एवज / कविता वर्मा
रोज़ की तरह चंपा ने उठकर खाना बनाया और डब्बा साइकिल पर टाँग दिया। नौ बजे उसे काम पर पहुँचाना था। माथे पर चमकीली बिंदी, आँखों में काजल, तेल लगा कर करीने से सँवारे बाल और धुली हुई धोती पहने वह काम पर जाने को तैयार थी। उसके पति भूरा ने एक भरपूर नज़र उस पर डाली तो चंपा लजा गयी।
ठेकेदार ने भीड़ में खड़े मजदूरों को काम के हिसाब से तौला और ज्यादातर ओरतों को अलग खड़ा कर लिया। बाकियों को आज ज्यादा काम नहीं है कह कर मना कर दिया।
चंपा झट से भूरा के साथ खडी हो गयी और ठेकेदार से बोली ये काम पर नहीं होगा तो मैं भी काम नहीं करुँगी। ठेकेदार ने एक नज़र गदराई चंपा पर डाली और काम ना होने की बात कही। चंपा ने काम करने से साफ इनकार कर दिया तो ठेकेदार ने अनिच्छा से भूरा को काम पर ले लिया। ईंट उठाती, माल बनाती, फावड़ा चलाती चंपा पर ठेकेदार की कामुक दृष्टी को भूरा ने भी महसूस किया। तभी ठेकेदार ने चंपा को देख कर एक अश्लील टिप्पणी कर दी। चंपा ने भूरा की ओर इस उम्मीद से देखा कि वह कुछ कहेगा, लेकिन भूरा ने तुरंत नज़र फेर ली और जल्दी जल्दी फावड़ा चलाने लगा।
उसे पता था इसी नज़र सिंकाई के एवज़ में उसे काम मिला है और उसे अभी काम की बहुत जरूरत है।