ओंकारेश्वर की ओर / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
महीनों बाद एक दिन हमने ठाकुर साहब से विदाई ली और फिर पश्चिम की ओर चल पड़े। खंडवा जाना था। जहाँ तक हमें याद है, बाबू साहब ने कड़कबेल स्टेशन पर अपने आदमी को भेज हम-दोनों के लिए खंडवा या ओंकारेश्वर तक का टिकट दिलवा कर ट्रेन पर चढ़ा दिया। अत: हम आसानी से ओंकारेश्वर तो जरूर पहुँच गए। परंतु भ्रमणवाला मजा न मिल सका। खंडवा से छोटी लाइन ओंकारेश्वर होती उज्जैन की तरफ जाती है। हम उसी से ओंकारेश्वर पहुँच गए। नर्मदा जी में स्नान कर के मध्यधार में स्थित पहाड़ी पर जा कर बाबा ओेंकारेश्वरनाथ जी का दर्शन किया और उन पर नर्मदा जी का जल चढ़ाया।
लोग कहते हैं कि श्री शंकराचार्य और श्री मंडन मिश्र का जो प्रसिद्ध शास्त्रर्थ हुआ था और जिसमें हार कर श्री मंडन मिश्र श्री सुरेश्वराचार्य के नाम से शंकर के शिष्य हो गए थे, वह माहिष्मती पुरी में हुआ था। शंकर दिग्विजय में लिखा भी गया है कि “माहिष्मतीं मंडन मंडितां स:”। हमने ओंकारेश्वर में ही माहिष्मती का पता पाया जो उससे कुछ पश्चिम नर्मदा के तट पर है। उस 'विजय' में यह भी लिखा है कि रेवा (नर्मदा) की लहरों से शीतल वायु माहिष्मती में बहती थी─रेवा मरुत्कंपित सालमाल:। फिर समझ में नहीं आता कि मिथिला में क्यों कर मंडन मिश्र को घसीटने की कोशिश होती है। शायद 'मिश्र' उपाधि देख कर ही। परंतु हजारों वर्ष पूर्व आजवाली वंश-परंपरागत मिश्रादि उपाधियों का तो नाम भी न था। तब तो (मिश्र) और (पाद) शब्द आदर और विद्वत्ता के अर्थ में कभी-कभी प्रयुक्त होते थे। ऐसा मुझे पुराने ग्रंथों में मिला है।
ओंकारेश्वर जी के दर्शन के बाद हमें बाबा कमलभारती जी के दर्शन की चिंता हुई। वह वहीं पर नर्मदा के उत्तर तट में जंगलों में कुटी बना कर रहते और योगाभ्यास करते थे। ऐसा हमें बताया गया था। परंतु वहाँ पूछने से पता चला कि वे योगी-ओगी न थे। उन्होंने तो केवल औषधियों और संयम के बल से कालाकल्प मात्र किया था। इससे तगड़े एवं हृष्टपुष्ट हो गए थे। इसी से उनके भक्तों ने उनके योगी होने की घोषणा कर डाली थी। लेकिन गाँव-घर और पास-पड़ोस के लोग तो आदमियों या वस्तुओं का पूरा आदर नहीं करते हैं यह समझ हमने पूछा कि उनके शिष्य कोई हैं या नहीं। बताया गया कि एक नागा नौजवान खूब खाक रमानेवाले उनके उत्तराधिकारी हैं। बस, हमारे लिए यह काफी था और हम उस कुटिया पर गए। पता लगा कि नागा महाराज गुफा में बंद हैं, पीछे निकलेंगे, शाम को या रात में। हमने समझा योगाभ्यास करने गए होंगे। अत: रात में वहीं ठहरना पड़ा। जब निकले तो उनसे बातें होने पर वे कोरे साबित हुए। हमें पता लगा कि कमल भारतीवाली गुफा में घुस कर वे खूब सोते और आराम करते हैं। इसे ही सीधे-सादे भक्तजन मानते हैं कि योगाभ्यास करते हैं। बस, इतने से उनकी पूजा-प्रतिष्ठा होती रहती है।
वहाँ हमें जो निराशा हुई वह वर्णनातीत हैं। जिस बात के लिए इतनी खाक छानी और अपार कष्ट झेले वह बेबुनियाद सिद्ध हुई। लेकिन बस था ही क्या?हमने देखा है कि यों ही योगी और सिद्ध महात्मा होने की प्रसिद्धि करा के धार्मिक और अंधविश्वासी आसानी से संसार में ठगा जाता है। फिर भी इस पहले धक्के से हमारा विश्वास सच्चे योगियों के अस्तित्व से न डिगा और हमने आगे बढ़ने की ठानी।
जब वहाँ से उत्तर पैदल ही बढ़े तो होल कर (इंदौर) की रियासत में हो कर चलने लगे। एक स्थान, जिसका नाम हम ठीक याद नहीं कर पाते, पर शायद बढ़वान है, में हमें एक सुंदर जगह मिली। वहाँ एक पतला झरना बह कर सुंदर कुंड में गिरता दीखा। लोगों का कहना है, यह सरस्वती की धारा है। इसीलिए तीर्थ स्थान की तरह वहाँ लोग स्नानादि करते हैं। यह सरस्वती विचित्र हैं। जगह-जगह इसकी धाराएँ बताई जाती हैं। कहते हैं कि यह नदी तो गुप्त है। केवल स्थान-स्थान पर प्रकट हो जाती है। हम आगे फिर इस सरस्वती की बात लिखेंगे जो सिद्धपुर में, जहाँ कपिल महाराज ने अवतार लिया, ऐसा माना जाता है, दूर तक फैली हुई बहती है। हालाँकि, उसमें जल नाममात्र को ही रहता है। फिर मेहसाना के निकट पाटन (बड़ौदा-स्टेट) में भी हमें वही सिद्धपुरवाली धारा मिली।
खैर, जो हो, वहाँ रह के हम आगे बढ़े और मऊ छावनी होते खास इंदौर में पहुँच गए। उधर हमने जैन मतवालों के स्थान और मकान बहुत देखे और मंदिर भी। उनके साधु भी नजर आए। वे नाक के ऊपर से एक छोटे कपड़े का पर्दा मुँह के नीचे तक लटकाए रहते हैं। एक लंबे धागे में छोटा कपड़ा लगा कर धागा सिर के पीछे बाँध देते हैं और कपड़ा नाक-मुँह पर लटका रहता हैं। कहते हैं कि उससे गर्म साँस दूर तक फैल कर वायु में व्याप्त जीवों का नाश नहीं कर पाती। यह और कुछ नहीं सिर्फ अहिंसा की पूजा का नतीजा है! वे छोटे डंडे में बँधे सूतों के गुच्छेवाली झाड़ू भी साथ में रखते हैं। उन्हें जहाँ बैठना होता हैं उसी से झाड़ कर बैठते हैं, ताकि कीड़े-मकोड़े दब कर चूतड़ के नीचे मर न जाएँ! सूत की झाड़ू नरम होती हैं। इससे उससे कीड़े नहीं मरते। मगर चलने में क्या होता है?वहाँ कौन सी झाड़ू दे कर पाँव उठाते और डालते हैं?यदि चलना-फिरना और साँस लेना ही बंद कर दिया जाए तभी उनकी अहिंसा शायद पूरी होगी। वे लोग हाथ में एक लंबा काष्ठ दंड भी रखते हैं। उसका अभिप्राय गलत या सही मुझे बताया गया कि मार्ग में कहीं विष्ठा मिलने पर वे उसी से उसे फैला देते हैं, ताकि शीघ्र सूख जाए, जिसके सड़ कर उसमें कीड़े पैदा होने और मरने से बच जाए। औरतें भी उसी सूरत में मिलीं। कुछ जैन साधु-साधुनियों को श्वेत वस्त्र पहने देखा और कुछ को पीत। मगर सिर पर बाल शायद ही किसी को रहा हो। जैसे लंबे ज्वर के बाद सिर के बाल गिर पड़ते हैं और एकाध ही जहाँ-तहाँ नजर आते हैं और चेहरा भी पीला एवं मनहूस नजर आता हैं। हू-ब-हू वही हालत सबों की देखी! कहते है कि नहाने धोने में देह, वस्त्रादि मलने-दलने से हिंसा होती है। इसीलिए वे लोग शायद ही कभी नहाते हों। फलत: देह में गर्मी ज्यादा रहने से चेहरा फीका पड़ जाता और बाल गिर पड़ते हैं। बात क्या है, कह नहीं सकता। मगर सबों की सूरत देख कर मुझे हैंरत हुई कि वह धर्म किस काम का जिसमें जीते जी ऐसी दुर्दशा हो?कम-से-कम शरीर चुस्त हो, चेहरे में रौनक हो, वह हँसता हो, शरीर-वस्त्रादि स्वच्छ हों तो समझा जाए कि मन भी स्वच्छ और स्वस्थ होगा। क्योंकि मन का घर तो शरीर ही हैं और अगर घर ही डगमग या गंदा है तो उसमें रहनेवाले की क्या हालत होगी यह सहज ही जान सकते हैं।
सन 1907 के जाड़ों के दिन थे, या कि सन 1908 का श्रीगणेश था, कह नहीं सकता, जब हम इंदौर पहुँचे। वहाँ हमने बादशाही बाग में पले चीते वगैरह देखे। उन्हें लोहे के घेरे के भीतर रोज मांस खाने को दिया जाता था। हमने एक दिन देखा कि भीतर घुस के एक मेहतर सफाई कर रहा था। जब बड़ा-सा चीता उसकी ओर चला तो उसने हाथ में रखी पतली-सी मामूली छड़ी से उसे मारा और वह हट गया! हमें आश्चर्य हुआ। शायद वही रोज चीते को मांस देता था। इसलिए एक प्रकार का नाता जुट जाने से चीता उसका लिहाज करता था। नहीं तो पतली लकड़ी की परवाह न कर उसे चबा जाता।
जाड़ों में हमारे ओठ फटने लगे थे। इसलिए आँख के सिवाय सभी चेहरों को कपड़े से ढँक कर हम चलते थे। एक दिन रास्ते में इंदौर राज्य की पुलिस ने हमसे कहा कि मुँह खोल कर चलना होगा शायद उसे ख्याल हो कि हम कोई भगोड़े या फरार मुँह छिपाए चल रहे हैं। लेकिन हम तो दो ही एक रोज में वहाँ से आगे उज्जैन की ओर बढ़ चले। फलत: पुलिस से कोई भिड़ंत हमारी न हो सकी।