ऐ दिले नादां / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
बेबूझ विकलताओं से बना फ़िल्म 'रज़िया सुल्तान' का यह गीत एक अत्यंत दुर्लभ, महीन भाव व्यंजना और फ़लस्फ़ाई तजकिरे को व्यक्त करता है ।
गंध का कोई विग्रह नहीं, किंतु भान होता है । ऐसी ही अकथ वेदना है, जिसका कोई रूप नहीं । कोटि नहीं, संज्ञा नहीं ।
रेत पर लिखा नाम है, जिसके नुक्ते जाते रहे।
अनामिका के पोर पर ठहरा तुहिन का जलबिंदु है, लेकिन उसकी ठीक प्रतीति तक नहीं ।
हो भी तो कहने का मुहावरा नहीं । उपाय नहीं ।
दश्तो-सहरा में खोई हुई दिशाएँ हैं । एक अनिर्वचनीय आलोक भीतर तक मथता है, मन को संध्या का रक्तिम क्षितिज बनाता, पर कहन के डौल में नहीं आता।
ऐसी निर्गुण पीर है । गोया, गूंगे का गुड़ !
'कह नहीं सकते किसका अरमाँ है?”
ग़रज़ ये कि यह तक नहीं मालूम कि चाहना क्या है ! मन राग का उभार है, जिसके कोई प्रतिमा नहीं । रूप नहीं, पर भाव है ।
और अजब उलटबांसियाँ हैं !
दरिया में मौज प्यासी है !
एक धड़कन चार-सू है। हर दिशा में फैली हुई !
एक साया-सा रूबरू है, छूकर गुज़रता हवा के गोशे की तरह, ग़ोशे की तरह, पर चीन्हता नहीं !
चाह अपरिचित है। चंद्रमा का हास है किंतु छवि कहाँ ?
भटकन है, उलझन है ।
क़यामत है, मुसीबत है ।
दिले-नादां से एक यही सवाल बार-बार कि आख़िर तेरी आरजू क्या है ? कि तुझे किसकी जुस्तजू है ? और जो चाहिए, क्या उसी से बुझ सकेगी तृषा, कि तृप्ति का परितोष लिए मन के मृगदाव पर झुकेगा बारिश का बिंब ?
कि कहीं यूँ तो नहीं कि तू भी मेरा इलाज नहीं ?
इन्हीं विडंबनाओं के व्याकरण में रचा गया ये आलातरीन नग़मा है ! तमाम लता-गीतों में एक गौहर ।
मानो असाध्य धनुष पर चढ़ानी थी प्रत्यंचा, 'जांनिसार' ने उठाया बीड़ा और बाँधे बोल। वैसे प्लेटोनिक बोल मुश्किल से काग़ज़ पर सजते हैं !
जल की धार अविच्छिन्न - सी गिरती हो जैसे प्रपात की उत्कट लय में, उसी तन्मयता से लता के भीतर की चिर अपरिणीता ने इसे गाया ।
ख़ैयाम ने जलतरंगों पर हँसों की तरह तिरती फ़ारसी प्रभाव वाली धुन रची। तीनों दिशाएँ एकमेक हुईं तो ग़ैरमुमकिन की एक मुकम्मल तस्वीर बनी । शून्य का एक पूर्ण विग्रह बना । रचा गया अपरिभाषेय का आख्यान ।
एक सधे हुए आरोहण के निरंतर में हठात अपने चरम को बढ़ता यह गीत संरचनाओं के मायने बदलता है और कड़ियाँ बीच में कहीं टूटती नहीं । स्केल के ऊपर एक और स्केल की बढ़त । ढोलक के बोलों का ऐसा प्रिसाइस पैटर्न कि जहाँ ग़लत पाँव उठाया, वहीं उलझन है, लेकिन मजाल जो एक सुर भी चूके ।
कि जो कीलित करने वाला पाश है, उसे ही अपना कंठहार बना लेती है स्वर-सम्राज्ञी। तसल्ली से एक - एक लफ़्ज़ मोती की तरह चुगते हुए गाती है !
हरसिंगार की पँखुड़ियों से सजा ख़ैयामी नग़मा । जैसा कि ख़ुसरो से ग़ैरवाकिफ़ होकर भी ऐन ख़ुसरो की ही बाट जोहती शीरीन ने गाया हो कभी, फ़ारस की निविड़ रातों में गिनते नक्षत्र । ग़मे-हिज्र के एथॉस को मुस्तैदी से भोगता, भुगतता, ठंडी साँसों के कोहरों में लिपटा तराना।
ज़ोरे-इश्क़ है। कोई छूटा नहीं तो तुम कैसे रह पाते, ये उलाहना देता!
'एक तू क्या है, एक तू क्या है, इस ख़ुदाई में एक तू क्या है ! '
हस्बेमामूल : 'कितने घाइल हैं, कितने बिस्मिल हैं!' इसे सुनिए ।
ज़माना पहले किसी बुलबुल के दिल में एक काँटा टूटा था, जो टीसता रहा था क़यामत तलक ।
वो बुलबुल लता थी!
वो काँटा यह गाना था!