ऑक्सीजन / सुकेश साहनी
वह सड़क पर नज़रें गड़ाए बहुत ही सुस्त चाल से चल रहा था। मजबूरी में मुझे बहुत धीरे-धीरे कदम बढ़ाने पड़ रहे थे।
“भाई साहब---दो मिनट सुस्ता लें?” उसने पुलिया के नज़दीक रुकते हुए पूछा।
“हाँ---हाँ, जरूर ।” मैंने कहा।
“बहुत जल्दी थक जाता हूँ, लगता है जैसे शरीर में जान ही नहीं है।” वह निराशा से बुदबुदाया। फिर उसने एक सिगरेट सुलगा ली।
सुबह की सैर पर निकले लोग उसके सिगरेट पीने की हैरानी से देख रहे थे। तभी कुछ फौजी दौड़ते हुए हमारे सामने से गुज़रे।
“मैं आपको भी इन फौजियों की तरह दौड़ लगाते देखा करता था,” उसने कहा, “मेरी वजह से आप दौड़ नहीं पाते----।”
“नहीं---नहीं, आप गलत सोच रहे हैं,” मैंने उसकी बात काटते हुए जल्दी से कहा, “मुझे तो आपका साथ बहुत पसंद है।”
उसने मेरी ओर देखा। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी, आँखों से जीवन के प्रति घोर निराशा झाँक रही थी। चार दिन पहले गाँधी पार्क में टहलते हुए मेरा और उसका साथ हो गया था। ज़िदगी कुछ लोगों के साथ कितना क्रूर मज़ाक करती है, एक के बाद एक हादसों ने उसे तोड़कर रख दिया था।
हम फिर टहलने लगे थे, वह लगातार निराशाजनक बातें कर रहा था।
“मुझे थकान-सी महसूस हो रही है।” थोड़ी देर बाद मैंने उससे झूठ बोलते हुए कहा।
“आप थक गए? इतनी जल्दी!---मैं तो नहीं थका!!” उसकें मुँह से निकला।
“फिर भी दो मिनट बैठिए---मेरी खातिर!!”
“क्यों नहीं---क्यों नहीं!” इन चार दिनों में पहली बार उसके होंठों पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान रेंगती दिखाई दी।
इस बार उसने सिगरेट नहीं सुलगाई बल्कि दो-तीन बार लंबी साँस खींचकर फेफड़ों में ताजी हवा भरने का प्रयास किया। थोड़ा सुस्ताने के बाद जब हम चले तो मैंने देखा, उसकी चाल में पहले जैसी सुस्ती नहीं थी।