पता था—तुम आओगे।” खुशी का एक आँसू उसकी आँखों में चमक रहा है। मैं उसे चूम लेता हूँ और खींचकर बाँहों में भर लेता हूँ, “सुधा...सुधा...मेरी प्यारी रानी, तुम्हारे बगैर मैं कुछ नहीं हूँ। मगर तुम...तुम मेरी मुश्किलें समझो न!” “समझती हूँ।” मुसकराती हुई सुधा खाना लेने चली गई। दोबारा गरम किए जाने के बावजूद कितने गिले-शिकवों से गीला हुआ खाना। अब शब्द मेरा साथ छोड़ रहे हैं मेरी कहानी के सुनने वालो! “ला-लला-ला-ला...!” कोई आधे घंटे बाद मेरी साइकिल लपकती हुई चाल से स्टेशन की ओर भागी जा रही थी।