एन्क्लोजर / योगेश गुप्त

Gadya Kosh से
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उसके गन्दे कपड़ों के बावजूद वह निहायत खूबसूरत और फैशनेबुल लड़की उसकी बराबर वाली सीट पर बैठ गई.

बस में कोई आदमी खड़ा नहीं है पर घुटन बहुत है। गर्मी बहुत तेज पड़ रही है। उसके कपड़े उसके गन्दे-कुचैले कपड़ों से छू गये हैं।

घनश्याम बाहर देख रहा है। उसने अपनी कुहनी खिड़की में फंसा ली है। खिड़की बहुत गर्म हैं। नंगी खाल को टीन की चादर कुरेदती है। वह अपने कमीज की चढ़ी हुई बांह खोल देता है। कोहनी ढंक जाती है। अब कम गर्मी लग रही है। बाहर देखने में सुविधा है।

बस स्विस होटल से गुजर रही है। गर्मी की दोपहर है। सड़क खाली है। दोनों तरफ के पेड़ अपनी-अपनी छाया पर खड़े हैं। बस के अंदर बैठे कई लोग ऊंघ रहे हैं। हर स्टॉप पर ड्राईवर बस को एक झटका जान-बूझकर दे रहा है। कंडक्टर को जोर से आवाज न लगानी पड़े, ऊंघने वाले जाग जाएं।

"ओल्ड सेक्रेटेरियेट।"

न कोई उतरा, न कोई चढ़ा। बस चल दी।

घनश्याम बाहर ध्यान से देख रहा है। एक कीकर का पेड़ है। ऊंचा, घना। उसके नीचे एक खाट पर तीन जने बैठे हैं। एक-दूसरे की तरफ मुंह किये। एक-दूसरे को ताकत हुए. तीनों के हाथों में खरबूजों के टुकड़े हैं। वे चाकू से नहीं काटे गये हैं। हाथ से तोड़े गये हैं। खाट के नीचे बहुत सारे बीज और छिलके पड़े हैं।

बस तेजी से उनके पास से गुजरती है। घनश्याम को लगता है कि उस पेड़ की छाया जिसके नीचे वे तीनों आदमी बैठे हैं, पल को बड़े ही रहस्यमय ढंग से हिली है और उन तीनों के चेहरे कुछ धुंधले-से हो गये हैं।

उसे कुछ डर-सा लगा। उसने भीतर बस में देखा। वह लड़की वाकई बहुत खूबसूरत है और उसके कपड़ों का चुनाव एकदम मॉडर्न है। बस सुनसान है। कोई आवाज नहीं, किसी में कोई हरकत नहीं।

उसने फिर बाहर देखा। फिर पीछे मुड़कर देखा। दूर हवा में तीनों खरबूजे खाते, खाट पर बैठे, लम्बे-चौड़े आदमी तैर उठे। हवा बंद है। पर छाया हिली है।

वे तीनों आदमी धुंधलाए हैं। उसके दिमाग में जाने काहे की एक बंूद टपकी है और वहाँ से उतरकर सारे शरीर के रोम-रोम में घुल गई है। वह होंठों ही होंठों में बुदबुदाया है-डाकू।

उसका ख्याल है कि वे तीनों ज़रूर डाकू हैं और कहीं डाका डालने की प्लान बना रहे हैं।

घनश्याम ने संतोष की एक सांस ली। उसे लगा जैसे एक सत्य उसके प्रति उद्घाटित हुआ है और वह प्रसन्न है। एक नजर में देखकर कौन किसको समझ पाता है।

पर वह पास बैठी इस लड़की से बहुत परेशान है। उसे ध्यान ही नहीं है कि उसके कपड़े मैले हो रहे हैं। वह इधर को खिसकी आ रही है और संभलकर नहीं बैठ रही है। बस तेज चाल से मोड़ पर मुड़ रही है और ड्राईवर को रत्ती भर इस बात का ध्यान नहीं है कि इतनी गर्मी में आदमी कितना अकेला होता है।

घनश्याम ने अपने-आपको संभाला और फिर बाहर देखने लगा। दूर क्षितिज तक उस सड़क के इस किनारे पेड़ ही पेड़ हैं। ऊंचे, घने, छायादार, स्तब्ध! बस जिस भी पेड़ के पास से गुजरती है उसकी छाया पल को जरा-सा हिलती है और उसके नीचे बैठे उन्हीं तीनों आदमियों के चेहरे पल को धुंधला जाते हैं। घनश्याम को हर पेड़ के नीचे वहीं तीनों आदमी बैठे हुए दीख रहे हैं। भीषणकाय! बड़े-बड़े खरबूजों को हाथों से फोड़ते हुए, उन्हें कचर-कचर खाते हुए, किसी षड्यन्त्र तें संलग्न।

बस में उसने देखा। सब सिर झुकाए उस बड़े षड्यंत्र के परिणामों के बारे में सोचते हुए.

घनश्याम अब उस लड़की की तरफ ध्यान से देख रहा है। ओह! किस कदर खूबसूरत है, किस कदर शानदार है। ऊंघ रही है तो कितनी अच्छी लग रही है। क्या यह भी उसी षड्यन्त्र के बारे में सोच रही है? ज़रूर सोच रही होगी। ये कतार की कतार त्रिकोण एक ही घेरे में फिट हैं। पर वह घेरा क्या है?

घनश्याम के मेले कपड़ों में से एक तीखी गंध आ रही है-मिट्टी के तेल और मोबिल ऑयल की गन्ध, जो उसके तमाम शरीर को एक शिथिलता से भर रही है। उस शिथिलता की बंूद-बंूद उसके दिमाग में टपक रही है और उसके रोम-रोम में घुल रही है। घनश्याम आज अपने कारखाने से जल्दी छुट्टी लेकर चला आया है। उसका मन काम करने का नहीं है।

...घनश्याम अपने घर से निकलकर गली में खड़ा हो गया है।

शाम का समय है और उसकी रात की ड्यूटी है।

उसे अभी कारखाने जाना है। गली में उसके घर की सीढि़यां गिरती हैं और इस समय वह आखिरी सीढ़ी से ज़रा नीचे खड़ा है। उसे पता नहीं है कि वह जाते-जाते अब रुक क्यों गया है। उसका दिमाग बिलकुल खाली है। वह इधर-उधर बिल्कुल बेमानी नजरों से देख रहा है।

गली मंे उभरे पत्थर जल रहे हैं। पत्थरों से गर्मी उभरकर चारों तरफ फैल रही है। गली के दोनों तरफ बहुत ऊंचे मकान हैं। उन मकानों में से निकलने वाले आदमी, औरत, बच्चे अभी कोई नहीं निकले हैं। कोई खाट अभी गली में नहीं आयी है। कोई औरत खाट पर नहीं बैठ गई है। मकानों की कोई खिड़की खुली नहीं है।

घनश्याम घर की तरफ पीठ किये खड़ा है। वह सोच नहीं पा रहा है कि वह क्यों खड़ा हो गया है। सात बजे से उसकी ड्यूटी शुरू है। साढ़े छः बजे हैं। आधा घंटा जाने में लगता है। उसे चलना चाहिए, वह वहाँ खड़ा है और अवाक् इधर-उधर देख रहा है।

दायीं तरफ गली बहुत लम्बी है। दूर सामने डॉक्टर की दुकान है। दुकान बंद है। डॉक्टर की दुकान की तरफ जाकर क्या करना है। गली मंे से निकलने के रास्ते को डॉक्टर की दुकान ने बंद कर रखा है। ऊंची इमारतों की एक लम्बी लाइन दूसरी तरफ। दोनों के कोने डॉक्टर की दुकान में डूबे हुए और वहाँ से उठती दवाइयों की भभक गर्मी से बारीक हुई हवा में रची-बसी. गली का माहौल एक घुटन का एहसानमन्द!

घनश्याम ने उधर से नजर फेर ली। जिधर से निकलकर बाहर न जा सके उधर देखना क्या?

पर कारखाने तो जाना ही है।

उसने बायीं तरफ देखा है।

इधर भी पचास कदम चलकर गली बंद, एक घूम लेती हुई.

घनश्याम एक कदम पीछे हटा। उसने पीछे मुड़कर अपने मकान की खाल को छुआ। उसके साथ सहारा लेकर वह खड़ा हो गया। उसे कुछ ढाढस हुआ। उसने फिर बायीं तरफ देखा। गली के बंद होने की प्रक्रिया नजर आई. एक गोलाई और जाने का रास्ता अनदीखता। उसका दम घुटने लगा। सामने आसमान को छूती एक इमारतों की कतार। पीछे आसमान की पट्टी. बायीं तरफ एक छोटी-सी गोलाई लिये। एक लम्बी बेंत हल्के नीले रंग की, बहुत सख्त, बहुत मिजाज वाली।

तो क्या वह कैद है?

बहर नहीं जा सकता?

पर साढ़े छः बजे हैं और कारखाने तो उसे जाना ही है।

घनश्याम अपने घर की तरफ पीठ किये सोच रहा है। उसने पीठ दीवार से लगा रखी है। अपने दोनों हाथ अपनी पीठ पर बांध रखे हैं। कारखाने जाने के लिए तिलमिला रहा है पर कैद है। समय बीतता जा रहा है। अँधेरा बढ़ता चला जा रहा है।

जाने कितने देर खड़ा सोचता रहता है।

अचानक वह मुड़ता है और सीढि़यों पर चढ़ने लगता है। सीढि़यों में अँधेरा है। कूड़ा और कहीं-कहीं गंदगी और थूक लिसा है। ढाई फुट चौड़ी सीढि़यां। घनश्याम उन पर चढ़ रहा है। एक, दो, तीन और... सत्रह!

उसका घर नीचे रह गया है। वह एक मोड़ लेकर फिर सीढि़यों पर चढ़ रहा। एक, दो, तीन और... इक्कीस! सक्कू का घर भी नीचे रह गया है... वह एक मोड़ लेकर फिर ऊपर चढ़ रहा है, एक... और फिर आखिरी सीढ़ी। एक छोटे-से दरवाजे में फिट आखिरी सीढ़ी। सामने खुली छत। आसमान साफ और परिन्दों भरा। फर्श पर न धूप न छाया। हवा ठंडी और गन्धभरी। शाम, पर खूब खुली चांदनी और चारों तरफ मुंडेरियां, सिर्फ़ तीन फुट ऊंची। उसकी टांगों तक आती हुई.

इधर से वह कारखाने जा सकता है।

यहां वह कैद में नहीं है।

स्वतंत्र होना उसके बस में है।

घनश्याम छत के बीचोबीच खड़ा है और चारों तरफ देख रहा है। चारों तरफ औरत-मर्द उसे छतों पर घूमते नजर आ रहे हैं। वह उन्हें टक लगाकर देखता है। किसी के चेहरे पर कोई उतावलापन नहीं है, उत्सुकता नहीं है, गम नहीं है।

साढ़े छः बजे चुके हैं। उसे ड्यूटी पर जाना है।

वह मुडे़र की तरफ चलता है।

मुंडेर को पार करता है और धीरे-धीरे मेन रोड की तरफ गहराई पर बैठकर नीचे उतरने लगता है, उस सड़क की तरफ जो कारखाने की तरफ जाती है। वह उस सड़क पर उतरेगा और कारखाने की तरफ चल देगा। उसका आज का दिन बेकार नहीं जायेगा।

बस ने जोर का झटका दिया। घनश्याम की झपकी खुली। वह पसीने में लथपथ हो गया है। पसीने की गंध, मिट्टी के तेल और मोबिल ऑयल की गंध सारी बस को घिनौना बना रही है। लड़की भी ऊंघ से जाग गई है। इधर-उधर देख रही है। जोर से सांस ले रही है। बस की काफी सीटें खाली हैं। वह उठती है और दूर बैठ जाती है। घनश्याम को अब उसका कुछ नहीं दिखाई नहीं देता।

वह बाहर की तरफ देखता है। वही कीकर का पेड़ और वे ही तीन आदमी। पर न खरबूजे खाते हुए, न खाट पर बैठे हुए. तीनों खड़े हुए और उसी की तरफ देखते हुए.

क्या वह सारा षड्यंत्र उसी के खिलाफ है?

बस चल रही है।

वह भीतर देखता है।

सब उसी की तरफ देख रहे हैं...

ये क्या है...?

वह आज कारखाने से क्यों जल्दी चला आया?

कंडक्टर पास आता है। बड़ी रूखी आवाज में पूछता है, "तुम्हारा टिकट खत्म नहीं हुआ?"

"हो गया।"

"फिर?"

"और दे दो।"

"कहां तक का?"

"शाम तक का।"