ऐसे नहीं / गीता पंडित
"अनिल, सुनो ना"
"हाँ, कहो"
" हमें कम से कम अब तो मॉम डैड और नीशू (अनिल की छोटी बहन) से मिलने जाना चाहिए। पाँच वर्ष हमारे विवाह को हो गए?।
शायद अब वे मान जाएँ और हमारे प्रेम को समझ सकें। "
अनिल चुप रहा। मैंने फिर कहा-
"देखो, हमारे दो बच्चे भी हो गए हैं इन्हें भी तो अपने ग्रैंड पा और ग्रैंड माँ को जानना चाहिए।"
"ह्म्म्मम्म।"
"तो कब चलेंगे?"
"अभी नहीं कह सकता। ऑफिस में काम बहुत है।"
"तो कब?"
मैं ज़रा ऊंची आवाज़ में बोली क्योंकि मैं समझ गयी थी कि हमेशा की तरह इस बार भी अनिल टालमटोल कर रहा है।
उसने अपनी दृष्टि उठाकर मुझे देखा शायद, मेरे लहजे की तल्खी वह पहचान गया था।
" अच्छा, चलेंगे बाबा।
नाराज़ क्यों होती हो?
चिंता मत करो अप्पी (अपेक्षा) एक दिन सब ठीक हो जाएगा
और फिर मैं तो हूँ ना तुम्हारे साथ। "
यह कहकर उसने मुझे अपनी बाहों में भर लिया और चुम्बन की बौछार लगा दी।
हर बार यही होता है।
मैं खो जाती उसके प्यार में, उसकी जादूभरी बातों में।
मुझे तसल्ली मिल जाती है।
लेकिन जब से मैं माँ बनी हूँ मैं माँ की तरह सोचने लगी।
मेरी बेचैनी बढ़ गयी।
मुझे पीड़ा होती कि अनिल की मॉम ने भी अनिल को ऐसे ही प्यार से पाला-पोसा होगा जैसे मैं अपने बच्चों को पाल रही हूँ।
उन्होंने भी ऐसे ही सपने देखे होगे जो हमने चकनाचूर कर दिये।
मैं जानती थी कि सपनों का टूटना इंसान को तोड़ देता है।
उन्हें कितना दुःख होगा, कितना दर्द होगा जब उन्हें मालूम होगा कि अनिल ने विवाह भी कर लिया उन्हें बिना बताये और अब दो बच्चे भी हैं।
वह कैसे सह पाएंगी?
मैं मन ही मान बारम्बार उनसे माफ़ी माँगती हूँ।
सच, माँ बनने के बाद ही लडकी औरत बनती है।
आज मैं एक पूरी औरत थी और औरत की तरह सोच रही थी।
मुझे एक अपराध बोध-सा होने लगा। इतनी गंभीरता से मैंने पहले कभी नहीं सोचा था
लेकिन आजकल कुछ था जो मुझे अंदर ही अंदर दीमक की तरह चाटने लगा।
असलमें प्रेम विवाह था हमारा। मेरे परिवार ने हमारी पसंद पर मुहर लगा दी लेकिन अनिल जानते थे कि वे हमारे विवाह के लिए कभी भी सहमत नहीं होंगे इसलिए तीन साल की लम्बी प्रतीक्षा के बाद उन्हें बिना बताये हमने विवाह कर लिया।
एक ऐसा प्रेम विवाह जो अरेंज्ड मेरिज की तरह हुआ जिसमें मेरा सारा परिवार रिश्ते-नाते वाले और दोस्त शामिल थे लेकिन अनिल का परिवार शामिल न हो सका।
मैं जानती थी कि अनिल भीतर से खुश नहीं थे।
खुश भी कैसे हो सकते थे। केवल अपने दोस्तों से घिरे हुए खुश होने का प्रयास कर रहे थे।
हमारे मित्र भी कॉमन थे इसलिए हमारे एक मित्र के माता-पिता ने अनिल की तरफ से सारी रस्में पूरी कीं माता पिता की तरह ही लेकिन वह दोनों उस कमी को पूरी नहीं कर सकते थे जो उस समय हम दोनों ही महसूस कर रहे थे।
समय भागता रहा। हमारे दो बच्चे भी हो गए बेटी तीन साल की और बेटा पाँच महीने का लेकिन तुमने अपने घर पर अभी भी हमारे विवाह के विषय में कुछ नहीं बताया। जब भी घर वाले विवाह की बात करते तुम हँसकर टाल जाते या चुप्पी साध लेते।
मैं कई बार बहुत परेशान हो उठती थी और जिद्द भी करती कि हमें वहाँ जाना चाहिए लेकिन तुम हमेशा ही मना कर देते। तुम्हें अभी भी विश्वास नहीं था कि वे हमें स्वीकार कर लेंगे।
इस बार मैंने निश्चय किया कि चाहे कुछ भी हो जाए एक हफ्ते की छुट्टियाँ लेकर हम कहीं किसी सैर-सपाटे पर जाने की जगह केरला जायेंगे जहाँ अनिल के मॉम डैड रहते हैं।
अनिल को दो महीने के लिए मलेशिया जाना था।
इसलिए अनिल ने कहा
" अप्पी, ट्रेनिंग से आने के तुरंत बाद इस बार मॉम डैड के पास जरूर चलेंगे।
तैयारी करके रखना। "
मैं रोमांचित हो उठी। मेरा गला भर आया लेकिन कुछ कह नहीं पाई। अत्यधिक प्रसन्नता में यही होता है। आदमी मौन हो जाता है और सपने उसकी आँख के दरवाज़े पर दस्तखत देने लगते हैं।
हम इंटरनेश्नल एयरपोर्ट पर अनिल को विदा करने गए। हाथ हिलाते हुए अनिल का मेरी दृष्टि दूर तक पीछा करती रही। प्लेन के टेक ऑफ होने से पहले उसने हम सब से बारी-बारी बात की।
केरला जाने के नाम पर मैं बहुत खुश थी
लेकिन इसके बाद वह हुआ जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
सूचना मिली कि प्लेन रडार की पहुँच से गायब हो गया है और कहाँ गया मालूम नहीं। किसी ने किडनैप किया है या वह क्रैश हो गया कोई निश्चित रूप से नहीं कह सकता।
ओह! स्तब्ध थी सुनकर।
सन्नाटा जैसे श्वासों में समा गया।
समय अपनी चाल भूल गया।
शिथिल देह और शिथल मन इसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं था।
ऐसा कैसे हो सकता है?
अनिल! कहाँ हो?
ऐसे कैसे जा सकते हो?
मैं पागलों की तरह हेल्प लाइन पर फोन पर फोन करती रही लेकिन कहीं से भी कोई जवाब नहीं मिला।
बेचैनी से इंतज़ार करती रही कि कोई ये कह दे कि सब यात्री सुरक्षित हैं। प्लेन का पता मिल गया है लेकिन कहीं से कोई सूचना नहीं थी।
यह तीन कमरों का फ्लैट है। घर में भीड़ बढ़ती जा रही है लेकिन सभी के मुँह पर जैसे पट्टी बंधी हुई है। मैं अपने कमरे में उल्टी होकर पड़ी हुई हूँ। रोना भरसक रोक रही हूँ।
लेकिन आँसू हैं कि सैलाब बनकर उमड़ पड़े हैं। सिसकियों पर काबू करने की कोशिश कर रही हूँ।
मेरे दोनों बच्चे मेरे इधर-उधर पीट से सटे हुए हैं।
ड्राइंग रूम में टी. वी. चल रहा है। सभी की आँखें और कान न्यूज़ पर लगे हैं। मन में आशा और सपने लिए सभी प्रार्थना कर रहे हैं कि प्लेन की कोई ना कोई अच्छी खबर अवश्य मिलेगी।
टी. वी. की आवाज़ यहाँ तक आ रही है।
प्लेन के पिछले हिस्से में आग लगी थी। प्लेन समुद्र में डूब गया और उसमें सवार पायलेट सहित किसी भी यात्री के बचने की कोई गुंजाईश दिखाई नहीं देती
लेकिन तलाश जारी है।
मैं ज़ोर-ज़ोर से चीखना चाहती हूँ लेकिन अंदर ही अंदर चीख रही हूँ। मेरी आवाज़ मेरे अंदर घुट कर रह जाती है।
मैं गठरी बनकर पड़ी हूँ।
नेता लोग दुःख प्रकट कर रहे हैं।
अब कोई आवाज़ नहीं आ रही। शायद टी. वी. बंद कर दिया गया है।
क्या करूँ, समझ नहीं पा रही? किसी से भी बात करने का मन नहीं है। मैं अपने दोनों बच्चों को अपने से और सटा लेती हूँ।
मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा। कुछ भी समझ पाने में असमर्थ दिखाई दे रहा है। मैं उन सूचनाओं पर विश्वास नहीं कर पा रही हूँ।
मुझे लग रहा है अचानक से अनिल आ जाएगा और मुझसे कहेगा
अरे! ऐसे क्यूँ पड़ी हो अप्पी?
क्या हुआ है तुम्हें? और आगे बढ़कर मुझे अपनी बाहों में भर लेगा।
क्या करूँ? अनिल की डैड-बॉडी भी तो नहीं मिली।
कहीं कोई ऐसे जाता है भला?
मैं अब करूँ तो क्या करूँ?
ये कैसी परीक्षा है?
ये कैसी पीड़ा है?
अभी तो हम खुलकर हँसे भी नहीं।
ज़िंदगी खिलखिलाई भी नहीं कि दी एंड हो गयी।
ऐसे कैसे दी एंड हो सकती है? मैं सोचे जा रही हूँ। मुझे किसी की परवाह नहीं है। इस भीड़ की भी नहीं जो घर से बाहर तक लगी है।
केवल परवाह है तो अनिल की।
उसे क्या हुआ होगा?
कितनी पीड़ा में होगा।
वह अब है भी या नहीं ...
ओह! सोचते हुए भी सारी देह में भूकंप-सा प्रतीत हो रहा है।
शायद कोई मुझसे बात करना चाहता है।
मुझे सुनाई दे रहा है मम्मी किसी से कह रही हैं–
" उसकी तबीयत ठीक नहीं है और इस समय वह होश में भी नहीं है इसलिए आपसे बात नहीं कर पा रही है।
उसे आराम की सख्त जरूरत है इसलिए हम सब यहाँ ड्राइंग रूम में बैठे हैं। आप भी यहीं बैठ जाईये। "
मैं और सिकुड़ जाती हूँ। मेरे साथ मेरे बच्चे भी सिकुड़ गए हैं।
मैं अपनी श्वासों से कहती हूँ-
" मत आओ तुम मेरे पास मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं। अगर आना ही है तो प्लीज़ मेरे अनिल को ले आओ। मुझे केवल अनिल चाहिए। उससे बहुत सारी बातें करनी हैं।
मैं बहुत थकी हुई हूँ मुझे उसकी बाँह के तकिये पर विश्राम करना है। "
अनजाने में मैं इधर-उधर हाथ से ढूँढने लगती हूँ।
अचानक मेरी बेटी मेरा हाथ पकड़कर कहती है-
" मम्मा भूख लगी है।
मम्मा उठ्ठो ना भूख लगी है।
भैया भी भूखा है। उसे भी दूध पिलाओ ना। "
मेरी धमनियों में जैसे हरकत-सी होती है रक्त का प्रवाह होने लगता है।
मैं उठना चाहती हूँ लेकिन उठ नहीं पा रही।
मैं कहना चाहती हूँ-
"मेरी बच्ची मैं अभी तुम्हारे लिए कुछ खाने के लिए लाती हूँ और भैया को भी दूध की बोतल"
लेकिन मेरी देह जैसे अकड़ गयी है। वह उठने से इंकार कर देती है। मैं बेबसी में अंदर ही अंदर ज़ोर-ज़ोर से रोती हूँ।
मेरी कमर से चिपटा मेरा बेटा भी रोने लगता है। उसका रोना बढ़ता जा रहा है। धीमे-धीमे मैं अवचेतना से चेतना की तरफ लौट रही हूँ।
अब बेटे ने और भी ज़ोर से रोना शुरू कर दिया है।
तभी मेरी मम्मी मुझे सहारा देकर उठाती हैं। मेरे सर पर प्यार से हाथ फेरती हैं और दूध की बोतल मेरे हाथ में देकर मेरी गोदी में रोते हुए मेरे बेटे को लिटा देती हैं।
मैं फटी-फटी आँखों से माँ को देखती हूँ फिर बेटे को देखती हूँ और उसके मुँह से बोतल लगा देती हूँ।
मेरी बेटी मुझे अजनबी-सी आँखों से देख रही है।
वह भूखी है और मैं अभी तक उसके खाने के लिए कुछ नहीं लाई हूँ। उसके माँगने से पहले उसकी पसंद की चीजें उसे मिल जाती थी लेकिन आज जैसे सब कुछ बदल गया है।
उसकी प्रश्न बनी आँखें मुझे देख रही हैं। तभी मम्मी बिस्किट और दूध लेकर आती हैं और वह बिना मन के उन्हें खाने लगती है।
उसे ये बिस्किट पसंद नहीं हैं लेकिन खा रही है
जाने क्यूँ, जाने कैसे,
ये क्यूँ और कैसे हमारे जीवन में अचानक कहाँ से आ गए?
दूध पीते-पीते बेटा सो गया। मम्मी ने उसे उठाकर मेरे ही पास सुला दिया।
मैं जड़वत बैठी हुई हूँ।
माँ बेबस आँखों से मुझे देख रही हैं। फिर वह धीरे से उठकर मुझे फिर से लिटा देती हैं।
मैं लेट जाती हूँ। मुझे होश नहीं है।
बिटिया फिर मेरे पास आकर लेट गयी है। वह समझ नहीं पा रही कि मम्मा को क्या हुआ है।
वह धीमे से मुझसे पूछती है
" मम्मा आपको क्या हुआ है?
आपको बुखार है?
मैं सर दबा दूँ।
पापा को बुलवा लो ना वह डॉक्टर के यहाँ ले जायेंगे। आप अच्छी हो जाओगी। "
मेरी आँखों से बेसाख्ता आँसू बहने लगते हैं। उस नन्ही-सी जान को कैसे बताऊँ कि पापा हम सबकी आवाज़ भी नहीं सुन सकते। अब वह कभी आयेंगे, यह भी नहीं पता।
फिर कभी हमें डॉक्टर के यहाँ लेकर भी जायेंगे या नहीं, क्या कहूँ? वह फिर बोलती है।
" मम्मा हमारे यहाँ पर क्या हो रहा है?
इत्ते सारे अंकल आंटी क्यों आये हैं? "
मैं चुप हूँ। सुनकर भी अनसुना कर रही हूँ। चाहकर भी जवाब नहीं दे पाती।
मेरे दोनों होंठ एक दूसरे से चिपक गए हैं और शब्द अंदर कोहराम मचाये हुए हैं।
अब शायद सब लोग चले गए हैं।
मैं आँख बंद करके लेट जाती हूँ।
मुझे अहसास होता है कि मम्मी मेरे बालों में उंगलियाँ फिरा रही हैं वैसे ही जैसे मेरे विवाह से पहले फिराती थीं। मेरा मन कर रहा है कि मैं एक छोटी-सी बच्ची बनकर उनकी गोदी में सिमट जाऊँ और खूब ज़ोर से चिल्लाऊँ।
एक जिद्दी लडकी बन जाऊँ पहले की तरह और कहूँ कि मुझे बस अनिल चाहिए।
कहीं से भी लाकर दो माँ बस ला दो
लेकिन नहीं कह पाती।
वे अपने पास मुझे सहारा देकर बिठा देती हैं।
पापा भी आकर पास बैठ जाते हैं और असहाय बेबस से अपनी उँगलियाँ चटका रहे हैं।
मैं समझ जाती हूँ कि वह कुछ कहना चाहते हैं लेकिन कह नहीं पा रहे।
मम्मी मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे से कुछ कहती हैं।
" बेटा! तुम हमारे साथ चल रही हो। हम सब परसों सुबह ही घर के लिए निकल जायेंगे हमने हवाई जहाज में सीट्स बुक करवा दी हैं।
यहाँ रहने का अब कोई कारण नहीं है। "
मैं अर्ध विक्षिप्त-सी पड़ी हूँ। उनके शब्द सुनकर जैसे होश में आती हूँ।
ऐसा कैसे हो सकता है?
और फिर अनिल ना होते हुए भी यहाँ है।
घर के हर कौने में एक वही तो है।
फिर ...
मेरा घर, अनिल, मेरे बच्चे, मेरा जॉब, अनिल के माता-पिता।
ओह!
मैं ऐसा कैसे कर सकती हूँ?
मैं मम्मी के साथ कैसे जा सकती हूँ?
अनिल नहीं हैं तो क्या अनिल के माता पिता मेरे कुछ नहीं लगते। वे इस समय किस पीड़ा से गुजर रहे होंगे मैं अच्छी तरह समझ सकती हूँ।
मुझे हर हालत में इस पीड़ा में उनके साथ होना होगा चाहे कैसे भी। अब वे मेरी ज़िम्मेदारी हैं।
मैं सोच रही हूँ।
सोचती जा रही हूँ।
सोचते-सोचते बुदबुदाने लगती हूँ-
मुझे अनिल के घर जाना है मम्मी।
मम्मी चौंककर कहती हैं-
"" मगर वे तो तुम्हें जानते तक नहीं।
तुम कैसे जाओगी? "
" हाँ...
वही सोच रही हूँ। जाना तो निश्चित है। "
मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा फिर भी मैं अपने दिमाग पर जोर देती हूँ और प्लानिंग करने लगती हूँ।
क्या करूँ?
कैसे जाऊँ?
जाना तो निश्चित है।
अनिल की छोटी बहन नीशू के पास हमारी तस्वीरें हैं मेल से भेजी थीं अनिल ने। वह सब जानती है। वह हमारे विवाह के सच से परिचित है। उससे अनिल बराबर बात करता रहता था।
अनिल ही क्या हम सबने की है और हमारी अभी हाल ही की तस्वीर भी उसके पास है मलेशिया जाने से पहले अनिल ने मेल की थी।
मेरा मन कहता है सब ठीक हो जाएगा।
नीशू से बात करनी होगी।
कल सुबह नीशू को फोन करूँगी।
रात अजनबी की तरह घर में दाखिल हुई और अजनबी की तरह ही जागती रही।
इतनी काली अंधियारी रात उसके जीवन में कभी नहीं आयी।
उसकी रातें तो प्रेम की खुशबु से महकती हुई हुआ करती थीं। जूही चम्पा उससे बात करती थी। गंधाये सपने उसका दिन भी गंधा देते थे।
फिर अचानक ये अमावस कहाँ से गहरा गयी वह समझ नहीं पा रही थी।
सारी रात मॉम उसके ऊपर अपनी बाँह रखे लेटी रहीं और वह अपनी बेटी पर।
नींद तो किसी की भी आँख में थी ही नहीं लेकिन शब्द भी समय ने चुरा लिए।
सारे घर में निस्तब्धता छाई हुई थी।
जबकि माम्म्म्ममा से करने के लिए उसके पास कितनी बातें होती थीं। बातूनी नाम रख दिया था पापा ने मगर आज एक-एक शब्द दुबककर बैठ गया है।
किसी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या बात की जाए।
कैसे इस बिगड़ी को बनाया जाए?
सुबह के पांच बज चुके थे।
मॉम किचिन में चाय बनाने चली गयीं।
तभी डोर बैल की आवाज़ ने सबको चौंका दिया। पाँच बजे हैं, इतनी सुबह सवेरे कौन हो सकता है?
कहीं अनिल तो नहीं ...
यह सोचते ही लाश बन आयी देह में जाने कहाँ से शक्ति आ गयी। अनु ने दौडकर दरवाज़ा खोला।
दरवाज़ा खोलते ही उसका मुँह खुला का खुला रह गया और आँखें झपकना भूल गयीं।
अनिल के माता पिता और नीशू को देखकर वह हतप्रभ हो गयी।
तभी अनिल की मम्मी ने आगे बढ़कर उसे अपनी बाहों में भर लिया और फफक-फफककर रोने लगीं।
अनु भी बच्चे की तरह उनकी बाहों में समा गयी।
जाने कितनी देर तक दोनों यूँ ही एक दूसरे से लिपटी रहीं। बिना बोले अपनी व्यथा बाँटती रहीं जाने कब तक।
दोनों के आंसुओं ने आपस में बात करके सारे गिले-शिकवे मिटा दिए।
यह माँ और बेटी का मिलन था
जिसे सुबह ने देखा और सज़दे में खड़ी हो गयी।
जो अनिल के जीवित रहते न हो पाया वह इस दुर्घटना के उपरान्त हो गया।
अब सब साथ रह रहे हैं।
"बेटे को तुम्हारी तरह ही बनना है। वह तुम्हारी तरह हँसता और बोलता है। तुम्हारी छवि मैं उसमें देख रही हूँ लेकिन मैं अभी भी वहीं तुम्हारे पास हूँ।"
ऐसा क्यूँ होता है कि ना चाहते हुए भी हम वही सब याद करते हैं जहाँ केवल दर्द है,
पीड़ा है, आँसू हैं और बेचैनी है।
मैं भी पहुँचती हूँ बार-बार वहीं जो मुझे जकड़ लेता है अपनी कैद में। कान जैसे वही प्रतिध्वनियाँ सुनने के लिए बने हैं। वही सब सुनना चाहते हैं और अभी भी वही सुन रहे हैं।
सच तो ये है कि अभी भी काँपती है मेरी देह। मैं क्षणभर के लिए भी भूल नहीं पाती वह घटना।
अब दिन लम्बे उबाऊ और उदास हो गए हैं।
समय ठहर गया है। अपना राग भूल कर रात चुपचाप घुटने सिकोड़कर पड़ी रहती है। दिन गुमसुम-सा गुनगुनाना भूल गया है। मौसम भी अपनी चाल नहीं चलता।
काश!
हनुमनथप्पा की तरह कोई चमत्कार हो जाए जो चौदह दिन बर्फ के नीचे दबकर भी जीवित निकल आया।
काश!
वो अपने दोनों हाथ जोडकर आँख बंदकर लेती है जैसे कह रही हो
" ऐसे नहीं जाना अनिल
तुम्हें लौटकर आना है
मेरे लिए
देखो, कब से मैं सोई नहीं हूँ
मुझे सोना है तुम्हारी बाँह पर
आ जाओ प्लीज
आ जाओ। "
अनु प्रार्थना कर रही है कि अनिल आ जाए तो लौट आयेगी फिर से वही खिलखिलाहट सारी सृष्टि के साथ उसकी देह में, मन में, शिराओं में और प्राणों में भी जहाँ अब केवल अनकही चुप्पी है, अबोली तन्हाई है और वह है।
वो है भी या नहीं, जाने कहाँ खोयी हुई, जाने क्यूँ उन अनजान लम्हों की प्रतीक्षा में जिन्हें कभी आना भी है या नहीं।
लेकिन इंतज़ार जीवन का सबसे खूबसूरत नग्मा है
जहाँ बेचैनी है,
तड़प है,
पीड़ा है,
उत्सुकता है,
मिलने की चाह है,
बिछोह है।
रेशमा की आवाज़ गूँज रही है
' मिलने वाले ने लिख डाले मिलन के साथ बिछोहे
लम्बी जुदाई ...'