एक स्वर्ण जयंती और तलाक कथा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :04 अगस्त 2015
डोला मित्रा ने नंदिता रॉय व शिवोप्रसाद मुखर्जी की निर्देशित बंगाली भाषा में बनी फिल्म बेला शेश 'जीवन की शरद ऋतु' का सटीक सार्थक विवरण प्रस्तुत किया है। इस कॉलम में आज उसके जिक्र का कारण यह है कि दाम्पत्य जीवन की अबूझ पहेली पर कुछ प्रकाश डालने का प्रयास कल हो चुका है, अत: यह उसका पूरक लेख बन जाता है। दरअसल, भारत की अनेक सामाजिक व्याधियों का निदान ही एक स्वस्थ नैतिक परिवार है, इस मायने में राष्ट्रीय समस्याएं भी एक गृहयुद्ध ही हैं। जैसे ही हर व्यक्ति अपने परिवार के टूटते नैतिक धागों को जोड़ने का प्रयास करेगा वैसे ही भारत कबीर की बुनी 'चदरिया' की तरह हो जाएगा, जिसमें विविध धागे आपस में गूंथे हुए से लगते है। आज कबीर की 'चदरिया' ही तार-तार हो रही है। देश की शक्ति उसकी सम्पदा या सैन्य शक्ति में नहीं है वरन् उसके सॉफ्ट पॉवर अर्थात सांस्कृतिक सम्पदा है और जुलाहे तथा महानतम कवि कबीर की 'चदरिया' उसी सॉफ्ट पॉवर का प्रतीक है। यह गृहयुद्ध का अर्थ है कि परिवार का कोई व्यक्ति अपने खून के रिश्ते के भ्रष्ट व्यक्ति के खिलाफ खड़ा हो जाएं, क्योंकि हर भ्रष्ट का यह खोखला दावा होता है कि वह धन संचय परिवार के लिए कर रहा है। अजीब बात यह है कि संगठित अपराध जगत में भी अपने दल को 'फैमिली' ही कहते हैं। हममें से अधिकांश कमोबेश इस 'फैमिली' की तरह हो गए हैं।
बहरहाल, इस फिल्म में सौमित्र द्वारा अभिनीत पुस्तक विक्रेता बिस्वनाथ मजूमदार अपनी उनपचास वर्षों से शादीशुदा पत्नी आरती को तलाक देने के निर्णय की घोषणा पूरे परिवार के सामने करते हैं, जो खूब चाव से अगले वर्ष विवाह की स्वर्ण जयंती मनाने की योजना बना रहा था। उम्रदराज नायक अपने पुराने शांतिनिकेतन के निकट के घर में अकेले अपने शेष जीवन को बिताना चाहते हैं। परिवार ही नहीं सारा समाज ही इसे एक आदर्श विवाह और आदर्श परिवार मानता रहा है और इसे एक सैटल्ड परिवार माना जाता रहा है। सेटल्ड का पारम्परिक अर्थ है कि सब सदस्य ठीक नौकरियों में हैं या निरंतर आय बनी हुई है और आपसी प्रेम भी है परंतु अनेक 'सेटल्ड परिवार' की दीवारों में अदृश्य दरारें पड़ गई हैं और यह भीतरी टूटन सामूहिक सुरक्षा की खातिर छुपा ली गई है। सुख का मुखौटा भी अनेक दु:खों को पराजित कर देता है, एकता का दिखावा भी एक ताकत बन जाता है। प्राय: इस तरह की भीतरी टूटन का कारण आपस से संवाद की कमी और प्रेम पर भ्रामक विचार का पैदा होना है।
गत इतवार को 'जिंदगी' में एक संपूर्ण कहानी के पिता अपनी पत्नी का जरूरत से अधिक ध्यान रखते हैं और अपने अथाह प्रेम का डंका पीटते रहते हैं, यहां तक कि उनकी पत्नी कुछ दिनों के लिए मायके या पति की सगी बहन के यहां जाना चाहती है तो वे रोक देते हैं कि तुम्हारे बगैर एक पल नहीं कटता दस दिन कैसे कट सकते हैं। उनके बेटे का अभी विवाह हुआ है और पुत्र का मिजाज अपने पिता से भिन्न है। वह अपनी पत्नी से गहरा प्रेम करता है परंतु बार-बार उसे इसे जताना सख्त नापसंद है। पत्नी चाहती है कि वह अपने पिता की तरह बन जाएं परंतु वह समझाता है कि हर व्यक्ति का मिजाज जुदा होता है, अंदाजे बयां जुदा होता है। एक दिन बहू सास से अपनी बात कहती है तो सास उसे बताती है कि इतना अधिक खयाल रखे जाने या प्रेम जताने से अपने पूरे जीवन वह ऊबती रही है और उसके व्यक्तित्व का विकास ही नहीं हुआ है। बहु को बात समझ में आ जाती है, क्योंकि ठीक उसी समय ससुर अपनी पत्नी के हाथ के गिलास की चाय चखते है और कहते हैं कि शकर ज्यादा है तथा अपना कम शकर वाला प्याला पत्नी को दे देते हैं। उनके जाते ही सास-बहू ठहाका लगाते हैं, स्पष्ट है कि प्रेम में पजेशन का भाव नहीं आना चाहिए। पति और पत्नी दोनों को अपने-अपने व्यक्तित्व के विकास की स्वतंत्रता होनी चाहिए और प्रेम कितना ही प्रगाढ़ हो, वे दो व्यक्ति हैं और जन्मना जुड़वा नहीं हैं। जैसे ही आप व्यक्ति को वस्तु समझकर मालिकाना हक जमाते हैं, संबध टूट जाता है।
बहरहाल, बंगाली फिल्म में 'मालिकाना वाली समस्या' नहीं वरन् संवाद का न होना और साथ ही जीवन में कुछ समय एकाकी रहने का महत्व है। ये तन्हाइयों का एक आईना बन जाती है, जिसमें आप अपने अवचेतन के दोष देख सकते हैं। शादी संस्था के विघटन के दौर में यह फिल्म बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। र रिश्ते का कल्पना से नवीनीकरण और पुनरावलोकन आवश्यक है।