ओक भर किरनें’ (चोका -संग्रह) / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
ओक भर किरनें’ (चोका -संग्रह)-डॉ सुधा गुप्ता ,पृष्ठ: 96 ,सज़िल्द, मूल्य :150 रुपये ,संस्करण :2011 ;प्रकाशक:निरुपमा प्रकाशन, 506/ 13, शास्त्री नगर , मेरठ उ प्र
‘ओक भर किरनें’ चोका संग्रह पर विचार करने से पहले चोका के स्वरूप को जान लिया जाए ।
चोका [ लम्बी कविता] पहली से तेरहवीं शताब्दी में जापानी काव्य विधा में महाकाव्य की कथाकथन शैली रही है । मूलत; चोका गाए जाते रहे हैं । चोका का वाचन उच्च स्वर में किया जाता रहा है । यह प्राय: वर्णनात्मक रहा है । इसको एक ही कवि रचता है। इसका नियम इस प्रकार है -
5+7+5+7+5+7+5+7+5+7+5+7+5+7+5+7+5+7+5+7---------और अन्त में +[एक ताँका जोड़ दीजिए।] या यों समझ लीजिए कि
समापन करते समय इस क्रम के अन्त में 7 वर्ण की एक और पंक्ति जोड़ दीजिए । अर्थात् 5+7+5+7+5+7+5+7+5+7+5+7+5+7+5+7+(5+7+5+7+7=ताँका) इस अन्त में जोड़े जाने वाले ताँका से पहले कविता की लम्बाई की सीमा नहीं है । इस कविता में मन के पूरे भाव आ सकते हैं । इनका कुल पंक्तियों का योग सदा विषम संख्या [ ODD] यानी 25-27-29-31……इत्यादि ही होगा ।
विषय के अनुरूप काव्यरूप का चयन सबसे प्रमुख है ।कुछ लोग काव्यरूप को ही साध्य मानकर उसके शिल्प या बनावट को ही सब कुछ मान बैठते हैं ।जो कुछ भी सूझा सब उसी में भरने या ठूँसने की कोशिश करते हैं । बनावट से आगे बढ़कर बुनावट पर ध्यान देना ज़रूरी है ।कविता का कथ्य अपना स्वरूप आप तलाश लेता है । जूता पैर की माप का ढूँढ़ना चाहिए न कि जूता लेकर बाज़ार में निकल पड़ें कि यह जूता जिसके पैर में फिट बैठेगा, उसी को पहनाकर मानेंगे । जो रचनाकार भाव , विचार , संवेदना आदि को किनारे करके ‘ बस कुछ न कुछ लिखना है’ के दबाव से पीड़ित रहते हैं , वे लिख तो लेते हैं , पर रच न हीं पाते ।
डॉ सुधा गुप्ता का जापानी छन्दों में मन खूब रमा है ,चाहे वह हाइकु रहा हो , चाहे सेन्रर्यू, चाहे ताँका और अब चोका ।जापानी काव्य के महारथियों के पुण्य स्मरण का अवसर हो तो चोका से अधिक उपयुक्त क्या होगा । इसमें वर्णन की पूरी सुविधा है । डॉ सुधा गुप्ता जी कोरे वर्णन तक ही इसकी सीमा तय नहीं करती वरन् उसमें काव्य वैभव का समावेश करके अपनी क्षमता का अहसास करा देती हैं । जापान सूर्योदय का देश है। किसी भी देश के साहित्यकार उसकी सर्वोत्तम निधि होते हैं। किसी देश के राजा को विदेश में स्वीकृति नहीं मिल पाती वहीं एक अच्छा साहित्यकार देश-काल की सीमाओं को लाँघकर सबका हो जाता है ।‘ओक भर किरनें’ में कवयित्री ने दो भाग किए है :
1--समर्पण 2-धरा-गगन
प्रथम अध्याय ‘समर्पण ‘में छह प्रकरण हैं :
1-प्रवेश , 2-मात्सुओ बाशो , 3-सोनोजो , 4-योसा बुसोन , 5-कोबा याशी इस्सा , 6 -मासा ओका शिकि
प्रवेश के प्रथम चोका (37 पंक्तियाँ)में जापान के इन शीर्षस्थ साहित्यकारों की विशेषाताएँ संक्षेप में बताई गई हैं ; जिससे जापानी साहित्य पर एक विहंगम दृष्टि डाली गई है ।
अन्य पाँच भागों में सम्बन्धित कवियों के जीवन और काव्य का सार गर्भित और प्रामाणिक स्वरूप अंकित किया गया ।
दूसरा चोका (189 पंक्तियाँ) बाशो पर केन्द्रित किया गया है । बाशो का बचपन का नाम ‘जिन शिचरो’ था । इनके शिष्य ने केले का पौधा भेंट में दिया तो उसे रोप दिया ।वहीं अपनी कुटिया भी बना ली। ‘बाशो-आन’ (केला) के नाम पर अपना नाम भी बाशो कर लिया । बाशो हाइकु को दरबारी या अन्य शब्द क्रीड़ा से बाहर लेकर आए और काव्य की वह गरिमा प्रदान की कि विश्व भर की भाषाओं में इन छन्दों को प्राथमिकता दी जाने लगी । यह घुमक्कड़ और प्रकृति प्रेमी वीतरागी सन्त कहलाए । इन्हें प्रकृति और मनुष की एक रूपता में भरोसा था । जेन दर्शन में जो क्षण की महत्त है , वह इनके काव्य का प्राण बनी । यात्रा के दौरान इनके लगभग दो ह्ज़ार शिष्य बनें , जिनमें से 300 पर्याप्त लोकप्रिय हुए ।इनका मानना था कि सार्थक पाँच हाइकु लिखने वाला सच्चा कवि और दस लिखने वाला महाकवि कहलाने का हक़्दार है । इनका मानना था कि इस संसार का प्रतेक विषय हाइकु के योग्य है । एकाकीपन , सहज अभिव्यक्ति और अन्तर्दृष्टि बाशो की तीन अन्त: सलिलाएँ हैं
तीसरा चोका (45 पंक्तियाँ)कवयित्री सोनोजो पर है । यह बाशो की शिष्या थी । पति की मृत्यु होने पर जीवन -संध्या में बौद्धभिक्षुणी बन गई थी । इनका मानना था कि सच्चा हाइकुकार निर्लिप्त भाव से तटस्थ रहकर साहित्य सर्जना करता है । संक्षेप में सुधा जी ने उनका योगदान और जीवन दर्शन व्यक्त किया है ।
चौथा चोका (141 पंक्तियाँ)योसा बुसोन पर केन्द्रित है । बुसोन रंगकर्मी चित्रकार थे । इनकी कविताएँ छवि चित्र हैं । इनका जीवन बहुत संघर्षमय रहा ।इनका बचपन का नाम ‘तानि गुचि बुसोन’ था । शैशव में माता पिता साया छिन गया॥ 20 साल की अवस्था में पैतृक गाँव छिन गया । ये ‘हाजिन’ के शिष्य बनकर काव्य -रचना करने लगे । माटी से जुड़ा यथार्थ-बोध इनके काव्य की मूल आत्मा रही , जिसे इन्होंने रंगों और शब्दों में पिरोया ड़ॉ सुधा जी के अनुसार कवि शब्द जोड़ते नहीं, बल्कि शब्द जड़ते हैं। इनका एक-एक हाइकु अनूठा शब्द चित्र है । स्वर की अनुरूपता , अनुप्रास का संयोजन , नाद सौन्दर्य , सुकोमल शब्द-विन्यास का रेशमी -स्पर्श ,रोमांचक कल्पना सब मिलकर पाठक को भाव-सागर में निमज्जित करने में सक्षम हैं । चित्र और हाइकु का अद्भुत संगम ’हाइगा’ के रूप में विश्व भाषाओं की शोभा बना है । जापानी काव्याकाश में बुसोन उच्चतम शिखर पर विराजमान हैं ।
पाँचवा चोका (151 पंक्तियाँ) कोबायाशी इस्सा के जीवन -संघर्ष पर है ।जब इस्सा 3 साल का था तो माँ चल बसी । दादी ने पालन-पोषण किया । 8 वर्ष का हुआ तो पिता ने दूसरा विवाह रचा लिया । घृणा और उपेक्षा की पीड़ा झेली । अकेलापन , मानवीय करुणा और सम-वेदना चिर साथी बनकर प्रेरक सिद्ध हुए । मातृहीन होने के कारण जीवों के प्रति इनका कौतूहल अद्भुत था । 52 वर्ष की अवस्था में विवाह किया ।पुत्र की अकल मृत्यु और फिर पत्नी का स्वर्गवास विचलित कर गया । दूसरा विवाह किया पर असफल रहा । तीसरा विवाह किया । 64 की अवस्था में पुत्री जन्मी वह भी इस्सा की मृत्यु के कुछ महीने बाद ।कवि को आदि से अन्त तक शापित जीवन जीना पड़ा । इस्सा ने हाइकु की माला आँसुओं से गूँथी थी ।
इस्सा की मृत्यु के बाद जापानी काव्य में जो शून्य आ गया था , उसे पूरा किया ‘मासा ओका शिकि’ ने ।
छठा चोका (123 पंक्तियाँ) ‘शिकि’ पर है । इनका बचपन का नाम था ‘सुनेनोरी’ । ‘शिकि’ उपनाम चुना जिसका अर्थ है -कोयल जो कण्ठ में र्क्त आने तक गाए ।तत्कालीन हाइकु कृत्रिमता से भरे थे । इस्सा के चिन्तन ने नए और पुराने की बीच द्वन्द्व को रेखांकित किया । इन्हे केवल 35 वर्ष का जीवनकाल मिला । चित्रकारी और कविता की अभिरुचियाँ इन्हे बचपन से मिली थी ।‘हाइकु’ नाम इन्हीं के समय में प्रचारित और स्थापित हुआ । इन्होंने सभी गलित रूढ़ियों और आस्थाओं का विरोध किया । गरीबी औत तपेदिक की बीमारी ने इनको शय्या -सेवन के लिए बाध्य कर दिया । बहन ‘रित्सु’ ने इनकी खूब सेवा की। रुग्ण शरीर शिकि अन्तिम श्वास तक लिखते गए और अपना उपनाम सार्थक कर दिया ।
डॉ सुधा गुप्ता जी ने इन तपस्वी साहित्यकारों के लिए बहुत ही भावप्रवण भाषा का प्रयोग करके इनके जीवन के उदात्त प्रसंगों को रूपायित करके सह्ड़रिदय पाठकों के मन में अन्तरंगता का बीजारोपण किया है । सभी कवियों का जीवन और साहित्य वर्णनात्मक शैली में होते हुए भी बहुत मार्मिक बन गया है।
दूसरे अध्याय में 11 प्रकरण हैं ,जिनमें कवयित्री की कल्पना को धरा का विस्तार मिला है तो गगन की असीम ऊँचाई भी साथ ही मिली है ।
शबरीमन में ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण की स्थिति है ; जिसमें मन की व्याकुलता चरम पर है -
तरस रहा मन / राम मिलेंगे /तपन तन -मन /मूक रुदन / अविरल क्रन्दन --
इन पंक्तियों का समापन इस चोका के समर्पण भाव से सम्पन्न होता है-
‘प्रेम-ज्वाल से / दीप्त योग-अगन /लीन उन्हीं में हो प्राण -समर्पण । तुझे राम मिलेंगे’ से होता है ।
‘वसन्तपरी’के माध्यम से आज की पर्यावरण-विनाश की विभीषिका अभिव्यक्त हुई है । यह विभीषिका ही नहीं वरन् कठोर चेतावनी भी है ; क्योंकि आज का मानव कंक्रीट के जंगल उगाता जा रहा है , जिसकी चपेट में आकर वसन्त-परी लहू-लुहान हो उठी है । वह खेलने निकली थी पर खौलते सागर में गिरकर डूब गई है ,परन्तु क्यों ?उसे दो बूँद पानी भी नसीब नहीं हुआ ,इसीलिए
‘होश खो गिरी /दो बूँद पानी नहीं/ ममता नहीं / हरा-सा साया नहीं / धूप से जली’
पीले गुलाब-1 और पीले गुलाब-2 में जीवन की रागात्मकता अपने उच्च शिखर पर है ।जीवन के कुछ पल ऐसे भी होते हैं , जिनको समझने के लिए बुद्धि का वैभाव नहीं हृदय के सूक्ष्म तन्तुओं की झंकार सुननी पड़ती है । सादगी और अपन्त्व से भरा यह कथन देखिए-
तुम्हें भेजे थे /चन्द पीले गुलाब /मिल गए न ?
वह जो दो पल का सथ मिला था उसकी अनुभूति कितनी गहन हो सकती है ,वह सिर्फ़ महसूस करने की बात है वर्णन की नहीं-
कोमल अहसास/तुम्हारा साथ / निर्धूम अगन -से/प्रशान्त ज्योति
सांसारिक स्वार्थमय सम्बन्धों के बहुत सारे नाम हो सकते हैं परन्तु शाश्वत सम्बन्धों का कोई नाम नहीं होता -
पीले गुलाब/ओस-बिन्दु से सजे /महक उठे/अनाम,अछूते वे/ रिश्ते निर्वाक् ही रहे
ओस-बिन्दु का मोहक रूप केवल मोहक ही नहीं वरन् पावन भी है ।
खुशी का कोई कारण नहीं होता ।बात-बेबात गुनगुनाना ही सच्ची खुशी का क्षण होता है ।युग बीतने पर भी उस बचपन की खुशबू की स्मृति आज तक बनी हुई है -
खिल उठी सुबह / दिन मुस्काया / बात-बेबात मन/ गुनगुनाया
तथा
‘युग बीते हैं / बसी गुलाब -गन्ध / हर साँस में
जीवन की साँझ में अभिकेन्द्रित होकर वे सारे क्षण व्यथित करने लगते हैं-
कभी सोचा न था कि /साँझ घिरेगी / बिछुड़ेगा क़ाफ़िला /अकेलापन /सूने चट्टान- दिन/ पाहन -रातें/ बिताए न बीतेंगे।’
दिन के लिए चट्टान और रात के लिए पाहन का प्रयोग अनुभूत व्यथा को और द्विगुणित कर देता है और उसका समापन विदा -वेला में इस प्रकार होता है-
‘एक बोझिल भोर/ विस्मय-भरी:/ सच था या कि स्वप्न / दो बूँद झरी / विदा -वेला में मिला / आज पीला गुलाब’
‘सगुन -पाखी’ में किसी प्रिय के आगमन का इन्तज़ार है । शुभ का संकेत करने वाली आ/ण्ख फरक उठी है । आज कुछ पाने की उत्कट लालसा भावना का विस्तृत आकाश नापने को व्याकुल है-
‘चाह -चिड़िया उड़ी/तुम्हें पाने को / नापती आकाश है’
भोर की लालिमा का सचल दृश्य बिम्ब बहुत गहरी रेखाओं के मनमोहक रंगों के साथ खिल कर गतिमान हो उठा है -
उषा की शोख़ी / बड़ी मन -भावन/डग भरती / लज्जानत आनन / आए साजन/ चुपके से आकर / रोली मल दी / चल दी जल्दी- जल्दी’
इस चोका में स्वरानुरूपता के साथ एक अन्तर्लय भी निहित है । कोमल भाव हैं तो तदनुरूप शब्द योजना से उसे और जीवन्त बना दिया है ।
‘समाजवाद’ चोका में सबको समान अवसर मिलने का एक सपना देखा था ।वह सपना कहीं बिला गया है । अमीर की अमीरी बढ़ी तो गरीब की बेतहाशा गरीबी भी बढ़ी है। विषमता की खाई और गहरी होती गई -
‘कार रेस खेलते धन कुबेर / कुछ की सुबह है / कचरा ढेर ‘
इस दु:ख को कवयित्री ने इस प्रकार उकेरा है-
‘राम है भूखा / कैसा ये गुल खिलाया / समाज्वाद आया’
‘नन्हा हाइकु’ में हाइकु के हृदय में उद्भूत होने की विकलता है-‘कच्ची नींद में /आया एक हाइकु/ फिर खो गया’ भाव यह है कि इससे पहले भी वह कई बार खो गया था। उसको शब्दकारा में क़ैद करने को कवयित्री ललायित है ; इसीलिए वह व्याकुलता से कह उठती है-
‘ओ मेरे नन्हें / तुझे तरस आता /तो छोड़कर मुझे / तू यूँ बिला न जाता / आ गले लग जाता’
ये पंक्तियाँ मानवीकरण का ही नहीं वरन् वात्सल्य का भी मार्मिक उदाहरण हैं । डॉ सुधा जी ने हाइकु की लघुता को उसकी चंचलता से जोड़ा है । प्रकारान्तर से कहें तो हाइकु की कठिनाई जुड़ी है। इस चंचलता में वह कभी भी कहीं भी बिला जाएगा , हाथ न आएगा । ‘बिला जाना’ का विशिष्ट प्रयोग हाइकु की क्षण की शक्ति का द्योतक है , जिसको पकड़ना सफल हाइकुकार की कुशलाता माना जाएगा ।
‘रैन बसेरा’ जीवन का शाश्वत सत्य है । अन्त समय में प्यास के कारण चातक की पुकार गहरी होती जाती है । मुक्तिकामा प्राणी के प्राण जब चातक की तरह व्याकुल होकर कण्ठ मंक आ बसते हैं तो उसकी कातरता भी बढ़ती जाती है ।
करुणाघन ! /कभी तुझे न टेरा /दो बूँद जल ! /मुमूर्षु चातक ने तुझे है हेरा
उर्वी का छौना अर्थात् धरती क पुत्र चन्द्रमा। ममता के कारण बुरी नज़र से दूर रखने के लिए माँ ने काला दिठौना लगा दिया है । कवयित्री का सौन्दर्यबोध इस कविता में अपने चरम पर है । पूरा चोका एक इन्द्रधनुषी आभा लिये हुए है । सारे बिम्ब रूपक और उपमान आँखों के आगे चलचित्र की पूरी कविता को सजीव कर देते हैं । चांद का पेड़ों के पीछे छुपना और बच्चे का छुपना तथा झात करके माँ को पुकारना , बाल सौन्दर्य का अद्भुत उदाहरण बन गया है -
किलकता, हँसता / माँ से करे ‘झा’ /रूप देख परियाँ / हुई दीवानी /आगे -पीछे डोलती/ करें शैतानी
चाँदनी लहरों का प्रवाह कितना प्रखर है कि-
चाँदनी का दरिया / बहाके लाता / सबको डुबा जाता /
चाँदनी का यह तो दरिया तो आपादमस्तक आप्लावित कर देनेवाला है । कवयित्री का भाषा-संधान इन पंक्तियों में ‘गदबदा’ शब्द का प्रयोग स्पर्श बिम्ब को रूपायित करने में सक्षम है -
गोल -मटोल / उजला , गदबदा / रूप सलोना / नभ का शहज़ादा / वह उर्वी का छौना
‘वसन्त कोलाज’ में सुधा जी का प्रकृति-प्रेम अविच्छिन्न धारा के रूप में बहता नज़र आता है । पाखी दम्पती की खुशी पकी बाली में छुपी है । बाली के साथ सोनाली का नाद सौन्दर्य पूरि मधुरता से वेष्टित है ।-
‘पाखी -दम्पती खुश /दानों से भरी/ झूमती हवाओं में / बाली सोनाली’
वसन्त के आने पर पेड़-पौधों का सौन्दर्य अपनी अपूर्व आभा के साथ प्रस्तुत है-
‘सजा रही ॠतु -माँ /पाकर गात/ मूँगा-रंग के पात/ किसे बुलाती’
‘बिटौड़े’ और ‘घराती’ जैसे आंचलिक प्रयोग भाषा को और भी अधिक जीवन्त बना देते हैं अन्तिम चोका ‘पावस बहुरंगी’ सचमुच में पावस के विभिन्न वर्णी सौन्दर्य का चित्र है। कहीं ‘ ताल पे फैले / घने जल-कुन्तल’ हैं तो कहीं बीर बहूटी है जो इस रूप में दृष्टिगोचर होती है
‘शनील बूँद/ बारिश संग गिरी’ तो कहीं- ‘पूरब की खिरकी/ उषा पहने /गोटा लगी ओढ़नी ‘
का अछूता सौन्दर्य है ।
कवयित्री वर्णन , विवरण के साथ-साथ बाह्य और अन्त: प्रकृति का चित्रण चोका के माध्यम से किसी कुशल कैमरामैन के सौन्दर्यबोध की कलात्मक प्रस्तुति बनकर हमारी आँखों के आगे आ जाता है । इनका अनुभूत सत्य इन्द्रधनुषी रंग में मन मोह लेता है । कविता का हर शब्द पाठक के मर्म को छू लेता है ।
मुझे विश्वास है डॉ सुधा गुप्ता जी की यह कृति हिन्दी जगत् की एक धरोहर सिद्ध होगी ।
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