एक हौसलामन्द दिल की आवाज़ (अलिकसान्दर सुर्कोफ़) / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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1962 में ‘सरे-वादिए-सीना’ का रूसी अनुवाद प्रकाशित हुआ। इस रूसी संग्रह की भूमिका उसके अनुवादक और फ़ैज़ की शायरी के प्रेमी और विद्वान अलिकसान्दर सुर्कोफ़ ने स्वयं लिखी। इस भूमिका को पहले तो रूसी से उर्दू में सहर अंसारी ने प्रस्तुत किया था, अब इसे हिन्दी में गोबिन्द प्रसाद प्रस्तुत कर रहे हैं। — सम्पादक

संमता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गयी तो क्या ग़म है

कि ख़ूने-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने

ज़बां पे मुहर लगी है तो क्या; कि रख दी है

हरेक हलक़ए-ज़ंजीर में ज़बां मैंने

मास्को में दिसम्बर की सर्दियों की एक शाम को जिन्दगी में पहली बार फ़ैज़ के इस जोशीली शायरी ने मेरे दिल में बेचैनी पैदा कर दी थी। 1954 ई. का साल रूख़्सत हो रहा था और बर्फ़ का एक तूफ़ान पूश्किन के सुरमयी बुत के आस-पास सुरीली आवाज़ में गा रहा था। पहरेदार सिपाही चौराहों पर खड़े सर्दी से कांप रहे थे। मास्को के एक गर्म और आरामदेह फ़्लैट में सोवियत संघ के एशियाई मित्रों यानी लोकतांत्रिक देशों के शायरों और सुदूर एशिया से आये हुए मेहमानों की महफ़िल में हिन्दुस्तान के शायर अली सरदार जाफ़री एक अनजानी ज़बान के लगभग गुनगुनाने के अंदाज़ में शेर पढ़ रहे थे। शेर सबके दिलों में जादू जगाते जा रहे थे। इन शेरों में मुहब्बत के नाज़ुक जज़्बों की कसक थी, जेल की तन्हा कोठरी में क़ैद इनसानी तमन्नाओं का ग़म था और एक इंक़लाबी का भड़कीला आक्रोश भी था। ये शेर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के थे, जो हमारी बातचीत में शामिल न हो सके थे और मास्को से बहुत दूर मंटगोमरी जेल में तन्हाई के रात-दिन बसर कर रहे थे। इसी लम्हे शायद वो सलाख़ों से बाहर का दृश्य देख रहे होंगे, वो चमकते सितारों से भरे आसमान को तक रहे होंगे या फिर शायद अपने हौसलामंद तपते हुए दिल की गहराई में जन्म लेने वाले मिसरे (पंक्तियां) मन ही मन दोहरा रहे होंगे।

तीन महीने बाद वक़्त वही था जो मास्को में पिछली सर्दियों की हवाओं की मौजूदग़ी में था। मैंने एक बार फिर ऐसे शेर सुने जो दिल को अपनी तरफ़ खींच लेते हैं और उनकी अनुभूतियों की ऊर्जा से ही मानी की मंज़िलें तय होने लगती हैं।

उस वक़्त मैं देहली में था। मार्च शुरू ही हुआ था। सियाह आसमान पर बेशुमार सितारे झिलमिला रहे थे और पृष्ठभूमि में सदाबहार दरख़्त रात की धुंध में खड़े नज़र आ रहे हो। लालक़िले से बहुत दूर और संगीन दीवारों के साये में गाड़ियां ख़ामोशी से गुज़र रही थीं और रिक्शा छलावों की तरह भाग रहे थे। वो सब उस जगह की तरफ़ आ-जा रहे थे जहां बिजली के लट्टुओं से रौशन विशाल, रंगारंग पंडाल, हरियाली और बेशुमार रंगीन फूलों से लदे हुए अनजान पेड़ अपनी बहार दिखा रहे थे। पंडाल में एक मुशायरा हो रहा था। एक के बाद दूसरे शायर माइक्रोफ़ोन पर आते रहे और मुशायरे में जान पड़ती रही और फिर अली सरदार जाफ़री ने चंद ऐसी नयी नज़्मों को सुनाया जो मंटगोमरी जेल के तन्हा कमरे की उदास और रंगीन दीवारों की क़ैद में लिखी गयी थीं।

अब फ़ैज़ वहां अपनी कै़द का पाँचवाँ साल गुज़ार रहे थे।

रंग-बिरंगे पण्डाल में अचानक सन्नाटा और काँपती हुई चुप्पी छा गई। हर लफ़्ज साफ सुनाई दे रहा था। एक-एक लफ़्ज दिलों में उतरता चला जा रहा था और ऐसी जगहों पर जहाँ शायर के शेर एहसास की गहराई में डूब जाते और फिर आक्रोश की प्रतिध्वनि बनकर उभरते तो जैसे सारा पण्डाल एकदम जाग उठता और गायक की आवाज़ के साथ बड़े जोशो-ख़रोश से दाद देने लगता। उस वक़्त मैं फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के बारे में क्या जानता था?

यही कि अपनी जनता को औपनिवेशिक शासन की ग़ुलामी से आज़ाद कराने की जद्दोजहद में वो जवानी के दौर से ही पूरी लगन के साथ शामिल हैं। मुझे मालूम था कि दूसरे महायुद्ध के ज़माने में फ़ासिज़्म से अपनी घृणा की अभिव्यक्ति के लिए वो विदेशी एंग्लो-इंडियन फ़ौज में एक अफ़सर बन गए थे और जंग के बाद कर्नल की हैसियत से कार्य मुक्त हुए। वो एक पुरजोश पत्रकार थे जो औपनिवेशिक शिकंजे और स्थानीय आकाओं की गु़लामी से अपनी जनता को आज़ाद कराने के विचारों को बढ़ावा देने के लिए दिलो-जान से सक्रिय थे। फ़ैज़ अपने राजनीतिक लेखों और एक निःस्वार्थ क्रांतिकारी की हैसियत से अपनी सरगर्मियों के ज़रिए पाकिस्तान के बेहतरीन राष्ट्र सपूतों के कंधे से कंधा मिलाकर बेग़र्जी और जोशो-ख़रोश के साथ जद्दोजहद में व्यस्त थे। प्रतिक्रियावादी इस बेमिसाल शायर की सत्यनिष्ठा और शब्द शक्ति से भयभीत थे। इसलिए अकेलेपन की यातना और जबरदस्ती बेकारी का शिकार बनाने के लिए उन्होंने मंटगोमरी और हैदराबाद की जेलों में फ़ैज़ को पाँच साल लम्बी कै़द के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन शायर की ज़िन्दा और जीवन में जान फूँकने वाली दिल की धड़कनों पर पथरीली जेल की अंधेरी रात हावी न हो सकी और न क़ैद के दिनों की संवेदनशून्य और घनी ख़ामोशी उनके नग़मों पर कोई चुप्पी लगा सकी। जेल की संगीन दीवारों में से भी उनके हौसलामन्द दिल से वो नग़मे बेताब होकर निकलते रहे जो जनता, ज़िन्दगी और मादरे-वतन की मोहब्बत से भरे हुए थे। उनके नग़मों के पैरों की सरसराहट पाकिस्तान और चन्द दूसरे मुल्कों की सरज़मीन पर सुनाई देती रही और लाखों इनसानों के दिलों को गरमाती रही।

आखि़रकार प्रतिक्रियावाद का अंधेरा और इंक़बाली शायरी की रौशनी की जंग में शायरी ही कामयाब और फ़तहयाब रही। ख़तरे और वो भी मौत के लगातार ख़तरों से भरे हुए पांच साल की कै़दोबंद की मुसीबतें ख़त्म हुईं और देशभक्त शायर आज़ाद हो गया। एक बार फिर अतीत की तरह, बल्कि उससे भी ज़्यादा जोश और उत्साह के साथ इस जद्दोजहद को जारी रखने के लिए, जिसकी ख़ातिर उसने अपनी ज़िन्दगी भेंट कर दी थी, शायर अपना काम करने लगा। अपने हमवतनों के लिए, तमाम कौमों के बीच दोस्ती को बढ़ावा देने के लिए और तमाम इनसानों के लिए शांति का माहौल पैदा करने के लिए और अब ज़ंग खायी ज़ंजीरों और हथकड़ियों की गिरफ़्त से आज़ाद होकर वो ज़्यादा ताक़त और जज़्बे की सच्चाई के साथ अपने जोशीले और भड़कीले नग़मे फ़ज़ा में बिखेर रहा है।

1958 ई. की पतझड़ ऋतु के बाद ताशक़ंद में अफ्ऱो-एशियाई लेखकों का मशहूर सत्रा हुआ जिसमें फ़ैज़ ने सशक्त लीडर की हैसियत से शिरकत की। वहां उनसे पहली बार मेरी मुलाक़ात हुई। उस शायर से मुलाक़ात हुई जिसकी कल्पना मैं अपने दिल में बसाये हुए था। फ़ैज़ के लिए वो पहले के मुक़ाबले उदासी का ज़माना था। पाकिस्तान में हुकूमत का तख़्ता उलटकर ग़ैर- लोकतांत्रिक शक्तियों ने शासन संभाल लिया था।

मास्को में साहित्यकारों की संस्था के एक कमरे में हम बैठे हुए थे। हम दोनों नज़्में पढ़ रहे थे और रूसी ज़बान में फ़ैज़ की नज़्मों का एक संग्रह प्रकाशित करने के बारे में बातचीत कर रहे थे। फिर इत्तिफ़ाक़ से हमारी गुफ़्तगू का रुख़ नज़्मों से हटकर उस वक़्त की सियासत की तरफ़ हो गया।

तो फिर निकट भविष्य में आपका क्या इरादा है?

फ़ैज़ ने अपनी सियाह आंखों से, जिनकी गहराई में कुछ उदासी थी, मेरी तरफ़ देखा। लेकिन उनके होंठों पर हल्की सी मुस्कुराहट मौजूद थी।

‘बस पहले तो मैं लंदन जाऊंगा, वहां अपने चंद दोस्तों से मिलूंगा जो अभी-अभी पाकिस्तान से आये हैं। उसके बाद ज़ाहिर है कि मैं कराची, लाहौर, अपने वतन वापस चला जाऊंगा ....।’

‘लेकिन आप जानते हैं कि अब वहां...।’

उनके होंठों के किनारों पर वही हल्की सी मुस्कुराहट थी।

‘ज़ाहिर है कि इस सूरत में तो मुझे वतन ही वापस जाना चाहिए।’

‘तो फिर जेल यक़ीनी है...।’

‘शायद... और अगर किसी बड़े मक़सद की ख़ातिर इनसान को जेल भी जाना पड़े तो ज़रूर जाना चाहिए।’

‘लेकिन अगर... जेल से भी बदतर कुछ हो तो...?’

शायर ने खिड़की से बाहर की तरफ़ देखा जहां बाग़ के बीचोबीच तोल्सतॉय की मूर्ति थी, सर्द और उजड़े हुए आसामन पर नज़र डाली। मुस्कुराहट बदस्तूर मौजूद थी। कुछ पल ठहरकर उन्होंने अपने ख़ास अंदाज़ में आहिस्ता से कहा --

‘अगर जेल से भी बदतर कोई चीज़ हुई तो फिर यक़ीनन बुरा होगा। लेकिन तुम जानते हो जद्दोजहद बहरहाल जद्दोजहद है...।’

ये था उनका शांतिपूर्ण लेकिन विश्वास से भरा हुआ जवाब।

मैं अपनी ज़िन्दगी में ऐसे बहुत से लोगों से मिल चुका हूँ। उनमें से बहुत से निडर बेबाक़ और साहसी भी थे और अपनी ज़िन्दगी के मक़सद को पूरा करने के लिए जानो-दिल से अपने कामों में डूबे रहते थे।

वे हर किस्म की यातना, यहां तक कि अड़ियल मौत को भी बर्दाश्त करने का हौसला रखते थे।

फ़ैज़ में ये धैर्य और सहनशीलता और यह भरोसा, यातना सहने का माद्दा मौत से लड़ने की बदौलत पैदा हुआ है। एक ऐसी मौत जो जद्दोजहद के लिए अपने को भेंट कर देने वालों के लिए निश्चित होती है। फिर भी मुसीबतों की आंखों में आंखें डालकर देखने की जो जुरअत फ़ैज़ में थी उसने मेरे सारे वजूद (अस्तित्व) को डगमगा दिया।

फ़ैज़ की शायरी का तर्जुमा करने की ग़रज़ से मैंने उनका एक-एक मिसरा बड़े ग़ौर से पढ़ा। मेरी कोशिश यह थी कि जहां तक मुमकिन हो अनूदित मिसरों में लय-सुर और उनकी भावुकता और हौसलामंद दिल का जज़्बा बरक़रार रहे। इस कोशिश में न सिर्फ़ उनके शेरों का भावनात्मक उतार-चढ़ाव जिसे दूसरी भाषा में रूपांतरित करना लगभग असंभव है, बल्कि एक जांबाज़ शायर और इनसान का शांतिपूर्ण और स्पष्ट धैर्य मेरी रूह में गूंजने लगा। शायर, जिसने एक इंक़लाबी की हैसियत से ख़ुद अपनी ज़िन्दगी को एक नग़मे में ढाल लिया और अपने नग़मे को जद्दोजहद का एक प्रभावशाली हथियार बना लिया है। जद्दोजहद की मंज़िलों से गुज़रते हुए पूरब के एक प्रतिष्ठित प्रगतिशील शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के इन नग़मों को सोवियत पाठकों से परिचित कराते हुए मुझे बेहद खु़शी हो रही हे। अध्ययन के दौरान फ़ैज़ की शायरी में क़ैद की यातनाओं की अनुभूति भी होती है जिससे दिल उदास हो जाता है। लेकिन फिर भड़कीला जोश और जज़्बा इस अनुभूति पर छा जाता है। अंधेरे का रूपक उनकी शायरी में बार-बार आता है। लेकिन वो शेर ज़्यादा रौशन हैं जिनमें शायर के वतन पर उदय होने वाली सुबह की पहली किरणों का स्वागत किया गया है और अध्ययन करने वाला यक़ीनन महसूस करेगा कि आज़ादी की मुहब्बत और शायर के मुसीबतज़दा वतन को असल शायरी किस तरह एक अंदाज़ और एक रंग में ढाल देती है।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : गोबिंद प्रसाद