ओटीटी प्लेटफाॅर्म पर थमी फिल्म गाड़ी / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 09 जून 2020
सरकार ने आदेश दिया है कि शॉपिंग मॉल खोले जा सकते हैं, लेकिन उनमें बने सिनेमाघर खोले नहीं जा सकते। आम आदमी अपनी आवश्यकता का सामान अपने मोहल्ले की किराना दुकान से खरीदता है। वह शॉपिंग के लिए चमकीले मॉल में नहीं जाता। सिनेमा का दर्शक फिल्म देखने के बाद सामान भी खरीद लेता है। कोविड-19 के प्रकोप के पहले मॉल में बने सिनेमाघरों में मात्र 30 प्रतिशत दर्शक आते थे। मॉल सिनेमाघर शृंखला के मालिक से कहा गया कि अगर टिकट के दाम कम कर दिए जाएं, तो अधिक दर्शक आ सकते हैं। उनका जवाब था कि ये 30 प्रतिशत लोग ही फूड कोर्ट से खाने का महंगा सामान खरीद सकते हैं। मॉल मालिक को उन सत्तर प्रतिशत दर्शकों की आवश्यकता नहीं है, जो फूड कोर्ट का ग्राहक नहीं है। इसका अर्थ है कि यह मनोरंजन उद्योग नहीं है, वरन खाने-पीने का ठिकाना है। एक रेस्त्रां है। मल्टीप्लेक्स में पानी की बोतल बाजार से अधिक दाम में बेची जाती है। खुले बाजार में दस रुपए का समोसा मल्टीप्लेक्स में 30 रुपए में बेचा जाता है।
एक मल्टीप्लेक्स के निर्माण में इतना अधिक धन लगता है कि उन्हें फूड कोर्ट की आय पर निर्भर करना होता है। मॉल में बनी दुकानों का मालिकाना अधिकार दुकानदार के पास नहीं होता। वह महज किराएदार है। जब व्यवसाय ठीक चल रहा था, तब मॉल का दुकानदार किराया नहीं दे पा रहा था। मॉल मालिक ने किराया छोड़ दिया, क्योंकि वह अपनी व्यावसायिक सजावट भंग नहीं करना चाहता था। यह भी गौरतलब है कि परिसर में रिक्शा और साइकिल पार्क करने की इजाजत नहीं। मोटरबाइक और कार पार्क की जाती है। क्या इसका यह अर्थ नहीं कि मॉल में आम आदमी का प्रवेश वर्जित है। यह खरीदारों के लिए बसाई गई बस्ती है। ‘बाजार से गुजरा हूं लेकिन खरीदार नहीं’ लिखने वाला शायर भी यहां प्रवेश नहीं कर सकता। सामान्य जीवन से भी कविता खारिज कर दी गई है। तुकबंदी की इजाजत है। हुक्मरान अनुप्रास को श्रेष्ठ अलंकार मानता है।
विगत सदी के चौथे दशक में पेरिस में पहला मॉल खुला। दार्शनिकबेंजामिन फ्रैंकलिन ने कहा कि ये मॉल पूंजीवादी व्यवस्था के परचम हैं परंतु कालांतर में इन्हीं के कारण पूंजीवादी व्यवस्था ठप्प हो जाएगी। एकल सिनेमा में सामान्य बैठक व्यवस्था होती है, परंतु मॉल में पुशबैक कुर्सी होती है, जिस पर पसर कर फिल्म देखी जा सकती है। दर्शक ऊंघते हुए देखता है और देखते-देखते ऊंघने लगता है, सोई-सोई आंखों से सोता है। जब कोई स्वप्न उसे काटता है, तब वह पूरी तरह जाग जाता है। बैठने की यह व्यवस्था आधे-अधूरे लोगों को बड़ी रास आती है।
मॉल में स्थित सिनेमाहॉल में पॉपकॉर्न चबाया जाता है। इसकी ध्वनि एकल सिनेमा में मूंगफली खाने से अलग होती है। पैकिंग ऐसी की जाती है कि पैकेट फूला-फूला सा दिखता है, परंतु उसके भीतर माल कम होता है। हवा के दाम चुकाए जाते हैं। लॉस एंजिल्स की दुकान पर पांच डॉलर में धूप का डिब्बा खरीदा गया। खोलने पर उसे खाली पाया तो दुकानदार ने कहा कि उसने धूप को धूप कहकर ही बेचा है, कोई ठगी नहीं की गई है। बाजार व्यवस्था का अदृश्य नियम ठगना ही है। सारा खेल इस पर निर्भर करता है कि ग्राहक किस हद तक ठगा जाना पसंद करता है। मतदाता झूठे वादों पर यकीन करता है, तब शिकायत कैसी? आजकल ओटीटी प्लेटफाॅर्म के लिए फिल्में बनाई जा रही हैं। मोबाइल की स्क्रीन पर भी फिल्म देख सकते हैं परंतु सिनेमाघर में फिल्म देखना एक अलग अनुभव है। फोटोग्राफी और ध्वनि का अनुभव विरल है। सिनेमाघर में बैठा दर्शक थोड़े समय के लिए स्थान और समय बोध से मुक्त हो जाता है। इसे लगभग अध्यात्मिक अनुमान मान सकते हैं। दृश्यों के ठीकरे से आत्मा मांजी जा सकती है। फिल्म उद्योग पर भांति-भांति के कर लगाए गए हैं, परंतु सरकार इस उद्योग की कोई सहायता नहीं करती। वार्षिक पुरस्कार का मजमा भी मंत्री और अफसर के परिवार के लिए जमाया जाता है। फिल्म ‘चोरी-चोरी’ (1956) का गीत याद आता है- ‘जो दिन के उजाले में ना मिला दिल ढूंढें ऐसे सपने को इस रात की जगमग में डूबी मैं ढूंढ रही हूं अपने को...’
फिल्म उद्योग का हाल उस अनारकली की तरह है, जिसे सलीम मरने नहीं देगा और अकबर जीने नहीं देगा।