ओए बबली / सुकेश साहनी

Gadya Kosh से
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कमरे में अँधेरा है, टटोलकर देखती हूँ-माँ बिस्तर पर नहीं है। बिछौना काफी गर्म है यानी अभी-अभी उठकर गई हैं। पर इतनी रात गए कहाँ गईं? उठकर देखती हूँ, घर में कहीं दिखाई नहीं देतीं। बाहर वाला दरवाजा सिर्फ उढका हुआ है...

घर के सामने तिकोनिया पार्क के बीच मांँ की दुबली-पतली काया दिखाई देती है।

नजदीक जाकर देखती हूँ, माँ दोनों हाथ की उँगलियों से जमीन की मिट्टी खोद रही है, ऐसा करने में उसे कोई दिक्कत नहीं हो रही है। देखते ही देखते वहाँ बहुत बड़ा गड्ढ़ा हो जाता है।

"माँ! क्या ढूँढ रही हो?"

"पानी!" मुझे हैरान-परेशान देखकर वह बताती है, "हम जब तेरे जितने थे, जमीन को थोड़ा-सा खोदते ही पानी मिल जाता था। तू यहाँ क्यों चली आई? बेटी, जाकर सो जा, मैं पानी लेकर आती हूँ।"

माँ के मना करने के बावजूद मैं उसके काम में हाथ बँटाना चाहती हूँ-

मेरे सामने गंगा-जमुना दोआब का फैलाव है, हर कहीं हरियाली ही हरियाली है। एकाएक वहाँ ठंडे पेय की बोतलों का अंबार दिखाई देने लगता है। इसके चारों ओर फिल्मी सितारे नाच रहे हैं। सभी चेहरे जाने पहचाने हैं, बिगबी तो अलग ही नजर आ रहे हैं। हैरान हूँ-सबकीजुबां पर मेरा ही नाम है पर मेरी ओर आँख उठाकर भी कोई नहीं देखता। वैसे भी हम माँ-बेटी को चिढ़ है इन ठंडी बोतलों से। इनको पीते ही प्यास और भड़क उठती है। देखते ही देखते वह गंगा-जमुनी दोआबा रेगिस्तान में तब्दील हो जाता है। तेज हवाएँ चलने लगती हैं। रेतीले कण जिस्म के खुले हिस्सों पर सुइयों से चुभने लगते हैं।

रेगिस्तान में किसी ओएसिस की तरह एक कुआँ दिखाई देता है। हीरो मूँछें ऐंठते हुए कहता है...'यारों दा टशन!' खूबसूरत लड़कियाँ खिलखिलाती हैं...'ठंडा मिलेगा क्या?'

कुएँ की चर्खी पर रस्सी की रगड़ से उत्पन्न चूँऽऽ...चूँऽऽ

फिर बाल्टी का कुएँ की पानी में छप्पाक्ऽऽऽ!

बाल्टी बाहर आती है, बर्फ के ढेलों के बीच कोल्डड्रिंक्स की बोतलें लिये। उसे निराशा घेर लेती है। माँ का ध्यान आते ही वह अपनी फ्रॉक की झोली में उन बर्फ के ढेलों को भरकर वापस दौड़ पड़ती है। तिकोनिया तक आते-आते उसकी झोली खाली हो जाती है-नमी का कोई चिह्न छोड़े बिना। वह हैरान है, यह कैसी बर्फ है जो बिना पिघले उड़न-छू हो जाती है!

तिकोनिया पार्क में माँ ने गहरा कुआँ खोद लिया है पर खुद कहीं नजर नहीं आती। "माँ!" वह पुकारती है। उसकी पुकार कुएँ की सूखी तली से टकरा कर लौट आती है। माँ कहीं कुएँ की मिट्टी में...सोचकर वह रोने लगती है।

"ओ बबली! बेटी उठ!" माँ की आवाज से उसकी आँख खुल जाती है, आँखें नम है, दिल तेजी से धड़क रहा है, "चल...जल्दी कर, बेटी! बर्तनों की कतारें लगने लगी हैं। पानी का टैंकर आता ही होगा। आज तो घर में खाना पकाने के लिए भी पानी नहीं है...बबली!"

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