एहसास / पृथ्वी पाल रैणा
कहानी: पृथ्वी पाल रैणा
बरसात का मौसम था हल्की हल्की बूंदा-बांदी होने लगी थी इसलिए मैं अमरीक के ढाबे पर रुक गया। सोचा कि सुवह सुवह भीगना ठीक नहीं। वह उस समय अपने रोज़मर्रा के काम में व्यस्त था। एक तरफ तंदूर जलाने में लगा था और साथ ही चूल्हे पर पानी गर्म करने के लिए रखा था। उसने मेरे लिए पास ही कुर्सी रख दी। मै भी चुपचाप उस पर बैठ गया। सुबह सुबह बात करने की कुछ इच्छा नहीं हो रही थी इसलिए मैं शान्त चित्त उसे काम करते देख रहा था। वह कुछ गुनगुना रहा था शायद वह गुरवाणी का जाप कर रहा था। फौजी आदमी है बेकार बैठने की आदत नहीं, खेतीबाड़ी अब रही नहीं इसलिए ढाबा खोल लिया कि समय भी कटता रहे और लोगों से मेलजोल भी बना रहे। मुझे देखते ही उसने चूल्हे पर से केतली हटा कर चाय के लिए पानी धर दिया था। मैं उससे कुछ कहने के बजाए यह सोचने लगा कि जब चाय नहीं होती थी तब आदमी सुबह आग जला कर सबसे पहले चूल्हे पर क्या चढ़ाता होगा । अभी मेरी सोच शुरू हुई ही थी कि अमरीक की आबाज से मैं चौंक-सा गया और इतिहास के पन्नों को कुरेदने से बच गया। अब तक वह शीशे के गिलास में चाय डाल चुका था और मुझ से कह रहा था-
'इस बार आपको बहुत दिनों बाद देखा, साहब! क्या बात है आजकल यहां आना नहीं होता या हम से ही कुछ भूल हो गई जो इधर दर्शन नहीं होते|
'नहीं भाई ऐसी बात नहीं है, मैं सचमुच इधर काफी दिनों से नहीं आया हूं, मैं पिछले कुछ दिन छुट्टी पर था इसलिए इस तरफ आना ही नहीं हुआ वरना कभी ऐसा हो सकता है कि मैं तुम्हें न मिलता, तुम्हें पता है न कि मैं तुम्हारे सिवाय यहाँ और किसी के पास नहीं बैठता* 'तभी मैं सोचूं क्या बात हो गई, साहिब काफी दिनों से इधर नहीं आए, बैसे सब खैरियत तो है न साब? 'सब ठीक है भैया! मैं अपनी बेटी के पास बैंगलौर गया था
'मैंनें भी जब आर्मी में था तब एक बार बैंगलोर देखा था। मुझे तो बड़ा अच्छा शहर लगा था, बहुत पुरानी बात है लगभग बीस बाईस साल तो हो ही गए होंगे। वह कहते कहते चाय का गिलास मुझे थमा कर पानी लेने हैंड पम्प की ओर निकल गया। वारिश थोड़ी थम गई थी। मैनें अभी चाय की एक चुस्की ली ही थी कि अचानक मेरा ध्यान अपनी टांग पर रेंगती एक नन्हीं सी चींटी की ओर चला गया। वह मेरे वालों के बीच में से रास्ता बनाती हुई चली जारही थी मानों किसी घने जंगल में किसी को खोजने का प्रयास कर रही हो। अचानक उसे न जाने क्या सूझी कि उसने अपना तेज सधा हुआ हथियार मेरे मांस में गाड़ दिया। मेरा हाथ उसे मसलने के लिए उठा भी और अचानक रुक भी गया। मैं पल भर में न जाने क्या क्या सोच गया। इतनी नन्ही सी चींटी के काटने पर इतनी तिलमिलाहट कि उसकी जान ही ले ली जाए कुछ ज्यादा बड़ी सजा है, फिर उसके काटने से कुछ खास नुकसान हो गया हो ऐसा भी नहीं। अचानक ऐसा लगा कि इस पृथ्वी पर हमारे जैसे असंख्य लोग भी तो इन्हीं चींटिंयों की तरह रेंगते रहते हैं और अनेक प्रकार से इसे नोचते और काटते रहते हैं फिर भी यह हमें कभी मृत्यु दण्ड नहीं देती वल्कि यह हमारे हर प्रहार को सहन करते हुए हमें क्षमा भी करती है और बदले में बहुत कुछ देती भी रहती है। मैंने भी यही सोच कर इस नन्ही सी चींटी के इस व्यवहार के लिए इसे मृत्यु दण्ड सुनाने के बजाए प्यार से धीरे से वहां से हटाने का निर्णय लेना ही ठीक समझा और अपनी उंगली से हल्का सा झटका देकर उसे नीचे गिरा दिया। इस प्रकार अपने दयावान होने पर मन अहंकार से फूलने लगा। चाय पीते पीते उस चींटी की ओर फिर मेरा ध्यान गया तो मैंने देखा कि वह मुड़ी तुड़ी वहीं पड़ी थी, एक वार मुझे लगा जैसे वह मर गई। यह सोच कर मेरे अहंकार को हल्का सा झटका भी लगा लेकिन अचानक उस गोलमोल हुए नन्हें जीव के शरीर में हल्की सी जुंबिश देख कर थोड़ी सांत्वना मिली। आदमी हूं ना चींटियों की तरह सोचना तो मुझे आता नहीं उनकी तरह महसूस करना भी नहीं आता उनसे सहानुभूति कैसे प्रकट की जाती है यह भी नहीं पता और यह भी नहीं मालूम कि वह चींटी नर है या मादा इसलिए जैसा सोच सकता था सोचना शुरू कर दिया-
मुझे लगा जैसे वह सोच रही होगी- 'सुबह सुबह न जाने किस का मुंह देख का घर से निकली थी, पहले तो रास्ता भटक कर अपनों से अलग हो गई फिर यह झटका ऐसा लगा जैसे किसी ने उठा कर जोर से जमीन पर पटक दिया हो!
हुआ भी तो कुछ ऐसे ही था परंतु वह भी तो कोई भला काम नहीं कर रही थी एक आदमी की टांग का मांस नोच रही थी फिर ऐसा तो होना ही था लेकिन वह शायद यह जानती ही नहीं थी कि वह कहां घूम रही थी। छोटी सी एक चींटी क्या जाने आदमी क्या होता है। मैं सोच रहा था- पहले उसे चक्कर आ गया होगा जैसे आम तौर पर किसी आदमी के साथ होता है। फिर उसने हल्के से सिर झटका होगा, यह विश्वास हो जाने पर कि वह जिंदा है किसी तरह उसने अपने हाथ पांव सहलाए होंगे। यह भी सोचा होगा कि वह कहां है और अब उसे क्या करना चाहिए आदि आदि। अभी तक जो उकड़ूं पड़ी हुई थी अब धीरे धीरे सरकने लग गई थी। मेरा ध्यान जरा सा हटा और वह गायब हो गई, मैं थोड़ी देर के लिए परेशान सा हो गया। मैंने चाय का गिलास एक तरफ रख दिया और उसे ढूंढने में लग गया। कितनी अजीब बात है न कि अपने आप को एक ऊंचे दर्जे का सरकारी अधिकारी समझने वाला एक व्यक्ति चींटी के लिए परेशान हो जाए। खैर जाने दीजिए मुझे वह दिख गई। वह पास पड़ी एक लकड़ी पर चढ़ गई थी। मैं खुश था कि एक चींटी के डंक मारने के बावजूद मैंने उसे नहीं मारा। कितना ऊंचा उठ चुका हूं मैं यह सोच कर मेरा सीना फूला जारहा था कि अचानक अमरीक पानी लेकर लौट आया। आते ही बोला-
'साहब इन पानी वालों का भी कुछ कीजिए। ताला लगा के रखा है फिटर ने, खुद पता नहीं कहां पड़ा रहता है और चाबी थमा रखी है उस मुए नरोत्तम को जो शराब पीकर पता नहीं कहां रख देता है उसे खुद भी ध्यान नहीं होता। मैं उस मुए को ढूंढता रहा और यहां तंदूर की आग ठंडी पडऩे लग गई। अच्छा साहिब! एक बात बताओ इन लोगों को कोई पूछने वाला नहीं है। हमनें तो फौज की नौकरी करी है-जो हुकम हुआ बैठो तो बैठे खड़े रहो तो खड़े रहे। अब तो आदत सी हो गई है हुकम मानने की!’
इतना कह कर उसने पास पड़ी लकड़ी तंदूर में डाल दी। अचानक मेरे मुंह से निकल गया- 'अरे अरे! यह तुमने क्या कर दिया इस लकड़ी में एक चींटी थी!’ 'चींटी थी ! क्या मतलब, लकडिय़ों में चींटियां तो होती ही हैं साहब, अब हम तंदूर में लकडिय़ां डालने से पहले चींटियां छांटने लगे तो बस हो गया!’ वह हंस पड़ा। 'आप ने चाय भी नहीं पी अब तक क्या चींटियां ही देखते रहे, अरे साहब ! आप भी!’ उसने चाय का गिलास उठाया और नलके के पास खाली करके एक और चाय बनाने लगा। मैंनें उठते उठते कहा- 'यह चींटी खास थी, मेरी दोस्त थी मैंने इसे जीवन दान दिया था!’ तंदूर की आंच तेज होने लगी थी इसलिए मलूक ने बैंच को थोड़ा पीछे खींच लिया और बांह पकड़ कर मुझे बैंच पर बिठाकर कहने लगा- 'साहब! अब तो चाय पीनी ही पड़ेगी और यह भी बताना ही होगा कि आप कहां खोए थे और यह चींटी आप की दोस्त कैसे हुई!’
बारिश फिर शुरू होगई थी इसलिए मैंने भी अमरीक की बात मान लेने में ही भलाई समझी और चाय का इंतज़ार करने लगा। मैं यह सोच रहा था कि अब यह चींटी से दोस्ती वाली बात अमरीक को कैसे बताऊं, मुझे लगा कि मैं यह बाहर से जो अफसर बना फिरता हूं यह मेरी असलीयत नहीं है मेरे भीतर कोई और भी है जिसे कोई नहीं जानता लेकिन वह मेरे जीवन की सच्चाई को मुझ से भी कहीं ज्यादा अच्छी तरह से समझता है। इस बार जब अमरीक चाय गिलास में नहीं बल्कि प्याले में लाया तो मुझे बात बदलने का मौका मिल गया लेकिन इससे पहले कि मैं उसकी बात का जवाब देता रैस्ट हाऊस का चौकीदार वहां आ पहुंचा। 'साहब! आज आप तो बड़े ईज़ी मूड में हैं, मैंने आप के कहे अनुसार ब्रेकफास्ट जल्दी तैयार कर के लड़का आप के कमरे में भेजा तो पता चला आप वहां हैं ही नहीं। -चौकीदार बोला।
मैने कहा -'अरे भैया! तुम तो जानते ही हो यह अमरीक भी हमारा पुराना यार है, इस की बातों में लग गया था, अभी आता हूं तुम चलो! 'नहीं साहब का ब्रेक फास्ट आज यहीं होगा! अमरीक बोला।
'हाँ ठीक है जैसे साहब की इच्छा, वह तो कुछ लोग साहब को मिलने के लिए बड़ी देर से वहां बैठे हैं, मैं तो इस लिए भी साहब को ढूंढ रहा था। लेकिन ठीक है तुम ब्रेक फास्ट कराओ और मैं उनका कुछ करता हूं।- चौकीदार ने कहा और जाने लगा तो मैने बात सम्भालने का प्रयत्न किया 'अमरीक भैया ! मैं अभी तुम्हारे पास ब्रेक फास्ट नहीं कर पाऊंगा क्योंकि अभी जो लोग मुझे मिलने आए हैं उनको निपटा कर नहा धोकर तैयार होना है, ब्रेक फास्ट करके आफिस पहुुंचना है। अभी बहुत काम करने को हैं। मैं दिन को तुम्हारें पास आता हूं फिर आराम से साथ बैठ कर खाना खाऐंगे, ओके!! मैंने कहा और रैस्ट हाऊस की ओर चल दिया।
रैस्ट हाऊस पहुंच कर जो नज़ारा मैंने देखा वह बहुत ही अजीब था। मेरे कमरे की दीवार पर असंख्य चींटियाँ इकट्ठी हो रखी थी जिससे दीवार लगभग काली होगई थी। मेरे दिल की धड़कन एकदम बढ़ गई, यह कैसा संयोग है? मैं सोचने लगा। इतने में चौकीदार हाथ में झाड़ू और छिड़काव के लिए दवा जैसी कोई चीज़ लेकर आ गया और बोला- 'आप घबराऐं नहीं साहब यह सब होता रहता है यहां आस पास चींटियों के बहुत से घर हैं वहां पानी भर जाता है इसलिए ये सब सूखी जगह की ओर आ जाती हैं, मैं अभी सब को साफ किए देता हूं।
'नहीं नहीं, तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे इन्हें जा लेने दो मारना मत प्लीज़!
यह कह कर मैं ड्राइंग रूम की तरफ चला आया जहां मुझे मिलने के लिए कोई लोग आए थे। मैंनें उनसे बातचीत की और उन्हें एक घंटे के बाद लोकल आफिस में मिलने के लिए कह कर विदा कर दिया। फिर नहा धोकर जल्दी जल्दी ब्रेकफास्ट भी कर लिया लेकिन मन के ऊपर एक बोझ सा महसूस हो रहा था इसलिए बैठे बैठे आज के घटना क्रम की गहराई में उतर कर दोनों घटनाओं को जोड़ कर देखने लगा। क्या यह सब मात्र संयोग था या ईश्वर की ओर से कोई शिक्षा, यह मैं समझ नहीं पारहा था। क्या ये चींटियां यह बताने आई थीं कि इस संसार पर इनका भी उतना ही हक है जितना हम मनुष्यों का। जैसे ये चींटियां आदमी को नहीं पहचानती इनके लिए उसका अस्तित्व एक रहस्य है बैसे ही हम भी तो इस जगत के अनेक रहस्यों को नहीं जानते। एकवार तो मन किया कि आज दफ़तर न जाकर कहीं अकेले बैठ कर इस विषय पर गम्भीर चिन्तन किया जाए लेकिन वह सम्भव नहीं था क्योंकि मुझे आज ही यहाँ के काम निपटा कर वापिस भी लौटना था क्योंकि अगले दिन एक बड़ी महत्त्वपूर्ण बैठक में भाग लेना था।
उस दिन दोपहर तक कार्यालय में ब्यस्त रहा फिर ड्राईवर से दो बजे ढाबे पर आने के लिए कह कर पैदल ही अमरीक के ढाबे पर आगया। सोच लगातार जारी थी। अमरीक मेरी खामोशी को भांप तो गया था लेकिन बोला कुछ नहीं। शायद यह सोच कर कि बहुत दिनों बाद आया हूँ, आफिस में काम भी अधिक होगा इसलिए थकाबट के कारण चुप हूँ। उसने बड़े प्यार से खाना खिलाया और कहने लगा 'सा*ब अगली वार जब आप आऐंगे तो रैस्ट हाऊस में नहीं मेरे घर पर रहेंगे, आप से बहुत सी बातें करने को मन करता है। आप मेरे घर में रहेंगे न?
`जब तुम इतने प्यार से कहोगे तो रहूंगा क्यों नहीं?' उस समय मुझे लगा जैसे अमरीक मेरा बचपन का दोस्त हो। इतने में गाड़ी भी आ गई और मैं फिर चुपचाप दफ़तर जा बैठा। पूरा समय मुझे सारे बदन पर चींटियों के रेंगने का ऐहसास होता रहा और मैं अपना काम निपटाता रहा। शाम को रैस्ट हाऊस आकर चाय पी और जब वापिस जाने के लिए गाड़ी में बैठा तो सब सहज हो गया था। चींटियां भी अपने घर चली गईं थीं और किसी को यह आभास भी नहीं हुआ था कि मैं उस दिन पहले से कहीं ज्यादा गम्भीर और चुप था।