एलबम में यादों की बारात / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 07 अक्टूबर 2014
सिंनेमा प्रेमियों के लिए खुशी की बात है कि सयोनी सिन्हा दामोदार कामत की जीवन कथा लिख रही हैं। दामोदार कामत ने सन् 1945 में महालक्ष्मी फेमस स्टूडियो के तल पर कामत फोटो फ्लैश की स्थापना की आैर फिल्म शूटिंग के समय स्थिर छायांकन का काम प्रारंभ किया। स्टूडियो में एक लाख स्थिर चित्र हैं। ज्ञातव्य है कि फिल्म निर्माण में हर शॉट के लिए जाने के बाद मूवी कैमरे के स्थान पर ही कैमरा रखकर स्थिर छाया चित्र लिया जाता है आैर इनके एलबम से फिल्मकार को अगले दौर के समय निरंतरता बनाए रखने में सहायता मिलती है। वेष-भूषा विभाग इन चित्रों की सहायता लेकर कलाकार को तैयार करते हैं। शूटिंग के कई दौर होते हैं आैर कभी-कभी इनमें महीनों का अंतराल होता है तो कलाकार भी स्थिर छाया चित्र देखकर स्वयं को तैयार करता है, मसलन किस रंग के कपड़े पहने हैं, कौन सी अंगूठी किस उंगली में पहनी है। चित्रों से ही प्रचार सामग्री बनती है। सेट पर लिए चित्र ही प्रचार विभाग अखबारों को भेजते हैं। दामोदार कामत अत्यंत व्यवस्था-पसंद व्यक्ति थे आैर उन्होंने हर फिल्म के छाया चित्रों के नेगेटिव संभाल रखे हैं। आज भी लोग अपनी आवश्यकता के चित्र खरीद सकते हैं। पुरानी फिल्मों के नेगेटिव की लायब्रेरी कामत स्टूडियो में बड़े करीने से संवारकर रखी है।
दो शॉट्स के बीच कलाकार आराम करते हैं या अगले शॉट की तैयारी। इन क्षणों को भी दामोदार कामत कैमरे में कैद करते रहे। मसलन 'पाकीजा' की शूटिंग के समय फुर्सत के एक क्षण में एक लाइट मीना कुमारी के चेहरे पर पड़ी आैर कामत ने फोटो ले ली। वही चित्र प्राय: मीना कुमारी पर लिखे लेखों के साथ छपता रहा है आैर फिल्म की प्रचार सामग्री का महत्वपूर्ण हिस्सा भी रहा है। उस समय लाइटमैन अगले शॉट की तैयारी में लगा था आैर इत्तेफाक से प्रकाश उनींदी मीना के चेहरे पर गया आैर वे जाग गईं। स्थिर चित्र में यह प्रभाव आया है मानो उनकी आंख से कोई सपना बाहर आया हो। कामत स्टूडियो एक खजाना है जिसमें सत्तर वर्षों के सिनेमा का इतिहास विद्यमान है। इन बहुमूल्य नेगेटिव को डिजिटल में बदला जा चुका है।
आश्चर्य की बात है कि पूना फिल्म संस्थान ने कामत के खजाने को नहीं खरीदा। निर्देशन आैर छायांकन के छात्र इन स्थिर चित्रों को देखकर निर्देशक की 'फ्रेमिंग' को सीख सकते है। मसलन 'संगम' के हर दृश्य आैर गीत में प्रेम त्रिकोण की कहानी होने के कारण पात्र चलते हुए भी हमेशा त्रिकोण बनाते हैं। 'प्यासा' में नायक सभाग्रह के द्वार पर क्राइस्ट की भांति खड़ा है आैर 'बैक लाइटिंग' दिव्य प्रभाव पैदा कर रही है। विजय आनंद की 'गाइड' के क्लाइमैक्स में एक सजायाफ्ता का इत्तेफाक से साधू बनना आैर जनहित में किए अामरण उपवास के कारण स्वयं को जान लेने का क्षण भी दिव्यता का आभास देता है। सारांश यह कि इन छाया चित्रों का शैक्षणिक मूल्य है। सन् 1839 में स्थिर छायाचित्र के आगमन के बाद ही चलते-फिरते चित्र के विज्ञान की खोज प्रारंभ हो गई थी। दुनिया में कई स्थिर छायाकारों ने ख्याति अर्जित की है। रिचर्ड एटनबरो की "गांधी' में भी मार्गरेट बर्क वाइट का पात्र था। दूसरे विश्वयुद्ध के समय जान का जोखम लेकर कुछ दुर्लभ चित्र लिए गए हैं आैर इनकी श्रृंखला से भी उस युद्ध का इतिहास जान सकते हैं।
आम जीवन में भी परिवार के एलबम होते हैं आैर उम्र के सायंकाल में इन चित्रों को फिर देखना एक विलक्षण अनुभव है। मनुष्य की यादों के रहस्यमय संसार में स्थिर चित्र कैटेलैटिक एजेंट हैं जिनसे याद प्रक्रिया गति पकड़ती है। पोता या पड़पोता ऐसे ही एक एलबम में घने घुंघराले बालों वाले व्यक्ति का चित्र देखकर वर्तमान में गंजे हुए दादा से पूछता है कि यह चित्र किसका है। जीवंत हंसोड़ दादा यह कह सकता है कि यह उनके जुड़वा भाई का चित्र है आैर यह पूछे जाने पर कि जुड़वा दादा आजकल कहां है, यह कहा जा सकता है कि खजाने की खोज में विदेश गए हैं। आपका यह पड़पोता उस भारत में जवान होगा जिसमें विदेशी पूंजी से विकास हुआ है आैर उस समय पड़पोते को भरम हो सकता है कि यह जुड़वा दादा की भेजी सम्पति है। कुछ भरम वंशानुगत होकर पीढ़ियों तक जाते हैं क्योंकि उनकी जड़ें सदियों पुरानी हैं।