ऐसे जी कर भी क्या करेंगे? / अशोक शाह

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मेरे हाथ में कलम है, मैं कुछ लिखना चाहता हूँ। नहीं, नहीं ! मैं कविता नहीं लिखना चाहता। कविता के बारे में लिखना चाहता हूँ। कविताओं के जन्म के बारे में, उनके आकार-प्रसार के बारे में। कवियों, लेखकांे, कलाकारों, प्रशासकों एवं प्रकाशकों के बारे में लिखना चाहता हूँ। मैं जीवन में जीवन के कण्टेण्ट के बारे में कहना चाहता हूँ। मैं आदमी हूँ तो ऐसा क्यों ।

पहले कविता के बारे में बात करते हैं। कविता जीवन में खाली स्थानों को भरती है। कविता ही क्यों हर भाषा के हर शब्द खाली स्थान ही भरते हैं और यदि स्थान खाली नहीं है तो एक दूसरे के ऊपर चढ़कर कोलाहल एवं उपद्रव करते हैं। अब सवाल यह है कि हम ख़ाली क्यों नहीं रहना चाहते ? खालीपन से बेचैनी क्यों? हमारी कुछ पाने की ज़िद क्यों है? हम कुछ होना क्यों चाहते है? इन सबके पीछे विचार क्रियाशील हैं। विचार शब्दों के पैरों से चलते और जीवित रहते हैं। पर वे सबसे अधिक असुरक्षित होते हैं। उन्हें शब्दों एवं तस्वीरो के समूह एवं समर्थन की नितान्त आवश्यकता रहती है। वे निरन्तर समूह बनाते रहते हैं और सुरक्षा की भावना पैदा करते रहते हैं। इसलिए विचार कभी विरोधाभाषी या कभी समभावी होते हैं अर्थात विचार हमेशा अपूर्णता एवं भंगुरता के गुणों से सम्पन्न होते हैं। कविता ऐसे विचारों का संवहन करती है। टूटे-फूटे विचारों एवं भावावेगों को एकत्रित कर उस पर स्त्री करने का कार्य भी करती है ताकि सुघड़ एवं सुन्दर ढंग से उन्हें प्रस्तुत किया जा सके। चूँकि विचार किसी न किसी पृष्ठभूमि से ही जन्म लेते हैं इसलिए सर्वमान्य कभी नहीं होते और संघर्ष एवं घर्षण उत्पन्न करते हैं। जितना अधिक संघर्ष होता है, उतना ही नये विचारों का जन्म होता है। यह प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है। शब्द विचारों के वाहक होते हैं। मस्तिष्क, काग़ज़ और हार्डडिस्क विचारों से भरे पड़े हैं।

तो आज जीवन में कविता की क्या भूमिका है, जहाँ सब कुछ डिजिटाइज्ड होता जा रहा है- जैसे जीवन शैली, व्यवसाय, सम्बन्ध, व्यवहार, पर्व-त्यौहार, धन, धर्म, संस्कृति इत्यादि। जहाँ एक ओर जीवन का एकमात्र उद्देश्य जीने के लिए पैसा कमाना रह गया है, सारी रचनात्मकता- दृश्य, श्रव्य, लेखन अर्थ के निर्मम जाल में फँसती जा रही है, वहाँ कविता की क्या विसात रह जाती है। हिन्दी कविता के पाठक तो रहे नहीं; क्योंकि जीवन यापन के लिए कविता की उपयोगिता बची नहीं, मनोरंजन तो कर नहीं सकती। विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में उपेक्षित एक विधा के रूप में महज डिग्री लेने देने के लिए पढ़ी-पढ़ाई जाती है। वह भी केवल उस क्षण के लिए जब तक डिग्री मिल नहीं जाती। तो कौन पढ़ेगा कविता, कौन खरीदेगा कविता। आजकल के कवि तो उन प्रकाशकों के एहसानमन्द है, जो काफी चिरौरी मन्नत करने के पश्चात् इस शर्त पर कविता की किताबें छाप देते हैं कि बिकेगी नहीं और लेखक को 100 प्रतियॉ खुद खरीदनी पड़ेंगी या खरीदवानी हांेगी। तो केवल कविता लिखकर और उसे प्रकाशित कर ज़िन्दगी का गुज़ारा नहीं हो सकता। हिन्दी के तमाम लेखकों की जीविका के साधन कुछ और ही है। अधिकतर सत्ता में है और कविता-कहानी लिखते हैं।

बन्द पिंजड़े का परिन्दा कहाँ तक उड़ता होगा। मरा हुआ चूहा खाकर बिल्ली का तथा परोसा हुआ मांस खाकर बाघ का स्वभाव और तेवर कैसा होगा? वही हाल आज हिन्दी के कवि और कविता का है। एक ज़माना था जब कविता लिखी और पढ़ी जाती थी, उसके बाद एक ज़माना आया जिसमें कविता लिखी जाती थी और कम से कम लेखकों के द्वारा आपस में पढ़ी भी जाती थी और अब? कवि भी एक दूसरे की कविता पढ़ने से कतराते हैं। यह अलग बात है कि आजकल हिन्दी की पुस्तक भला खरीद कर कौन पढ़ता है। वह तो कवि या लेखक की जिम्मेदारी है कि वह मुफ़्त में दे दे और फिर अनुनय-विनय करें कि कुछ लिख दीजिए ना। इसके भी कई कारण हैं। कविता आज उपेक्षित होने के बावजूद भी एक कवितात्मक द्वेष के कारण एक कवि दूसरे कवि की कविता पढ़ने से कतराता है। यदि ग़लती से पढ़ भी लिया तो तारीफ़ तो कतई नहीं करेगा, वह देखेगा कि नए कवि का गुट कौन-सा है? तारीफ़ करने का अर्थ कविता की समकालीन सीमित जगह में एक और को स्थान देना जहाँ पहले से ही इतनी धक्का-मुक्की है कि कविगण चूका-मूकी बैठे है। हिल भी नहीं सकते। अन्यथा उनकी जगह कोई दूसरा ले सकता है। आलोचना भी इसलिए नहीं कर सकते कि बुराई कौन मोल ले, कोई भी कहीं भी काम आ सकता है या फिर उनकी ख़ुद की ही लिखी कविता की आलोचना कर किसी पत्रिका में न छपवा दे या आलोचना करने से उनके चाहने वाले ही न घटते जाएँ और एक समय ऐसा आए कि वे अपने आप को नितान्त अकेला पाएँ। इन सबसे अच्छा है कि मुँह ही न खोला जाए और कह दिया जाए कि उनके द्वारा फलाना की फलाना पुस्तक पढ़ी ही नहीं गई; इसलिए उस पर क्या टिप्पणी की जा सकती है। इस प्रकार की मौन-साधना से कवि का मान भी बढ़ता है और कोई दुश्मन भी नहीं बनता । चाहे-अचाहे यह प्रक्रिया नहीं चलते हुए भी चल रही है। हाँ, यह अवश्य है कि कोई अपने ख़ेमे का मिल जाए तो उसकी प्रशंसा की जा सकती है, ताकि वह नाराज़ न हो जाए। वह भी एक सीमा तक। यह ख़ेमेबाजी एक मनोवैज्ञानिक भय के प्रति उससे सुरक्षा को लेकर है। टेण्ट और शामियाना एक सुरक्षा की दृष्टि से ही तो लगाए जाते हैं। ख़ेमा छोटा या बड़ा हो सकता है। समाज में, साहित्य में, अध्यात्म में, कला में, संस्कृति में या अन्य किसी भी क्षेत्र में ख़ेमा क्यों बनाया जाता है, गुट बनाने के पीछे मौलिक कारण क्या हैं, यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए। इसका ईमानदार उत्तर खोजा जाना चाहिए।

हाँ, तो चर्चा यह हो रही थी कि लिखने वाले अधिकतर सरकारी सेवा में ही है।² ज़ाहिर वे सरकार के विरुद्ध तो लिख ही नहीं सकते चाहे वह कितनी भी अनैतिक एवं पतित हो। भ्रष्ट इसलिए नहीं कह रहा कि यह सामान्य बात है जैसे इमारत की तामीर के लिए ईट चाहिए वैसे ही सरकार बनाने के लिए . . . . . .। खैर, तो लिखने की विषय वस्तु क्या है ऐसे लेखकों का जो परिवार के लिए मजबूर हैं। जब देश गुलाम था तो उस जमाने में भी लोग सत्ता के विरुद्ध खूब लिखा करते। साहस था उनमें। सर्वस्व त्याग के लिए वे तैयार भी थे। लेकिन आज प्रजातंत्र की मनगढ़न्त सरकार के विरुद्ध उसका सौवा हिस्सा भी नहीं लिखा जा रहा जो अँग्रेजी सरकार के विरुद्ध लिखा गया। लिख-लिखकर तो कुछ लोगों को राष्ट्रीय कवि या लेखक भी घोषित किया गया लेकिन क्या आज की सरकारों के विरुद्ध सही और वास्तविक तथ्य लिखकर कोई राष्ट्रीय कवि या लेखक बन सकता है? कौन घोषित करेगा उन्हें? इसलिए आज की कविता के विषय वही वर्षों पुराने हैं - पेड़, पौधे, नदी, प्रकृति, रिश्ते-नाते, सामाजिक विसंगतियाँ, जीवन शैली, दुःख, हिंसा, टूटन, पीड़ा, जाति, धर्म इत्यादि। इसमें विकास कहाँ है - सामाजिक, वैज्ञानिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं आन्तरिक। कहाँ है किसी भी प्रकार की बदलाव की अनुगूँज। वह हिम्मत कहाँ है जिसके सहारे एक प्रगतिशील सोच पैदा की जा सके; इसलिए इस हिन्दी साहित्य के पाठक भी नहीं हैं। साहित्य समाज को दिशा देने में असमर्थ है।

फिर भी लेखकों, कवियों की आबादी में कोई कमी नहीं आयी है, बल्कि बढ़ ही रही है। खूब सारी पत्रिकाओं का प्रकाशन भी हो रहा है। कारण स्पष्ट है। भारत की आबादी लगातार बढ़ रही है। जाहिर हर क्षेत्र के लोगों की आबादी भी बढ़ रही है, लेकिन एक खतरा अवश्य पैदा होता जा रहा है। ईमानदार लोगों का अनुपात घट रहा है, समाज में उनका सम्मान घट रहा है। उन्हें उदाहरण की तरह नहीं देखा जाता; अपितु एक अपवाद एवं अतिरेक की तरह देखा जाने लगा है। जैसे कि वे ज़िन्दगी के हिस्से नहीं हो और उनकी आवश्यकता न रह गयी हो। किसी भी समाज के लिए यह खतरे की घण्टी है। अभी सावधान हो जाने का समय है। यदि हम अपने प्रति ईमानदार है तो। अन्यथा तो लुढ़ककर सब कुछ चलता ही है, जैसे-तैसे मनुष्य जी ही लेता है। लेकिन अब यह प्रश्न भी पूछने का समय आ गया है - ऐसे जीकर भी क्या करेंगे? हाँ, ऐसे जीने के विरुद्ध मरकर जरूर कुछ किया जा सकता है। हम मरने से डरते हैं। लेकिन इस प्रकार के जीवन से मरना ही बेहतर होगा। मरना एक नये जीवन की शुरूआत भी करना होता है। मरने से मेरा आशय सिर्फ शारीरिक अंत नहीं है। मरने का व्यापक अर्थ है -- अनुभवों का अंत, तस्वीरों का अंत, अपने-पराया का अंत, विचारों का अंत, स्मृतियों का अंत, अतीत का अंत, मोह का अंत, सारी पहचानों का अंत। इससे बढ़कर भी मौत के व्यापक अर्थ हो सकते हैं जहाँ पहुँचकर दायरा सीमाहीन हो सकता है।

हिन्दी कविता में या विश्व की किसी भी भाषा की कविता की पहली शर्त है, कवि का ईमानदार होना। बिना ईमानदार हुए कविता नहीं लिखी जा सकती। इसके बावजूद भी अगर लिखी जाती है तो वह सिर्फ दुराग्रह है, नैतिकता के साथ खिलवाड़ है, कायनात के साथ किया गया अभद्र मज़ाक है। ऐसी रचनाओं को जिसमें जीवन का सच्चा पुट न हो गम्भीरता के साथ नहीं लिया लिया जा सकता और न लिया जाना चाहिए। कविता को जीवित, स्पन्दित और जन-कल्याणकारी होने के लिए उसमें सच का होना जरूरी है। इसलिए कविता की पहली “ार्त कवि का सत्य एवं ईमानदार होना है। अनुचित साधनों से उचित लक्ष्य प्राप्त ही नहीं किये जा सकते। ईमानदारी की बहुत अधिक व्याख्या नहीं की जा सकती। ईमानदार होने के लिए किसी परम्परा या गुट से जुड़ा होना कतई जरूरी नहीं है; बल्कि सच इसका उल्टा है। ईमानदार होने के लिए मौलिक होना अपरिहार्य है। व्यक्ति और व्यक्तित्व में दोगलापन बिल्कुल वांछनीय नहीं है। कविता कवियों के लिए सात्विक पूजा है। कवि कर्म में झूठ का कोई स्थान नहीं। झूठ कभी भी जनकल्याणकारी नहीं हो सकता भले ही वह तथाकथित ईश्वर के द्वारा बोला या बुलवाया गया हो।

अत्यधिक एवं घोर विसंगतियो के बीच जीवन की टूटती हुई साँसों के बीच कविता भाव-सेतु है। साँसों के टूटन, पर्यावरणीय विघटन, सामाजिक विभाजन का कारण खोजती है कविता। तभी वह जन्म लेती है। वह हमारी असफलता के कारणों को रेखांकित करती है तभी तो वह प्रत्येक हृदय को झकझोरने एवं छूने में सफल होती है। हृदय जो घात-प्रतिघात से टूट गया हो, हृदय जो दुःखों से व्यथित हो गया हो, हृदय जो अघात से पत्थर बन गया हो या हृदय जो सारा खोकर एक पुष्प-सा खिल गया हो। सदियों का संताप, टूटे दिलों का घाव, दुनिया का अनवरत प्रवाहित दुःख कविता ही मिटा सकती है। इसलिए कविता मनगढ़न्त शब्दों की जोड़-तोड़ नहीं, विचारों का कचरा नहीं और न ही कोई मनोवैज्ञनिक तलछट है। वह तो बहता हुआ शफ़्फ़ाफ़ पानी का दरिया है जिसमें कुछ भी जमा किया हुआ नहीं है, सब कुछ पल-पल बदल रहा है, कुछ नया अविरल हो रहा है। इस तरह कविता एक शक्तिपुंज है, जिससे निरन्तर ऊर्जा निःसृत होती है जो प्रत्येक के लिए सुकून देती है, भले ही वह किसी भी पृष्ठभूमि से आता हो।

चूँकि कविता अच्छी ऊर्जा का स्त्रोत है इसलिए यह मनुष्य को उसकी पीड़ाओं से मुक्त भी कर सकती है। दुःख और व्यथा मनुष्य की सोच की सीमा के भीतर उत्पन्न होते हैं और कविता हर वह सीमा तोड़ सकती है जो नासमझी के चलते मनुष्य ने बनाया है। यह सीमाएँ लाँघना नहीं, तोड़ना सिखाती हैं। धरती पर मनुष्य जो कुछ भी नियोजित एवं संगठित करता है, वे ही उसकी सीमा बन जाती हैं और दुःखों का कारण भी। कविता मुक्त ऊर्जा से प्रस्फुटित होती है इसलिए वह मनुष्य को उसके बन्धनों से मुक्त कर सकती है। बहती हुई हवा या बहता हुआ पानी मुक्त होता है इसलिए वे शीतलता प्रदान करते और हमें थकान और मलिनता से मुक्त करते है। इसी प्रकार एक कविता हमें तमाम बन्धनोंः धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, पारिवेशिक सबसे मुक्त कर सकती है लेकिन शर्त यह है कि वह कविता हो और बिना किसी ख़ास उद्देश्य से लिखी गयी हों। जिनका कोई उद्देेश्य होता है वे उसी तक सीमित हो जाते हैं और लोककल्याणकारी कभी नहीं हो सकते।

आज के इस बौखलाये युग में जहाँ अविश्वास, झूठ, हिंसा, छल-कपट, द्वेष, ईष्र्या, लोभ और महत्वाकांक्षा ही जीवन के पर्याय हो चले हैं, कौन किसका मार्गदर्शन करेगा। अंधविश्वास, कुरीतियाँ, मरी हुई परम्पराये और मिथक फिर से पाँव पसारने लगे हैं क्योंकि आज मनुष्य अधिक असुरक्षित, दिग्भ्रमित और हताश हो रहा है। स्वच्छ एवं निर्मल जीवन के लिए ैचंबम की कमी होती जा रही है। कलह और संघर्ष बढ़ते जा रहा है। आदमी मात्र मुखौटा होता जा रहा है। मुखौटे की कोई जिम्मेदारी नहीं होती क्योंकि वह कभी मौलिक होता ही नहीं है। ऐसे अस्त-व्यस्त समय में कविता लैम्पपोस्ट बन सकती है जिससे गुजरकर आदमी अपना वजूद और असली चेहरा देख सकता है। इस संग्रह की कविताओं से हम यह उम्मीद कर सकते हैं।


बुद्ध पूर्णिमा, 2018