ऐसे थे रामविलास शर्मा / जसवीर त्यागी
5 जून, 1992
3 जून, 1992 को बाबा (डॉ. रामविलास शर्माजी) बड़ौदा चले गए। वहाँ पर उनकी मँझली बेटी 'सेवा' रहती हैं। परिवार के सभी सदस्य बाबा का बहुत सम्मान करते हैं। हर कोई उनके साथ अधिक से अधिक समय बिताना चाहता है। बाबा भी छोटे से लेकर बड़े तक सभी की भावनाओं की कद्र करते हैं। वे स्वयं कहते भी हैं कि 'परिवार चलाना किसी प्रदेश चलाने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम है।'
आज शाम को अकेले ही पार्क में घूमने गया। जिन-जिन रास्तों पर बाबा घूमते हैं वहाँ पर निगाह दौड़ाई और सोचा कि बाबा भी घूम रहे होंगे। फिर दूसरे ही पल यह खयाल आया कि वे तो बड़ौदा गए हैं और कहकर गए हैं, 11 जून को वापस विकासपुरी आ जाएंगे। उनके बगैर पार्क में घूमना अच्छा नहीं लगता।
21 जून, 1992
रामविलास जी अपने जीवन के अस्सी बसंत देख चुके हैं। आज भी वे प्रतिदिन दस-बारह घंटे लिखाई-पढ़ाई करते हैं। इस रहस्य को जानने के लिए मैंने उनसे पूछा - 'आप अपने स्वास्थ्य का ध्यान कैसे रखते हैं? कुछ स्वास्थ्य संबंधी सावधानियाँ बताइए।'
'अपने स्वास्थ्य का खयाल सभी को रखना चाहिए। कुछ शारीरिक अंग ऐसे हैं, जो हर समय काम करते हैं, जैसे मस्तिष्क , फेफड़े, ह्दय। इन सभी का खूब खयाल रखना चाहिए। मनुष्य का शरीर एक यंत्र की तरह है जिसका अगर कोई पुर्जा खराब हो जाए तो समझो कि आप गए काम से।'
'आदमी को खाने-पीने का विशेष ध्यान रखना चाहिए। हरी सब्जी, दाल, फल इत्यादि ज्यादा से ज्यादा खाने चाहिए। दूध गाय का हो तो अधिक अच्छा है। यह देखना चाहिए कि जिस पशु का दूध आप पी रहे हैं, उसका भोजन क्या है। जैसे भैंस को बिनौले आदि खिलाते हैं, तो उसका दूध ज्यादा गाढ़ा होता है। बकरी पत्ते, घास खाती है। उसका दूध हल्का होता है। महात्मा गांधी जी अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखते थे। वे बकरी का दूध पीते थे। वैसे घी ज्यादा नहीं खाना चाहिए - उससे चर्बी बढ़ती है। हम तो यह सब तला हुआ चिकनाईयुक्त खाते नहीं हैं। पेट ठीक रखना चाहिए। सारा स्वास्थ्य पेट से जुड़ा होता है। पेट, दिमाग, दिल कुछ ऐसे शारीरिक अंग हैं, जिनका सही होना जरूरी है। भोजन वह खाना चाहिए जो जल्दी से पच सके। अधिक तला हुआ भोजन शरीर को नुकसान करता है। भोजन हमेशा भूख से कम खाना चाहिए। तुम्हें एक उदाहरण सुनाता हूँ। एक बार काका हाथरसी से पूछा गया कि आपके स्वास्थ्य का क्या रहस्य है? उन्होंने बताया कि आदमी को जितनी भूख हो उससे आधा खाना चाहिए और प्यास जितनी हो उससे अधिक पानी पीना चाहिए। पेट के अंदर आंतें होती हैं। अगर आंतों के अंदर खुश्की होगी तो पेट ठीक नहीं रहेगा। आंतों में चिकनाई होगी, तो खाया हुआ माल निकालने में आसानी होगी। आंतों में चिकनाई का अर्थ यह नहीं है कि तुम घी पीने लगो। हरी सब्जी, फल इत्यादि का प्रयोग करना चाहिए। बादाम खाने चाहिए। बादाम खाने से दिमाग को बल मिलता है। दिमाग तेजी से काम करता है। रात को बादाम की थोड़ी-सी गिरी भिगो दो, फिर सवेरे उठकर उसको खाओ। इससे खूब लाभ होता है। दूध वही पीना चाहिए जो अधिक औंटा हुआ न हो। अपना सिद्धांत तो एक है कि दोपहर को डटकर खाओ , रात को हल्का भोजन करो। रात को पेट हल्का होने से नींद अच्छी आएगी, स्वप्न ठीक आएंगे। पेट अधिक भरा है तो नींद ठीक नहीं आएगी। अनाप-शनाप स्वप्न आएंगे। भोजन में दाल ज्यादा से ज्यादा खानी चाहिए। मट्ठा खूब पीना चाहिए। आदमी के भोजन का प्रभाव उसके शरीर, दिल, दिमाग पर पड़ता है। नींद अच्छी आनी चाहिए। गहरी नींद है तो चार घंटे की नींद भी काफी होती है। जिस आदमी को भोजन ठीक तरह से पच जाता है और नींद अच्छी आती है, समझो वह स्वस्थ आदमी है। एक होती है निंद्रा और दूसरी तंद्रा। अगर आदमी को आलस्य आता है, बार-बार जंभाई आती है तो समझो यह नींद नहीं है, तंद्रा है। आदमी को व्यायाम नियमित करते रहना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य को अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग रहना चाहिए।'
10 अप्रैल, 1993
प्रेम मानव जीवन और साहित्य का प्रेरक तत्व है। साहित्य में प्रेम की एक दीर्घ परंपरा रही है। रामविलास जी से पूछा - 'प्रेम के विषय में आप क्या सोचते हैं?'
मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा - 'प्रेम एक व्यापक शब्द है। इस पर हिंदी और अंग्रेजी के अनेक लेखकों ने लिखा है। कबीर ने कहा - 'ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय'। कहते हैं कि कबीर अनपढ़ थे लेकिन प्रेम में ढाई अक्षर होते हैं - यह कबीर को कैसे मालूम था? इसका अर्थ यह हुआ कि कबीर को अक्षर ज्ञान अवश्य था। अनपढ़ आदमी कैसे बता सकता है कि इसमें कितने अक्षर हैं?
'प्रेम के विषय में मनुष्य काफी लालायित होता है। प्रेम मनुष्य की एक माँग भी होती है। समय-समय पर प्रेम की विभिन्न स्थितियाँ होती हैं। प्रेम के विषय में अनेक मत हैं। कुछ लोग कहते हैं कि प्रेम तो एक व्यापक और मनोहारी भाव है। इसलिए मनुष्य को अधिक से अधिक प्रेम करना चाहिए। प्रेम के विषय में बायरन का मत था कि प्रेम एक से ही करना चाहिए। प्रेम के विषय में फ्रायड का मत अलग है। वह स्वप्नों को लेकर चलता है। वह मानता था कि मनुष्य शारीरिक आवश्यकताओं के लिए प्रेम करता है। फ्रायड के विचार में सेक्स सब कुछ था। मैं मानता हूँ कि प्रत्येक विषयवस्तु में सेक्स को तलाशना भी गलत है। मनुष्य का अस्तित्व इससे हटकर भी है। एक समय में यूरोप के विचारकों पर फ्रायड का काफी प्रभाव था। भारतीय लेखकों को भी काफी हद तक फ्रायड ने प्रभावित किया। फ्रायड का मानना था कि स्वप्न में मनुष्य के वही सब उभरकर आता है, जिसे वह चेतन में अभिव्यक्ति नहीं दे पाता है। मनुष्य की दमित भावनाओं की पूर्ति स्वप्न में भिन्न-भिन्न रूपों में उभरकर आती है। वह मानता है कि मनुष्य के सभी क्रिया-कलापों के पीछे सेक्स की भावना ही प्रबल रूप से होती है। फ्रायड के मत से मैं सहमत नहीं हूँ, क्योंकि एक समय के बाद यह असहनीय है। फ्रायड का सिद्धांत असामान्य है और वह अपने सिद्धांत को लागू करता है सामान्य व्यक्तियों पर, जो कि अनुचित है। इस तरह प्रत्येक विषयवस्तु में सेक्स का ही प्रतिबिंब देखना गलत है।
'प्रेम की अभिव्यक्ति डी.एच. लॉरेंस ने भी अपनी रचनाओं में की है। लॉरेंस का प्रभाव प्रयोगवादी लेखकों पर पड़ा था। लॉरेंस का मत था कि मनुष्य को अपनी भावनाएँ दबाकर नहीं, बल्कि उन्हें पूर्ण करके जीना चाहिए। लॉरेंस मानता था कि मनुष्य को प्रेम में शारीरिक आवश्यकताओं को सहज रूप से लेना चाहिए।
'मैं मानता हूँ कि स्त्री-पुरुष दोनों मित्र बनकर रह सकते हैं - यह संभव है, लेकिन हमारे यहाँ यह सब नहीं होता। आपसी झगड़े होते हैं। प्रेम में आदमी को दिमागी हालत की भी आवश्यकता होती है। मार्क्स, एंगेल्स और जेनी तीनों साथ रहते थे, और काफी अच्छे मित्र थे।'
प्रेम की पराकाष्ठा क्या है?
'मृत्यु प्रेम की अंतिम सीढ़ी है।'
मृत्यु के विषय में आप क्या सोचते हैं?
'मृत्यु जीवन का प्रथम और अंतिम सत्य है।'
29 जून, 1993
शाम को साढ़े छह बजे के आसपास बाबा के साथ पार्क में घूमने के उद्देश्य से उनके आवास पर पहुँचा। मैंने द्वार की घंटी बजाई। संतोष आंटी (रामविलास जी की पुत्रवधू) ने बाहर निकल कर कहा कि 'चाचा तो घूमने के लिए निकल गए हैं।' मैंने अपने कदमों को तेजी से पार्क की ओर मोड़ दिया। थोड़ी ही देर में बाबा पार्क में घूमते हुए मिल गए। उन्हें प्रणाम कर उनके साथ सायंकालीन सैर में शरीक हो लिया। घूमते हुए महसूस किया कि बाबा काफी तेज गति से चलते हैं। संग चलने वालों को उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए अच्छी-खासी मशक्कत करनी पड़ती है। चालीस-पैंतालीस मिनट घूमने के बाद घर पहुँचकर उन्होंने एक बड़ा ही दिलचस्प विश्लेषणात्मक प्रसंग सुनाया, जो कि इस प्रकार है :
'अधिकांश मनुष्य अपने विषय में नहीं जान पाते हैं। यह बात सामान्य व्यक्ति के साथ-साथ बड़े-बड़े लेखकों और वैज्ञानिकों पर भी लागू होती है। अंग्रेजी के एक बड़े नाटककार थे - जॉर्ज बर्नार्ड शॉ। वे पहले संगीत पर छिटपुट लेख लिखा करते थे। चालीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने एक नाटकघर में नाटक देखा। उन्हें अच्छा लगा। उन्होंने सोचा कि मैं भी ऐसे नाटक लिख सकता हूँ। फिर उन्होंने नाटक लिखना प्रारंभ किया और अंग्रेजी साहित्य में उनके नाटक बहुत प्रसिद्ध हुए। मेरे कहने का अर्थ यह है कि मनुष्य को अपने विषय में जानने की कोशिश करनी चाहिए।
'मैथिलीशरण गुप्त बहुत बड़े कवि तो नहीं थे, लेकिन वे कविता के प्रेमी जरूर थे। उन्होंने एक नाटक लिखा है। वह अच्छा नाटक है। मैंने उनसे कहा कि आप नाटक लिख सकते हैं। दिल्ली के एक समारोह में हमने लेखकों के विषय में बताया कि कौन लेखक किस विधा में अच्छा कार्य कर सकता है। उस कार्यक्रम में अनेक रचनाकार उपस्थित थे। मैं भी पहले कविता लिखा करता था। आलोचना भी करता था। मैंने कई बार सोचा कि मैं जिस विधा में काम कर रहा हूँ, वह कहाँ तक तर्कसंगत है। क्या वह कार्य मेरे व्यक्तित्व के अनुरूप है? छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा से जब कविता नहीं लिखी गई तो उन्होंने पद्य को छोड़कर गद्य लिखना शुरू किया और उन्होंने अच्छा प्रभावशाली गद्य लिखा। सुमित्रानंदन पंत जी में इतनी सूझबूझ नहीं थी - वे कविता ही लिखते रहे। अंत में आकर पंतजी ने 'लोकायतन' लिखा - उसमें न कविता है, और न ही कविता के विषय की कोई चीज। इसलिए आदमी को अपने विषय में जान लेना चाहिए कि वह कौन-सा कार्य ठीक तरह से कर सकता है। मनुष्य को जीवन एक बार मिलता है - उसे सार्थक करना चाहिए।
'मिल्टन अंग्रेजी के बहुत बड़े कवि थे। 'पैराडाइज लॉस्ट' अंग्रेजी का एकमात्र महाकाव्य है। मिल्टन अंधे हो गए थे। वे अपनी पुत्री को 'डिक्टेट' कराते थे। वह लिखती रहती थीं। मिल्टन की स्मरण शक्ति काफी बढ़िया थी - जो पढ़ा-लिखा था , वह याद रहता था। मिल्टन में लैटिन, ग्रीक का अधिक प्रयोग है। मिल्टन में ईसाइयत अधिक है। मैकाले को जॉन मिल्टन का संपूर्ण 'पैराडाइज लॉस्ट' मुँहजबानी याद था। अंग्रेजी के ही एक दूसरे लेखक थे जॉनसन। जॉनसन महान लेखकों में एक थे। पहले उन्होंने बड़े ही आर्थिक अभाव में जीवन व्यतीत किया था। उन्होंने अंग्रेजी में शब्दकोश का निर्माण किया। उसके साथ-साथ वे आगे बढ़ते चले गए। जॉनसन पढ़े-लिखे काफी थे। वे बातें बहुत समझदारी से करते थे, इसलिए बड़े-बड़े नेता, लेखक उनका सम्मान करते थे। अंग्रेजी लेखकों पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी है - 'लाइव्स ऑफ पोयट्स'। यह एक पठनीय पुस्तक है। वैसे जॉनसन हास्य और व्यंग्य में भी काफी माहिर थे। इसलिए मैं सोचता हूँ कि मनुष्य को समय-समय पर आत्मविश्लेषण भी अवश्य करते रहना चाहिए।'
6 मार्च, 1995
शाम को साढ़े छह बजे रामविलास जी के पास गया। सूचना मिलने पर उन्होंने अंदर बुला लिया। मेरा प्रणाम स्वीकार करने के बाद वे बोले - 'तुम ठहरो, हम अभी तुम्हारी 'राष्ट्रीय सहारा' वाली प्रति लाते हैं।' थोड़ी देर में प्रति मुझे थमाते हुए वह बोले - 'हम क्रिकेट का मैच देख रहे हैं।'
'किस टीम का मैच हो रहा है?'
'इंग्लैंड और वेस्टइंडीज का।' मेरे स्कोर पूछने पर, उन्होंने बताया कि वेस्टइंडीज की टीम ने 298 रन बना लिए हैं।
फिर मैंने कहा कि 'आपकी पुस्तक 'पश्चिम एशिया और ऋग्वेद' आजकल मिल नहीं रही है, पता नहीं क्या बात है।' बाबा स्थिति को स्पष्ट करते हुए बोले - 'ऐसा है कि हमें माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय वालों ने फोन पर सूचित किया था कि उसमें कुछ गलत पृष्ठ 'बाइंड' हो गए हैं। उन पृष्ठों को निकालकर ही पुस्तक को बाजार में लाएंगे। हमें तो अभी पुस्तक मिली भी नहीं है।' कुछ क्षणों तक वे मौन रहे। मैंने जान लिया कि उनका मन क्रिकेट मैच देखने का है, इसलिए मुझे अब चलना चाहिए। वैसे भी उन्होंने मुझसे शुरू में ही कह दिया था कि 'हम क्रिकेट मैच देख रहे हैं।' कहते भी हैं कि समझदार को इशारा ही काफी है। मैंने प्रणाम किया और घर की ओर हो लिया।
14 मार्च, 1995
शाम को जब रामविलास जी से मिलने गया - उस समय वे घर के गलियारे में टहल रहे थे। मुझे देहरी पर खड़ा देखकर बोले - 'अच्छा जसवीर तुम - आओ,' और हम दोनों ड्रॉइंग रूम में जाकर बैठ गए। मैंने देखा कि बैठक का सामान अस्त-व्यस्त है। वहाँ पर रखा हुआ सामान रोजमर्रा की स्थिति से कुछ हटकर था। लकड़ी के बने हुए फ्रेम रखे हुए थे। मैंने उत्सुकतावश पूछा - 'बाबा , यह क्या बनवा रहे हैं...?'
'हम कुछ नहीं बनवा रहे, हम तो बिगाड़ने वालों में हैं। बर्तन, किताबें रखने के लिए आलमारी बनवा रहे हैं। औद्योगीकरण हो रहा है। '
'दूरदर्शन वाले आप पर जो फिल्म बना रहे हैं, उन्होंने आपसे किन मुद्दों पर बातचीत की?'
'वही साहित्यिक मुद्दों पर। दूरदर्शन वाले दो-तीन दिन तक लगे रहे। दिन हमारा खराब करते रहे और रात विजय की। एक दिन तो वे रात के एक बजे तक यहाँ पर रहे - हम तो सो गए थे। फिर विजय से ही बातचीत करते रहे। मैंने सुना था कि दूरदर्शन वाले पाँच लोगों पर फिल्म बना रहे हैं, जिनमें नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, विष्णु प्रभाकर, हरिवंश राय बच्चन और मैं हूं। एन.सी.ई.आर.टी. वाले भी फिल्म बना रहे हैं, जिसमें शिवमंगल सिंह 'सुमन', नामवर सिंह आदि हैं। मैंने देखा है कि दूरदर्शन वाले समझदार नहीं हैं। इनके पास खुद का कैमरा है - सारा सामान है, लेकिन उसके बावजूद भी एक ऐसे आदमी को ठेका दिया है जो बाहर का है , उसके पास अपना सामान भी नहीं है। उसने किसी तीसरे व्यक्ति को किराए पर किया है। इस प्रकार एक से दूसरा, दूसरे से तीसरा। सभी को रुपया देना पड़ेगा। जनता की संपत्ति को इस रूप में खराब कर रहे हैं। भला इन लोगों को क्या हक है कि वे जनता के रुपए बर्बाद करते फिरें। वैसे दूरदर्शन वालों को फिल्म बनाना भी नहीं आता। अगर हम फिल्म बनाते तो अलग दृष्टिकोण से बनाते।'
'अगर आप फिल्म बनाते तो कैसे बनाते?'
'हम सबसे पहले अपने गाँव जाते - वहाँ के घरों के चित्र लेते। लहराते हुए खेतों के चित्र लेते। फिर बाबा के कंधे पर बैठा हुआ एक बालक दूर से दिखा देते। कोई भी एक बुजुर्ग और एक बच्चा होता। उसके बाद स्कूल जहाँ हमने शिक्षा प्राप्त की। झांसी का स्कूल। धीरे-धीरे उन स्थलों को दिखाते जहाँ से हमारा संबंध रहा है। जैसे - लखनऊ, आगरा, दिल्ली। कुछ इसी तरह से मजदूरों और किसानों के साथ भी हम देख रहे हैं - वह सब भी हम जरूर दिखाते।
'अमेरिका वालों ने एक फिल्म बनाई - 'लुई पास्ट्यर'। इस फिल्म में पॉल मुनि ने अभिनय किया था - यह एक अच्छी फिल्म है। एक और अन्य प्रसिद्ध फिल्म है - 'अमलजोला'। फ्रांस के बहुत बड़े उपन्यासकार थे। इस फिल्म में भी पॉल मुनि ने अभिनय किया था। अभिनय करने में वे बड़े माहिर थे। अमेरिका में ही इटली के महान चित्रकार माइकेल एंजिलो पर फिल्म बनाई गई। वह अच्छी फिल्म थी। उस पर उपन्यास भी लिखा गया था जिसका नाम है- 'The Agony and the Ecstasy' 'ऍगनि' का अर्थ होता है - पीड़ा और 'एक्सटॅसी' का - उल्लास। इस प्रकार कलाकार जिस पीड़ा को भोगकर सृजन करता है - उस सृजन का उल्लास। दूरदर्शन वाले जो मुझ पर फिल्म बना रहे हैं, उन्होंने शायद ही मेरी कोई पुस्तक पढ़ी हो।'
'समय मिलने पर क्या आप अब भी फिल्म देखते हैं?'
'सिनेमा हम अब बहुत कम देखते हैं। अपने काम से ही फुरसत नहीं मिलती है। बचपन में हम अपने बड़े भाई के साथ अंग्रेजी फिल्में देखते थे। हमारी क्लास में एक दरोगा का लड़का था। वह पास (प्रवेश पत्र) रखता था। उसकी अंग्रेजी फिल्मों में रुचि नहीं थी। वह हमें 'पास' दे दिया करता था। बचपन में हमने अंग्रेजी फिल्में काफी देखी थीं। चार्ली चैपलिन की अधिकांश फिल्में हमने देखी हैं। हिंदुस्तानी फिल्मों में मुझे कैफी आजमी की बेटी शबाना आजमी की फिल्में अच्छी लगती हैं। एक फिल्म में उसने एक विकलांग लड़की का अभिनय किया था। वह फिल्म मुझे काफी पसंद आई थी।'
'आजकल आप क्या लिख रहे हैं?
'अपनी आत्मकथा 'अपनी धरती अपने लोग' दोहरा रहे हैं।'
'अब चलता हूँ।'
'ठीक है, जैसा तुम चाहो।'
'(चरण-स्पर्श करते हुए) प्रणाम बाबा।'
'जीते रहो, खुश रहो।'
17 मार्च, 1995
आज होली का पावन पर्व है। सुबह से ही वातावरण में हँसी-ठिठोली और खिलंदड़पने की खुशबू कोने-कोने में फैल गई है। चारों ओर रंग-बिरंगे चेहरे मस्ती में झूम रहे हैं। मेरे मित्र आदित्य (सुप्रसिद्ध चित्रकार) और मैंने एक योजना बनाई कि चलो आज बाबा संग होली-मिलन किया जाए। हम लोग सुबह दस बजे (सी-358, विकास पुरी) उनके आवास पर पहुँच गए। द्वार की घंटी की पुकार सुनकर दरवाजा रामविलास जी के पौत्र चिन्मय शर्मा ने खोला। चिन्मय ने हम दोनों को देखते ही कहा - 'अच्छा, आदित्य-जसवीर तुम लोग हो। अंदर आ जाओ।' हम सब ड्रॉइंग रूम में बैठ गए। एक-दूसरे को गुलाल लगाने और घर की बनी स्वादिष्ट गुझिया खाने के बाद हमने चिन्मय से कहा - 'हम बाबा को भी होली की बधाई देना चाहते हैं।' उसने बताया - 'बाबा अपने कमरे में पढ़ रहे हैं। मैं उन्हें बता देता हूँ कि तुम लोग आए हो।' थोड़ी ही देर में बाबा बैठक में आ गए। मैंने और आदित्य ने प्रणाम करते हुए उनके चरण स्पर्श किए और फिर सामने मेज पर रखी हुई थाली में से गुलाल की एक चुटकी लेकर उनके चरणों पर लगाते हुए संयुक्त स्वर में कहा - 'आपको होली मुबारक हो।' बाबा ने 'जीते रहो-खुश रहो' का आशीर्वाद देते हुए कहा - 'तुम्हें भी होली मुबारक हो।'
'बाबा, आज तो होली है, आप आज भी पढ़ाई-लिखाई कर रहे हैं?
'तुम लोगों की तरह हमारी छुट्टी नहीं होती। हमें तो रोज ही काम करना होता है।'
बीच-बीच में आदित्य बोलते रहे। बाबा ने आदित्य से कहा - 'तुम्हारे व्यवसाय में कवि का कोई काम नहीं है क्या? तुम्हें अपने व्यवसाय के लिए विज्ञापन कविता के लहजे में कवि से ही लिखवाना चाहिए। निराला जी ऐसा खूब करते थे। विज्ञापन को कविता में प्रस्तुत करना। '
मैं तुरंत समझ गया कि उनका इशारा मेरी ओर है। बातचीत करते हुए बाबा ने मेज पर रखी हुई मिठाई की तरफ संकेत करते हुए हम लोगों को खाने के लिए कहा। मिठाई उठाते हुए आदित्य ने कहा - 'बाबा, आप भी लीजिए।' आदित्य की बात पर वे बोले - 'हम अपना नाश्ता , भोजन आदि नियत समय पर ही करते हैं। तुम लोग खाओ।'
फिर बाबा ने कहा - 'श्रीमद्भगवतगीता में लिखा हुआ है कि जो व्यक्ति अपने परिवार की आवश्यकताओं से अधिक धन संग्रह करता है, वह चोर है। अर्थात यह एक प्रकार का अपराध है। यहाँ पर धन-संग्रह का अर्थ है - पूंजी का केंद्रीकरण। जिंदगी एक लंबी दौड़ है। यहाँ पर हर बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है। या तो दूसरे को खाओ या फिर दूसरे के द्वारा खा लिए जाओगे। इस पर निर्भर है पूंजीवाद।'
हमने देखा, परिवार और कुछ आस-पड़ोस के लोग भी रामविलास जी को होली-मिलन की बधाई देने के लिए बाट जोह रहे हैं। ऐसे में हम दोनों मित्रों ने विदा ली और घर से बाहर निकलते हुए हमने महसूस किया कि बाबा से मिलने के बाद, होली के रंगों से सिर्फ हमारा चेहरा ही नहीं, बल्कि हमारा मन-मस्तिष्क भी आच्छादित है।
26 मार्च, 1995
मैं शाम सात बजे रामविलास जी से मिलने गया। उस समय वे अपने घर के गलियारे में घूम रहे थे। मुझे देखकर बोले - 'आज सारा दिन हम तुम्हें याद करते रहे। तुम्हारे गुरु विश्वनाथ त्रिपाठी ने मुझे फोन किया था कि आप जसवीर को बता दें - सोमवार को उसका एम.फिल. का 'वायवा' है। तुम्हें सूचना मिली...?'
'जी बाबा, मुझे सूचना मिल गई है।'
उसके बाद उन्होंने बताया - 'ऐसा है कि आजकल घर में तोड़-फोड़ का काम चल रहा है। हमारे कमरे में भी काम हो रहा है। सारा सामान इधर-उधर बिखरा पड़ा है। हमारी छोटी वाली डायरी नहीं मिली, जिसमें तुम्हारे मित्र आदित्य का फोन नं. लिखा हुआ है। हमने पहले सोचा था कि हम आदित्य को फोन कर देंगे कि वह 'वायवा' की सूचना जसवीर को दे दे। जब डायरी नहीं मिली तो हमने सोचा कि अब जसवीर को सूचना कैसे दें? हमने तो उसका घर भी नहीं देखा। किसी को भेजें भी तो कैसे? घूमते वक्त हम यही सोच रहे थे कि किसी तरह से तुम आ जाओ। और तुम आ ही गए।'
मुझे संपूर्ण स्थिति समझाने के बाद, वह अपने अध्ययन-कक्ष में ले गए। सामान अस्त-व्यस्त था। एक कुर्सी रखी थी। पलंग पर खुली हुई किताबें उनका इंतजार कर रही थीं, जिनको देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि वे कुछ पढ़-लिख रहे थे। साथ ही रोजमर्रा का इस्तेमाल होने वाला कुछ आवश्यक सामान भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था, जिनमें पेन, पेंसिल, कैंची, घड़ी, ट्रांजिस्टर, रेडियो इत्यादि थे।
मुझे कुर्सी पर बिठाकर और स्वयं पलंग पर बैठने के बाद, बाबा ने पूछा - 'तुम्हारा 'वायवा' कितने बजे है ?'
'जी, ग्यारह बजे।'
'समय कितना लगता है, विश्वविद्यालय पहुँचने में?'
'एक-डेढ़ घंटे लग जाते है। उत्तम नगर से विश्वविद्यालय की सीधी बस मिल जाती है। पहुँचने में कोई असुविधा नहीं होती।'
बाबा के इस अंदाज से बातचीत करने में कितनी आत्मीयता और वात्सल्य भरा हुआ है - यह मैंने उनके व्यवहार से जाना।
फिर मैंने पूछा - 'आपके पास एक-दो दिन पहले गुरुजी (विश्वनाथ त्रिपाठी) का फोन आया होगा। वे बता रहे थे कि डॉ. साहब से खाने की बात हो गयी है।'
रामविलास जी मुस्कराते हुए - 'हाँ, एक तो कल आया था, और उससे पहले भी दो-तीन बार आ चुका है। एक दिन विश्वनाथ त्रिपाठी फोन पर कह रहे थे कि आपके हाथ की बनी रोटी खाना चाहते हैं। हमने कहा - ठीक है, तुम जब आना चाहो आ जाओ। हम तुम्हें अपने हाथ की बनी रोटी खिलाएंगे।' उन्होंने यह भी कहा कि 'मैं भी अपना खाना खा लूंगा।' मैंने कहा - ठीक है , 'तुम मेरी रोटी खा लेना, मैं तुम्हारा खाना खा लूँगा।'
बातचीत के क्रम में बाबा ने बताया कि एक दिन और विश्वनाथ त्रिपाठी का फोन आया था। कह रहे थे कि 'एक दिन जसवीर फोन पर मुझसे अपने 'वायवा' के विषय में पूछ रहा था। मैंने थोड़े अनमने भाव से उससे बात की, क्योंकि उस समय घर पर मेरे दामाद आए हुए थे। आप उसे मेरी तरफ से समझा देना।'
'अभी तो आप अपनी आत्मकथा पर काम कर रहे होंगे?'
'तुम ठीक कह रहे हो। आजकल हम आत्मकथा का तीसरा खंड दोहरा रहे हैं। उसने हमारा काफी समय ले लिया। तीसरे भाग में चिट्ठी-पत्री है। उसमें हमारे सन 1932-33 से अबतक पारिवारिक लेागों को लिखे गए पत्रों का संकलन है। उसमें सबसे ज्यादा पत्र हमने अपने बड़े भाई को लिखे हैं। हमने उन सभी पत्रों की 'फोटोकॉपी' कराई है। फोटोकॉपी कहीं साफ, तो कहीं धुंधली है। सभी पत्रों को व्यवस्थित कर सिलसिलेवार क्रम में लगाना है।'
मैंने बाबा के अध्ययन-कक्ष में चारों ओर निगाह दौड़ाई। देखा कि कक्ष में पुस्तकों की प्रधानता है। हर कोने से कोई छोटी-बड़ी, नई-पुरानी, मोटी-पतली पुस्तक मंद-मंद मुस्कुरा रही है। पुस्तकों के असीम भंडार के पास ही मैंने 'वेटलिफ्टिंग' की एक 'रॉड' रखी हुई देखी। मैं कुछ समझ न सका। आखिरकार अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए मैंने उनसे पूछ ही लिया - 'आप इसका क्या करते हैं?' उन्होंने जोशीले स्वर में कहा - 'हम जब व्यायाम करते हैं, तब इसका प्रयोग करते हैं।'
मैंने पूछा - 'क्या मैं इसे उठाकर देख सकता हूँ?'
उनका जवाब था - 'हाँ-हाँ, नेकी और पूछ-पूछ।'
मैंने उसे उठाकर देखा तो महसूस हुआ कि उसमें अच्छा-खासा वजन है। फिर उन्होंने मेरी आंखों के सामने उस वजनदार 'रॉड' को इस अंदाज में उठाया, जैसे कोई पारंगत 'वेट लिफ्टर' उठाता है। और बोले - 'हम इस तरह से व्यायाम करते हुए इसे उठाते हैं।' 83 वर्ष की अवस्था में उन्हें वेटलिफ्टिंग करते हुए देखकर मैं हतप्रभ रह गया। मैंने पाया कि 'वार्धक्य' शब्द रामविलास जी के शब्दकोश में नहीं है।
मैंने बाबा को बताया कि त्रिपाठी सर ने मेरे मित्र नीरज को भी मेरे 'वायवा' के संदर्भ में फोन किया था कि मुझे सूचना पहुँचा दें।
मेरी बात सुनकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा - 'इसका मतलब है कि तुम्हारे गुरु जी ने कई लोगों को फोन किया है। इससे पता चलता है कि विश्वनाथ त्रिपाठी अपने छात्रों का विशेष ध्यान रखते हैं। यह गुण उन्होंने अपने गुरु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी से पाया होगा।'
जिस लहजे में उन्होंने गुरु-शिष्य के संबंधों पर इतनी सटीक, मार्मिक टिप्पणी की, उसे सुनकर मैं थोड़ा भावुक हो गया।
मैंने कहा - 'नीरज ने मुझे बताया था कि गुरु जी ने बाबा को भी फोन किया है, ताकि तुम्हें सूचना मिल सके। इसलिए मैं आपके पास चला आया कि आप परेशान न हों, मुझे सूचना मिल गई है।'
यह सुनकर बाबा बोले - 'अच्छा तो अपने मित्र से सारी बातें जानकर आ रहे हो, असली बात यह है।' कहकर उन्होंने जोर का ठहाका लगाया।' मैंने अनुभव किया कि कमरे में उनकी हँसी के साथ-साथ मेरी हँसी भी गुंजायमान हो उठी है। जब वे हँसते हैं, तब उनकी निश्छल हंसी दूसरों को भी अनायास अपनी ओर खींच लेती हैं।
20 जनवरी, 1996
मुझे कुछ पुस्तकें बाबा को देनी थीं। मैं शाम को सात बजे उनसे मिलने गया और पुस्तकें उन्हें सौंप दीं। बातचीत के दौरान उन्होंने कहा - 'आज कई लोग मिलने वाले आए थे। मुझे लोगों से मिलने में कोई परेशानी नहीं होती। परेशानी उस समय होती है जब लोग अपनी पुस्तक पढ़ने के बाद उस पर मेरी प्रतिक्रिया माँगते हैं। यह सब मैं अब कर नहीं सकता। मेरे पास समय नहीं बचता दूसरी चीजें पढ़ने का। मैं अपने काम में ही बहुत व्यस्त रहता हूँ।'
मैंने पूछा - 'बाबा, आप जब कोई पुस्तक लिखते हैं, तो उसकी तैयारी कैसे करते हैं?'
मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा - 'देखो, पुस्तक लिखने का हमारा अपना ढंग है - जैसे हमें तुलसी पर लिखना है , तो सबसे पहले हम तुलसीदास का संपूर्ण साहित्य पढ़ेंगे। पढ़कर उनके विषय में अपनी एक राय बना लेंगे। उसके बाद हम उन लेखकों को पढ़ते हैं जिन्होंने तुलसी पर लिखा है। जैसे तुलसीदास पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने लिखा है - वह पढ़ लिया। फिर अन्य लेखकों द्वारा तुलसीदास पर लिखा हुआ पढ़ेंगे। उसके बाद हम लोगों से बातचीत करते हैं। इस विषय में आपकी राय क्या है? उन लोगों की राय को अपनी राय से मिलाकर देखते हैं कि उनके और हमारे दृष्टिकोण में क्या फर्क है? उसके बाद हम पुस्तक लिखते हैं। इसी प्रकार आजकल बाबर पर लिखना है, तो पहले हम यह देखेंगे कि उसकी 'ओरिजनल राइटिंग्स' कहीं पर हैं या नहीं। उसको पढ़ते हैं। लेखक क्या सोचता है? उसकी अपनी विचारधारा क्या है? उसका देखने-समझने का दृष्टिकोण कैसा है? इन सब विषयों को जान लेने के बाद हम अपना काम करते हैं। जीवन में खूब सारी चीजें हैं, उन्हें देखना चाहिए, समझना-परखना चाहिए। किसी भी विषय पर स्वयं को पूरी तरह से कस लेना चाहिए। तब ही लिखना सार्थक होता है। ' उनका दृष्टिकोण जानकर बहुत अच्छा लगा और लिखने-पढ़ने की एक नवीन प्रेरणा व सीख प्राप्त हुई।
10 अक्तूबर, 1997
आज बाबा का जन्मदिन है। शाम को उनसे मिलने गया। उस समय वे अपने कमरे में थे। उन्होंने आधी बाँह की आसमानी रंग की कमीज और गहरे नीले रंग की पैंट पहनी हुई थी। पैरों में कैनवास के जूते थे। खूब सुंदर लग रहे थे। उन्हें देखकर लगता ही नहीं कि वह 85 वर्ष के हो गए हैं।
अपने हाथ से बनाया हुआ एक 'ग्रीटिंग कार्ड' मैंने उन्हें दिया। उन्होंने मुझे रसगुल्ले खिलाए। बाबा की स्मृति भी विलक्षण है। उन्हें घटना संदर्भ और प्रसंग खूब याद आते रहते हैं। उन्होंने बताया, 'मेरे एक जन्मदिन पर तुमने फूल-पत्तियाँ लगाकर एक'ग्रीटिंग कार्ड' बनाया था।' सुनकर मुझे अचरज हुआ कि उन्हें छोटी-से-छोटी बात भी इतनी याद रहती है।
'आजकल आप क्या लिख रहे हैं?'
'गांधी, आंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ पुस्तक पर काम चल रहा है। आजकल हम गांधी बाबा पर लिख रहे हैं।' गांधीजी के साहित्य के अस्सी खंड हैं। उनमें चिट्ठियों का संग्रह ज्यादा है। एक बार उन सभी खंडों पर नजर मार लेना जरूरी है। एक सज्जन निराला जी पर काम कर रहे हैं, उनका नाम जनार्दन द्विवेदी है। जो निराला जी पर काम करेगा, वह हमारा दोस्त हो जाएगा। उन्होंने गांधीजी को खूब पढ़ा है। उनके पास गांधीजी का संपूर्ण साहित्य व्यवस्थित रूप में है। उन्होंने अस्सी खंड मुझे अध्ययन के लिए ला दिए। गांधीजी में एक अच्छी आलोचक बुद्धि थी। उनमें वर्णन-क्षमता अद्भुत है। वे दक्षिण अफ्रीका जा रहे हैं। जहाज जब हिलता है, तो मेज, कप-प्लेट कैसे हिलती हैं? इसका बहुत सुंदर वर्णन गांधीजी ने किया है। गांधीजी जब किसी की धज्जियाँ उड़ाने पर उतरते हैं, तो उन्हें रोकना और उनसे वाद-विवाद करना बड़ा मुश्किल है। अंग्रेजी राज के बारे में जो हम सोचते हैं - वही सब उन्होंने दो पेज में कह दिया है। गांधीजी सहज सरल भाषा का प्रयोग करते हैं। उनकी अंग्रेजी काफी अच्छी है। उसे आसानी से समझा जा सकता है। पहले हम गांधीजी के बारे में कुछ अलग सोचते थे, अब दूसरे तरीके से सोच रहे हैं। गांधीजी अंदर से काफी दिलचस्प आदमी थे। उनके साहित्य के अस्सी खंड हैं। आंबेडकर और लोहिया के साहित्य के पंद्रह-बीस खंड हैं। हमने इन्हीं पर काम करना ज्यादा उचित समझा, क्योंकि आजकल जो राजनीति हो रही है, उसके नेता इन्हीं दिग्गजों से प्रेरित होकर राजनीति करते हैं। इन सभी नेताओं का प्रभाव समकालीन राजनीति पर है।'
फिर बाबा राजनीति से हटकर साहित्य की बात करने लगे। उसी क्रम में उन्होंने कहा - 'विष्णुचंद्र शर्मा 'सर्वनाम ' पत्रिका निकालते हैं। वह पत्रिका हमारे पास भी आती है। उसके एक अंक में विश्वनाथ त्रिपाठी ने एक लेख लिखा है कि किस प्रकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपनी अंतिम यात्रा रेल में की थी। वह लेख बहुत मार्मिक है।'
मैंने अपने हाथ से बना जो ग्रीटिंग कार्ड बाबा को दिया था, उसमें 'द हिंदू' अखबार से कुछ चित्र काटकर चिपकाए थे। कार्ड को देखकर वे बोले - 'हमारे पास 'द हिंदू' अखबार की कतरनों का एक अच्छा संग्रह है। वह एक अच्छा अखबार है, उसमें संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला, साहित्य आदि विषयों पर खूब अच्छा लिखा जाता है। दक्षिण के संगीतज्ञ हैं त्यागराज - जैसे हमारे यहाँ तानसेन हैं वैसे ही दक्षिण में त्यागराज हैं। उत्तर भारत के अखबार फिल्म और फिल्मी कलाकारों पर ज्यादा लिखते हैं, लेकिन दक्षिण भारत का 'द हिंदू' अखबार ललित कलाओं पर अधिक केंद्रित होता है। कभी-कभी उसमें उत्तर भारत पर भी अच्छी सामग्री होती है। दक्षिण के लेखक खूब यात्राएँ करते हैं। वे फोटोग्राफी भी लाजवाब करते हैं।'
मैंने देखा घर में दिल्ली से बाहर के कुछ पारिवारिक सदस्य भी जन्मदिन पर आए हुए हैं। हर कोई उनके संग अधिक से अधिक समय बिताना चाहता है। मुझे लगा कि अब चलने की अनुमति लेनी चाहिए। मैंने चरण-स्पर्श करते हुए एक बार पुन: कहा - 'आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई।' उन्होंने मुस्कराते हुए कहा - 'जीते रहो, सदा खुश रहो।'