एड्स / प्रभा खेतान / पृष्ठ 1
कथासार / समीक्षा
छोटी-छोटी घटनाओं को गंभीरता से उठाती प्रभा खेतान की ये उपन्यासिका; जिसे लम्बी कहानी भी माना जा सकता है, पत्रिका 'आज` पूजा वार्षिकांक में प्रकाशित हुई। प्रभा ने इसमें विदेश यात्राओं व विदेशों में कदम-कदम पर समस्याओं का सामना करती हुई स्त्री का सूक्ष्मता से वर्णन किया है।
एक अमेरिकन व्यक्ति विश्व के सबसे बड़े पांच नगरों में अपने घर बनाता है, फिर भी बेघर भटकता है। वह अपने जीवन के प्रति आशंकित है। पत्नी को एड्स है। वह डॉक्टरों से अपने शरीर की पूरी जांच करवाता है और जांच में एच.आई.वी. रिर्पोट नेगेटिव होती है। फिर भी उसे डर है कि पत्नी की लाइलाज बीमारी एड्स उसे न ग्रस ले।
पत्नी सुखद दाम्पत्य जीवन में भी पति के दोस्त के प्रेम में आकंठ डूब जाती है और उसी से उसको एड्स मिल जाती है। वह अपने पति के सामने सब कुछ स्वीकार कर लेती है फिर भी पति उसे अपनाए रखता है। अस्पताल में पत्नी से मिलने जाता है, सीसे की दीवार के उस ओर पत्नी पल-पल करीब आती हुई मौत को देख रही है। अकेलेपन से त्रस्त वह व्यक्ति मानवीय संवेदना का स्पर्श चाहता है। बेटी उन दोनों को छोड़कर अपनी नानी के पास चली गई है क्योंकि उसे भी मृत्यु से डर लगता है।
दुनियां भर में पैर पसारती हुई एड्स जैसी गंभीर बीमारी और उससे भयाक्रांत इंसान का वर्णन प्रभा ने इस कहानी में किया है। वहीं पश्चिमी देशों में टूटते हुए परिवार की व्याख्या है। वहां अकेलेपन का दंश झेलता हुआ मनुष्य भौतिक सुविधाओं के बीच टूटता रहता है। वह मानवीय समर्पण को खोजता है लेकिन मिल नहीं पाता है।
विश्व पटल पर लिखी इस रचना में प्रभा पश्चिमी संस्कृति के अनेकों सच पाठकों के सामने बेहतर ढंग से रखने में सफल हुई हैं।