एक स्क्वॉयर पैक और गोलछेद की कथा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 22 मार्च 2014
रजत कपूर की संजय मिश्रा केंद्रित फिल्म 'आंखों देखी' में दिल्ली 6 की आंकी-बांकी गलियों में निम्न मध्यम वर्ग के परिवेश और परिवार की कथा है, इसमें विषम तथा विपरीत परिस्थितियों में केवल रिश्तों के दम पर यह परिवार किसी तरह जीवन-यापन करता है। इस तरह के परिवार में रिश्तों की दरार आदमी को तोड़ देती है और रोज की आपसी तकरार ही उनके सपाट जीवन को चटपटा बनाती है। यह फिल्म हमें उस जीवन को नजदीक से देखने का अवसर देती है जिनके लिए किसी फलसफे को लेकर संजीदा होना हास्यप्रद बन जाता है और इस नाटकीय जीवन में भी उनका हंसना, ठिठोली करना सचमुच गंभीर समस्या है। अनगिनत लोग सरल सपाट और समस्याओं से भरी जिंदगी को उसकी लय में ही गुजार देते है परंतु यह यात्रा आसान नहीं है। कोई भीतरी ठहराव है जो हमें पागल होने से बचाता है, सच तो यह है कि इन हालात में लोगों का पागल नहीं हो जाना एक अजूबा है। जीवन के इस यथार्थ को रजत कपूर आपके इतने नजदीक ले आते है कि आप भी उसके एक निवासी बन जाते हैं तथा इस प्रभाव को पैदा करने में फिल्मकार रजत कपूर को रंगमंच के मंजे हुए कलाकारों का बहुत सहयोग मिला है। संजय मिश्रा तो उन धूसर दीवारों से झड़ी सूखी पपड़ी के मानिंद विश्वसनीय लगते हैं।
दो भाइयों का परिवार साथ रह रहा है और एक भाई अपनी सुविधा की खातिर उस समय जुदा होकर अलग रहने जाता है जब बड़े भाई ने इसलिए नौकरी छोड़ दी कि उसने अब सिर्फ सच बोलने का फैसला लिया है और वह अब एक स्क्वॉयर पैक की तरह है जिसे जिंदगी को गोलछेद में फिट नहीं किया जा सकता। समाज उसे उस अतिरिक्त भार फ्लैग्टोजैम की तरह बाहर फेंक देता है जो पानी के जहाज में लहरों के मिजाज की वजह से नीचे फेंक देते है। आज जीवन के विरोधाभास और विसंगतियों तथा टेक्नोलॉजी के जामेजम में देखी जिंदगी किसी भी व्यक्ति को बौरा सकती है।
यह अलग होने वाला भाई निर्मम बने रहने का अभिनय तो करता है परंतु दूसरों की आंख बचाकर संयुक्त परिवार की तस्वीर, जो वह अपने साथ लाया है, अवश्य देख लेता है। यह भावना का वह महीन धागा है जिससे परिवार के सदस्य बने रहते हैं और असली मुद्दा ही यह है कि बाजार केंद्रित दुनिया मनुष्य को भावनाविहीन बनाने में लगी रहती है परंतु सदियों का अनुभवी आम आदमी उसे संजोये रखता है। स्वयं रजत कपूर ने यह भूमिका अभिनीत की है परंतु वे सारा समय यह बखूबी जानते हैं कि यह संजय मिश्रा का शो है। उनका डायरेक्टर पद उन्हें कोई नाइंसाफी करने नहीं देता। यह रजत कपूर का कमाल है कि उन्होंने फिल्म रंगीन बनाई है परंतु वह इतनी विश्वसनीय और अपनी जानी पहचानी लगती है कि हमें श्याम और श्वेत फिल्म देखने का आनंद देती है जो हम दशकों पहले छोड़ चुके हैं।
पूरी फिल्म में पारम्परिक से गीत बजते हैं जो कथा का समानांतर प्रवाह नहीं हैं वरन् उसकी ही भीतरी यमुनाई लहर है। यह गीत संगीत की लहर कहीं कहीं ऊपरी सतह पर आ जाती है। सारे संवाद रोजमर्रा के जीवन का ही हिस्सा हैंऔर संवाद लेखक ने कहीं भी ताली पड़वाने का आग्रह नहीं किया है परंतु बरबस आपके हाथ तालियां बजाने लगते हैं। पूरी फिल्म में सहज स्वाभाविक हास्य की लहर चलती रहती है और एक क्षण भी आप बोर नहीं होते वरन् उस जिंदगी में रम जाते हैं। यह सिनेमा सिनेमा नहीं जिंदगी है और सब कुछ सहज और स्वाभाविक है।
क्या हमारा जीवन हमारे अपने अनुभवों का जमा-जोड़ है या अन्य के अनुभवों के सार को जो वजनहीन है भी हमने अपने में समाया हुआ है? गणित का शिक्षक कहता है कि दो समानांतर रेखाएं इनफिनिटी में मिल जाती हैं और यह इनफिनिटी महज कल्पना है। 'आंखों देखी' को सच मानें, इस कथन का तात्पर्य यह है कि कानों सुनी धोखा दे सकती है, परंतु आज टेक्नोलॉजी ऐसे भरम रचती है कि आंखों देखा भी सच कहां है। हमें शैलेन्द्र से ही सहमत होना चाहिए कि 'किरन परी गगरी छलकाये, ज्योत का प्यासा प्यास बुझाए...' अब ऐसा लगता है कि क्या सचमुच इतनी सादगी भरी सच्चाई लिए फिल्म मैंने देखी है यह वह महज ख्वाब था और अनुभव के द्वारा ही सत्य को जानने वाला पात्र हवा में तैरते हुए यह कहता है कि अब तो जो देखा सुना किया, वह मात्र ख्वाब है। यह एक सनक गए इंसान की कहानी नहीं है वरन् हम सबको चेतावनी है कि किसी दिन इस समाज के तनाव हमें भी ऐसा ना सकते हैं।