एक ही वृत्त की रेखाएँ / राजकमल चौधरी
ट्रेन जैसे ही देहरादून-जंक्शन पर रुकती है, अचानक सब कुछ बदल जाता है। सिर्फ मौसम ही नहीं, सब कुछ बदल जाता है। सिर्फ हवा ही नहीं, सब कुछ, सारा कुछ। आंखों के चारों ओर का वातावरण, मन की स्थिति, मानसिक विचारधाराओं का क्रम, वस्तुओं को देखने की दृष्टि, सपाट, समतल मैदान से उठकर दिमाग पुरानी पहाड़ियों और पहाड़ी रास्तों पर आवारागर्दी करने लगता है। कुली के सिर पर होलडाल और अटैची रखवाकर मणि बस-स्टैंड आया, तो दिन के तीन जब चुके थे। दिसंबर-जनवरी की शाम। मसूरी के पहाड़ों से आती हुई बर्फ की नमी-भरी हवा। एक अनजान कंपकंपी से मणिभूषण का हृदय भर उठा।
टिकट खरीदने के कुछ ही मिनट बाद स्टेट-ट्रांसपोर्ट की त्रिमूर्ति छाप बस देहरादून- राजपुर रोड पर भागने लगी। आदतन मणि ने सिगरेट जलाया, तो सामने बोर्ड पर ‘नो स्मोकिंग‘ लिखे रहने के बावजूद, कंडक्टर ने मना नहीं किया, क्योंकि बस के पहले दर्जे में मणि अकेला मुसाफिर था। पिछले दर्जे में दो-तीन पहाड़ी कुली थे और एक क्रिश्चियन बूढ़ी औरत थी, जो चुपचाप खिड़की से बाहर देख रही थी। अब चढ़ाई आ गई थी और मणि का सिगरेट खत्म हो चुका था और घुमावदार रास्तों पर बस रेंगती जा रही थी।
कंडक्टर एक सीट पर स्वयं भी बैठ गया और पहाड़ी बीड़ी जलाकर पीने लगा फिर कोल्हूखेत-टोल स्टेशन आ गया और कंडक्टर बोला, “सा‘ब, टोल आ गया है। आप मसूरी किसी को फोन करेंगे।“
मणि ने सोचा कि उसे फोन करना ही चाहिए। मगर वह किसे फोन करे? रिपब्लिक होटल के मिस्टर चड्ढा को? या सेवाय होटल के मैनेजर को? या स्ंिप्रग-बैंक की फ्रेंच महिला-हाउसकीपर को? नहीं, इन सबको फोन नहीं करेगा। वह होटल में रहने को मसूरी नहीं आया है। मगर वह सावित्री के यहां कौन-सा मुंह लेकर जाए? और जाए भी तो क्यों, किसलिए, किस आधार पर, किस उद्देश्य से? क्या सावित्री के बड़े भाई साहब की पंजाबी लहजे की बात वह स्वीकार कर सकेगा? क्या सावित्री का मौन उससे सहा जाएगा?
अचानक मणि बस से उतरा और टोल ऑफिस की खिड़ी पर रखा फोन उठाकर उसने कहा, “मसूरी थ्री-सिक्स-नाइन, प्लीज!“
“सॉरी, इंगेज्ड, प्लीज!“ उत्तर सुनकर जैसे मणि को राहत मिल गई। वह मुस्कुराया और एक ताजा सिगरेट जलाकर बस में आ बैठा।
अब सूरज पिच्छम की पहाड़ियों के पीछे छुपता हुआ भाग रहा था और हवा में बर्फ़ के लच्छे तैरने लगे थे। बस जब किंगक्रेग (मसूरी का बस-स्टॉप) पहुंची, तो वाकई बर्फ गिरने लगी थी, सफेद रुई के हल्के-हल्के लच्छे जैसी बर्फ।
कंधे पर पड़ी कश्मीरी शॉल सलीके से ओढ़कर मणि डबल रिक्शे पर बैठ गया और रिक्शा सनीव्यू की तरफ धीमी चाल से बढ़ने लगा, तो अपने-आप पर मणि मुस्कुराया। सावित्री से सावित्री के परिवार से, उसका चार-पांच वर्षों का घना परिचय है, और पत्र ़द्वारा वह सावित्री के बड़े भाई को सूचित कर चुका है कि वह सावित्री से विवाह करना चाहता है। अपने लिखे उस पत्र के वाक्यों को स्मरण कर मणि को हंसी आई। ...हुश! क्या पागलपन है!
लाइब्रेरी-बाजार आकर मणि धीमे स्वर में रिक्शेवालों से बोला, “शार्लविल गेट चलो।“
शार्लविल गेट के निकट ही मिसेज मेकेंजी की कोठी है। कई बार पहले भी मणि उनके यहां मेहमान रह चुका है। मिसेज मेकेंजी एक आस्ट्रियन महिला हैं, जो मिस्टर मेकेंजी (जो एक जाने-माने चित्रकार थे) के मरने के बाद यहीं स्थायी रूप से रह गई हैं। दरअसल मिस्टर मेकेंजी एक घुमक्कड़ चित्रकार थे, और वहां आस्ट्रिया में भी उनकी अपनी कोई संपत्ति नहीं थी। पहले यूरोपीय महायुद्ध के समय शरणार्थी बनकर भारत आए, मसूरी में कोठी खरीदी और यहीं रह गए। मिसेज मेकेंजी सीजन के दिनों फेमिली गेस्ट रखती हैं, इच्छुक लड़के-लड़कियों को गिटार और वायलिन सिखाती हैं, राज-परिवार की औरतों के लिए सिजनल कंपेनियन का काम करती हैं। दो लड़के हैं, जो नौ सेना विभाग में पायलट-अफसर हैं। साल-दो साल पर मां को मिलने आते हैं।
मणि को मिसेज मेकेंजी के यहां रहना अच्छा लगता है।
काल-बेल बनजे पर उन्होंने स्वयं ही आकर मणि के लिए दरवाजा खोला और एकबारगी चीख-सी पड़ीं, “हियर! अरे, यह तो अपनी प्रिंस मोनी है! हलो! कब ऊपर आए! आओ, अंदर आओ! बाहर बर्फ गिर रही है। वंडरफुल! मैं एक्सपेक्ट नहीं करती थी कि तुम बर्फ देखने आओगे। इस बार सीजन में आए नहीं?“
मिसेज मेकेंजी को बहुत बोलने की बीमारी है। दूसरे को भी कुछ बोलने की जरूरत पड़ सकती है, ऐसा वह नहीं समझतीं। रिक्शेवाले मणि का असबाब लाकर अंदर रख गए और वे बोलती रहीं। मणि ने लंबा-सा टिप दिया और अंदर ड्राइंग में आकर सोफे पर लेट-सा गया और वह बोलती रहीं। कोठी में दो नौकर थे, एक पहाड़िन आई थी और ये सब मणि को पहचानते थे और इसीलिए मणि का बिस्तरा कोठी के सबसे बेहतर कमरे में ले गए और वे बोलती रहीं-इस बार तो बहुत बर्फ गिरी है। मोर दैन फाइव फीट! कितने लैंड-स्लाइड्स हुए हैं। कैमेल बैक रोड तो पूरी बरबाद हो गई। उस दिन हमलोग मिस्टर ब्लेक के बरिअल सेरिमनी में गए थे। सड़कों पर दस-दस फीट बर्फ फैली है। बट इट इज वंडरफुली पोएटिक! तुम तो खुद शायर हो, प्रिंस मोनी, यू आर ए पोएट!...
मिसेज मेकेंजी चालीस के करीब हो गई और वयस के इस आधिक्य ने जैसे उनके स्वरूप को और भी सुंदर बना दिया है। स्कूलों में पढ़ानेवाली बूढ़ी मेमों की तरह उनका चेहरा विकृति और कुरूपता की तस्वीर पेश नहीं करता। मिसेज मेकेंजी की मुस्कुराहट अभी भी ताजा फूलों की तरह जीवित लगती है। साधारण कद, स्वभाव और शरीर के रंग में पवित्रता, बात-बात पर मुस्कुराना, घने रेशम के लच्छों-से केश, और सुंदर कपड़ों में लिपटे हुए सुंदर हाथ-पांव!
-- आई एम वेरी-वेरी हैप्पी, प्रिंस! दैट हैव कम! यहां ऑफ-सीजन के दिनों में अकेलापन बहुत खलता है। इट इज मोस्ट बोरिंग टु बी एलोन इन द इवनिंग्स!-अंत में वह बोलीं, और मणि की आंखों में देखकर अपनी आंखों में नकली लज्जा का आवरण डालकर हंसने लगीं।
जब मणि कपड़े बदलकर, बालों में कंधी डालता हुआ ड्राइंग रूम में आया, तो पहाड़िन नौकरानी बीच के गोल टेबल पर शाम की कॉफी लगा रही थी और मिसेज मेकेंजी बाहर बालकनी में किसी से बातें कर रही थीं। मणि को आया जानकर वह वहीं से बोलीं, “प्रिंस! मिस लिटिलउड आई हैं! शी इज योर ओल्ड फ्रेंड, इजिंट?“
मिस लिटिलउड से मणि का बहुत पुराना परिचय है। वह सेंट जार्जेज कॉलेज में पढ़ता था, तो मिस उड लड़कियों के होस्टल की वार्डेन थीं। अब भी मिस उड उसी पद पर हैं। लगभग चालीस वर्षों से मिस उड उसी पद पर हैं। गर्ल्स-होस्टल की ऊंची चारदीवारी, लड़कियों का शासन-अनुशासन, जासूरी उपन्यास-लेखकों की किताबें, एलेरी क्वीन! और अगाथा क्रिस्टी और कानन डायल और अर्ल स्टैनली गार्डनर की किताबें, अंग्रेजी फिल्में और फिल्मी अखबार, यही मिस उड का जीवन है।
भीतर आकर मिस उड ने मणि से हाथ मिलाया और सिर्फ एक वाक्य बोलीं, “इट इज नाइस टु मीट ए फ्रेंड इन विंटर!“ और खाली आरामकुर्सी में धंसकर दैनिक समाचार-पत्र देखने लगीं।
फिर मेकेंजी प्यालों में कॉफी बनाने लगीं।
-- जानते हो, प्रिंस, सर्दियों में हर साल मेरे घुटनों में दर्द उठने लगा है-मेकेंजी बोलती रहीं-मैं अक्सर बीमार रहती हूं। सीजन के दिनों में तो मेहमानों में सारा-कुछ भूल जाती हूं, मगर सर्दियां बर्दाश्त नहीं होतीं। हर साल सोचती हूं, नीचे दिल्ली या बंबई चली जाऊंगी। मगर कोठी दरबानों के भरोसे छोड़ी नहीं जाती। पीछे तो वे खिड़कियों के शीशे तक बेच डालेंगे। यू कांट हैव फेथ अपान सर्वेंट्स!
मिस उड चुप रहीं। मणि भी चुपचाप कॉफी पीता रहा। उसका ध्यान मिस उड की तरफ नहीं था, मेकेंजी की बातों की तरफ नहीं था, कॉफी के गरम प्याले की तरफ नहीं था, वह सावित्री की सोच रहा था...
मेकेंजी की बातों को रोकने के उद्देश्य से मिस उड बोलीं, “मणि सा‘ब, मुझे डॉक्टर सिन्हा कह रहे थे कि आप मिस्टर ठाकुर की बहन से शादी करने वाले हैं...“
“हां यह सच है। मैं मिस सावित्री से शादी करना चाहता हूं! इधर आप उन लोगों से मिली हैं?“ मणि ने पूछा।
“यस, आइ आफन सी देम!“
“सावित्री कैसी है?“
“शी इज वंडरफुल! अभी कल मेरे होस्टल आई थी। आइ एम हेल्पिंग हर इन लर्निंग फ्रेंच!“
अचानक मणि को याद आया, मिसेज मेकेंजी की कोठी में फोन भी है। उसने सोचा कि अब सावित्री को फोन करना ही चाहिए।
“मैं जरा फोन करके आता हूं,“ मणि उठकर बगल के कमरे में चला गया।
“मसूरी, थ्री-सिक्स-नाइन, प्लीज!“
“हलो, हू इज स्पीकिंग?“
“मणि स्पीकिंग।“
“ह्वाट सेड? कौन बोल रहा है?“
“मैं, मणि बोल रहा हूं!“
“मैं सावित्री हूं!“
“मैं समझ रहा हूं। तुम्हारी आवाज भूल नहीं सकता!“
“कहां से बोल रहे हो? देहरादून से?“
“नहीं, मिसेज मेकेंजी की कोठी से।“
“कब आए? पहले खबर क्यों नहीं की?“
“कुल दो घंटे पहले ही आया हूं!“
“दो घंटे बहुत होते हैं!“
“होते होंगे! मेरे लिए तो पांच साल भी कुछ नहीं है!“
“फिर?“
“फिर कुछ नहीं! कोठी पर कौन-कौन हैं?“
“कोई नहीं! भाई साहब देहरादून गए हैं। कल सुबह लौटेंगे। कोठी पर सिर्फ नौकर-चाकर हैं।“
“मैं आ जाऊं?“
“नहीं, मैं ही आती हूं। फिर साथ ही कोठी पर वापस आएंगे। कहां आ जाऊं?“
“गांधी चौक आ जाओ। में वहीं रेस्ट-हाउस में इंतजार करूंगा!“
फोन रखने के बाद मणि अपने कमरे में गया। कपड़े बदले। ओवरकोट और वाटरप्रूफ लिया। देहरादून में खरीदी गई वालनट की नई छड़ी उठाई और ड्राइंग में आकर बोला, “मिस उड, मिसेज मेकेंजी, आप लोग बातें कीजिए। मैं जरा दोस्तों से मिल आऊं!“
“दोस्तों से या सावित्री से!“ मेकेंजी ने मजाक किया। इस मजाक में बहुत अपनापन था, स्नेह था, इसीलिए मणि हंसने लगा। वैसे, मणि हल्का-सा भी मजाक बर्दाश्त नहीं करता। नाराज हो जाता है। और बहुत ही कपड़े शब्दों में उत्तर देता है। मणि के स्वभाव में जरा भी रस-बोध नहीं है। रक्त में सामंती कण होते हुए भी मणि रसिक नहीं है, उजड्ड है, जंगली है...
छड़ी घुमाता हुआ, धीमे स्वर में एक गीत गुनगुनाता हुआ मणि शार्लविल गेट के पास चला आया:
आइ लव्ड ए गर्ल इन द हिल्स आइ लव्ड ए गर्ल आइ पेड हर इच हेवी बिल्स आइ लव्ड ए गर्ल इन द हिल्स
मणि रिक्शे पर बैठने को ही था कि बड़े ही आत्मीय स्वर में किसी ने पीछे से पुकारा, “हलो, प्रिंस!“
मणि ने पीछे घूमकर देखा, सामने शार्लिविल होटल की उतराई की तरफ से नाइट-नेस्ट होटल का मैनेजर, मिस्टर भाखड़ी चला आ रहा है।
“कब आए, प्रिंस?“
“आया तो आज ही, मगर अब प्रिंस नहीं हूं, सिर्फ मणिभूषण हूं।“
“ए प्रिंस इज ए प्रिंस आलवेज! प्रिंस कभी अपने दर्जे से नीचे नहीं उतरता है! खैर यह सब छोड़ो! चलो, हिकमेंस चलें!“
“मैं हिकमेंस नहीं जा सकूंगा। एक इंगेजमेंट है। तुम अभी जाओ, भाखड़ी! तुमसे कल मिलेंगे!“ रिक्शे पर बैठता हुआ मणि बोला।
मगर होटल का अनुभवी मैनेजर यों ही छोड़नेवाला न था, “ऐसा कैसे होगा? इस बार तुम सीजन में भी नहीं आए। अब आए हो। चलो, कहीं बैठकर बातें करेंगे। इच्छा होगी, तो मिस कपूर को बुला लेंगे। अरे, तुम मिस कपूर को भूल गए? पिछले ही साल तो ‘क्वीन ऑफ हिल्स‘ टाइटिल जीता है उसने! अभी तो पूरे फार्म में है! चलो, तुम्हें मिलाएं उससे!“
“मैं नहीं जाता, भाखड़ी! तुम अभी जाओ।“ मणि को गुस्सा आने लगा था। सोसाइटी के ये दोस्त और सोसाइटी की ये लड़कियां उसे अच्छी नहीं लगतीं, क्योंकि, इनमें सिर्फ खोखलापन होता है। इनके खोखलेपन में शराब की बोतलें भर दो, जिस्मी हवस का वहशीपन भर दो, और कुद इनमें समा ही नहीं सकता!
“अच्छा तो अभी तुम जाओ। लगता है, किसी नए पंछी को टाइम दे बैठे हो। मगर प्यारे! आज रात किसी वक्त ‘नाइट नेस्ट‘ में जाओ। विंटर बॉल है आज वहां। सभी रहेंगे! मिस कपूर, कैप्टन भारद्वाज, मिसेज लूथर, मिसेज सिन्हा, बैरिस्टर भारती, मिस भारती...“
मणि का रिक्शा आगे बढ़ गया।
सावित्री गांधी चौक के रेस्ट हाउस में पहले से ही खड़ी थी। खूब जोरों की बर्फ गिर रही थी। सारा चौक उजला-उजला हो रहा था। जीत रेस्तरां और सब्जीवालों को छोड़कर सारी दुकानें बंद थीं। सनीव्यू के पास कुछ रिक्शे और कुली खड़े थे। एक एंग्लो-परिवार के बच्चे बर्फ में कुत्तों के पीछे भाग रहे थे। सावित्री चुपचाप रेलिंग के सहारे खड़ी कोहरे में डुबी हुई पहाड़ियों को देख रही थी। मणि रिक्शे से उतरा, तो सावित्री सीधे उसके पास चली आई। मणि को अचानक ही जैसे दिल में एक धक्का-सा लगा, हालांकि उसने मुस्कुराने की ही चेष्टा की। तकलीफ सावित्री को भी हुई, मगर सौजन्यपूर्ण मुस्कुराहट के आचरण में वह अपनी तकलीफ को कलापूर्ण ढंग से चुरा गई। एक सेकेंड तक झिझकने के बाद वह एकदम निकट आ गई और बिना एक भी शब्द बोले उसने मणि का दाहिना हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिया और लंबी पलकें झुकाकर सहमी-सहमी निगाहों से अपने होने वाले स्वामी को देखती रही।
जन्मतः सावित्री एक कश्मीरी लड़की थी। पहाड़ों का सारा सौंदर्य उसके स्वरूप में भरा था, संवरा था। उसकी दृष्टि में लज्जा के अतिरिक्त पर्वतीय निर्भीकता थी, निर्दोषिता थी। उसके शरीर का सारा कुंवारापन उसकी आंखों की निर्दोष रेखाओं में सिमट आया था। वह बीस-बाईस साल की थी और उजले सिल्क की साड़ी और काले ओवरकोट में बहुत भली लग रही थी।
मणि ने बहुत ही सीधी निगाहों से उसके समूचे शरीर को देखा और मुस्कुराया।
वह चुप रही। मुस्कुराने की भी आवश्यकता उसे प्रतीत नहीं हुई।
“मुझे आपके जाने की उम्मीद नहीं थी,“ उसने कुछ रुककर बहुत ही धीमे स्वर में कहा।
“मुझे भी उम्मीद नहीं थी कि मैं आ सकूंगा, मगर अचानक चला आया। एक दफा इच्छा हुई और कलकत्ते से देहरादून का टिकट खरीद लिया। पहले तुम्हें टेलिग्राम भी नहीं कर सका।“ उसने शरमाने की कोशिश करते हुए उत्तर दिया।
“आप दिल्ली होकर आए हैं? मिरिंडा हाउस गए थे?“ उसने पूछा।
मिरिंडा हाउस कॉलेज में सोनाली पढ़ती है। सोनाली एक बंगालिन युवती है और इस युवती से इन दिनों मणि का अच्छा-खासा रोमांस चल रहा है, यह बात सावित्री को पहले कई बार कई लोग बता चुके हैं।
“मैं कलकत्ते से सीधा यहां आया हूं। दिल्ली में कई आवश्यक कार्य हैं, मगर वहां गया नहीं। सीधा मसूरी चला आया।“ सावित्री की इस बात का मणि कोई कड़ा उत्तर देना चाहता था। मगर उसने अपने को संयत रखने की चेष्टा की। यों ही क्रोध प्रकट करके वह अपने को सस्ता नहीं साबित करना चाहता था। वह बर्फ-भरी यह शाम शिकवा-शिकायतों में बरबाद होने देना नहीं चाहता था। वह चाहता था, सौंदर्य, मात्र सौंदर्य! वह स्थिर दृष्टि से सावित्री के यौवनमय शरीर की उजागर सौंदर्य-रेखाओं को देखता रहा और जैसे रूप का खुमार उसकी आंखों में चढ़ने लगा। सावित्री के गले में उजले पत्थर का एक हार था, जिसके बीच में दो बड़े-बड़े मोती के गोल टुकड़े पड़े थे। वह और कोई अलंकार नहीं पहने थी!
“हमलोग क्यों नहीं टहलते हुए कैमेल बैक की तरफ चलें? वहीं से अपनी कोठी पर चले जाएंगे?“ सावित्री ने प्रस्ताव किया।
मणि ने कोई उत्तर नहीं दिया, चुपचाप सिगरेट जलाता हुआ आगे बढ़ने लगा। सावित्री भी चलने लगी। उसने मणि का हाथ छोड़ दिया और ओवरकोट पर गिरे बर्फ के कण झाड़ने लगी। मणि को अचानक फिर सावित्री पर बहुत गुस्सा आने लगा और सावित्री के विरुद्ध बहुत घृणा उसके मन में उपजने लगी। वह भूल-सा गया कि इस युवती से विवाह करने का प्रस्ताव उसने उसके बड़े भाई के पास रखा है और ऐसी कोई भी संभावना नहीं है कि उसके भाई इस प्रस्ताव से इनकार करेंगे या करना चाहेंगे। बल्कि यह संबंध उन्हें बहुत ही प्यारा जंचा होगा। मणि बहुत ही ऊंचे सामन्ती घराने के युवक हैं, डबल एम.ए. हैं, बैंकों में लाखों की जायदाद पड़ी है। कलकत्ते में भारी कारोबार है, और मणि बिजनेस संभालना जानता है। लड़की के अभिभावकों को इससे ज्यादा चाहिए ही क्या! मगर फिर भी मणि को घृणा हुई कि जिस तरह परवाने रोशनी की तरफ भागते हैं, वह क्यों इस सुंदर और सुसंस्कृत युवती के पीछे भाग रहा है? सावित्री उसकी बगल में चलती रही, चलती रही और उसके मन में घृणा का बोझ भारी होता चला गया। बर्फ गिरना बंद हो गया। कोहरा भी फटने लगा। और रात को अंधेरा फैल गया। पहाड़ों की काली, स्याह, अंधकार-भरी रात। बिजली के लैंप-पोस्टों की ज्योति में सड़कों पर जमा हुआ बर्फ का पानी चमकने लगा, और दूर की पहाड़ियां रोशनी की फूल-मालाओं से लदी दिखने लगीं। बाईं ओर गहरी घाटियां थीं। दाहिनी तरफ ऊंची कैमेल बैक की पहाड़ी थी, जिस पर लगातार कोठियां-ही-कोठियां थीं, सूनी-सूनी, उदास-उदास कोठियां। रास्ता एकांत था और डरावना लग रहा था। सामने के रेस्ट हाउस के पास जाकर सावित्री पत्थर की बेंच पर बैठ गई-आप एक सिगरेट पी लीजिए, फिर आगे चलेंगे!
“क्यों, थक गई क्यों?“
“नहीं, थक नहीं गई हूं। पिछले साल एक रात बड़ी देर तक हम और आप यहीं बैठकर बातें करते रहे थे। इसीलिए आज भी बैठ गई। यहां बैठना आपको अच्छा लगता है, आपने ही उस बार कहा था।“
“हो सकता है, मैंने कहा हो!“
“आपको अपनी ही बातें याद नहीं रहती हैं!“
“बातें याद रहना कोई अच्छी बात तो नहीं! जो भूल जाएं, वही अच्छा है। याद तो कभी-कभी बहुत दुख देती है। वैसे भी मैं कवि नहीं हूं। ये सब कविता-भरी बातें मुझे याद नहीं रहतीं। मैं तो व्यापारी हूं। कॉटन और जूट के भावों का चढ़ाव-उतार याद रहता है।“
जैसे मणि के व्यंग्य पर सावित्री ने ध्यान ही नहीं दिया हो, बोली, “अंधेरा है, फिर भी आज की रात बड़ी हसीन है।“
“मगर चांद नहीं है, सितारे नहीं हैं, आकाश में आवारा घूमते हुए बादल भी नहीं हैं!“
वह घूमकर मणि की ओर देखने लगी। कहीं मणि की बातों में कोई दूसरी बात तो नहीं है? या वह सच में मेरी हर बात काटना चाहता है। क्या वह मुझसे नफरत करने लगा है? क्या मिरिंडा हाउस की वह रवि ठाकुर के देश की लड़की मुझसे ज्यादा सुंदर है? या मणि मेरे किसी व्यवहार के लिए दुखी है? क्या मैं उससे असभ्यता से पेश आई हूं? क्या...
सावित्री ने फिर मणि का हाथ पकड़ लिया और उसकी उंगलियों से खेलने लगी। मणि पत्थर के बेंच की बांह पर बैठ गया और एक बहुत ही पुरानी फिल्म का गीत गुनगुनाने लगा:
फैली हुई हैं सपनों की बाहें आ जा चल दें कहीं दूर यही मेरी मंजिल यही तेरी राहें आ जा चल दें कहीं दूर
“आज की रात बहुत हसीन है, मेरा भी जी कोई गीत गाने को करता है!“ सावित्री ने मुस्कुराते हुए कहा।
“तो गाओ न!“ मणि ने कहा और चुप हो गया।
सावित्री बड़ी देर तक बहुत ही हल्के और मीठे स्वर में मणि का गुनगुनाया हुआ गीत गाती रही और सपनों की बाहों में डूबी-डूबी रही और मणि गीत के नशे में अलसाता रहा।
इस तरह, एक वर्ष के विछोह के बाद मिले हुए ये दोनों, प्यार और घृणा, सपने और सत्यों में डूबते-तैरते रहे।
“आप मिसेज मेकेंजी के यहां ही ठहरेंगे? उनके यहां आपको तकलीफ नहीं होगी?“ अंत में उसने मणि से साफ-साफ पूछा।
“कल तक ही तो ठहरना है। कल सुबह तुम्हारे भैया से बातें करूंगा। शाम को दिल्ली के लिए चल दूंगा। बर्फ देख ही ली। बेकार यहां रहने से कोई लाभ नहीं है।“
दिल्ली का नाम सुनते ही जैसे सावित्री को लगा कि वह इसी बर्फ में गल जाएगी! दिल्ली का अर्थ है सोनाली! और औरत का अर्थ है ईर्ष्या!
इसी वक्त एक खुला रिक्शा बगल सड़क से गुजरा। रिक्शे में एक मर्द और एक औरत बड़े ही अभद्र ढंग से बैठे थे और उस अभद्रता को पांच रिक्शा-कुली खींचे चले जा रहे थे।
“शेमलेस ब्रूटस !“ मणि चीखा और सावित्री लाज से गड़ गई। एक विचित्र सी झुरझुरी उसकी नसों में फैल गई और पता नहीं क्यों, उसे भी इच्छा हुई कि मणि भी उसे इसी तरह अपनी बाहों में घेर ले, पलेट ले और जकड़ ले। लाज, वासना, क्रोध, घृणा, प्यार, पाप, इच्छा, आकांक्षा, पुण्य हिंसा, जंगलीपन, सभ्यता की हजारों लहर एक साथ उसके संपूर्ण अस्तित्व को झकझोर गईं और नर्वस होकर उसने अपनी गोद में पड़े मणि के हाथों को छोड़ दिया, किनारे कर दिया।“
“मैं इस जंगलीपन से घृणा करती हूं।“
“क्यों?“ -उसने मुस्कुराते हुए पूछा।
“मैं कारण नहीं जानती। शायद मेरा संस्कार ही ऐसा है! मैं कोमलता पसंद करती हूं, विचारों में भी और कार्यों में भी!“
“मैं हर समय कोमलता पसंद नहीं करता!“
“कभी-कभी मैं भी जंगलीपन पसंद करती हूं। मगर इस वक्त नहीं! यह रात बहुत कोमल है!“ वह अपनी आंखें बंद करती हुई बोली, जैसे इस अंधेरी रात के सारे सौंदर्य, सारे एकांत, सारी शांति को वह अपनी बंद पलकों में समेट लेना चाहती हो।
“मेरे लिए कोमलता कोई मतलब नहीं रखती! भूख लगने पर मैं खाद्य पदार्थ की कोमलता, अर्थात उसका स्वाद नहीं देखता। मैं सिर्फ उसे खा जाना चाहता हूं। प्यास लगने पर मैं जल या कॉफी या व्हिस्की के गिलास या कप का रूप और कोमलता नहीं देखता! मैं सिर्फ उसके भरे पेय को पी जाना चाहता हूं। मेरी समझ में किसी वस्तु का सौंदर्य उसकी कोमलता और उसका काव्य नहीं है, बल्कि उसकी उपयोगिता की शक्ति है। जो वस्तु उपयोगी नहीं, चाहे कितनी भी कोमल हो, मुझे पसंद नहीं। इसीलिए किसी औरत के कोमल प्यार को मैं पसंद नहीं करता हूं! मैं पसंद करता हूं औरत का मजबूत शरीर, उसका निश्चल विश्वास, उसकी आंखों का सुदृढ़ तेज! वही तेज जो अग्नि-परीक्षा के समय मिथिला की राजकुमारी सीता की दृष्टियों में प्रज्जवलित था?“ इतना लंबा डायलाग मणि एक ही सांस में बोल गया। मणि के चरित्र में नाटकीय तत्व हैं। वह ड्रामा पसंद करता है। पैंट की जेबों में दोनों हाथ डालकर सामंती अदा में, आवाज भारी बनाकर धीमे-धीमे बोलना पसंद करता है।
मगर सामंती परिवार की परंपराओं में पली हुई, इस बुद्धिजीविनी लड़की ने उसकी बातों को प्रश्रय देकर रात के सौंदर्य को गंदला नहीं करना चाहा। इसलिए बोली, “अगर हम लोग कोमलता और जंगलीपन में उलझे रहे, तो स्वयं भी जंगली बन जाएंगे। सच तो यह है कि हम सभी जंगल-कानून को मानते हैं। वक्त पर चाय-कॉफी न मिले, बाथ के लिए गरम पानी न मिले, सिनेमा जाने के लिए कोई साथ न मिले, तो हमारा सिर दुखने लगता है, चकराने लगता है, फटने लगता है। यह जंगलीपन नहीं तो और क्या है?“ सामने नीचे की पहाड़ी पर आदिवासियों का एक गांव दिख रहा था। गांव में मशालें जल रहीं थीं और तुरही, ढाक और मुरली की धुन पर पर्वतीय गीत बज रहे थे।
“शायद गावं में विवाह हो रहा है।“
“होगा!“
“इन गांववालों की शादी की विधि बड़ी अजीब होती है,“ सावित्री ने विवाह की बातों का टॉपिक बदलना नहीं चाहा।
“बहुत अजीब! एक ही औरत एक साथ कई पुरुषों की पत्नी बन जाती है और बनी रहती है। चार भाई मिलकर एक हट्टी-कट्टी औरत खरीद लाते हैं और उसे बीवी बनाकर रखते हैं। न समाज ही इसका विरोध करता है, न वह औरत ही।“ मणि ने कहा।
“द्रौपदी और पांडवों की कथा झूठ नहीं है, ऐसा लगता है...“ सावित्री मुस्कुराई।
“औरत को द्रौपदी नहीं बनना चाहिए!“
“मगर इसमें द्रौपदी का क्या दोष?“
“दोष किसका है?“
“पांडवों का!“
“शायद तुम सच कहती हो,“ मणि सावित्री की बांहों में उंगलियां धंसाता हुआ बोला।
सावित्री बेंच से उठकर खड़ी हो गई, “अब चलना चाहिए।“
पानी फिर टिप्-टिप् बरसने लगा था और जलकणों में ओले के छोटे-छोटे टुकड़े भरे थे। रास्ते पर काफी बरफ जमी थी, जिसे बीच में काट-काटकर सिटी-बोर्डवालों ने रास्ता बना दिया था। बर्फ के जमने और बरसात के कारण सड़क पर फिसलन थी, मगर बार-बार मणि के शरीर पर गिरकर सावित्री यह साबित नहीं करना चाहती थी कि वह जानबूझकर उसका सहारा लेना चाहती है। मणि बहुत सीधा तनकर चल रहा था। बर्फ पर चलना उसे आता था। आइस-स्कीइंग और स्केटिंग में वह स्कूल के दिनों से ही माहिर था। मगर सावित्री बार-बार फिसल रही थी और पांवों के जूते बर्फ की परतों में फंस रहे थे।
कैमेल बैक रोड का बड़ा सा ग्रेवयार्ड आ गया। सारे मसूरी के क्रिश्चियनों का शव यहीं गाड़ा जाता है। मीलों लंबी है यह कब्रगाह! अंधेरे में ऊंचे-ऊंचे क्रासों की सफेद परछाइयां मन पर विचित्र सी तस्वीरें खींचने लगती हैं। सावित्री को डर लगने लगा। वह मणि के शरीर से सटकर, एकदम सटकर चलने लगी। मणि मुस्कुराया और बोला, “डरनेवाली हर लड़की को किसी निडर पुरुष का सहारा लेना ही पड़ता है!“
मणि बहुत निडर है, वह कितनी रात अकेले ग्रेवयार्ड में घंटों बैठा रहा है, वह भूत-प्रेत तक नहीं मानता, ये बातें सावित्री को मालूम हैं। मणि के स्वभाव के इसी दुस्साहसों के कारण वह आरंभ में उसके प्रति आकर्षित हुई थी। बचपन के फेयरी-टेल्स और ग्रीक-टेल्स का साहसी राजकुमार यह मणि ही था!
‘आशियाना‘ - सावित्री की कोठी का मुख्य द्वार आ गया। दरवाजे पर ही पाइन के दो ऊंचे दरख्त थे, और लोहे के मेहराबों में कितनी ही अपरिचित झाड़ें लटकी थीं।
दरवाजे के पास आकर मणि रुक गया, और प्यार-भरे स्वर में बोला, -“इन पेड़ों और मेहराबों से बहुत ही प्यार है मुझे! रातों में कितनी बार कितनी देर तक अकेले खड़े होकर इन्हें देखता रहा हूं।“
“क्या मैं लौट न जाऊं मिसेज मेकेंजी मेरी प्रतीक्षा करती होंगी। अच्छा, कुछ देर और सही।“ उसने सावित्री के पीछे-पीछे, उतार पर चलते हुए कहा, और कोठी के मेन लाइट में रिस्टवाच देखने लगा। मगर पानी की बूंदें डायल के शीशे पर जम गई थीं, और वह अक्षर पढ़ नहीं पाया। हाथ से शीशा साफ करके देखने की इच्छा उसे नहीं हुई।
बरामदे में ही कुछ नौकर बैठे हुए थे, जिन्होंने उठकर मणि का वाटरप्रूफ और छड़ी ले ली। सावित्री बोली, “मणि बाबू, कम टु माई फ्लैट!“
सावित्री का कमरा काफी बड़ा और खिड़कियों से भरा था। इस वक्त सारी खिड़कियों के शीशे चढ़े थे, कमरे के बीच में सोफासेट के करीब बिजली का हीटर जल रहा था। दीवारों पर खास्तगीर, हुसैन और अमृता शेरगिल की तस्वीरें। एक कोने में शीशे के स्टैंड पर महात्मा गौतम की एक बड़ी सी मूर्ति। दूसरे कोने में फिश-बॉक्स। सफेद जल में तैरती हुई छोटी-छोटी रंगीन मछलियां। नियन लाइट। कहीं भी अरुचि नहीं, सारा कुछ जैसे किसी मेहमान के लिए सजाया गया हो। ऐसा लगता था कि कमरे में कोई रहता ही नहीं। एक किनारे बड़ा-सा पियानो-सेट रखा था। मणि सीधा वहीं गया और मखमल का ढक्कन उठाकर पियानों से खलने लगा। सावित्री बगल के कमरे में चली गई।
मणि पियानो पर एक गीत बजाने लगा, एक पुराना गीत, जो सावित्री को बहुत प्यारा था:
के सेरा सेरा... के सेरा सेरा व्हेन आइ ग्रियू अप एंड फेल इन लव आइ आस्क्ड माइ स्वीट हर्ट, व्हाट लाइज एहेड विल वि हैव रेन-बो डे आफ्टर डे...
अचानक बगल के कमरे से सावित्री चीखी, “मणि बाबू, यह गीत रहने दीजिए! यह गीत मत बजाइए!“
“क्यों न बजाऊं?“ मणि जानता था कि वह क्यों वह गीत नहीं सुनना चाहती है। सावित्री बड़ी सेंटीमेंटल लड़की है। हांगकांग की एक स्टेज-गायिका के चेहरे पर एक दूसरी औरत ने तेजाब की भरी बोलत फेंक दी थी; क्योंकि वह गायिका ‘के सेरा सेरा‘ गा रही थी:
विल वी हैव रेन-बो डे आफ्टर डे हियर इज व्हाट माई स्वीट हर्ट सेज के सेरा सेरा... व्हाट एवर विल बी विल बी द फ्यूचर इज नॉट आवर्स टु सी के सेरा सेरा... के सेरा सेरा...
कपड़े बदलकर सावित्री हांफती हुई आइ, “मणिबाबू, यह गीत मत बजाइए! मेरा दिल बैठने लगता है!“
पियानो सेट पर विलायती गुलागों का एक लंबा-सा गुलदस्ता पड़ा था। मणि ने एक फूल उठा लिया और उसे दांतों से कुरेदकर खाने लगा। सावित्री सोफे पर बैठ गई और टेबल पर पड़ा अखबार देखने लगी।
एक फैशिनेबल पंजाबिन नौकरानी कमरे में आई और पूछने लगी, “बीबीजी, डिनर लगाऊं?“
“अभी रहने दो। हम खुद नीचे आ जाएंगे! तुम जाओ।“ सावित्री ने उत्तर दिया।
नौकरानी मणि को लंबा-सा सलाम दागकर लौट गई।
मणि लगातार दो-तीन गुलाब के फूल खा गया। फिर सावित्री की बगल में आकर बैठ गया। फिर उसने सावित्री के हाथ चूम लिए। सावित्री शरमा गई और इलस्ट्रेटेड वीकली में नव-विवाहितों की तस्वीरें गौर से देखने लगी।
मणि के दिल में कई विचार एक साथ तैरने लगे थे। ...सावित्री! सावित्री उसकी मंगेतर है, उसकी प्रेमिका है, उसकी अपनी है। वह सावित्री को प्यार करता है। विवाह के बाद हनीमून मनाने वह कश्मीर जाएंगे, श्रीनगर में हाउसबोट पर झेलम के सातों पुलों और बाजारों की चक्करें लगाएंगे। विवाह के बाद उसके जीवन पर राज करेगी, जिसका वह बरसों से इंतजार में लंबी बरसातों की तरह उसने आंसू बहाए हैं। उसने प्यार भी किया है। ...
फिर उसे याद आया कि वह सावित्री से नफरत करता है। मिरिंडा हाउस की सोनाली की तरह सावित्री में आग नहीं है। वह शोला नहीं है, जिनमें लपक हो, जला सकने की ताकत हो। सावित्री धीमी चाल में बहनेवाली नदी है, तूफान नहीं है। वह और सावित्री, दोनों एक-दूसरे से भिन्न तत्वों के बने हैं।
अचानक मणि की नजरें बुक-शेल्फ पर गईं। ऊपर के खाने में किताबें नहीं थीं, सिर्फ एक छोटी-सी तस्वीर, गोल फ्रेम में रखी थी, मणि की तस्वीर! वह मुस्कुराया।
सावित्री मणि की मुस्कान का अर्थ समझ गई। फिर बोली, “अब कुछ नहीं होगा। यहां से उठकर मैं मिसेज मेकेंजी के यहां जाऊंगा। डिनर लूंगा। नाइट सूट पहनूंगा। जेब में ढेर-से रुपए डालूंगा और ‘नाइट नेस्ट‘ चला जाऊंगा। वहां मिसेज लूथर होगी, मिसेज सिन्हा होगी, मिस कपूर मेरी प्रतीक्षा करती होगी। मिस्टर भाखड़ी ने कपूर को बताया होगा कि मैं प्रिंस हूं। इसीलिए मिस कपूर मेरे ग्लास में स्कॉच ज्यादा और सोडा कम डालेगी और खुद भी मेरे लिए स्कॉच का गिलास बन जाएगी। बस, यही सब होगा!“ मणि ने कहा और उठकर कमरे में टहलने लगा।
सावित्री ने सोचा, यह जंगली आदमी विवाह कैसे करेगा? मणि तो आदमी नहीं है, रायल बंगाल टाइगर है। मणि तो गुलाब की पत्तियों को भी नोचकर खा जाता है।
सावित्री उदास-उदास दृष्टियों से मणि को देखने लगी। उसकी आंखें बहुत चौड़ी हो दर्द से भर गईं।
“आप ऐसी बातें क्यों करते हैं?“
“तो क्या गीता के अद्वैतवाद की चर्चा करूं।“
“आप लड़कियों में बहुत इंटरेस्टेड हैं?“
“बहुत लड़कियां मुझमें इंटरेस्टेड हैं!“
“इससे कोई फर्क नहीं पड़ता!“
“मत पड़े! मुझे क्या है...“
“मगर, ऐसे कैसे चलेगा?“ वह धीरे-धीरे, बहुत उदास स्वर में बोली, “आपको याद है, आपने मेरे भाई साहब को कुछ वादे किए हैं!“ “तुमसे विवाह करने का वादा किया है!“ वह एकदम घूमकर व्यंग्यपूर्ण लहजे में बोलने लगा, “शादी, एक घर, एक परिवार, सभ्य पति होना, लगातार एक के बाद एक संतान पैदा करना, संतानों का विवाह करना, इश्योरेंस-पॉलिसी खरीदना, यही न?“
“मैं कुछ नहीं कहूंगी! आप जो कीजिए!“
“बहुत-बहुत शुक्रिया!“
मणि चुपचाप उठकर फिर कमरे में टहलने लगा। सावित्री पत्थर बनी बैठी रही। उसका कलेजा धड़क रहा था और हांफने के कारण शरीर की रेखाएं थरथरा रही थीं।
“मैं जभी यहां आया और तुमसे मिला, तुमने मुझसे पूछा कि क्या मैं दिल्ली होकर आया हूं? तभी मुझे तुमसे नफरत हो गई! मुझे ईर्ष्या करनेवाली औरतें अच्छी नहीं लगतीं। मेरे पिता के पास चार बीवियां थीं। मेरे पिता के पिता की सत्रह थीं। मगर किसी ने नहीं सुना कि मेरी ग्रैंड मदरें या मेरी मांओं में कभी कोई झगड़ा हुआ था या उन्होंने एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या प्रकट की! मैं बीसवीं सदी का आदमी नहीं हूं। मेरे अंदर हिंदू-युग का एरिस्टोक्रेट सामंत जीवित है, मेरे रक्त में जीवित है। वह औरतों को ईर्ष्या का अधिकार नहीं देना चाहता है!“ मणि बहुत देर तक अपना भाषण चालू रखना चाहता था। मगर सावित्री उठ खड़ी हुई।
बोली, “अब आप जाइए! मिसेज मेकेंजी को रात में ज्यादा देर तक जागने की आदत नहीं है!“
मणि शार्लविल गेट पहुंचा, तो उसकी घड़ी में दस बज चुके थे।
मिस लिटिलउड जा चुकी थीं और मेकेंजी डाइनिंग में अंगीठी के पास बैठी बेनएम की ‘साइंटिफिक हैंड रीडिंग‘ पढ़ रही थीं, और खास-खास रेखाओं को अपने हाथ से मिलाती जा रही थीं। मणि को देखते ही बोलीं, “यू केम एट लास्ट! मैं तो निराश हो गई थी। खैर चलो, डिनर लिया जाए। मैंने तुम्हारे ऑनर में फाउल बनाया है।“
डिनर-टेबल पर मणि ने बहुत सीरियस होकर मेकेंजी से पूछा, “मैं सावित्री से मैरिज कर लूं, मिसेज मेकेंजी?“
गोश्त का बड़ा सा टुकड़ा चबाते हुए उन्होंने कहा, “एक सवाल पूछती हूं! तुम सावित्री को प्यार करते हो?“
“यस! मैं करता हूं। मैं किसी और लड़की को प्यार नहीं करता!“ मणि ने तुरंत उत्तर दिया, और मणि के उत्तर से मेकेंजी को हंसी आने लगी।
तब डिनर के बाद कॉफी पीने के समय उन्होंने मणि से कहा, “दो-तीन बार किसी मिस कपूर का फोन आया। प्रिंस मोनी को ‘नाइट नेस्ट‘ बुलाती है। तुम वहां हो आओ। सुबह तक सारा-कुछ करेक्ट हो जाएगा!“
‘नाइट-नेस्ट‘ मसूरी बार्लोगंज रोड पर शहर के एक किनारे बसा हुआ छोटा-सा मगर बहुत सुंदर होटल है। छोटा-सा डाइनिंग-हाल और उसकी बगल में ही छोटा सा, सजा सजाया बॉल-रूम। बॉल खत्म हो चुका था, और एक बड़े से केबिन में टेबल के चारों ओर बैठे कुछ लोग फ्लश खेल रहे थे।
प्रिंस मणिभूषण, ‘नाइट-नेस्ट‘ का मालिक-मैनेजर मिस्टर भाखड़ी, मसूरी की ब्यूटी क्वीन मिस कपूर, किसी सिंधी सेठ की अमरीकन बीवी मिसेज लूथर, जो अब तक अपने पुराने पति के नाम से ही पुकारी जा रही है, ईस्टर्न कमांड का मिलिटरी सर्जन डॉ, दत्ता...ताशों के पत्ते... फ्लश, रन, रनिंग ट्रेल...बीवी का पेयर... बादशाह का पेयर...हंसी, ठहाके, सीटी, सिसकारियां, कहकहे... जब मिसेज लूथर अपने नए मित्र डॉ. दत्ता के साथ चली गई और फ्लश अपने आप ही रुक गया, क्योंकि भाखड़ी के पास ज्यादा खेलने के पैसे नहीं थे और मणि जान बूझकर हारना नहीं पसंद करता था।
भाखड़ी, कपूर और मणि स्काच की एक नई बोतल पीने लगे और मणि को लगा कि वाकई मिस कपूर बहुत सुंदरी है, ब्यूटी-क्वीन कही जाने लायक सुंदरी!
कपूर हंस-हंसकर मणि से बातें करने लगी और भाखड़ी चुपचाप ताश के पत्तों से मीनाबाजार लगाता रहा।
“आप बहुत खूबसूरत हैं!“
“शुक्रिया!“
“मैं तो भाखड़ी का शुक्रगुजार हूं कि उसने मेरा आपसे परिचय करा दिया।“
“आप कलकत्ते रहते हैं?“
“वहां जूट की अपनी मिलें हैं।“
“मैं अक्सर कलकत्ते जाती हूं।“
“अब हमलोग वहां मिल सकेंगे।“
“एक गिलास स्काच और लीजिए।“
“मैं अकेला नहीं लेता। तुम पी लो।“
“मैं ज्यादा नहीं पीती।“
“मैं भी शराबी नहीं हूं।“
“मैं तुम्हें शराबी बना दूंगी।“ कपूर ने अपनी बाहें मणि के कंधों पर फैला दीं और फ्रांसीसी सेंट की सुगंध से मणि का दिमाग तर होने लगा। दूर किसी टावर की घड़ी बड़ी देर तक बारह का घंटा बजाती रही।
“आपलोग बातें कीजिए,“ लड़खड़ाता हुआ भाखड़ी उठा और कहता हुआ बाहर चला गया, “मैं बेयरों को छुट्टी देकर अभी आया।“
“अब नहीं आएगा वह। उसने बहुत पी ली है।“ मणि बोला।
“मैं जानती हूं। मैंने ही उससे कहा था कि वह मुझे आपसे इंट्रोडक्शन करा दे। मैंने पिछले साल आपको शिमले में देखा था। आज अचानक सुना कि आप यहां ‘तशरीफ‘ आए हैं।“ कपूर सीधे शब्दों में बोलती रही। उसका स्वर तनिक भी थरथरा नहीं रहा था। थरथरा रही थीं सिर्फ उसकी बांहें, जो मणि की गर्दन में ज्यादा-से-ज्यादा लिपटती चली जा रही थीं।
पता नहीं क्यों, मणि को यह एकांत और स्तब्ध वातावरण अच्छा लग रहा था।
“आप क्या करती हैं, मिस कपूर?“
“मैं कानपुर में एयर-होस्टेस हूं! अब कलकत्ते ट्रांसफर करवा लूंगी। कानपुर मुझे अच्छा नहीं लगता। नो सोसाइटी देयर! नो फ्रेंड!“ “स्कॉच की बोतल में थोड़ी सी शराब और बच रही थी। मणि सोच रहा था कि वह एक पूरी बोतल पी जाए, और जब उसका गला जलने लगे, तो फिर एक दूसरी बोतल पी जाए और इस तरह ही सारी रात बीत जाए।“
मिस कपूर सोच रही थी कि कलकत्ता बहुत ही शानदार शहर है, और प्रिंस मणि कई जूट-मिलों का मालिक है।
उधर बेयरों के कमरे में, शराब में धुत भाखड़ी चीख रहा था, “तुम साला लोग सब चोर है। तुमलोग सब खाना खा गया! सब फाउल करी पी गया! ...हमारा गेस्ट अब क्या खाएगा? तुमलोगों का हेड खाएगा?... गेट आउट! यू आल ब्लडी, गेट आउट!“
फिर लगातार शीशों के बरतन पटके जाने की आवाज।
मिस कपूर थोड़ी उतावली होने लगी, क्योंकि मणि उसके शरीर के प्रति कोई आकर्षण नहीं दिखा रहा था। इसलिए उसने मणि के गिलास में बची-खुची शराब डाल दी और बोली, “भाखड़ी के स्टॉक में अब एक बूंद भी व्हिस्की नहीं है! कहो तो एकाध बोतल रम की ले आऊं!“
“कुछ भी ले आओ! अपना क्या आता-जाता है!“ मणि सिगरेट जलाने की चेष्टा करने लगा।
कपूर भाखड़ी के कमरे से जाकर रम की दो बोतलें उठा लाईं। टेबल पर बोतलें रखकर उसने अपना ओवर-गाउन कुर्सी की पीठ पर डाल दिया और पुलोवर भी उतारने लगी। स्वेटर के नीचे उसने नियन की लो-कट ब्लाउज पहन रखी थी। मगर, मणि ने एक बार भी प्यासी निगाहों से उस तरफ नहीं देखा। कपूर ऊबने लगी और ऊबकर दो गिलासों में शराब ढाली और गंगाजल की तरह गट्-गट् कर अपना गिलास खाली कर गई। मणि कुछ सोचता हुआ गिलास में भरी शराब देखता रहा और फिर एक ही सांस में पी गया।
दूसरा गिलास पीने के बाद उसे लगा, जैसे वह शतरंज खेल रहा है। उसे लगा, जैसे कमरे की छत नहीं है, शतरंज की बिसात है और उसमें गोटियां उल्टी लटक रही हैं। गोटियों में सिर्फ प्यादों की कतारें हैं और रानियां हैं। और ‘चन्द्रकान्ता‘ उपन्यास का राजा वीरेन्द्र नेज़े पर हाथ रखे, शिवदत्त से कह रहा है, लानत है ऐसी बहादुरी पर! बड़े जवां मर्द बनते हो, तो आ जाओ मैदान में! ... कमरा तेजी से घूमा। घूमा और तिरछा होकर...रुक गया। लेकिन तिरछे रुकने के बाद भी कमरे की कोई चीज गिरी नहीं। रानियां वैसी ही मुस्कुराती रहीं और राजा वीरेन्द्र सिंह, जिसने चुनार गढ़ का तिलिस्म तोड़ा था और महारानी चन्द्रकान्ता का आशिक था, वैसे ही शिवदत्त की लानत कर रहा था।
कपूर को दूसरा गिलास पीने का साहस न हो सका। वह बासी फूलों की मालाओं-जैसी अपनी दोनों बांहें मणि के गले के इर्द-गिर्द डाली हुई बोली, “भाखड़ी शायद अपने कमरे में बेहोश पड़ा है। अब मुझे भी नींद आ रही है। तुम्हें मुझसे काम-वाम भी है या मैं चली जाऊं?“
फ्लश में जीते हुए मणि के सारे रुपए टेबल पर ही पड़े थे। उनकी ओर इशारा करके वह बोला, “तुम रुपए लोगी, तो सारा उठा लो!“
“मैं रुपए नहीं लेती!“ वह रूठने लगी।
“देने लायक मेरे पास और कुछ भी नहीं है,“ मणि ने कपूर की बांहें अपनी गरदन से निकालते हुए कहा और धीरे-धीरे गिलास में शराब डालने लगा। गिलास भर गया और छलक-छलक कर शराब टेबल पर गिरने लगी।
कपूर तमककर उठ खड़ी हुई और चिल्लाई, “यू ओल्ड हिपोक्रेट! यू...यू...यू...यू फूल!“
मणि चुपचाप शराब ढालता रहा और शराब छलक-छलककर टेबल पर, फ्लश में जीते गए रुपयों पर, रेजगारियों पर, मिस कपूर के हैंडबैग पर, ऐश-ट्रे, सिगरेट केस पर गिरती रही और वातावरण में दुर्गंध फैलने लगी। ...
इसी वक्त कमरे में डॉक्टर सत्यवान ने प्रवेश किया। डॉक्टर सत्यवान लखनऊ के प्रसिद्ध नेत्र-विशेषज्ञ हैं। अभी-अभी जर्मनी के दौरे से लौटे हैं। वहीं से एक पत्नी लाए हैं।
“हलो डॉक्टर!“ शराब से भीगे लहजे में मणि ने उनका स्वागत किया।
“नमस्ते डॉक्टर!“ कपूर गालियां देना बंद करके कुर्सी पर बैठ गई।
“आपलोगों ने इरेने को देखा है?“ वृद्ध डाक्टर ने टेबल के करीब खड़े होकर पूछा।
“इरेने कौन है?“
“यहां कोई इरेने नहीं आता है!“
“इरेने लड़का है या लड़की?“
“मैं भी नहीं जानती!“
“मिसेज लूथर थीं, सो डॉक्टर दत्ता के साथ चली गईं।“
“वे दोनों आपको किसी रेस्ट-हाउस में मिलेंगे। यहां नहीं हैं!“
अगर डॉक्टर सत्यवान बीच में टोकते नहीं तो मिस कपूर और मिस्टर मणि इसी तरह बोलते चले जाते।
“मैं किसी लूथर या दत्ता को नहीं ढूंढ़ता हूं! इरेने मेरी पत्नी है। इसी साल वह जर्मनी से मेरे साथ आई है। मैं उसी को ढूंढता हूं। वह शाम को ही घूमने निकली। तब से अभी तक वापस नहीं लौटी है! आपने उसे देखा है?“ डॉक्टर सत्यवान ने बहुत ही शोकपूर्ण मुद्रा में प्रश्न किया।
“क्या हुआ सुबह चाय के वक्त तक जरूर,“ मणि हंसने लगा। फिर बोला, “नहीं लौटी है, तो लौट आएंगी!“
“आप बड़े ही कच्चे दिल के हसबैंड हैं! क्या एक रात भी दोस्तों में रहने का अधिकार आप जर्मन नारी को नहीं देंगे?“ कपूर ने डॉक्टर सत्यवान का हाथ पकड़ कर पूछा।
बगल के कमरे से भाखड़ी के चीखने की आवाज आई। शायद उसे उल्टियां हो रही थीं। किचन-रूम में बेयरे अभी तक आपस में झगड़ रहे थे।
डॉक्टर स्त्यवान वापस लौट गए और मणि ने समूचा गिलास, जिसमें लबालब शराब भरी थी, कपूर के सिर पर उड़ेल दिया और कपूर चीखती हुई भाखड़ी के कमरे भागी।
मणि टेबल पर पड़ा सारा रुपया जेब में डालकर केबिन से बाहर और हाल से बाहर, होटल से बाहर चला आया।
लैंडोर बाजार...माल रोड...पिक्चर पैलेस...कुलड़ी...क्वालिटी...जेनरल पोस्ट ऑफिस..झूला घर...हिक्मेंस होटल...स्टैंडर्ड स्केटिंगरिंग...लाइब्रेरी चौक के पास आकर मणि रुक गया और सोचने लगा कि इतनी रात को अब वह कहां जाए?
उसके पैरों के नीचे बरफ की परतें थीं और ऊपर चारों ओर अंधेरा छाया हुआ था। पूरा ओवरकोट पानी की हल्की फुहारों से भींग रहा था और जूते में बरफ की परतें पड़ गई थीं।
अचानक वह मुड़ा और तेज कदमों से कैमेल बैक रोड पर चलने लगा, बहुत तेज कदमों से...
कहानी, मई 1958