ऐश ट्रे में ताजमहल / कृष्ण बिहारी

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असहज हो जाता है वह इस ऐशट्रे को देखकर...

घर में अन्य सामानों की तरह यह ऐशट्रे भी है। कई सामान तो एक से ज्यादा हैं। मसलन टी वी घडियाँ, लाइटर, क़लम, क़ुछ ख़राब तो कुछ सही हालत में, ऐशट्रे भी तो चार-पाँच हैं, नए-पुराने।

यह ऐशट्रे भी तो दस साल से साथ-साथ है। इन दस सालों में कितने घर बदले। कितने ठिकाने बदले न जाने कितने सामान टूट-फूट गए, कितना सामान इधर-उधर हो गया, न जाने कितना कुछ कचरे में चला गया मगर यह ऐशट्रे वह हर बार सहेज कर लेता आया है। आदमी कुछ और सहेजे न सहेजे मगर अपने दर्द को जरूर सहेजता है...

संगमरमर का यह ऐशट्रे...

सफेद...झरने के झाग से भी ज़्यादा...

धवल...हिमालय की चोटियों पर जमी बरफ़ से भी अधिक...

इसे शिवा ने उसके लिए आगरा में खरीदा था। हालाँकि वह स्वयं उसे गिफ़्ट नहीं कर पाया। न जाने कितनी चीज़ें और भी तो उस दूकान में रही होंगी जहाँ से उसने इसे ख़रीदा था। वह कुछ और भी तो ले सकता था उसके लिए। लेकिन वह जो कुछ भी लेता, क्या वह उसे इस ऐशट्रे की तरह ही असहज नहीं करता...

संजना दीदी ने उसे ऐशट्रे देते हुए कहा था-- शिवा ने आपके लिए ख़रीदा था...। उन्होंने डबडबाई आँखों और भरे गले की खण्डित आवाज में वह सब-कुछ कहने की कोशिश की जो पिछले तीन वर्षों में उन पर और घर पर गुज़रा था। बहुत-कुछ वह जानता था, बहुत-कुछ उसे नहीं मालूम था।

जो कुछ नहीं मालूम था उसे जानकर अवसाद और गहरा गया...। दिन भर वे शिवा की यादों को ही जीती रहीं थीं, उसने कहना भी चाहा कि ज़िन्दगी साथ जीने वालों के साथ गुज़रती है, मगर कह नहीं पाया। कभी-कभी कुछ कहना कितना कठिन होता है...।

रात की ट्रेन पकडनी थी... चलते समय संजना दीदी ने ही ऐशट्रे संभालकर उसके बैग में रख दिया। उसे रखते वक्त भी उनकी आंखें गीली थीं...। घर-परिवार और रिश्तेदारों में उसके अलावा कोई भी सिगरेट नहीं पीता। ऐशट्रे भी वह ख़ुद ही ख़रीदता रहा है। लेकिन यह ऐशट्रे शिवा ने उसके लिए आगरा में खरीदा। क्या मोहब्बत की यादगार को संजोने के लिए आगरा का जुड़ा होना भावनात्मक मज़बूरी है।

साहिर लुधियानवी से कभी मिला होता तो पूछता कि मोहब्बत को उसने खानों में क्यों बांटा? मोहब्बत औरत की हो या बच्चे की... ग़रीब की या अमीर की... उसकी खुशबू... उसका रंग जुदा तो होता नहीं...।

ट्रेन की रफ़्तार 80 किलोमीटर प्रति घण्टा से कम नहीं थी। आरक्षित बर्थ पर यह गति और उसके हिचकोले झूले की तरह झुला रहे थे। उसे नींद आ जानी चाहिए थी। सामान्यतया अब वह रात की यात्राओं में सो जाता है। पहले की तरह उपन्यास नहीं पढता। लेकिन उस रात नींद किसी उड़नखटोले पर सवार हो कहीं दूर उड ग़ई...।

वह उसकी शादी की रात थी। जयमाल के वक्त से ही छोटे-छोटे कई बच्चों ने उसे घेर रखा था ।कोई फूफा जी तो कोई मौसा जी कहते उसकी गोद में आने की कोशिश करता। उन्हीं में शिवा भी था यही कोई चार-पाँच वर्ष का रहा होगा । सौम्य, शांत, स्वस्थ, अवस्था से अधिक निकलता कद , बडी-बडी आँखें। अपनी ओर बांधने वाला व्यक्तित्व। यूँ उस रात और अगले दिन की भीड़ भरी स्थितियों में हुई पहचान का नाता स्मृतियों में बहुत देर तक नहीं रह पाया था। शिवा से पहचान तो एक साल बाद ही बन सकी थी।

वह बीवी के साथ उसकी बडी बहन संजना और उनके परिवार से मिलने गोरखपुर गया था। पत्रों से हुआ परिचय उन्हीं दो दिनों के साथ में प्रगाढ हुआ। शिवा अपनी उसी कुदरती शालीनता के साथ मेरे करीब आता गया जो उसे कुदरती तौर पर मिली थी। अपनी अवस्था के बच्चों की तरह वह न तो जिद्दी था और न ही बनावटी। सुबह समय से उठकर नहाता अपने धुले कपडे पहनता। नाश्ता करता, ख़ुद ही पॉलिश किए जूते पहनता और रात को ही तैयार किए स्कूल बैग के साथ टिफ़िन-बॉक्स और वॉटर-बॉटल लेकर स्कूल जाने के लिए रिक्शे पर बैठ जाता। संजना दीदी कहतीं-- यह मेरा लडक़ा... पता नहीं कैसा है... इसने कभी शिकायत का कोई मौक़ा नहीं दिया... घर हो... स्क़ूल हो... या पास-पड़ोस, कहीं तो कोई बदमाशी कभी करे... क़ोई तो इसकी शिकायत लाए तो इसे डाँटू... नसीहत दूँ... समझाऊँ। अपने हिस्से की डाँट तो जैसे किसी और के हक़ में डाल दी है इसने... अपनी दीदी रिंकी और छोटे भाई से भी कभी नहीं लड़ता... उनके बारे में कितना तो प्रोटेक्टिव है... यह तो हम लोगों को समझाता है...।

शिवा के पापा कहते-- बाज़ार में भी कभी अपने लिए कुछ ख़रीदने की जिद नहीं करता...। इसके लिए हम कुछ लेना भी चाहें तो रोकते हुए कहता है कि... है तो अपने पास... क्या फ़ायदा इस तरह पैसे खर्च करने से...।

तो ऐसा था शिवा। हर साल अपनी कक्षा में प्रथम आता सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अपनी पहचान बनाता। कप, ट्रॉफी और मेडल साल-दर-साल घर में बढ़ते जाते। खेलकूद में वह बहुत उत्साही नहीं था। शायद आने वाले वक्तों में वह इस ओर भी अपने क़दम बढाता। मगर चाल शायद उसके क़दमों का साथ छोड़ने की उधेड़बुन में लग गई थी...।

उससे पूछता-- मौसा जी आप तो हवाई जहाज से जाते हैं। आपको डर नहीं लगता...?

-- डर तो लगता है। लेकिन डर के साथ कब तक जिएंगे... और भी तो सहयात्री होते हैं...।

उसके चेहरे पर संतोष झलका कि जैसे ख़तरों के साथ गुज़रना ही उनका सामना करना है। एक बार उसने उत्सुकता से पूछा था-- मौसा जी हवाई जहाज में बाथरूम जाना पडे तो...?

-- जाते हैं...।

-- ऊपर से किसी पर गिरे तो वह समझेगा कि बिन बादल बरसात...।

वह मुस्कराया था उसने समझाया कि हवाई जहाज में कैसी व्यवस्था होती है। इन्ही उत्सुकताओं में बड़ा होते हुए वह छठवीं कक्षा में पहुँच गया था कि उसकी और परिवार की सारी उत्सुकताओं पर प्रश्नचिन्ह के बदले विराम लग गया...। ज़ैसे कि सभी जान गए हों कि भविष्य क्या है। उसके एक पाँव में गिल्टी निकल आई, बायॅप्सी और अन्य कई जाँचों ने मुहर लगा दी कि उसे बोन कैंसर है। ज़िन्दगी हर हाल में तीन साल...।

जो कहर टूटा उसमें सभी टूट गए। दवा-दारू और दुआ अपनी उखमज जोतकर ठहर से गए। शिवा की एक टांग भी काटनी पड़ी, इसके बावजूद भी उसने कोई विद्रोह प्रकट नहीं किया। आठवीं कक्षा में पढ़ने वाला शिवा बगैर किसी से पूछे अपनी बीमारी का अंजाम जानता था। उसने अपने पापा से सिर्फ़ एक इच्छा व्यक्त की-- मुझे हिन्दुस्तान घुमा दें...।

एक, बस एक पत्र उसे लिखा-- मौसाजी, एक पैर से दूर तक चल पाना मेरे लिए मुश्किल हो गया है... लेकिन दुनिया को वहाँ तक देखना चाहता हूँ जहाँ तक मेरी नज़र जा सके...। मैंने आपसे कभी कुछ नहीं मांगा... लोग तो विदेश से कितनी चीज़ें मंगवाते हैं... आप मुझे एक बायनाकुलर भेज दें...।

उसके संक्षिप्त पत्र की लिखी इबारत के आगे अनलिखे को पढ़ने और समझने की ताकत क्या सबके पास होती है...।

उसने उसे एक बायनाकुलर भेज दिया। शिवा की यात्रा शुरू हो चुकी थी। वह कभी गोवा होता तो कभी जयपुर, इलाज चलता रहता। तबियत सुधरती और बिगड़ती रहती। मगर उसकी यात्रा निर्विघ्न चलती रही। उसकी इच्छा पूरी करते हुए माँ-बाप उसकी उस शिकायत को दूर कर रहे थे जिसमें उसने कभी शिकायत ही दर्ज़ नहीं कराई थी...।

आगरा में ताजमहल के बाहर लगी दूकानों में से किसी एक से उसने ऐशट्रे ख़रीदा था। शिवा को उसकी सिगरेट ही क्यों याद रही? उसने पूछा था एक बार-- मौसाजी आप सिगरेट क्यों पीते हैं?

-- आदत हो गई है...।

-- आदत छोड़ना मुश्किल है न, मौसा जी?

-- हाँ बेटे...।

उस रात ट्रेन का सफ़र भारी हो गया था । सारी रात नींद गायब थी और आज जब वह ऐशट्रे को देखकर पहले कई बार की तरह असहज हुआ है तो शिवा को गुज़रे दस साल हो गए हैं। मगर शिवा गया कहाँ है, दिलों में जगह बनाने वाले कहीं नहीं जाते, इस ऐशट्रे में उसने कभी सिगरेट की राख नहीं डाली। इसमें कभी सिगरेट नहीं बुझाई । ऐशट्रे में ताजमहल दे गया है शिवा...।