एक हताश व्यक्ति का त्यागपत्र / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :17 जनवरी 2015
सेंसर अध्यक्ष श्रीमती लीला सैमसन ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया है। उन्होंने 'एमएसजी' नामक फिल्म पर अंधविश्वास फैलाने की शंका के आधार पर रोकने के साथ प्रकरण केंद्रीय सरकार को भेज दिया था जहां से उसे हरी झंडी मिलने के संकेत उभरते ही त्यागपत्र दे दिया। उन्हें यह कार्य कुछ समय पहले करना चाहिए था। अमेरिका आैर अनेक पश्चिम देशों में यह परम्परा है कि आम चुनाव के बाद विपक्ष द्वारा मनोनीत सारे लोग त्यागपत्र दे देते हैं। यह भी ठीक है कि केंद्र अपने मनोनीत लोगों की नियुक्तियां करे। मोदी साहब को अपनी इच्छानुसार पांच वर्ष शासन करने दें आैर फिर वे स्वयं जनता के सामने अपना बहीखाता रखेंगे। श्रीमती लीला ने 'पीके' को निर्दोष पाया आैर उसके दोबारा निरीक्षण से इनकार कर दिया। सरकार द्वारा बनाए सेंसर का प्रतिनिधित्व करते हुए श्रीमती लीला ने 'पीके' को हरी झंडी दिखाई परंतु सरकार से अपरोक्ष रूप से जुड़े लोगों ने फिल्म का विरोध किया। सरकार का एक हाथ जो करता है, वह दूसरे हाथ को नहीं मालूम पड़ता। अब पंजाब सरकार केंद्र की सहयोगी है आैर उन्हें 'एमएसजी' पर राजनैतिक कारणों से विरोध रहा है परंतु हरियाणा के चुनाव में बाबा राम रहीम के शिष्यों ने मोदी साहब के दल को जिताने में अच्छा खासा सहयोग दिया था। इस तरह के द्वन्द जगह-जगह देखने को मिल रहे हैं आैर द्वन्द की धुंध को हटाने के लिए सारे पदों पर नियुक्तियां केंद्रीय सरकार ही करे तो बेहतर है। ऐसे भी चुनाव के बाद अफवाह गर्म थी कि अनुपम खेर सेंसर अध्यक्ष बनेंगे।
इन हालात में सेंसर की पृष्ठभूमि की कुछ जानकारियां आवश्यक हैं। हुकूमते बरतानिया ने 1918 में सेंसर बोर्ड का गठन किया था। उस समय सिनेमा विधा अपनी शिशु अवस्था में थी अत: अमेरिका आैर इंग्लैंड में डाक-तार सेंसर के नियमों को ही सिनेमा के नियम मान लिए गए परंतु विधा को थोड़ा विकास होते ही अमेरिका के हॉलीवुड ने सेंसर अधिकार अपने हाथ ले लिया। हुकूमते बरतानिया की रुचि केवल इस बात में थी कि किसी गुलाम देश में फिल्में राष्ट्र-प्रेम की भावना नहीं जगाए, इसीलिए उस कालखंड में 'तथाकथित खुलापन' यानि चुंबन, नग्नता इत्यादि पर कोई आपत्ति नहीं ली जाती थी। धन्य हो भारत के फिल्मकार जिन्होंने हुकूमते बरतानिया के सेंसर की आंख में धूल झोंक कर राष्ट्र-प्रेम की भावना जगाने वाली फिल्में बनाई जिसके लिए इतिहास आधारित ढंग की कहानियों पर भी फिल्में गढ़ी गई।
आजादी के बाद राज गोपालाचारी जिन्होंने सिनेमा को 'पाप का संसार' कहा आैर स्वयंभू पवित्रवादी मोरारजी भाई देसाई जैसे कुछ लोगों ने 'तथाकथित खुलेपन' को प्रतिबंधित किया। परिणामस्वरूप प्रेम जैसी पवित्र भावना की अभिव्यक्ति के लिए बेचारे परिंदों का चोंचें मिलाना, निरीह फूलों की डालियों का एक-दूसरे से टकराना आैर प्रेमियों द्वारा दरख्तों के गिर्द भागते रहना जैसे दृश्य रखे जाने लगे आैर दो घंटे की कथा को तीन घंटे की फिल्म के रूप में बनाया। करोड़ों फीट का आयात किया रॉ-स्टॉक इसमें नष्ट हुआ। 1951 में मंत्री एस.के.पाटिल की अध्यक्षता में फिल्म उद्योग पर रिपोर्ट करने को कहा गया आैर उनकी सिफारिशों के अनुसार सेंसर की नियमावली बदली गई। समय-समय पर कई संशोधन किए गए परंतु 'तथाकथित खुलापन' जाने कैसे सेंसर की सुई से निकल गया। हाथी निकल जाता था परंतु कभी-कभी दुम अटक जाती थी।
सेंसर द्वारा काटे हुए 'अभद्र दृश्य' नियमानुसार सेंसर कार्यालय पूना फिल्म संस्थान भेजता है जहां वे अटाले में बेतरतीब फैले हैं। एक बार पंचमराग के शासन काल में मैं पूना संस्थान कटे दृश्यों को देखकर सेंसर कार्य प्रणाली समझने के लिए गया था परंतु उस अटाले में कुछ भी नहीं खोजा जा सकता था। अनेक अंग्रेजी फिल्मों के कटे हुए दृश्य जाने कैसे छोटे शहरों में चलने वाली फिल्मों में लग जाते थे, जिसे इंटरपोलेशन ऑफ प्रिंट्स कहते हैं।
सेंसर में सिने विधा के कुछ जानकारों का होना जरूरी है। कई बार एक कट से पूरे दृश्य का अर्थ बदल जाता है। दरअसल सेंसर का मुद्दा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संविधान में प्रावधान किए गए मूलभूत अधिकारों से जुड़ा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता डेमोक्रेसी का आवश्यक हिस्सा है आैर स्वतंत्रता से मत देने से जुड़ा है। अब जो आम आदमी अपने मत से सरकार चुनता है, क्या वही आम आदमी अपना मनोरंजन नहीं चुन सकता। सारे अफसर, सरकारें, फिल्मकार जाने क्यों यह मानते है कि आम आदमी के लिए वे सब कुछ चुनेंगे। आम आदमी के पैदाइशी ज्ञान पर यकीन करें। हमने अपनी शिक्षा संस्थाआें में ऐसे पढ़े-लिखे भेजे जो रिश्वतखोर हो गए, अब नादानी पर भरोसा करके देखें। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक महान आदर्श है परंतु यथार्थ यह है कि कहीं कोई स्वतंत्र नहीं आैर बकौल निदा फाजली "जंजीरों की लंबाई तक है सारा सैर सपाटा"। लीला सैमसन की जंजीरों की लंबाई इतनी ही थी।