ऐश्वर्या-अभिषेक : कोई 'अभिमान' नहीं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 30 मई 2013
जब चोरी और सीनाजोरी का दौर चल रहा है और कभी 'कूल' कहलाने पर इतराने वाले तथा विजय पर भैंसे की बलि देने जैसी रूढिय़ों में विश्वास करने वाले खामोश रहना पसंद करने लगे, तब गंभीरता या गहराई का प्रयास व्यर्थ है और कुछ अफवाहों और गॉसिप पर यकीन करने का मन करता है। अगर कोलाहल में ऊंघना संभव न हो, तब भी एकाध झपकी चुराई जा सकती है। बहरहाल, कान फिल्म समारोह में अनेक भारतीय जाते हैं, क्योंकि अपने घर में इसे गर्व से प्रचारित किया जा सकता है। यह सोचना व्यर्थ है कि केवल भारत में निमंत्रण जुगाड़े जा सकते हैं, जुगाड़ू प्राणी सारे संसार में हैं, शायद वे ही कालातीत भी हैं। मल्लिका शेरावत अब परदे या टेलीविजन पर नहीं दिखाई देतीं, परंतु जाने कैसे कान में दिखाई देती हैं। गांव के मेले, तमाशे में कार्डबोर्ड की कार के निकट खड़ा रहकर फोटो खींचा जाता था और इसे सगर्व परिवार की प्लास्टर उखड़ी दीवार पर टांगा जाता था। आजकल शायद कार्डबोर्ड की कार की जगह टेक्नोलॉजी कान का भ्रम रच सकती है।
बहरहाल, इस वर्ष कान में आयोजकों द्वारा जायज निमंत्रण पर ऐश्वर्या राय बच्चन वहां गई थीं और एक पत्रकार ने कुछ इस तरह की टिप्पणी की कि क्या उनके अपने जीवन में उनके श्वसुर और सास द्वारा अभिनीत 'अभिमान' की कथा की तरह कुछ घट रहा है कि उनका जगह-जगह सम्मान होता है और उनके पति उस गरिमा की छाया में रहते हैं। ज्ञातव्य है कि ऋषिकेश मुखर्जी की सातवें दशक की अभिमान में शहरी रॉकस्टार अमिताभ गांव की गोरी जया को ब्याह कर लाता है और कुछ ही समय में वह लोकप्रिय गायिका हो जाती है तथा रॉकस्टार की लोकप्रियता समाप्त हो जाती है। उसका नैराश्य और कुंठा उनके विवाहित जीवन में कड़वाहट भर देती है। पति का आहत अहंकार सर्प की तरह फन उठाता है। अंत में प्रेम अहंकार पर भारी पड़ता है।
अभिषेक बच्चन कभी दर्शकों में जुनून नहीं जगा पाए, परंतु उन्हें काम हर दौर में मिलता रहा है और मणिरत्नम की 'गुरु' में उन्होंने श्रेष्ठ अभिनय भी किया था। 'धूम' शृंखला में उन्हें सीमित अवसर मिलता रहा है और वे इस 'ब्रान्ड' का हिस्सा हैं। जिन लोगों ने यह आशा की थी कि वे अपने पिता की तरह लोकप्रियता अर्जित करेंगे, उन्हें अवश्य निराशा हुई होगी, परंतु अभिषेक बच्चन का स्वभाव जीवन का आनंद लेने में है। वे किसी प्रतियोगिता का हिस्सा नहीं हैं तथा अपनी सीमाओं से परिचित होना कोई कम उपलब्धि नहीं है।
दरअसल, पत्रकार अपनी बात में 'विजेता का प्रभाव' पैदा करने के लिए अपनी समझ से ऐसी टिप्पणी करके खुश होते हैं कि उन्होंने सितारे को जमीन पर पटक दिया। यह 'प्रभाव' उत्पन्न करने की ललक आपको तर्क से दूर ले जाकर अस्वाभाविक बना देती है। यह अभिनेता की ताली पड़वाने की ललक की तरह है। जीवन के जलसाघर में तालियों की अनुगूंज कोई सार्थकता नहीं रखती। सच्चाई यह है कि स्वयं चालीस के अनकरीब की ऐश्वर्या राय बच्चन को भूमिकाएं नहीं मिल रही हैं, क्योंकि मनोरंजन उद्योग में नायिका की वय का सेफ डिपॉजिट 'बढऩे' पर उसकी मुस्कराहट के चेक बाउंस होते हैं। यह अलग किस्म की बैकिंग है, जिसमें कम वय संपदा है। यह भी गौरतलब है कि ऐश्वर्या हमेशा अतिसुंदर रही हैं, पोर्सलीन की गुडिय़ा की तरह और लगभग उतनी ही एक्सप्रेशन की कमी भी रही है। वह कोई नूतन या नरगिस की श्रेणी की अभिनेत्री नहीं थीं और न ही उनके खाते में कोई 'बंदिनी' या 'मदर इंडिया' है। उनका सौंदर्य ही अभिभूत कर देता था और आज भी करता है। अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या दोनों ही अमिताभ या जया की तरह निष्णात कलाकार नहीं हैं।
शायद दोनों ही जिस तरह के व्यक्तित्व हैं, उसमें नैराश्य या कुंठा की कोई गुंजाइश ही नहीं है। अमिताभ बच्चन जितने प्रतिभाशाली हैं, उतने ही गोपनीय व्यक्तित्व भी हैं, अत: उन्हें कुंठा हो सकती है, उन्हें यह निराशा हो सकती है कि उनका पुत्र उनकी अभिनय विरासत का उत्तराधिकारी क्यों नहीं या उनकी पुत्रवधू नूतन या एंजेलिना जोली की तरह अंतरराष्ट्रीय क्यों नहीं है। दरअसल, जीवन में महत्वाकांक्षा ईंधन का काम कर सकती है, परंतु मनोग्रंथि बन जाना या कातिलाना जुनून बन जाना भयावह हो सकता है।
अमिताभ के पिता हरिवंशराय बच्चन बहुत अच्छा गद्य लिखते थे। उनकी आत्मकथा की प्रशंसा है और उसमें साफगोई के कारण आदर का भाव भी मन में जागता है, परंतु अमिताभ बच्चन कभी उतनी साफगोई से आत्मकथा नहीं लिख सकते, परंतु अभिषेक बच्चन लिख सकते हैं। वह अपने जीवन का करिश्ा प्रकरण भी लिख सकते हैं। लेखन का 'जीन्स' कई बार पीढिय़ों की छलांग लगाता है। दरअसल, अपने बुजुर्गों की अनुकृति होना आवश्यक भी नहीं और प्रशंसनीय भी नहीं। सृष्टि की विशेषता उसकी विविधता में है। प्रतिक्रियावादी ताकतें, तानाशाह बनने को लालायित लोग मनुष्यता को डुप्लीकेटिंग मशीन बनाना चाहते हैं।