ऑस्कर जलसाघर में डूंगरपुर / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :10 मई 2017
राजस्थान में डूंगरपुर जिले की आबादी लगभग पचास हजार है। अगर भूगोल उठाकर देखें तो छोटा-सा बिंदु डूंगरपुर की मौजूदगी का गवाह बन जाता है। पहली बार पूरी दुनिया ने डूंगरपुर नाम उस समय सुना जब मध्यम गति के तेज गेंदबाज राजसिंह डूंगरपुर ने क्रिकेट जगत में कदम रखा। इसी परिवार के हनुमंतसिंह भी अच्छे बल्लेबाज रहे। राजसिंह ने चयनकर्ता बनते ही उनके युवा खिलाड़ियों को अवसर दिया और क्रिकेट के उस युवा बसंत के सुनील गावस्कर महान खिलाड़ी माने गए। सच तो यह है कि सुनील गावस्कर को क्रिकेट इतिहास के सबसे अधिक घातक गेंदबाजों का सामना करना पड़ा। वेसले हॉल, ग्रिफिथ, डेविडसन, इमरान को खेलना अत्यंत कठिन था और उस समय तक क्रिकेट के सुरक्षा गार्ड्स भी अत्यंत अल्प थे। सचिन तेंडुलकर के उदय के समय तेज गेंदबाजी अपनी खिंजा की ओर अग्रसर थी परंतु इमरान की आंधी उन्होंने भी झेली है।
बहरहाल, शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने परिवार की परम्परा के अनुरूप क्रिकेट नहीं खेला परंतु उन्होंने अपनी ऊर्जा एक उपेक्षित क्षेत्र में लगा दी। उन्होंने भारतीय सिनेमा की धरोहर को सहेजने-संवारने का कार्य संभाला। इस क्षेत्र में चमक-दमक नहीं है और सितारा हैसियत भी नहीं मिलती। अवाम इसके महत्व को नहीं जानता। हमारे देश में तो हम अपनी ऐतिहासिक धरोहर को भी नहीं सहेज पाए। हमारी लापरवाही और संवेदनहीनता के गवाह है अनगिनत खंडहर और जमींदोज दस्तावेज। शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर ने देश-विदेश में दौरा करके फिल्म इतिहास से जुड़ी सामग्री संग्रहित की है। उनके तारदेव मुंबई स्थित संग्रहालय में कुछ कैमरे, संपादन मशीन एवं अनगिनत पोस्टर इत्यादि सहेजकर रखे गए हैं। केंद्रीय सरकार को उनके संग्रहालय की सहायता करनी चाहिए। एक तरह से फिल्म संस्कृति की टूटी तोप के दहाने पर नन्ही चिड़िया द्वारा बनाया गया है शिवेंद्रसिंह का घोंसलानुमा संग्रहालय। तीन मई को अमेरिका के मोशन पिक्चर्स अकादमी के ऐतिहासिक सभाघर में शिवेंद्रसिंह डूगरपुर ने इंटरनेशनल फेडरेशन और फिल्म आर्काइव्ज के महत्वपूर्ण पद का चुनाव जीता। ज्ञातव्य है कि इस संस्था का मुख्यालय ब्रसेल्स में है। इस सभाघर में भले ही हमारी किसी कथा फिल्म को उच्चतम सम्मान से नहीं नवाज़ा गया हो परंतु शिवेंद्रसिंह को चुना गया। 180 देशों के प्रतिनिधि इसके मतदाता हैं। यह उनके जीवनभर के जुनून को सम्मानित करने की तरह है। ज्ञातव्य है कि शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर पुणे फिल्म संस्थान के छात्र रहे हैं और संस्था के क्यूरेटर नायर पर उनका वित्तचित्र 'सेल्युलाइड मैन' पहले ही कई अंतरराष्ट्रीय समारोहों में सराहा गया है और पुरस्कृत भी हुआ है। दरअसल, फिल्म उद्योग में सितारों की चमक-दमक और उनके आपसी प्रेम-प्रसंग हमेशा सुर्खियों में रहते हैं परंतु शिवेंद्रसिंह ने चमक-दमक के दायरे के बाहर का क्षेत्र चुना। फिल्म में नामावली दी जाती है, जिसमें तकनीशियन, सह-कलाकार और चरित्र अभिनेताओं का महत्व नहीं होता। किसी दृश्य में भीड़ का हिस्सा बने व्यक्ति पर हमारा ध्यान नहीं जाता। शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर का कार्य भी लाइमलाइट के दायरे के बाहर का काम है।
महाराभारत का युद्ध अठारह दिन तक लड़ा गया परंतु दोनों सेनाओं के भोजन इत्यादि की व्यवस्था करने वालों का कोई विवरण नहीं है। घायल सैनिकों की मरहमपट्टी किसने की? क्या कोई रेडक्रासनुमा संगठन वहां सक्रिय था? महान घटनाओं के इन परदे के परे सक्रिय ये लोग 'बाकी इतिहास' का हिस्सा है। मूल पाठ में ये लोग नज़रअंदाज किए गए हैं।
चार्ली चैपलिन की फिल्म लाइमलाइट में एक दृष्टिहीन कन्या पुष्प बेचकर अपना गुजारा करती और उसकी आंख में पुन: रोशनी लाने वाली शल्य चिकित्सा का जुगाड़ जो व्यक्ति करता है, उसे ही रोशनी आने के बाद वह महिला पहचान नहीं पाती। सिनेमा के पहले कवि चार्ली चैपलिन उपेक्षित लोगों की व्यथा-कथा कहते थे। व्यवस्था द्वारा हाशिये में धकेले गए लोगों के सुख-दु:ख की बात चार्ली चैपलिन ने प्रस्तुत की और इसीलिए उन्हें महान भी माना गया। आज की बाहुबली व्यवस्था में इन साधनहीन लोगों का कोई स्थान ही नहीं है। जीवन की दौड़ में अनेक धावकों के बारे में इतना भी नहीं कहा जाता कि वे भी दौड़ में शामिल थे। पंगु व्यवस्था का यही चलन है।
मीर तकी मीर की कुछ पंक्तियां हैं, 'अय झूठ आज शहर में तेरा ही दौर है शेवा (चलन) यही सभी का, यही सबका तौर है। अयझूठ तू शुआर हुआ सारी खल्क का, क्या शाह का वजीर क्या अहले दल्क का।'
क्या राजस्थान के डूंगरपुर की नगरपालिका अपने सभाघर में शिवेंद्रसिंह की कोई तस्वीर लगाएगी या महारानी मुख्यमंत्री महोदया अपने सपूत का स्वागत करेंगी?