ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ? / विवेक मिश्र
गंगा पीछे रह गई थी, वारणसी का स्टेशन भी। एक यात्रा तो पूरी हुई, लेकिन दुसरी...? अजीब-सा शोर है, अजीब-सी सनसनी। गंगा का नतोदर प्रवाह जैसे प्रत्यंचा है और ट्रेन एक छूटा हुआ तीर। तब के विसर्जित दृश्य एक-एक कर उतराने लगे, प्रतिभा के भीतर एक नदी-सी बह चली थी। वही पुल, वही घाट, वही सीढ़ियाँ, वही मणिकर्णिकाएं, वही जलती चिताएं। एक चिता उसके भीतर भी जल रही थी...
प्रतिभा को आज भी वह दिन याद था जब रणवीर ने उसे बताया, 'आज मैंने अपने घरवालों को सूचित कर दिया है कि मैं तुमसे शादी कर रहा हूँ। " प्रतिभा की सारी इन्द्रियाँ जैसे कान और आँख में सकेन्द्रित हो गई थीं,' क्या कहा उन्होंने? '
'वही जो मैं एक्स्पेक्ट कर रहा था।' रणवीर ने सपाट-सा उत्तर दिया।
' फिर भी...? यह जानना मेरे लिए बहुत ज़रूरी है, सचसच बताओ, कुछ भी छुपाना नहीं, तुम्हें...मेरी कसम" , प्रतिभा ने रणवीर का हाथ पकड़ते हुए कहा था।
'ठीक है बाबा, सुनो...पहले पूछा लड़की कौन है? जब मैंने उन्हें बताया कि मेरी कुलीग है, तो और सवाल दागे गए, जाति? वर्ण? कुल? गोत्र? मैंने भी बता दिया कि तुम विजातीय हो, विजातीय ही नहीं एक दलित परिवार से हो, उन्हें तो जैसे साँप सूंघ गया। उनकी आने वाली कई पीढ़ियों की मोक्ष प्राप्ति संकट में पड़ गई. ठाकुर परिवार का इतिहास, उसकी विरासत...उफ! इस परिवार में ऐसा पहली बार हुआ है कि उनके कुल के किसी लड़के ने अपनी जाति से बाहर की किसी लड़की से शादी करने की बात सोची है... एक विजातीय से, वह भी शूद्र!'
रणवीर को तुरन्त बनारस बुला लिया गया था। वहाँ उनके साथ क्या हुआ प्रतिभा नहीं जानती थी। उन्होंने वापस आकर प्रतिभा को बस इतना ही बताया था कि उनके चाचा और बड़े भाइयों का कहना है कि लड़की अगर बामन या बनिया होती तो सोच भी सकते थे, पर शूद्र? यह तो हो ही नहीं सकता पर रणवीर अपने निर्णय पर अड़े रहे और प्रतिभा के साथ अपने विवाह की तारीख निश्चित कर, उन्होंने अपने घर सूचना भेज दी।
विवाह कानपुर में एक आर्य समाज मंदिर में कुछ मित्रो और प्रतिभा के रिश्तेदारों की उपस्थिति में संपन्न हुआ था। रणवीर के घर से कोई भी नहीं आया था, पर उस दिन जब वे मंदिर से निकल ही रहे थे कि रणवीर के पिता हृदयनाथ सिंह मंदिर पहुँच गए थे। प्रतिभा ने उन्हें पहली बार देखा था। उन्हें वहाँ देखकर उसका मन कई आशंकाओं से भर गया था, पर क्षण भर में ही उनके सरल व्यक्तित्व और वात्सल्य भरी मुस्कान ने उसकी सारी आशंकाओं को दूर कर दिया। रणवीर और प्रतिभा ने जब आगे बढ़कर उनका आशीर्वाद लिया, तो उन्होंने दोनो को गले लगा लिया। वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र के प्रोफेसर थे। रणवीर ने प्रतिभा को बताया था कि उसके परिवार में एक वही हैं जिन्होंने बदलते समय में पुरानी मान्यताओं को तोड़कर नए मूल्यों को अंगीकार किया था वर्ना उसके परिवार में बाकी सभी लोग आज भी सदियों पुराने खूंटे से बंधे, सड़ी-गली मान्यताओं की जुगाली कर रहे थे। उन्होंने उस दिन चलते हुए प्रतिभा और रणवीर से बस इतना ही कहा था, "बहुत कठिन राह चुनी है तुम दोनो ने, पर एक दूसरे का साथ देने के अपने संकल्प को कभी डिगने मत देना। अभी में चलता हूँ, तुम्हारी माँ को समझाऊँगा। उनके मानते ही, मैं तुम्हें पत्र लिखूँगा। तुम दोनो घर आना।" रणवीर के पिता हृदयनाथ सिंह से हुई इस छोटी–सी मुलाकात से प्रतिभा को अपनी शादी पूर्ण लगने लगी थी।
उसके बाद चार साल बीत गए, ना तो रणवीर के परिवार वाले माने और ना ही रणवीर के पिता का अपने बेटे और बहू को घर बुलाने के लिए कोई पत्र ही आया। हालाँकि इस बीच जब उनके बेटे आशीष का जन्म हुआ तो प्रतिभा का रणवीर के परिवार वालों से मिलने का बहुत मन था। यह अपने बेटे को उसकी जड़ों से जोड़ने की एक नैसर्गिक ईच्छा थी या कुछ और वह नहीं जानती थी, पर उसने एक बार बनारस चलकर रणवीर से अपने भाइयों, चाचाओं और माँ से मिलकर, उन्हें मनाने की बात की थी, जिसपर रणवीर ने यही कहा था, "वे नहीं समझेंगे, वे नहीं बदलेंगे। तुम उन लोगों का मनोविज्ञान नहीं समझतीं। वे हमारी तरह नहीं सोचते। हम कुछ भी कर लें वे नहीं मानेंगे।" उस समय प्रतिभा रणवीर की बात सुनकर चुप हो गई थी, पर वह उसके जवाब से संतुष्ट नहीं थी। इन वर्षों में प्रतिभा के मन में कई प्रश्न डूबते-उतराते रहे। परन्तु जब एक दिन अचानक ही रणवीर को उसके मित्र ने आकर सूचना दी कि उसके पिता का हृदय गति रुकने से देहान्त हो गया है तथा यह सूचना उसे फोन पर उसके ही घर वालों ने दी है और यह भी कहा है कि यदि रणवीर चाहे तो अपने पिता के अन्तिम संस्कार में शामिल हो सकता है, तब रणवीर के मना करने पर भी प्रतिभा ने उसके साथ जाने का निश्चय कर लिया था। उसके सामने रणवीर के पिता की मुस्कान तैर रही थी। उसे लग रहा था मानो वह कह रहे हों कि तुम चिन्ता मत करना मैं तुम्हें घर बुलाने के लिए पत्र ज़रूर लिखूँगा। रणवीर के लाख समझाने पर भी प्रतिभा नहीं मानी। रणवीर और प्रतिभा अपने बेटे आशीष के साथ रात में ही बनारस के लिए रवाना हो गए थे।
बनारस पहुँचने पर उन्हें पता चला कि पिता जी को अंतिम संस्कार के लिए गंगा किनारे घाट पर ले जाया जा चुका है इसलिए उनके अंतिम दर्शन के लिए उन्हें सीधे घाट पर ही पहुँचना होगा। उन्होंने वैसा ही किया। वे सीधे घाट पर पहुँचे। उस घाट पर, जहाँ विशेष लोगों के दाह संस्कार की विशेष व्यवस्था थी। वहाँ पहले से ही कुछ चिताएं जल रही थीं। हवा में नमी होने के कारण लपटें कम और धुआँ ज़्यादा था। लोग लाख और देशी घी चिताओं पर डाल कर आग भड़का रहे थे। मंत्रों की गूँज और चिताओं की तपिश में वहाँ उपस्थित लोगों के चेहरे लाल हो गए थे। चिताओं से उठते धुएं के बादलों के बीच, पंडितों के मुँह से निकले मंत्र बिजली से तड़क रहे थे।
रणवीर के पिता की चिता लगाई जा रही थी। उनका शव अर्थी समेत पृथ्वी पर रखा था। उनका चेहरा शान्त और निर्लिप्त था, पर होंठ खुले हुए थे। आखिरी बार अपने इन होंठो से उन्होंने क्या कहा होगा? क्या उन्होंने रणवीर को याद किया होगा? यही सोचते हुए प्रतिभा ने रणवीर के साथ उनके आगे हाथ जोड़े और अपनी आँखें बन्द कर लीं। प्रतिभा को रणवीर के पिता से हुई अपनी पहली और आखिरी मुलाकात याद हो आई. उन्होंने स्वयं आगे बढ़कर उसे गले लगा लिया था।
रणवीर के बड़े भाई पिंडदान कर रहे थे।
प्रतिभा को लग रहा था जैसे उनके वहाँ पहुँचने पर मंत्रोच्चार और तेज़ हो गया था, पर इस सब की ओर ध्यान ना देते हुए वह एकटक रणवीर के पिता को ही देख रही थी। वह रणवीर की ही तरह लम्बी-चौड़ी कद-काठी के आदमी थे। अनायास ही प्रतिभा का ध्यान उनके लिए बनाई जा रही चिता पर गया। उसकी लम्बाई उनके कद से बहुत कम थी। उसे वह चिता बहुत छोटी लग रही थी। प्रतिभा के लिए यह सब बिलकुल नया और अपरिचित था। वह दुख और कौतुहल से भरी थी। फिर भी उसका मन एक व्यर्थ जान पड़ते प्रश्न से उलझ रहा था। बार-बार उसे यही लग रहा था कि इतनी छोटी चिता पर इतने बड़े व्यक्ति के शव को कैसे लिटाया जा सकेगा? तभी पंडितों ने मंत्रोच्चार रोक दिया, रणवीर के बड़े भाई ने कुछ लोगों की सहायता से शव को चिता पर लिटा दिया। उनके पैर घुटनों से मुड़े हुए, चिता से बाहर लटक रहे थे। उनके शरीर को धीरे-धीरे लकड़ियों से ढका जाने लगा।
चिता को अग्नि दे दी गई. पर पैर? वे अब भी बाहर लटक रहे थे। प्रतिभा ने रणवीर से कुछ पूछना चाहा, पर उसके बहते आँसुओं को देखकर उसने ख़ुद को ज़ब्त कर लिया।
चिता के आग पकड़ते ही, चिता से बाहर लटकते पैरों की त्वचा का रंग बदलने लगा। वे पहले पीले, ...फिर भूरे और धीरे-धीरे काले होने लगे। वही पैर जो जीवन भर पूरे शरीर का बोझ उठाते रहे, जो पूरे व्यक्तित्व को ज़मीन से ऊँचा किए रहे। वही पैर अपनी ही देह से तिरस्कृत, चिता से बाहर झूल रहे थे। झुलस रहे थे। चमड़ी के जलने की गंध चारों ओर फैलने लगी। घी के पड़ते ही चिता से लपटें उठने लगीं। तभी एक पैर घुटने से टूटकर ज़मीन पर खिसक गया। दूसरा भी टूटकर ज़मीन पर गिर पाता कि अंतिम क्रिया कर रहे रणवीर के भाई ने दो लम्बे बांसों की कैंची बनाकर पैरों को पकड़ा और एक–एक कर चिता में झोंक दिया। प्रतिभा के मुँह से चीख निकल गई. वह थर-थर काँप रही थी।
चिता के ऊपर पड़े दोनो पैर धूँ-धूँ करके जल रहे थे।
प्रतिभा की चीख सुनकर अंतिम संस्कार करा रहे पंडित ने बड़े ही कड़े स्वर में कहा, 'पैर जीवन भर धरती पर चलते हैं। ये शरीर का बोझ उठाने के लिये बने हैं। आगे की यात्रा में पैरों की आवश्यकता नहीं होती।' बोलते हुए उनकी आँखों में चिता की लपटें चमकने लगी थीं।
प्रतिभा की आँखों से गंगा छलछला रही थी। पंडित ने बादलों की तरह फिर गर्जना की, 'एक व्यक्ति को अपने जीवन में कई प्रकार के कर्म करने होते हैं। वह अपने सिर से ब्राह्मण का कर्म करता है, भुजाओं से क्षत्रियों का, उदर के लिए उसे वैश्य का कर्म करना पड़ता है। पर पैर? ये शूद्र हैं। ...इन्हें बाकी शरीर के साथ नहीं जलाया जा सकता। जब सिर, भुजाएं और उदर जल जाता है, जब आत्मा शरीर के मोह से मुक्त होकर अनंत यात्रा पर निकल जाती है, तब बिना स्पर्श किए लकड़ी की सहायता से पैरों को भी अग्नि में डाल दिया जाता है।'
रणवीर ने अपने बेटे को गोद में लेकर उसका मुँह दूसरी ओर फेरा और आँखें मूँद ली, फिर भी उसकी आँखों में पिता के पैर बार-बार कौंध रहे थे, उसने उन पैरों को आखिरी बार अपनी शादी के समय छुआ था, जीवन में कितने सफ़र तय किए थे, इन्हीं पैरों के निशानो का पीछा करते हुए. रणवीर ने अपनी आस्तीन से आँसू पोंछते हुए प्रतिभा की ओर देखा। वह अभी भी रणवीर का हाथ पकड़े काँप रही थी, फिर भी उसने हिम्मत बटोरकर रणवीर के कान में फुसफुसाते हुए कहा, 'पर मैंने तो ऐसा कहीं नहीं देखा'।
पंडित ने ऊँचे स्वर में आगे कहना शुरू किया, 'बहुत से लोगों ने संसार में बहुत कुछ नहीं देखा, इसी कारण वे अज्ञान के अंधकार में अपना जीवन बिता रहे हैं। उन्हें नहीं पता वे अपना लोक ही नहीं, परलोक भी नष्ट कर रहे हैं'। उन्होंने रणवीर की ओर देखते हुए कहा, 'शूद्र की छाया भर पड़ने से वैतरणी पार करने में बाधा पड़ जाती है। भवसागर को पार करना कोई नदी-नाला पार करना नहीं है। उसे पार करने के लिए कोई पुल, कोई गाड़ी, कोई साधन नहीं है, सिवाय अपने धर्म पालन के, सारे कर्मकांड पूरे करने के और अंतिम संस्कार? यह तो वह संस्कार है जिसमें रत्तीभर चूक से, व्यक्ति की आत्मा युग-युगान्तर तक प्रेतयोनि में भटकती रहती है। पूरे ब्रह्माण्ड में कोई उसे वैतरणी पार नहीं करा सकता। कोई उसे मोक्ष नहीं दिला सकता। यह इसी स्थान की महिमा है, जहाँ इतने विधि-विधान पूर्वक यह संस्कार संभव है'।
प्रतिभा की आँखों में गंगा जैसे ठहर गई थी। उसकी लहरों का कोलाहल शान्त हो गया था। एक पल को उसे लगा जैसे किसी ने उसके पैरों के नीचे की वह ज़मीन हिलाकर रख दी है जिसपर उसका और रणवीर का रिश्ता खड़ा है। उसे लग रहा था मानो उसने अपने पति और बेटे का जीवन स्वयं नष्ट कर दिया है, पर इससे अलग उसके भीतर कुछ और भी उबल रहा था, किसी विकराल ज्वालामुखी की तरह, जो एक सन्नाटे को तोड़ते हुए बह निकलना चाहता था। वह चीख-चीख कर कहना चाहती थी, ' हाँ, मैं शूद्र हूँ, शूद्र माने पैर...सभ्यताओं के पैर, जिनपर चलकर पहुँची हैं वे यहाँ तक। वह अपने हाथों से पानी उलीचकर धो डालना चाहती थी एक-एक घाट। वह पछीट-पछीट कर धोना चाहती थी संस्कृतियो और संस्कारों पर पड़ी धूल, पर वह जैसे जड़ हो गई थी।
घाट पर सदियों से जलती चिताओं की राख धीरे-धीरे आसमान से गिरकर सबके चेहरों पर बैठती जा रही थी। लोगों के मुँह काले हो रहे थे। प्रतिभा चारों ओर फैले काले धुएँ और चमड़े की गंध के बीच, स्वर्ग में खुलने वाले किसी दरवाज़े को तलाश रही थी, पर उसकी आँखें उस धुंध में कोई रोशनी नहीं खोज पा रही थीं।
गंगा अब भी वही जा रही थी-निर्लिप्त-सी. किसी समारोह में प्रतिभा को अपना ही गया हुआ, भूपेन हजारिका का वह गीत याद आ रहा था-ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूं...? विस्तीर्ण दोनो पाट, ...असंख्य मनुष्यों का हाहाकार सुनकर भी, बही जा रही हो। इतने अन्याय-अविचार पर तुम सूख क्यों नहीं जातीं?
प्रतिभा ने ज़ोर से सिर को झटका।
सामने की सीट पर रणवीर और उसका बेटा आशीष दोनो ही गहरी नींद में थे। उसे रणवीर के पिता हृदयनाथ सिंह की मुस्कान बार-बार याद आ रही थी। उन्होंने उसे कितने स्नेह से गले लगा लिया था। उनकी मुस्कान में पूरा बनारस सिमट आया था, जिसे देखकर उसकी मुठ्ठियाँ ढीली पड़ गईं, उसके चेहरे की माँसपेशियों का तनाव कम होने लगा, आँखों की नमी धीरे से गालों पर उतर आई. वह हल्की ठंड का मौसम था और अपरान्ह की बेला चमकीली धूप में उसके सामने प्रतिपल फैलता हुआ परिदृश्य था-गतिमान, स्पष्ट और जीवंत, पर लगा जैसे सारा कुछ फेड आउट होता जा रहा है... दिख रहे हैं तो सिर्फ़ दो लटकते पाँव।
...अचानक ही उसे लगा जैसे लटकते पाँव खड़े हो रहे हैं। वे सचमुच ही खड़े हो गए. चलने लगे। वे ज्वालाओं के बीच से चले आ रहे हैं, उसकी ओर। पाँव से ऊपर न धड़ दिखाई पड़ रहा है, न मुँह। मानो वे थे ही नहीं। थे तो सिर्फ़ पाँव ही थे।
वह चौकन्नी हो गई.
उसके ससुर के पाँव! पाँव जो शूद्र हैं, जो वह है। (हंस-अप्रेल2012)
कहानी का एक अन्त यह भी था-
वह हल्की ठंड का मौसम था और अपरान्ह की बेला। प्रतिभा ने बैग से चादर निकाली और एक दूसरे से चिपटकर सो रहे अपने पति और बेटे को ओढ़ा दी। हवा में नमी कुछ कम हो गई थी। खुले आसमान के नीचे, चमकीली धूप में हरी ज़मीन दूर तक फैली थी, जिसके पार प्रतिभा की अपनी एक दुनिया थी, जिसमें अपने परिवार के साथ रहते हुए उसे कभी मोक्ष पाने और वैतरणी पार करने की चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। शव, जलती चिताएं और उनसे लटकते पैर धीरे-धीरे फेड आउट होते जा रहे थे।
...तभी उसने देखा था। सामने की सीट पर गहरी नींद में सो रहे रणवीर और आशीष के ऊपर फैली सफेद चादर पर हृदयनाथ सिंह की मुस्कान निषप्रभ भाव से धूप की तरह खिली हुई, विश्राम कर रही थी।