ओट / हरि भटनागर

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाहर की साफ़-सफ़ाई के लिए नया जमादार मिल गया।

पहले जो जमादार था, बहुत ही गड़बड़ था। हर वक्‍़त दारू चढ़ाए रहता और काम पर भी रोज़ नहीं आता था। एक दिन आता, चार दिन ग़ायब। ऊपर से हर दिन पैसे की माँग। तंग आ गया था मैं उससे। मुझे बाहर की सफ़ाई तो करनी ही पड़ती, कचरा अलग उठाकर ले जाना पड़ता। यह अच्‍छा हुआ, उसने खुद ही आना छोड़ दिया।

नया जमादार ढंग का लग रहा है। कोई ऐब नहीं दिख रहा है उसमें, सिवाय खैनी-सुर्ती के। लगता है, ढंग से काम करेगा।

सुबह जब वह काम पर आया तो उसके साथ उसकी घरवाली भी थी। उसकी घरवाली थी तो गहरे काले रंग की, मगर नाक-नक्‍़श उसके तीखे और ध्‍यान खींचते थे। साफ़-धुले कपड़े और ढंग से की गई चोटी। लम्‍बी माँग में माथे पर सूत भर सिन्‍दूर। छोटी लाल बिन्‍दी और नाक में चमकती लौंग। अपनी धज में वह जमादारिन नहीं लग रही थी।

काम के दौरान राजू एक तरफ़ बैठ गया, उकड़ूँ। कमीज़ की जेब से उसने खैनी निकाली, उस पर चूना डाला और देर तक मलने-पीटने के बाद दाँतों के आगे दाब ली। थोड़ी दे रत तक खैनी के रस को चुभलाने और उसके मीठे सुरूर में तैरने के बाद, उसने आसमान की ओर देखा, मानों फि़ल्‍मी गीत गाने के मूड में हो, जिसकी एक दो कड़ी उसने कंठ में गुनगुनाई भी, लेकिन पता नहीं क्‍या सोचकर वह मुस्‍कुराया। उसने पत्‍नी की ओर देखा।

उसकी घरवाली धोती को फेंटे की तरह अच्‍छे से कसकर सींकोंवाली झाड़ू का तार ठीक करने में लगी थी जो ढीला होकर हाथ में चुभ रहा था।

तार कसकर वह झाड़ू लगाने लगी। छोटा-सा चबूतरा था और तकरीबन उतना ही बड़ा बग़ीचा जिसमें अशोक के दो चार पेड़ थे और विशालकाय बोगनबेलिया जो ऊपर फैलकर छत पर चली गई थी।

जब राजू मुस्‍कुराया, ठीक उसी वक्‍़त उसकी घरवाली ने उसे देखा और यूँ ही पूछा कि वह मुस्‍कुरा क्‍यों रहा है?

राजू ने मुस्‍कुराने का कारण नहीं बताया और कंठ में अंदर ही अंदर फि़ल्‍मी गीत की कड़ी गुनगुना उठा जिसमें नायिका अपने प्रेमी को परदेश जाने से दुखी स्‍वर में रोक रही है।

राजू की घरवाली से भी नहीं रहा गया और वह भी एक नये फिल्‍मी गाने की कड़ी गुनगुनाने लगी जिसमें प्रेमी अपनी माशूका को नज़र से कभी दूर न होने की अरदास करता है।

गाने-गाने में सफ़ाई हो गई। झाड़ू पटककर राजू की घरवाली एक तरफ़ बैठ गई और पसीना पोंछने लग गई धोती के पल्‍लू से। राजू ने उठकर कनस्‍तर में कचरा भरा और मेरी ओर देखा जैसे एहसास दिला रहा हो कि कितना कचरा, कितनी गंदगी थी! सब साफ़ हो गई! लोग समझते हैं, सफ़ाई का काम सहल है, लेकिन बड़ी मेहनत का काम है, पसीने आ जाते हैं और धज बिगड़ जाती है। मेरी घरवाली को देखो, साफ़ सुथरी आई थी, गर्द से छिब गई है।

मैं मुस्‍कुराया। वह सख्‍़त बना रहा।

मैंने बीस का नोट निकला। वह मुस्‍कुरा उठा। और मेरी ओर दौड़ता हुआ-सा बढ़ा। नोट लेकर उसने माथे से लगाया और मेरे पाँवों की तरफ़ झुक गया। मेरी बढ़ती की कामना की उसने।

सुबह आठ के आस-पास दोनों का बँधा-बँधाया समय था, आने का। दोनों आते। आते ही राजू एक तरफ़ बैठ जाता, खैनी मलता-पीटता, मुँह में रखता और उसके रस में दीवाना हो, तरह-तरह के दर्दीले गीत और कुछेक की सिर्फ़ कडि़याँ गुनगुनाता कई-कई बार कि माहौल ग़मगीन हो जाता।

उसकी घरवाली झाड़ू लगाते-लगाते रुक जाती और उसका कंठ अवरुद्ध हो जाता, वह रोने-रोने को हो आती।

इसी तरह दिन बीत रहे थे कि राजू को एक बड़े काम्‍प्‍लेक्‍स में काम मिल गया। मैं डरा कि अब यह गया हाथ से! ज़ाहिर था कि कहाँ दो-चार घर और कहाँ पूरा काम्‍प्‍लेक्‍स! लेकिन मेरा डर निर्मूल साबित हुआ जब उसने घरवाली का वहाँ जमा दिया और खुद यहाँ अकेले आने लगा।

पहले दिन उसने इतने सलीके और लगन से काम किया जिसका मुझे भरोसा न था। मैं इस सोच में था कि बीवी से काम कराने वाला यह दुष्‍ट ढंग से क्‍या काम करेगा। लेकिन जब उसने काम किया तो मैं दंग था! उसने इतने अच्‍छे से सफ़ाई की कि उसकी घरवाली की भी सफाई पीछे छूट गई थी।

राजू को मैंने उस रोज़ दस का नोट दिया चाय के लिए जिसे वह लेने से मना करता रहा, आखि़र में उसने ले लिया।

राजू दुबला-पतला है, मरा-मराया सा। लगता है टी.बी. होगी; लेकिन उसे टी.बी. न थी। उसकी काठी ही ऐसी थी। वह तकरीबन तीस-एक साल का होगा, मगर पैंतालीस-पचास का आभास देता। सिर के बाल उसके खिचड़ी थे और ऐसे उलझे-लटियाये जैसे उनमें कभी पानी की बूँद न पड़ी हो। आँखें पीली-पीली बिल्‍ली की याद दिलातीं जो बाहर को निकली-सी पड़ती लगतीं। काले चुचके चेहरे पर दाढ़ी-मूँछें इतनी सघन थीं कि लगता बारीक़ जाली कसी हो। वह काफ़ी लम्‍बा था- तक़रीबन छे फुट का, थोड़ा -सा आगे का झुका। झुकाव की वजह से महसूस होता उसकी कमर में तकलीफ़ है। क्‍योंकि काम करते वक्‍त वह बायाँ हाथ कमर पर रख लेता और चेहरे पर ऐसी पीड़ा दिखती, मानों कराहने वाला है। हाथ उसके लम्‍बे-लम्‍बे बंदरों जैसे थे, काले गझिन बालों से भरे।

पाँच-छे महीने से वह रोज़ाना बिना नागे के, निश्‍चित समय पर आया। और बहुत ही तरीके से काम किया। फिर पता नहीं क्‍या हुआ कि गोल मारने लगा। एक दिन आता, दो दिन ग़ायब। दो दिन आता पाँच दिन फ़रार। चेहरे पर चिंता की सतरें चढ़ती-उतरती दिखतीं। गीत की कडि़याँ जो डूब के दर्दीले स्‍वर में गुनगुनाता था- उसके पपड़ाये होठों पर दफ़न हो गईं। मैंने कई बार घेरकर उससे हाल जानना चाहा, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया। चुप्‍पी साधे रहा।

साफ़-सफ़ाई का अब पहले जैसा हाल था- गंदगी, कचरा और बड़बड़ाता-गुस्‍साता मैं। किसी से कह सकने को लाचार।

एक सुबह जब मैं खुद सफ़ाई कर रहा था, वह आया। मैं जलकर ख़ाक़ हो गया। अंदर ही अंदर चुन-चुन के गालियाँ देने लगा कि कोई भी भला मानुस सुने तो तौबा कर ले।

वह झाड़ू लगाने के लिए बढ़ा कि मैंने तड़पकर कहा - ‘रोज़ क्‍यों नहीं आता? कहाँ चला जाता है?'

कमर झुकाए, उस पर बायाँ हाथ रखे जैसे तकलीफ़ में हो, रूखेपन से वह बोला - ‘साब, पेसे बढ़ाइये, पचास में काम नईं हो पावेगा!'

उसका लहजा मुझे खराब लगा। आदमी काम करे, फिर पैसे की माँग करे तब बात समझ में आती है- ढंग से काम नहीं, फिर पैसा काहे का! फिर भी ज़ब्‍त करता मैं बोला- ‘पैसे बढ़ जाएँगे, पहले रोज़ तो आ।'

वह बोला- ‘रोज़ आऊँगा, आप पेसे बढ़ाइए।'

-‘साठ रुपये कम हैं, ज़रा से काम के?'- मैं अकड़ा।

-‘ज़रा सा काम है तो आप कर लो' - वह तिड़ककर बोला, लेकिन तुरन्‍त ही अपने को संभाल के विनीत स्‍वर में बोलने लगा- ‘हुजूर, काम ज़रा सा हो या बड़ा सा, आना तो पड़ता है, फिर साठ-सत्तर रुपये में आज भला होता क्‍या है! मैं सीवर और दस घरों के काम से हजार कमाता हूँ, घरैतिन भी इतना खैंचती है, लेकिन कुछ बचता नहीं, सब उड़ जाता है। क्‍या करूँ साब, कुछ समझ में नईं आता!' कहते-कहते वह नोंचता हुआ-सा अपनी दाढ़ी खुजाने लगा।

-‘दो हज़ार तुझे कम पड़ते हैं, जबकि बिजली-पानी और जगह सब मुफ्‍़त!'- मैं बोला तो उसका जबाव था' - ‘हुजूर, बिटिया बीमार है, जो पैसे हाथ में आते हैं, इलाज में फुँक जाते हैं '

‘क्‍या हुआ है उसे?' -मैं नरम पड़ा- ‘तूने तो कभी जिकर भी नहीं किया उसका!'

-‘क्‍या करता जिकर करके हुजूर!' वह चुप हो गया, फिर सिर झटक कर आगे बोला- ‘समझ नईं आता हुजूर, दोनों पैर उसके सुन्‍न हैं, अब सारा जिस्‍म भी सुन्‍न होता जा रहा है। वह रोटी भी नईं खा पाती ' कहते-कहते वह फूट-फूट कर रोने लगा।

मैं सोचने लगा, कैसे-कैसे लोग हैं, कलेजे में दर्द छिपाए गला मेरा भर आया। यकायक अपने को सम्‍भालकर बोला- ‘यहाँ हमीदिया अस्‍पताल में दिखाया?'

वह रोते-रोते बोला- ‘हुजूर, सब जगह दिखला चुका हूँ, झाड़-फूँक बची थी, बो भी कर रहा हूँ, कहीं से कोई आराम नईं '

गहरी साँस लेता मैं चुप हो गया।

वह आँसू पोंछता, नाक सुड़कता, कमर पकड़े धीरे-धीरे झाड़ू लगाता रहा, फिर डुगरता चला गया।

इसके बाद वह चार-छे रोज़ ही आया होगा, फिर ऐसा ग़ायब हुआ कि छे महीने बाद दिखा। इस बीच उसकी घरवाली भी मुझे कहीं नहीं दिखी।

उस दिन तरकारी लेने जब मैं हाट जा रहा था, पुल के पास उकड़ूँ बैठा वह मिला। समूची हुलिया उसकी पहले जैसी थी, सिर्फ़ कमीज़ बदली थी। फटी, चीरे लगी कमीज़ की जगह साबुत कमीज़ वह डाटे था। बेतरह पान चाभे था और सामने की धूल भरी ज़मीन लम्‍बी पिचकारी-सी मारता जा रहा था। शराब भी अच्‍छे से खैंचे था। आँखें और भी पीली थीं, चढ़ी-चढ़ी सी।

उसे देखते ही मैं ठिठका, क़रीब जाकर बोला- ‘क्‍यों राजू, तुमने तो दिखना ही बंद कर दिया। कहाँ हो आजकल?'

मेरे कहे का उस पर कोई असर न था।

यकायक पान की पीक सामने मारता, डगमगाता-सा, नुकीली आवाज़ में वह बोला- ‘हुजूर, हमने हाथ के सारे काम छोड़ दिए, अब कुछ नईं करता!'- मुस्‍किया के वह आगे बोला- ‘घरैतिन भी नईं करती साब!' - उसने सिर झटका जैसे कोई दुःख देने वाली बात याद आ गई हो, गुस्‍साकर बोला- ‘क्‍यों करें साब काम?क्‍यों करें? हट्‌ट! हट्‌ट!!' बेतरह झल्‍लाकर उसने अपना सिर पीट लिया और एक ज़ोरदार अस्‍पष्‍ट सी आवाज़, मुँह आसमान की ओर करके, गले से बुलंद की और शांत हो गया।

मैंने कहा -‘कहीं से कोई जुगाड़ जम गई है क्‍या?'

हाथ उठाकर इनकार करता - सा बोला- ‘नई सरकार, कोई जुगाड़-फुगाड़ नहीं! बस अपन खुस्‍स हैं बहोत खुस्‍स!!!'

‘बच्‍ची कैसी है?'

-‘वह तो गुज़र गई हुजूर, अच्‍छा ही हुआ! अपाहिज जी के क्‍या करती! भगवान ने उसकी सुन ली।'

धीरे-धीरे लहराता-डगमगाता-सा वह उठ खड़ हुआ मुस्‍कुराता, जैसे उल्‍लास की तरंग में हो, धीमे स्‍वर में बोला,- ‘हुजूर, मैं तो आपके पास आता, सुकर है, आप खुद ही मिल गए'-सहसा चुप होकर उसने आस-पास नज़रे दौड़ाईं जैसे कोई सुन नहीं रहा है उसकी बात, वह आगे बाला- ‘आप मेरी झुग्‍गी में चलें, आपकी तबियत गिल्‍ल हो जाएगी।'

कहते हुए उसने मेरी कलाई पकड़ ली। पंजे उसके सड़सी जैसे सख्‍़त थे। ताक़त लगाकर किसी तरह उससे कलाई छुड़ाई और पीछे हट गया।

अपनी जगह पर झूमता नकीली आवाज़ में वह बोला - ‘ठीक है साब! आपकी मर्जी!' कहता वह बैठ गया। जेब से काग़ज़ के पुड़े में से उसने ढेर-सी गिलौरियाँ निकालीं और मुँह में ठूँस लीं। ठूँसते वक्‍़त उसने पीली-पीली चढ़ी आँखें मेरी ओर कीं और कहा- ‘हुजूर, पान-वान लेंगे? आपकी दया से कोई टोटा नईं है '

माथा सिकोड़े मैं चुप खड़ा रहा। गोया उसके पान पर लानत भेज रहा होऊँ।

उस दिन हाट करते हुए मैं यही सोच रहा था कि राजू की हुलिया बदली हुई थी और अपने को वह भारी खुश बता रहा था, फुसफुसाकर झुग्‍गी पर भी बुला रहा था, आखि़र बात क्‍या है, यह जानने की जिज्ञासा मुझे उसके ठीहे की ओर ठेल रही थी। और न चाहते हुए भी मैं चौथे दिन शाम के झुटपुटे में उसकी झुग्‍गी की ओर बढ़ा, लेकिन आधे रास्‍ते से लौट आया- यह साचेकर कि कहाँ कीचड़ में पैर फँसा रहा हूँ, भाड़ में जाय साला, अपने को क्‍या?

लेकिन दूसरे दिन मैं अपने को रोक नहीं पाया और उसकी झुग्‍गी के सामने था।

उसकी झुग्‍गी असंख्‍य पन्‍नियों से ढँकी -मुँदी थी और आस-पास की झुग्‍गियों से अलग न थी, बल्‍कि उनसे ज्‍़यादा गिराऊ हालत में थी। आगे छोटा-सा कच्‍चा गोबर लिपा चबूतरा था। टटरा नीचा था, काफ़ी झुककर अंदर जाना पड़ता होगा।

सामने नाली थी, दुर्गंध छोड़ती। ठहरी हुई-सी। मच्‍छर-मक्‍खियों से भरी। एक छोटा सा लड़का लकड़ी घुमाते हुए मच्‍छर-मक्‍खियों को मार रहा था जो उसकी गेंद पर बैठे थे। नाली पर तीन चार लचकदार बाँसों को बाँधकर रखा गया था। यह छोटा सा पुल था, झुग्‍गी में पहुँचने के लिए।

जब मैं झुग्‍गी के सामने ठिठका, राजू नशे में धुत्त बाहर टटरे के पास बैठा, मच्‍छरों को गालियाँ देता मिला। मुँह में पान ठँसा था। आँखें चढ़ी हुईं।

मुझे देखते ही वह सहसा चहक सा उठा और पुल पर डगमग दौड़ता हुआ मेरे पास आया और मेरे पाँव की ओर झुका। यकायक वह ज़ोर से बोलने लगा - ‘साब, पूरी कॉलोनी का हाल बुरा है, सब दूर सीवर लाइनें टूटी हैं, वह साला मियाँ सब के पेसे खा के भी काम नईं कराता! लेकिन हुजूर आप फिकिर न करें, अपन सब ठीक कर देंगे, आईने जेसा !'

मैंने देखा राजू पास की झुग्‍गी से निकले मजूर को देखकर ज़ोर-ज़ोर से सुनाने लगा था ताकि वह समझ ले कि सीवर का मामला है, इसलिए साहब ड्‌योढ़ी पर आए हैं।

लेकिन जैसे ही मजूर अपनी झुग्‍गी में अंदर गया। राजू ने मेरी ओर देखा, आँख मारी और मुस्‍कुराया जैसे कह रहा हो कि क्‍या चूतिया बनाया उसे!

मैंने जाने का बहाना किया कि उसके चेहरे पर रहस्‍यमयी मुस्‍कान फैल गई। आँखें चमक उठीं। मानों कह रही हों कि ऐसे-केसे चले जाओगे?

उसने अगल-बगल चौकन्‍नी निगाह दौड़ाई, उस मजूर की झुग्‍गी की ओर देखा जो अंदर चला गया था और दो-तीन झुग्‍गियों की तरफ़ देखा जिनकी आँखें और कान उसकी झुग्‍गी की तरफ़ हर वक्‍़त लगे रहते थे जैसे वे किसी टोह में हों। जब कोई न दिखा तो फिर वह जो़र से बोलने लगा, किसी को सुनाने के अंदाज़ में- ‘सरिया लाना होगा और बेलचक, काम के लिए एक छोरे को भी पकड़ना होगा, सीमेंट रेत तो होगी'- यकायक वह मेरे कान के पास फुसफुसाने लगा-‘ड्‌योढ़ी पे आए हैं तो कुछ !'

उसकी मैं बात का मर्म समझता कि उसने मेरी कलाई पकड़ ली। वही सड़सी जैसी पकड़। डगमगाता सा अब वह मुझे झुग्‍गी के अंदर खींच रहा था।

मैं कोई विरोध न कर सका और सिर नवाकर जब झुग्‍गी में घुसा तो घुप्‍प अँधेरे में कुछ सूझ नहीं रहा था।

-‘कुप्‍पी तो जला!'- तीखी किन्‍तु मद्धिम आवाज़ में, तक़रीबन दाँत पीसते हुए वह किसी से बोला।

-‘जलाई तो रई हूँ!' आवाज़ उसकी औरत की थी।

माचिस पर काड़ी की रगड़ हुई और पीली मटमैली-सी रौशनी हो उठी। जलती काड़ी पकड़े उसकी घरवाली कुप्‍पी जला रही थी। रोशनी में उसका चेहरा रोशन था, नाक में चमकती लौंग, छोटी-सी बिन्‍दी, सिन्‍दूर और आँखें- सब कुछ झिलमिल!

सहसा राजू मद्धिम आवाज़ में अस्‍पष्‍ट - सा कुछ बोलता, मुझे अकेला छोड़कर डगमगाता सा टटरे के बाहर चला गया जैसे कह रहा हो, आप बैठें, मैं बाहर हूँ।

कुप्‍पी जल चुकी थी और उसकी रोशनी में सब कुछ साफ़ था।

एक गंदी-सी मोटी नम दरी झुग्‍गी के बीचोबीच बिछी थी जिस पर अकबकाया-सा बैठा मैं झुग्‍गी का जायजा़ ले रहा था। झुग्‍गी के एक कोने में रसोई के बर्तन जमा थे और उसी के बग़ल में मोरी थी, जहाँ से पेशाब की तीखी बास आ रही थी। दूसरी तरफ लोहे का एक पुराना ज़ंग खाया बक्‍सा था जिस पर जर्जर, सड़ी रजाइयाँ और ढेर सा गूदड़। बक्‍से के पास टीन के कनस्‍तर पर कुप्‍पी थी जो अँधेरे में तिलक की तरह खिंची थी, एकदम सीधी। कुप्‍पी का हल्‍का धुँआ छत की ओर रुख किए था। पास ही प्‍लास्‍टिक की पानी भरी बाल्‍टी थी जिसमें मग तैर रहा था।

दरी के एक छोर पर राजू की घरवाली बैठी थी, हथेली के सहारे टिकी हुई। उसकी धज में ज़रा भी फ़र्क नहीं था, बल्‍कि वह और निखर आई थी, शायद प्रसाधन के साधनों ने उसके चेहरे को और भी आकर्षक बना दिया था।

मुस्‍कुराते हुए उसने मुझे पीने के लिए पानी दिया। मैंने पानी भरा गिलास ले तो लिया, लेकिन मुँह से नहीं लगाया, हाथ में लिये रहा- गंदा पानी पीने से मैं बच रहा था।

मैं तो महज़ राजू की बात का रहस्‍य जानने के लिए निकला था, दूसरी कोई बात दिमाग़ में न थी। मग़र यहाँ दूसरे ही जाल में गिरफ्‍़तार हो गया था। मैं भाग निकलना चाहता था लेकिन पता नहीं क्‍या था जो मुझे दबोचे बैठा था और लाचार-सा मैं वह सब कुछ करने को उतावला था जिसे मैं कभी क़बूल न करता।

सहसा तेल न होने के कारण या बत्ती नीचे खिसकने के कारण कुप्‍पी डूबने-डूबने को हुई

बड़े तूफान के बाद नाव-सा मैं नदी के किनारे पड़ा था

सहसा मैं झुग्‍गी के बाहर आया। राजू की ओर सौ का नोट फेंका और घर की ओर सरपट भागा। एक अव्‍यक्‍त सा अपराध बोध था जिसके तले मैं दबा जा रहा था और तेज़ी से भागते हुए घर पहुँच जाना चाहता था मानों घर पहुँचकर उससे छुटकारा पा जाऊँगा।

उस दिन पूरी रात और दूसरे दिन शाम तक मैं गहरे अफ़सोस और अपराध बोध में रहा। लेकिन जब रात गाढ़ी हुई, पता नहीं क्‍या हुआ, मैं पूरी तरह उससे मुक्‍त था और राजू की झुग्‍गी के पास खड़ा था।

और सच कहूँ, उस रात के बाद मैं रोज़ाना रात के अँधेरे में उसकी झुग्‍गी पर पहुँचने लगा। राजू की घरवाली में पता नहीं ऐसा क्‍या था जो मुझे खींचता था और मैं बेबस-सा उसकी तरफ़ खिंचता चला जाता, ग़फ़लत की हालत में।

इस तरह दिन बीतते जाते थे।

मैं आता और राजू के इशारे के बिना, अब निधड़क टटरा सरकाता और झुग्‍गी में घुस जाता। राजू का वह ख़ौफ़ भी जाता रहा जो पहले, शुरू के दिनों में आसपास की चौकन्‍नी निगाहों के लिए हुआ करता था।

उस रात जब दूधिया चाँदनी बरस रही थी और हवा में गुलाबी ठण्‍ड अपना जादू बिखेरे थी, मैं अपने घर से निकला और धीरे-धीरे टहलता हुआ, राजू की झुगगी के आगे आ खड़ा हुआ। राजू की घरवाली उस वक्‍़त पड़ोसन के टटरे के पास खड़ी उससे बतिया रही थी। राजू अपने टटरे के आगे नशे में झूमता, बुरी तरह चाभे पान के बीच फि़ल्‍मी गीत की कोई कड़ी चील की टिहकारी की तरह आलाप रहा था कि मैंने खाँसा।

मैंने खाँसा इसलिए कि राजू की घरवाली को पता चल जाए कि मैं आ गया और वह देर न करे।

राजू की घरवाली पर कोई हरकत न होती देख मैंने दो-तीन खाँसा, फिर भी वह काठ बनी रही। और उस कंजडि़न से बतियाने में लगी थी। अब मैं बाहर रुक न सका। भयंकर गुस्‍से में भर गया। एकाएक मैंने ज़ोर से टटरा सरकाया और झुग्‍गी के अंदर चला गया। दिमाग़ में गालियाँ मार कर रही थीं कि साली ने मेरी ओर देखा तक नहीं, न उसका एहसास दिलाया एहसास भर दिला देती तो तसल्‍ली हो जाती, फिर देर से आती; लेकिन उसने ऐसा कुछ न किया। यह तो हद है इंतज़ार करता मैं उसे मन ही मन कुचल रहा था

इंतज़ार मुझे उतना छेद नहीं रहा था जितनी जान-बूझकर बरती गई उपेक्षा। मैं तड़प रहा था उसमें कि वह आई।

वह ख़ासी नाराज़ थी और मुझसे कहे जा रही थी - ‘सबके सामने तो खाँसा-खूँसा न करो।'- एकाएक वह रुआंसी हो आई- ‘उस कमीन के सामने मुझे कितना नीचा देखना पड़ा, मैं ही जानती हूँ उसने कुछ कहा नहीं लेकिन उसकी आँखें सब कुछ कह रही थीं'- आँखों से आँसू बह निकले उसके - ‘थोड़ा सबर करते, मैं तो खुद आती, बिना बुलाए '