ऑस्कर पुरस्कार के आर्थिक पक्ष / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 07 मार्च 2019
स्टीवन स्पीलबर्ग का बयान है कि इंटरनेट पर प्रदर्शित फिल्मों को ऑस्कर पुरस्कार नहीं दिया जाना चाहिए। यहां तक कि उनका नामांकन भी नहीं किया जाना चाहिए। स्टीवन स्पीलबर्ग का कहना है कि सिनेमाघरों में प्रदर्शित फिल्में ही ऑस्कर में नामांकित की जानी चाहिए। ज्ञातव्य है कि एक संकुल में कुछ सिनेमाघर हैं, जिनमें नामांकित फिल्मों का प्रदर्शन सतत् जारी रखा जाता है और मतदाता अपना कार्ड पंच कराकर फिल्म देखता है। बिना अधिकृत छविघर में फिल्म देखे, मतदाता वोट नहीं डाल सकता।
मतदाता के लिए यह सबसे आवश्यक एवं अनिवार्य शर्त है। हमारे कुछ फिल्म समीक्षक तो बिना फिल्म देखे ही उसकी समीक्षा लिख देते हैं। हम तो बिना परखे अपना नेता भी चुन लेते हैं। स्टीवन स्पीलबर्ग के कथन का आशय है कि सिनेमाघर में फिल्म एक समूह को संबोधित करती है और सामूहिक अचेतन पर उसका प्रभाव उस प्रभाव से अलग है, जो मोबाइल पर एकल व्यक्ति के फिल्म देखने से पड़ता है। इसी तरह कंप्यूटर पर देखी फिल्म या घर में टेलीविजन पर देखी फिल्म का प्रभाव भी अलग-अलग होता है। इंटरनेट पर दिखाई जाने वाली फिल्मों में आपसी प्रतिद्वंद्विता और श्रेष्ठ कार्य को किसी और मंच पर पुरस्कार दिया जाए।
ऑस्कर सिनेमाघरों में प्रदर्शित फिल्मों के पुरस्कार का समारोह बना रहना चाहिए। यह भी सच है कि ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त फिल्म का पुनः प्रदर्शन होता है और लगभग 3 करोड़ डॉलर का अतिरिक्त लाभ उसे बॉक्स ऑफिस पर मिलता है। अमेरिका का आम दर्शक ऑस्कर का इतना सम्मान करता है कि उसे सिनेमाघर में देखने जाता है। हमारी राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म के साथ ऐसा नहीं होता। ऑस्कर के इस आर्थिक पक्ष के कारण ऑस्कर का महत्व बढ़ जाता है। ज्ञातव्य है जब अमेरिका की मोशन फिल्म अकादमी ने 1927 में पुरस्कार योजना बनाई और ऑस्कर ट्रॉफी बनकर आई तब अकादमी की सचिव मार्गरेट हैरिक ने ट्रॉफी देखकर कहा कि ट्रॉफी काफी हद तक उनके चाचा ऑस्कर से मिलती है। उसी समय निर्णय हुआ कि पुरस्कार को ऑस्कर नाम दिया जाए। क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि भारत में किसी वेतनभोगी कर्मचारी के चाचा के नाम पर किसी पुरस्कार का नामकरण संभव है। हम तो जातिवाद, अमीर, गरीब और न जाने कितने भागों में विभक्त हैं। ऑस्कर जीतने वाली फिल्म के कलाकारों और तकनीशियनों के मेहनताने भी बढ़ा दिए जाते हैं। ऑस्कर का यह डॉलर पक्ष बड़ा सशक्त है।
ज्ञातव्य है कि ऑस्कर समारोह के एक दिन पहले या एक दिन बाद दर्शक समूह एक समारोह आयोजित करता है, जिसमें घटियापन का पुरस्कार दिया जाता है। इसे 'रेजीस' पुरस्कार कहा जाता है। मजे की बात यह है कि घटियापन समारोह में भी फिल्मकार आते हैं और अपना मखौल बनते हुए देखते हैं। इस तरह के साहसी हास्य का माद्दा होना कोई आम बात नहीं है। यह समारोह कुछ वैसा ही है जैसे उज्जैन में टेपा समारोह आयोजित किए जाते रहे हैं। सर रिचर्ड एटनबरो की फिल्म 'गांधी' ने अनेक श्रेणियों में ऑस्कर जीता, जिसके बाद इसे दिखाने वाले सिनेमाघरों की संख्या बढ़ा दी गई और फिल्म ने जमकर आय बटोरी। 'स्लमडॉग मिलेनियर' के साथ भी ऐसा ही हुआ।
ऑस्कर मतदाता प्राय: उन फिल्मों को चुनते हैं, जिनका नायक किसी रोग से ग्रसित होने के बाद भी कोई महान कार्य करता है। शारीरिक अपंगता के शिकार नायक की बायोपिक भी सराही जाती है। 'फॉरेस्ट गम्प' एक ऐसी ही फिल्म थी। ताजा खबर यह है कि आमिर खान ने 'फॉरेस्ट गम्प' का देशी संस्करण बनाने के अधिकार खरीदे हैं और वे निर्देशक की घोषणा भी करने वाले हैं। भारत में 'टाइम्स' ने फिल्मफेयर पुरस्कार समारोह आयोजित करना प्रारंभ किया। संभवतः 1952 में पहला समारोह आयोजित किया गया। गुजश्ता समय में अनेक पुरस्कार समारोह आयोजित होने लगे हैं। सुना है कि सितारे इस तरह के आयोजन में शिरकत करने के लिए धन मांगते हैं और मंच पर ठुमका लगाने के लिए भी खूब धन मांगा जाता है। अब आरोप लगा है कि पुरस्कार लेन-देन भी एक व्यवसाय हो गया है। पुरस्कार समारोह को टेलीविजन पर दिखाने के लिए अच्छा खासा धन प्राप्त होता है। इस तरह लागत पर मुनाफा भी होने लगा है। इन सब कारणों से पुरस्कार समारोह की गरिमा समाप्त हो गई है। ज्ञातव्य है कि मार्लन ब्रैंडो ने एक बार पुरस्कार लेने से यह कहकर इंकार किया कि अमेरिका के मूल निवासी रेड इंडियंस के साथ अन्याय किया गया है और उनका दमन किया गया है। इस तरह इस मंच पर नैतिकता भी अभिव्यक्त हुई है।